Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श www.kobatirth.org ENINION ole roleNOCNI INC पू. आ. श्री विजयरामचन्द्रस्मृतिसंस्कृत- प्राकृत ग्रंथमाला क्रमांक - ७ श्रीनयविमल अपरनामाचार्य श्रीमद्ज्ञानविमलसूरिकृतम् ।। श्रीश्रीपालचरित्रम् ।। सम्पादकाः - पूज्याचार्य श्रीमद्विजयकीर्तियशसूरीश्वराः प्रकाश सन्मार्ग प्राशन C/o. न आराधना भवन, पाछीयानी पोण, रीसी रोड, अमावाह- १. शेन प३५२०७२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ जिनदत्तसूरिपुस्तकोद्धारफंड-ग्रंथाङ्क २६ ॥ ॥श्री भाषाटीकासहितम् प्राकृत ॥ ॥श्रीपालचरित्रम् ॥ ASSASSISKOSHUA ॥ॐ अहं ॥ प्रणम्य परया भक्त्या, यंत्रं श्रीसिद्धिचक्रक, श्रीश्रीपालचरित्रस्य, व्याख्यानं लोकभाषया ॥१॥ क्रियते इति शेषः ॥ अरिहाइ नवपयाइं झाइत्ता हिययकमलममि । सिरि सिद्धचकमाहप्पमुत्तमं किंपि जंपेमि ॥१॥ __ अर्थ-श्रीअर्हतादिक नवपदोंको हृदय कमलमें ध्यायके उत्तम श्रीसिद्धचक्र यंत्रराजका माहात्म्य किंचित् कहता हूं ॥२॥ अस्थित्थ जम्बुद्दीवे, दाहिणभरहद्ध मज्झिमे खंडे। बहुधणधन्नसमिद्धो, मगहादेसो जगपसिद्धो॥२॥3 अर्थ-इस जम्बुद्वीपमें दक्षिण भरतार्द्धके मध्यमखंडमें बहुत धन धान्य करके समृद्ध जगतमें प्रसिद्ध मगध नामका देश है ॥२॥ SHASHASHSASSASSING श्रीपा.च.१ For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जत्थुप्पन्नं सिरि वीरनाह, तित्थं जयंमि वित्थरियं । तं देतं सविसेसं, तित्थं भासंति गीयत्था ॥ ३ ॥ भाषाटीका अर्थ — जिस मगध देशमें श्रीमहावीरस्वामीका तीर्थ उत्पन्न भया और जगत् में विस्तार पाया उस देशको गीतार्थ विशेष करके तीर्थ कहते हैं ॥ ३ ॥ सहितम्. तत्थय मगहा देसे, रायगिनाम पुरवरं अस्थि । वेभार विउल गिरिवर, समलंकिय परिसरपएसं ॥ ४ ॥ अर्थ — उस मगधदेशमें राजगृह नामका प्रधान नगर है कैसा है नगर वैभारगिरि विपुलगिरि पर्वतोंसे आसपासका भाग शोभित है जिसका ऐसा ॥ ४ ॥ तत्थय सेणिय राओ, रज्जं पालेइ तिजय विरकाओ । वीर जिण चलण भत्तो, विहिअज्जिय तित्थयरगुत्तो ५ अर्थ — उस राजग्रह नगर में श्रेणिक नामका राजा राज्य पालता है कैसा है राजा तीन जगत्में प्रसिद्ध है और श्रीमहावीरस्वामीके चरणोंका भक्त है ॥ विधिसे उपार्जन किया है तीर्थंकर नाम कर्म जिसने ऐसा ॥ ५ ॥ जस्सत्थि पढमपत्ती, नंदानामेण जीइ वरपुत्तो । अभयकुमारो बहुगुणसारो चउबुद्धिभंडारो ॥ ६ ॥ अर्थ — जिस श्रेणिक राजाके पहली रानी नंदा नामकी है उसके प्रधान पुत्र अभयकुमार नामका बहुतगुणोंसे श्रेष्ठ है | और चार बुद्धिका भंडार है ॥ ६ ॥ For Private and Personal Use Only ॥ १ ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेडयनरिंद धूया, वीया जस्सत्थि चिल्लणादेवी । जीए असोगचंदो, पुत्तो हल्लोविहल्लोय ॥७॥ 18. ___ अर्थ-जिस श्रेणिक राजाके दूसरी रानी चेडा महाराजकी पुत्री चेलणा नामकी है जिस चेलणाका प्रथम पुत्र ४ अशोकचंद्र कोणिक १ दूसरा हल्ल २ तीसरा विहल्ल ३ यह तीन पुत्र हैं ॥७॥ अन्नाओ अणेगाओ, धारणिपमुहाउ जस्स देवीओ। मेहाइणो अणेगे, पुत्ता पियमाइपयभत्ता ॥८॥ है| अर्थ-औरभी अनेक धारणी प्रमुख जिस श्रेणिक राजाके रानियां हैं जिन्होंकी कुक्षिसे उत्पन्न भए मेघकुमारादि अनेक पुत्र हैं कैसे हैं पुत्र पिता माताके चरणोंके भक्त हैं ॥