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श्रीपालचरितम्
RAA4405RESSASSA
अर्थ-जिस तपके प्रसादसे आमर्षऔषधिप्रमुख अनेक प्रकारकी लद्धियां होवें हैं उस तपपदको मैं नमस्कार ६ भाषाटीकाकरूं॥ १२९४ ॥
| सहितम्. कप्पतरुस्स व जस्सेरिसाउ, सुरनरवराण रिद्धीओ।कुसुमाइं फलंच सिवं, तं तवपयमेस वंदामि॥१२९५॥ ___ अर्थ-कल्प वृक्षके सदृश जिस तपका देवेन्द्र और राजाओंकी सम्पदा पुष्प है और मोक्षसुख फलवर्ते है उस तपपदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९५॥ अच्चंतमसज्झाइं, लीलाइवि सबलोयकज्जाइं। सिजति झत्ति जेणं, तं तवपयमेस वंदामि ॥ १२९६ ॥
अर्थ-अत्यन्त साधनेको अशक्य सर्वलौकिककार्य जिस तपके प्रभावसे लीलासे सिद्ध होवे है उस तपपदको मैं |नमस्कार करूं ॥१२९६ ॥
दहिदुखियाइमंगल,-पयत्थसत्थंमि मंगलं पढमं । जं वन्निजइ लोए, तं तवपयमेसवंदामि ॥१२९७॥ &ा अर्थ-लोकमें दही दुर्वादिक मंगल पदार्थोंके समूहमें जो तप पहला मंगल वर्णन किया जावे है भावमंगल रूप होनेसे उस तप पदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९७ ॥
॥१६.॥ एवं च संथुणंतो, सोजाओनवपएसुलीणमणो।तह कहवि जहा पिक्खइ,अप्पाणं तंमयं चेव ॥१२९८॥
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