Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 328
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं च इमेसि पयाणं, कित्तियमित्तं इमं तए नायं । जं सव्वाणसुहाणं, मूलं आराहणमिमेसिं ॥ १३२४ ॥ अर्थ - यह नवपदोंका माहात्म्य तुमने कितना जाना है अर्थात् थोड़ाही जाना है इस कारणसे इन पदोंका आराधन सर्व सुखोंका मूल वर्ते है ॥ १३२४ ॥ एयाराहण मूलं च पाणिणं केवलो सुहोभावो । सो होइ धुवं जीवाण, निम्मलप्पाण नन्नेसिं १३२५ अर्थ - यह नवपदोंके आराधनका मूल कारण प्राणियोंके केवल एक शुभभाव है जो शुभभाव निश्चय निर्मल आत्मा जिन्होंका उन जीवोंके होवे है अशुद्ध आत्मा जिन्होंका ऐसे जीवोंके न होवे ॥ १३२५ ॥ जेविय संकष्पवियप्प, वज्जिया हुंति निम्मलप्पाणो । ते चेव नवपयाई, नवसु पएसुं च ते चैव ॥१३२६॥ अर्थ - जिकेभी संकल्प विकल्प वर्जित छोड़ा है संसारिक शुभ अशुभ विचार जिन्होंने ऐसे निर्मल है आत्मा जिन्होंका ऐसे जीव नवपदों में हैं ॥ १३२६ ॥ जं झाया झायंतो, अरिहंतं रूवसुपयपिंडत्थं । अरिहंतपयमयंचिय, अप्पं पिक्खेइ पञ्चक्खं ॥ १३२७ ॥ अर्थ — कहे हुए अर्थकोही दृढ़ करते हैं जिस कारण से ध्यान करनेवाला ध्याता पुरुष रूपस्थ १ पदस्थ २ पिण्डस्थ ३ अरहन्त परमात्माको ध्याता हुआ प्रत्यक्ष अर्हत पद मई अर्हत पद स्वरूप आत्माको देखे वहां रूपस्थ सर्वअतिशय For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 326 327 328 329 330 331 332 333 334