Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 321
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् RAA4405RESSASSA अर्थ-जिस तपके प्रसादसे आमर्षऔषधिप्रमुख अनेक प्रकारकी लद्धियां होवें हैं उस तपपदको मैं नमस्कार ६ भाषाटीकाकरूं॥ १२९४ ॥ | सहितम्. कप्पतरुस्स व जस्सेरिसाउ, सुरनरवराण रिद्धीओ।कुसुमाइं फलंच सिवं, तं तवपयमेस वंदामि॥१२९५॥ ___ अर्थ-कल्प वृक्षके सदृश जिस तपका देवेन्द्र और राजाओंकी सम्पदा पुष्प है और मोक्षसुख फलवर्ते है उस तपपदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९५॥ अच्चंतमसज्झाइं, लीलाइवि सबलोयकज्जाइं। सिजति झत्ति जेणं, तं तवपयमेस वंदामि ॥ १२९६ ॥ अर्थ-अत्यन्त साधनेको अशक्य सर्वलौकिककार्य जिस तपके प्रभावसे लीलासे सिद्ध होवे है उस तपपदको मैं |नमस्कार करूं ॥१२९६ ॥ दहिदुखियाइमंगल,-पयत्थसत्थंमि मंगलं पढमं । जं वन्निजइ लोए, तं तवपयमेसवंदामि ॥१२९७॥ &ा अर्थ-लोकमें दही दुर्वादिक मंगल पदार्थोंके समूहमें जो तप पहला मंगल वर्णन किया जावे है भावमंगल रूप होनेसे उस तप पदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९७ ॥ ॥१६.॥ एवं च संथुणंतो, सोजाओनवपएसुलीणमणो।तह कहवि जहा पिक्खइ,अप्पाणं तंमयं चेव ॥१२९८॥ ABSOROSARIKAASHASANSOMNAAM For Private and Personal Use Only

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