८॥ सोसेणिय नरनाहो, अभय कुमारेण विहिय उच्छाहो। तिहुयण पयड पयावो, पालइ रज्जं च धम्मं च॥९॥2 | अर्थ-वह श्रेणिक राजा अभयकुमार करके किया है उत्साह जिसको ऐसा और तीनभुवनमें प्रगट प्रताप | जिसका ऐसा राज्य और धर्म पालता है ऐसा ॥९॥ एयंमि पुणो समए, सुरमहिओ वद्धमाणतित्थयरो। विहरतो संपत्तो, रायगिहासन्न नयरंमि ॥ १०॥ ___ अर्थ-इस समयमें देवोंकरके पूजित श्रीमहावीरस्वामी तीर्थकर विचरते भए राजग्रहके समीप नगरमें आए ॥१०॥ पेसेइ पढम सीसं, जिटुं गणहारिणं गुणगरिहें। सिरि गोयमं मुणिंदं, रायग्गिहलोय लाभत्थं ॥११॥ MEROLAGAMASALARE For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल चरितम् ॥२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — तदनंतर भगवान अपने प्रथमशिष्य बड़े गच्छको धारनेवाले ऐसे गणधर गुणोंकरके गरिष्ठ श्रीगौतम मुनीन्द्रको राजग्रह नगरके लोगोंके लाभके अर्थ भेजते भए ॥ ११ ॥ सोलद्ध जिणाएसो, संपत्तो रायगिहपुरोज्जाणे । कइवय मुणि परियरिओ, गोयमसामी समोसरिओ १२ अर्थ — वह गौतमस्वामी तीर्थंकरकी आज्ञा पाकर राजग्रह नगर के उद्यानमें प्राप्त भए कितनेक मुनि हैं साथमें जिन्होंके ऐसे वहां समवसरे ॥ १२ ॥ तस्सागमणं सोउं, सयलो नरनाह पमुहपुरलोओ। नियनिय रिद्धि समेओ, समागओ झत्ति उज्जाणे ॥१३॥ अर्थ — श्रीगौतमस्वामीका आगमन सुनके सर्व राजा प्रमुख नगरके लोग अपनी अपनी ऋद्धिः सहित शीघ्र उद्यानमें आए ।। १३ ॥ पंचविहं अभिगमणं, काउं तिपयाहिणा उ दाऊण । पणमिय गोयमचलणे उवविट्ठो उचियभूमीए १४ | अर्थ - पांच प्रकारका अभिगमन सचित्त द्रव्यका वोसराणा १ अचित्त द्रव्यका नहीं वोसराणा २ उत्तरासन करना ३ अंजलि करना ४ और मन बचन कायाका एकत्व करना यह पांच अभिगमन करके और तीन प्रदक्षिणा देके गौतम स्वामीके चरणों में वंदना करके अपने अपने योग्य भूमिपर बैठे ॥ १४ ॥ | भयकंपि सजल जलहर, गंभीर सरेण कहिउ माढत्तो । धम्मसरूवं सम्मं, परोवयारिक्क तलिच्छो ॥१५॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीका सहितम्. ॥ २ ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AURANGACARE | अर्थ-भगवान् गौतमस्वामीभी जलसहित मेघके सदृश गंभीर स्वरसे सम्यक् धर्मका स्वरूप कहना प्रारंभ किया P कैसे हैं भगवान परोपकार करनेकी इच्छाहें जिन्होंकी ॥ ऐसे परोपकार करने में तत्पर ॥१५॥ भो भो महाणुभागा, दुल्लहं लहिऊण माणुसं जंमं। खित्त कुलाइ पहाणं, गुरु सामग्गिं च पुन्नवसा ॥१६॥ | अर्थ-अहो महानुभावो भाग्यवंतो पुन्यके वससे दुर्लभ मनुष्य भव पाके और प्रधान आर्यक्षेत्र कुलादिपायके और सद्गुरुका संयोगपायके ॥ १६॥ पंचविहंपि पमायं, गुरुयावायं विवजिउ झत्ति । सद्धम्मकम्मविसए, समुजमो होइ कायवो ॥ १७॥ | | अर्थ-मद १ विषय २ कषाय ३ निद्रा ४ विकथा ५ ये पांच बहुतकष्टका कारण ऐसा प्रमाद शीघ्र छोड़के 3 सम्यक् धर्मकार्यके विषय उद्यम करना योग्य है ॥ १७॥ सो धम्मो चउभेओ, उवइट्टो सयलजिणवरिंदेहि। दाणंसीलं च तवो, भावोविय तस्सिमे भेया॥१८॥ 8अर्थ-वह धर्म चार प्रकारका सम्पूर्ण तीर्थकरोंने कहा है चार भेद यह हैं दान १ शील २ तप ३ भाव ४॥ १८॥3 तत्थवि भावेण विणा, दाणं नह सिद्धिसाहणं होइ।सीलंपि भाव वियलं, विहलं चिय होइ लोगंमि॥१९॥ । अर्थ-वहांभी भावविना दान सिद्धिसाधक अर्थात् मोक्ष देनेवाला न होवे निश्चय सीलभी भावरहित लोकमें| निष्फलही होवे है ॥ १९॥ CAMSAMACHAOUDAUSA For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् सहितम्. SUCCESS भावं विणा तवोवि हु, भवोहवित्थारकारणं चेव । तम्हा नियभावुच्चिय, सुविसुद्धो होइ कायवो ॥२०॥||भाषाटीका__अर्थ-भावविना तपभी भवसमूहके प्रवाहका विस्तार करनेवालाही है अर्थात् भवभ्रमण कारण है मुक्तिका ४ कारण नहीं है । इस कारणसे अपना भावही अतिशय निर्मल करने योग्य है ॥ २०॥ भावोवि मणो विसओ, मणं च अइदुज्जयं निरालंबं । तो तस्स नियमणत्थं, कहियं सालंबणं झाणं ॥२१॥ | अर्थ-भावभी मनोविषई है और मन आलंबनरहित अत्यन्त दुर्जय है अर्थात् जीतना मुशकिल है इस कार-16 ठाणसे मनको वश करनेके अर्थ सालंबन ध्यान कहा है ॥ २१ ॥ आलंबणाणि जइ विह, बहुप्पयाराणि संति सत्थेसु । तह विह नवपयझाणं, सुपहाणं विंति जगगुरुणो २२ | अर्थ-यद्यपि शास्त्रों में बहुतप्रकारके आलंबन कहे हैं तथापि निश्चय करके जगद्गुरु श्रीतीर्थकरदेव नवपदोंका टू ध्यान अतिशय प्रधान आलंबन कहा है अब नव पदोंके नाम कहे हैं ॥ २२॥ अरिहं सिद्धायरिया, उवझाया साहुणो य सम्मत्तं । नाणं चरणं च तवो, इय पयनवगं मुणेयवं ॥२३॥ ___ अर्थ-अरहंत १ सिद्ध २ आचार्य ३ उपाध्याय ४ साधु ५ सम्यक्त्व ६ ज्ञान ७ चारित्र ८ तप ९ यह नवपद का नाम जानना ॥२३॥ तत्थ रिहंतेवारसदोस, विमुक्के विसुद्ध नाणमए। पयडियतत्ते नयसुरराए झापह निच्चपि ॥ २४ ॥ 15 *** SHISAISAS For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - नव पदोंमें प्रथम पदमें निरंतर अरहंतोंको तुम ध्यावो कैसे अरहंत अठारह दोषरहित और निर्मल जो ज्ञान वोही है स्वरूप जिन्होंका और प्रगट किया है तत्व जिन्होंने और इन्द्रोंने नमस्कार किया है जिन्होको ऐसे ॥ २४ ॥ पनरसभेय पसिद्धे, सिद्धे घणकम्मवंधणविमुक्के । सिद्धाणंत चउक्के, झायह तम्मयमणा सययं ॥ २५ ॥ अर्थ - अहो भन्यो तुम सिद्धमय है मन ऐसे जिन अजिनादि पन्द्रह भेदोंसे प्रसिद्ध ऐसे सिद्धोंको निरंतर ध्याओ कैसे हैं सिद्ध कर्मबंधनसे रहित और निष्पन्न हुआ है अनंत चतुष्क ज्ञान १ दर्शन २ सम्यक्त्व ३ अकर्ण वीर्य जिन्होंके ऐसे ॥ २५ ॥ पंचायारपवित्ते, विसुद्ध सिद्धंत देसणुजुत्ते । परउवयारिक्कपरे, निच्चं झाएह सूरिवरे ॥ २६ ॥ अर्थ - अहो भन्यो तुम निरंतर आचार्योंको ध्यावो कैसे आचार्य ज्ञानाचार १ दर्शनाचार २ चारित्राचार ३ तपाचार ४ वीर्याचार ५ ये पांच आचारसे पवित्र निर्मल और विशुद्ध सिद्धान्त जिनागमकी जो देशना उसमें उद्यमवंत और परोपकारही एक प्रधान है जिन्होंके उसमें तत्पर ऐसे ॥ २६ ॥ गणतत्तीसु निउत्ते, सुत्तत्थझाणंमि उज्जुत्ते । सझाए लीणमणे, सम्मं झाएह उवझाए ॥ २७ ॥ अर्थ - अहो भव्यो तुम सम्यक जैसे होवे वैसा उपाध्यायोंकों ध्यावो कैसे उपाध्याय गच्छकी त्रप्तिः सारणा १ For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥४॥ वारणा २ चोयणा ३ पडिचोयनामें अधिकारी और सूत्रार्थका अध्ययन करानेमें उद्यमवंत स्वाध्यायमें लगा है मनभाषाटीकाजिन्होंका ऐसे ॥२७॥ | सहितम्. सवासु कम्मभूमिसु, विहरते गुणगणे हि संजुत्ते । गुत्ते मुत्ते झायह, मुणिराए निट्ठिय कसाए ॥२८॥ ___ अर्थ-अहो भव्यो तुम सर्व कर्मभूमिमें पांच ५ भरत ५ ऐरवत पांच महाविदेह इन १५ क्षेत्रोंमें विचरते मुनि राजोंको ध्यावो कैसे मुनिराज गुणोंके समूहोंसे युक्त ३ गुप्तिसहित सर्वसंगरहित दूर किया है कषाय जिन्होंने 3 ऐसे ॥