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श्रीपाल - चरितम्
॥ १६१ ॥
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अर्थ - श्रीपालके भवसे नवमे भवमें मनुष्यभव पाके कर्म समूहका क्षय करके मोक्ष जावेगा ॥ १३०२ ॥ एवं भोमगहेसर, कहियं सिरिपालनरवरचरितं । सिरिसिद्धचक्क माहप्प, संजुयं चित्तचुज्जकरं ॥ १३०३ ॥ अर्थ - श्रीगौतम स्वामी श्रेणिक राजासे कहे है हे मगधेश्वर इस प्रकारसे श्रीपाल राजाका चरित्र कहा कैसा चरित्र सिद्धचक्र के माहात्म्यसहित और लोकोंके चित्तमें आश्चर्य करनेवाला ॥। १३०३ ॥
तं सोऊणं सेणियराओ, नवपयसमुहसियभावो । पभणेइ अहह केरिस, मेयाण पयाण माहप्पं ॥१३०४ ॥ अर्थ — उन श्रीपालके चरित्रको सुनके श्रेणिक राजा नवपदोंमें उल्लास पाया है मन जिसका ऐसा प्रकर्षपनेकर कहे। अहह इति आश्चर्ये इन नवपदोंका कैसा अचिंत्य माहात्म्य वर्ते है ॥ १३०४ ॥
तो भणइ गणी नरवर, पत्तं अरिहंतपयपसाएणं । देवपालेण रज्जं, सक्कत्तं कत्तिएणावि ॥ १३०५ ॥
अर्थ — तदनंतर गणधर श्रीगौतमस्वामी कहे हे राजन् अरहंत पदके प्रसादसे देवपाल नाम सेठके सेवकने राज्य पाया और कार्तिक सेठने भी इन्द्रपना पाया इन्होंकी कथा कहनी ॥। १३०५ ॥ सिद्धपयं झायंता, के के सिवसंपयं न संपत्ता । सिरिपुंडरीयपंडव, पउममुणिंदाइणो लोए । १३०६ ॥ अर्थ - सिद्ध पदको याते हुए लोकमें श्रीपुण्डरीक पाण्डव और रामचन्द्रादिक कौन २ शिवसम्पदा मुक्ति समृद्धि नहीं पायीं किंतु बहुतोंने पाई है । १३०६ ॥
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2 भाषाटीकासहितम्.
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