Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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रयणत्तएण सिवपह,-संसाहणसावहाणजोगतिगो, साहू हवेइ एसो, अप्पुच्चिय निच्चमपमत्तो १३३१
अर्थ-रत्नत्रयज्ञान, दर्शनचारित्ररूप मोक्षमार्गके साधनेमें सावधान मन, वचन कायारूप तीनयोग जिसका ऐसा और निरंतर प्रमादरहित यह आत्मा ही साधु होवे है ॥१३३१॥ मोहस्सखओवसमा, समसंवेगाइ लक्खणं परमं । सुहपरिणाममयं, नियमप्पाणं दंसणं मुणह ॥१३३२॥ __ अर्थ-मोहका क्षयोपशमसे उत्कृष्ट शुभ परिणाम मई अपने आत्माको सम्यक्त्व जानो कैसा सम्यक्त्व सम समवेगादि लक्षण है जिसके ऐसा ॥ १३३२॥ नाणावरणस्स खओ,-वसमेण जहट्टियाण तत्ताणं। सुद्धावबोहरूवो, अप्पुच्चिय वुच्चए नाणं॥ १३३३॥ ___ अर्थ-ज्ञानावरणी कर्मके क्षय उपशमसे जो यथावस्थित सद्भूत जीवादितत्वोंका शुद्धज्ञान स्वरूप जिसका ऐसा ४ आत्माही ज्ञान कहा जावे ॥१३३३ ॥
सोलसकसायनवनोकसाय, रहियं विसुद्धलेसागं । ससहावठियं अप्पाण,-मेव जाणेह चारित्तं ॥१३३४॥ . अर्थ-क्रोधादिक सोलह १६ कषाय हास्यादिक नव नोकषाय इन्होंसे रहित इसी कारणसे निर्मल लेश्या जिनकी ऐसा स्वभावमें रहाहुआ आत्मा चारित्र जानो ॥१३३४॥ इच्छानिरोहओ, सुद्धसंवरो परिणओय समयाए । कम्माइं निजरंतो, तवोमओ चेव एसप्पा ॥१३३५॥
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