२८॥ सबन्नु पणीयागम, पयडिय तत्तत्थ सदहण रूवं । दंसण रयण पईवं, निच्चं धारेह मणभवणे ॥ २९॥1* | अर्थ-अहो भव्यो सर्वज्ञोंने कहे सिद्धान्तोंमें प्रगट किया तत्वरूप अर्थ उन्होंका जो श्रद्धान वह है स्वरूप जिसका ऐसा सम्यक्त्वरूप रत्नदीपक निरंतर मनमंदिरमें धारो ॥२९॥ जीवाजीवाइ पयस्थ, सत्थ तत्ताववोह रूवं च । नाणं सवगुणाणं, मूलं सिक्खेह विणएण ॥ ३०॥ । अर्थ-अहो भब्यो जीवाजीवादिक पदार्थोंका समूह उन्होंका जो तत्वावबोध तत्वज्ञान स्वरूप जिसका ऐसा ज्ञान | | विनय करके तुम सीखो कैसा है ज्ञान सर्व गुणोंका मूल कारण है ॥ ३०॥ ॥४ ॥ असुह किरियाण चाओ, सुहासु किरियासुजोय अप्पमाओ।तं चारित्तं उत्तम, गुणजुतं पालह निरुत्तं ३१ CAUSALSALMALS For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - जो अशुभक्रिया पापव्यापारोंका त्याग और शुभक्रिया निरवद्यव्यापारोंमें अप्रमाद प्रमाद नहीं करना वह चारित्र तुम पालो कैसा चारित्र उत्तम गुणों करके युक्त और कैसा निरुक्त पदभंजनसे निष्पन्न भया सो कहते हैं। चयनाम ८ कर्मका संचय रिक्त खाली होय जिससे वह चारित्र कहिये ॥ ३१ ॥ घणकम्म तमोभरहरण, भाणु भूयं दुवालसंगधरं । नवरमकसायतावं चरेह सम्मं तवो कम्मं ॥ ३२ ॥ अर्थ - अहो भव्यो तुम अच्छी तरहसे तप क्रिया अंगीकार करो कैसा है तप धनकर्म मजबूत ज्ञानावरणी आदि कर्मही अंधकारका समूह उसके दूर करने में सूर्यसमान और कैसा तप बारह अंगका धारनेवाला तपका १२ भेद होनेसे लोकमें १२ सूर्यरूढ़ होनेसे परंतु सूर्य ताप करनेवाला है कषायरहित तप तापरहित है ॥ ३२ ॥ एयाई नवपयाई, जिनवरधम्मंमि सारभूयाइं । कल्लाणकारणाई, विहिणा आराहियब्वाइ ॥ ३३ ॥ अर्थ - यह नव पद श्रीतीर्थंकरके कहे हुए धर्ममें सारभूत है इसी कारणसे कल्याणके करनेवाले हैं इस लिए विधिःसे तुमको आराधना योग्य है ॥ ३३ ॥ अन्नं व एएहिं नव पएहिं सिद्धं सिरि सिद्धचकमाउत्तो। आराहंतो संतो, सिरि सिरिपालुव लहइ सुहं ३४ अर्थ - और भी सुनो ये नव पदोंकर के निष्पन्न श्रीसिद्धचक्रको उपयोगयुक्त आराधता भया श्रीश्रीपालनामके राजाके जैसा मनुष्य सुख पाता है ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् तो पुच्छइ मगहेसो, को एसो मुणिवरिंद सिरिपालो। कहतेण सिद्धचक्कं, आराहिय पावियं सुक्खं ३५ भाषाटीका___ अर्थ-वाद गौतमस्वामीके उपदेशके अनंतर मगधदेशका स्वामी श्रेणिक राजा प्रश्न करे हे मुनिवरेन्द्र यह सहितम्. श्रीपाल कौन उन श्रीपालराजाने श्रीसिद्धचक्रको आराधके कैसे सुख पाया ॥ ३५ ॥ तोभणइमुणी निसुणसु, नरवर अक्खाणयं इमरम्म। सिरिसिद्धचक्क माहप्प, सुंदरं परमचुजकरं ॥३६॥ ___ अर्थ-तब गौतमस्वामी बोले हे राजेन्द्र हे श्रेणिक महाराज ये श्रीपाल राजासम्बन्धी मनोज्ञ कथानक श्रीसिद्ध|चक्रमाहात्म्यकरके सुंदर उत्कृष्ट आश्चर्य करनेवाला सुन ॥ ३६॥ है तथाहि इहेव भरह खित्ते दाहिण खंडंमि अस्थिसुपसिद्धो। सवढि कयपवेसो, मालवनामेण वरदेसो ३७ ₹ __ अर्थ-वही दिखाते है इसी भरतक्षेत्रके दक्षिणार्धमें मालवनामका सुप्रसिद्ध प्रधान देश है कैसा है मालवदेश सर्वऋद्धिःने किया है प्रवेश जिसमें ऐसा ॥ ३७॥ सोय केरिसो, पए पए जत्थ सुगुत्ति गुत्ता, जोगप्पवेसा इव संनिवेसा। पए पए जत्थ अगंजणीया, कुडुंवमेला इव तुंगसेला ॥ ३८॥ | ॥५॥ अर्थ-जिस मालव देशमें पगपगमें याने ठिकाने ठिकाने वाडोंकरके वेष्टित याने बीटाहुआ ऐसे सन्निवेण नाम है। CLASSEXX For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SRAEOLOCAMSAROLICAUG गांव है किसके जैसा योगमें है प्रवेश जिन्होंका ऐसे योगियोंके जैसा जिस कारणसे योगीभी मनोगुप्त्यादिकसे गुप्त होवे है और जिस देशमें ठिकाने २ नहीं उल्लंघे जाय ऐसे ऊंचे पर्वत हैं कुटुम्बमिलापके जैसे ॥ ३८॥ पए पए जत्थ रसाउलाओ, पणंगणाओव तरंगिणीओ। पए पए जत्थ सुहंकराओ, गुणवलीउब वणावलीओ ॥३९॥ अर्थ-जिस देशमें ठिकाने २ जलसेभरी हुई नदियां हैं किसके जैसी वेश्याओंके जैसी वेश्याभी श्रृंगाररससे आकुल होवे है और जिस देशमें सुखकारी वनोंकी श्रेणी है किसके जैसी गुणोंकी श्रेणीके जैसी गुणोंकी श्रेणीभी सुख करनेवाली होवे है ॥ ३९॥ पए पए जच्छ सवाणियाणि, महापुराणीव महासराणि । पए पए जत्थ सगोरसाणि, सुहीमुहाणीव सुगोउलाणि ॥ ४०॥ ___ अर्थ-जिस देशमें ठिकाने २ पानीसे भरे हुए बड़े सरोवर हैं किसके जैसे महानगरके जैसे बड़े नगरभी वानियों 51 लेकरके सहित होवे हैं और जिस देशमें ठिकाने २ शोभन गोकुल हैं दही दूधसहित हैं किसके सदृश पंडितोंके मुखके हासदृश पंडितोंके मुखभी गो नाम वाणीके रससहित होवे हैं ॥ ४० ॥ तत्थय मालवदेसे, अकय पवेसे दुकाल डमरेहिं । अत्थि पुरीपोराणा, उज्जेणी नाम सुप्पहाणा॥४१॥ KARACASUASANTARA For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-उस मालवदेशमें पुराणी उज्जैनी नामकी अतिशयप्रधान नगरी है कैसा है मालवदेश दुर्भिक्ष और उमर-भाषाटीकाचरितम् ||नाम बलात्कारसे परद्रव्य हरना यह दुःकाल डमर इन दोनोंने नहीं प्रवेश किया है जिसमें ऐसा ॥४१॥ | सहितम्. सायकेरिसा अणेगसो जत्थ पयावईओ, नरुत्तमाणं च न जत्थ संखा । महेसरा जत्थ गिहे गिहेसु, सचीवरा जत्थ समग्गलोया ॥ ४२ ॥ अर्थ-वह उज्जैनी नगरी कैसी है जिस नगरीमें अनेक प्रजापति हैं लोकमें तो एकही प्रजापति ब्रह्मा प्रसिद्ध है। है उस नगरीमें प्रजा नाम संततिके अनेक स्वामी हैं और जिस नगरीमें पुरुषोत्तमोंकी संख्या नहीं है लोकमें तो एकही पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण प्रसिद्ध है और वहां बहुत उत्तम पुरुष है और जिस नगरीमें घर २ में महेश्वर नाम महर्धिक है। लोकमें तो एकही महेश्वर प्रसिद्ध है और जिस नगरीमें सम्पूर्ण लोग सचीवर हैं लोकमें तो एकही इन्द्राणीका वर है| इन्द्र प्रसिद्ध है और वहां तो सब लोग वस्त्रसहित हैं ॥४२॥ Pघरे घरे जत्थरमंतिगोरी,रंभासिरीओय पए पएय।वणेवणे याविअणेगरंभा,रईय पीईविय ठाण ठाणे४३| ___ अर्थ-जिस नगरीमें घर २ में गौरियों जिनका रज नहीं देखा गया है ऐसी कन्या क्रीड़ा करे है लोकमें तो एकही गौरी पार्वती कैलासपर्वतपर क्रीड़ा करती भई प्रसिद्ध है उस नगरमें तो घर २ में गौरिया हैं ॥ लोकमें तो एकही|8|॥६॥ श्रीलक्ष्मी कृष्णकी स्त्री है और जिस नगरीमें तो ठिकाने २ लक्ष्मी हैं लोकमें तो एकही रंभा देवाङ्गना प्रसिद्ध है और For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च. २ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उस नगरी में तो बनोमें अनेक केलियोंके वृक्ष हैं और जहां रति प्रीति ठिकाने २ है लोकमें रति कामदेवकी स्त्री और प्रीति देवाङ्गना एक २ है वहां तो सर्वत्र परस्पर राग और प्रीति है ॥ ४३ ॥ तीसे पुरीइ सुरवरपुरीइ, अहियाइ वन्नणं काउं । जइ निउणबुद्धिकलिओ, सक्कगुरू चेव सक्केइ ॥ ४४ ॥ अर्थ — इन्द्रकी नगरीसे अधिक उस उज्जैनी नगरीका वर्णन करनेको जो निपुणबुद्धि: सहित कोई समर्थ होवे तब बृहस्पतिः ही समर्थ होवे और नही लोकरूढ़िसे बृहस्पतिः इन्द्रका गुरू कहा जावे है ॥ ४४ ॥ | तत्थत्थि पुहविपालो पयपालो, नामओ य गुणओ य । जस्स पयावो सोमो भीमोवि य सिट्टदुट्ठेसु ॥४५॥ अर्थ - उस नगरी में प्रजापाल नामका राजा है वह नामसे और गुणसे प्रजापालही है प्रजां पालयतीति प्रजापालः | ऐसी व्युत्पत्तिः होनेसे और कैसा है राजा जिसका प्रताप सज्जनोंमें सौम्य है और दुष्टोंमें भयंकर है ॥ ४५ ॥ तस्स वरोहे बहुदेहसोह, अवहरिय गोरिगवेवि । अचंतं मणहरणे, निउणाओ दुन्नि दोवीओ ॥ ४६ ॥ अर्थ-उस राजाके अंतःपुरमें दो रानी पतिका मनरंजनकरनेमें अत्यन्त निपुण हैं कैसी रानियां हैं शरीर की | शोभा करके पार्वतीका गर्व हरण किया है जिन्होंने ऐसी दो देवी विशेष करके अन्तेवरमें सौभाग्यवती हैं ॥ ४६ ॥ सोहग्ग लडह देहा, एगा सोहग्गसुंदरीनामा ! वीया य रूवसुंदरी, नामा रूवेण रइतुल्ला ॥ ४७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-उन दो देवियोंका नाम कहे हैं उनमें एक सौभाग्यसुंदरी दूसरी रूपसुंदरी उन्होंमें पहली रानी सौभाग्यसे | भाषाटीकाचरितम् || सुंदर है देह जिसका ऐसी और दूसरी रतिके जैसी ॥४७॥ 18 सहितम्. पढमा माहेसरकुल, संभूया तेण मिच्छदिदित्ति । बीया सावगधूया, तेणं सा सम्मदिदित्ति ॥४८॥ __ अर्थ-उन दोनोंमें पहली सौभाग्यसुंदरी रानी महेश्वरीके कुलमें उत्पन्न भई है इस कारणसे मिथ्या विपरीत है। दृष्टि जिसकी ऐसी मिथ्यादृष्टनीथी दूसरी श्रावककी पुत्री होनेसे रूपसुंदरी रानी समीचीन है दृष्टि जिसकी ऐसी सम्यक् दृष्टिनी थी ॥४८॥ ताओ सरिसवयाओ, समसोहग्गाओ सरिसरुवाओ। सावत्ते विह पायं, परूप्परं पीतिकलियाओ॥४९॥ अर्थ-वह दोनो रानी कैसी है सदृश है यौवनअवस्था जिन्होंकी, और सदृश है सौभाग्य जिन्होंका, और सरीखा रूप सौंदर्य जिन्होंका, और सपत्नीका भाव रहतेभी निश्चय बहुलता करके परस्पर प्रीति सहित रहती थी॥४९॥ नवरं ताण मणट्ठिय, धम्मसरूवं वियारयंताणं । दूरेण विसंवाओ, विसपीऊसेहिं सारित्थो ॥५०॥ | अर्थ-इतना विशेष है कि अपने मनमें रहाहुआ धर्मका स्वरूप विचारते दोनों रानियोंके अत्यन्त विसंवाद याने | विवाद होता था कैसा विसंवाद जहर अमृतके सदृश परस्पर विरुद्ध होनेसे ॥५०॥ ताओयरमंतीओ, नव नव लीलाहि नरवरेण समंथोवंतरंमि समए, दोवि सगब्भाओजायाओ॥५१॥ SPECARRASSES For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ! ACCORRECORRORORSCRICA | अर्थ-वह दोनों रानियां राजाके साथ नवीन २ लीला करके अपूर्व २ क्रीड़ासे रमती भई थोड़ा है अंतर जिसमें | ऐसी गर्भवती हुई ॥५१॥ समयंमि पसूयाओ, जायाओ कन्नगाउ दोहिंपि । नरनाहो वि सहरिसो, वद्धावणयं करावेइ ॥५२॥ | अर्थ-दोनों रानियों के गर्भस्थितिके पूर्ण कालमें कन्यायें भई राजाने हर्षसहित वधाई कराई ॥५२॥ सोहग्गसुंदरी नंदणाइ, सुरसुंदरित्ति वरनाम । वीयाइ मयणसुंदरि, नामं च ठवेइ नरनाहो ॥५३॥ __ अर्थ-राजा सौभाग्यसुंदरीकी पुत्रीका सुरसुंदरी ऐसा प्रधान नाम दिया और दूसरी रूपसुंदरी रानीकी पुत्रीका | मदनसुंदरी ऐसा नाम स्थापा ॥ ५३॥ समए समप्पियाओ, ताओ सिवधम्मजिणमय विऊणं। अज्झावयाण रन्ना, सिवभूति सुबुद्धि नामाणं ५४ | अर्थ-अध्ययन कालमें दोनों कन्याओंको शिवधर्म जैनधर्मका जाननेवाला शिवभूति और सुबुद्धि नाम पाठकोंको पढ़ानेके वास्ते राजाने सोंपी ॥ ५४॥ सुरसुंदरी य सिक्खइ, लेहियं गणियं च लक्खणं छंदं । कवमलंकारजुयं, तकं च पुराण समिईओ॥५५॥ | अर्थ-सुरसुंदरी कन्या पहले लिखनेकी कला सीखें और गणित कला सीखें तदनंतर वस्तुओंका लक्षण और व्याककारण सीखें तथा छंदशास्त्र और अलंकार सहित काव्यशास्त्र सीखें और तर्कशास्त्र तथा पुराणस्मृति सीखें ॥ ५५॥ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * श्रीपालचरितम् * *GARANSA सिक्खेइ भरहसत्थं, गीयं नद्रं च जोइस तिगिच्छं । विजमंतंतंतं, हरमेहल चित्तकम्माइं॥५६॥ भाषादीका. | अर्थ-और भरतशास्त्र याने नाट्यशास्त्र सीखें तथा गीतगान और नाचना सीखें तथा ज्योतिषशास्त्र और रोगकीसहितम्. चिकित्सारूप वैद्यकशास्त्र और विद्या मंत्र तंत्र सीखें तथा चित्रकला सीखें ॥५६॥ अन्नाइं वि कुंटलविटलाइं, करलाघवाइ कम्माइं। सत्थाई सिक्खियाई, चित्तचमुकारजणयाइं ॥५७॥ | अर्थ-सुरसुंदरीने औरभी कुंटलविंटल कर्म नाम कार्मण वशीकरणादि सीखें और करलाघवादिक याने हथफेरी वगैरहः कर्म सीखें औरभी लोगोंके चित्तमें चमत्कार करनेवाले शास्त्र सीखे ॥ ५७ ॥ सा काविकला तं किंपि, कोसलं तंच नत्थि विन्नाणं। सिक्खियं न तीए, पन्ना अभिओगजोगेण॥५॥ | अर्थ-वह कोई कला नहीं है और ऐसा कोई कौशल्य निपुणत्व नहीं है ऐसा कोई विज्ञान चातुर्य नहीं है जो | सुरसुंदरी कन्याने बुद्धि और उद्यमके योगसे नहीं सीखा ॥ ५८॥ सविसेसं गीयाइसु, निउणा वीणाविणोय लीणा सा। सुरसुंदरी वियढ्ढा, जाया पत्ता य तारुन्नं ॥ ५९॥ | अर्थ-विशेष करके गीतादिक कलामें निपुण विचक्षण भइ और वीणाके विनोदमें लगा है मन जिसका ऐसी सुर| सुंदरी विचक्षण भई और यौवन अवस्था प्राप्त भई ॥ ५९॥ जारिसओ होइगुरू, तारिसउ होइ सीसगुणजोगो । इत्तुच्चिय सा मिच्छा, दिढि उक्किट्ठदप्पा य ॥६॥ ॥ ८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | अर्थ-जैसा गुरू होवे वैसाही प्रायः शिष्यमें गुणका सम्बन्ध होवे इस कारणसे सुरसुंदरी कन्या मिथ्यादृष्टिनी है INऔर उत्कृष्ट अभिमान युक्त है मन जिसका ऐसी भई ॥६॥ तह मयणसुंदरी विह, एयाओ कलाओलीलमित्तण। सिक्खेड विमलपन्ना, धन्ना विणएण संपन्ना॥६॥ 81 अर्थ-तैसेही मदनसुंदरीभी यह कही भई लेखनादि कला लीलामात्रसे पढ़ती भई कैसी है मदनसुंदरी निर्मल है तू बुद्धि जिसकी और धन्या है धर्म धनको जिसने पाया है और विनय युक्त है ॥ ६१॥ जिणमयनिउणेण झावएण,सामयणसुंदरीबाला। तह सिक्खविया जह, जिणमयंमि कुसलत्तणं पत्ता ६२ | अर्थ-जिनमत विषयमें निपुण अध्यापकने मदनसुंदरी कन्याको वैसी सिखाई कि जिससे जैनधर्मके पदार्थोंमें 5 निपुण भई ॥ ६२॥ एगासत्ता दुविहो नओ य, कालत्तयं गइचउक्कं । पंचेव अस्थिकाया, दवछक्कं च सत्तनया ॥ ६३ ॥ | अर्थ-सर्व पदार्थों में एकही सत्ता अस्तित्व है और दो प्रकारका नय द्रव्यास्तिक १ पर्यायास्तिक २ तथा काल ३ भूत १ वर्तमान २ भविष्यत् और गति ४ नरकगति तिर्यञ्चगति मनुष्यगति देवगति तथापांच अस्तिकाय धर्मास्तिकाय १ अधर्मास्तिकाय २ आकाशास्तिकाय ३ पुद्गलास्तिकाय ४ जीवास्तिकाय और ६ द्रव्य धर्मास्तिकायादि ५ और छट्ठा काल और ७ नय नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३ ऋजुसूत्र ४ शब्द ५ समभिरूढ़ ६ एवंभूत ७॥ ६३ ॥ AASAASAASAASAASAAN For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KI श्रीपालचरितम् वय कम्माई, नवतत्ताइं च दसविहो धम्मो। एगारसपडिमाओ, बारसवयाइं गिहीणं च ॥६४॥ भाषाटीका| अर्थ-ज्ञानावरणी १ दर्शनावरणी २ वेदिनी ३ मोहनी ४ आयु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय ८ ये कर्म आठ हैं सहितम्. जीवाजीवादि नवतत्व क्षमामार्दवादि दशप्रकारका यतिधर्म दर्शनादि ११ श्रावककी प्रतिमा और स्थूलप्राणातिपात |विरमणादि १२ व्रत ॥ ६४॥ है इच्चाइ वियाराचार, सारकुसलत्तणं च संपत्ता । अन्ने सुहमवियारेवि, मुणइ सा निययनामं च ॥६५॥ | अर्थ-मदनसुंदरी कन्या इत्यादि विचार आचारोका रहस्यभूतपदार्थोमें कुशलपना प्राप्त भई औरभी इन्होंसे |भिन्न सूक्ष्मविचारोंको अपने नामके जैसा जाने ॥६५॥ कम्माणं मुलुत्तर, पयडीओ गणइ मुणइ कम्मठिइं । जाणइ कम्मविवागं, बंधोदयदीरणं संतं ॥६६॥ | अर्थ-और मदनसुंदरी कन्या कोंकी ८ मूल प्रकृति तथा १५८ उत्तर प्रकृति गिने और कर्मोंकी स्थिति ३० कोड़ाकोड़ सागरादिक जाने और कर्मोंका विपाक शुभ अशुभ फलरूप जाने और कर्मोंका बंध, उदय, उदीरणा सत्ताका स्वरूप जाने ॥६६॥ जीसे सो उवज्झाओ, संतो दंतो जिइंदिओ धीरो। जिणमयरओ सुबुद्धि, साकिं न हु होइ तस्सीला६७ ॥९॥ अर्थ-जिसका वह सुबुद्धि नाम श्रावक उपाध्याय है वा मदनसुंदरी कन्या गुरुके तुल्य स्वभाववाली क्या न होवे । SARSANSLSALUSALS For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपि तु होवेही ॥ कैसा है पाठक क्षमायुक्त तथा मनको दमनेवाला जितेन्द्रिय धैर्यवान, बुद्धिवान् जिन मतमें रक्त | ऐसा जिसका गुरु वा वैसी गुणवती कैसे न होवे ॥ ६७॥ सयल कलागम कुसला, निम्मल सम्मत्त सीलगुण कलिया।लज्जा सज्जा सामयण, सुंदरी जुवणं पत्ता॥ ___ अर्थ-मदनसुंदरी कन्या यौवन अवस्था प्राप्त भई कैसी है सम्पूर्णकलाशास्त्रोंमें निपुण है और निर्मल सम्यक्त्व 5/शील गुणोंसे युक्त लज्जासे परिपूर्ण ऐसी मदनसुंदरी कन्या वाल्य अवस्थाको छोड़के यौवन अवस्था पाई ॥ ६८॥ 18 ( अन्न दिणे अभितर, सहानिविटेण नरवरिंदेण। अज्झावय सहियाओ, अणावियाओ कुमारीओ॥६९॥ __अर्थ-अन्य दिनके विषय अंदरकी सभामें बैठा हुआ राजाने पाठक सहित दोनों कुमरियोंको अपने पासमें बुलाई ६९ शविणओणयाओ ताओ, सरूव लावन्न क्खोहिय सहाओ। विणिवेसियाउ रन्ना, नेहेणं उभयपासेसु॥७०॥ __ अर्थ-विनयसे नम्र और अपने रूप लावण्यसे चमत्कार प्राप्त किया है सभाके लोकोको जिन्होंने ऐसी दोनों कन्याकू राजाने स्नेहसे अपने दोनों तरफ पासमें बैठाई ॥ ७० ॥ हरिसवसेणं राया, तासिं बुद्धी परिक्खणनिमित्तं । एगं देई समस्सापयं, दुन्हं पि समकालं ॥७१॥ I अर्थ-राजा हर्षित होके दोनों कन्याकी बुद्धिकी परीक्षाके निमित्त दोनों कन्याको समकाल नाम एकसमय एक समस्या पद देवे ॥ ७१॥ OSASUSAHAA** For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीकासहितम्. ॥१०॥ यथा "पुन्नहिं लब्भइ एहु,” तो तत्कालं अइचंचलाए । अचंतगब गहिलाए, सुरसुंदरीए भणियं, हुंडं पूरेमि निसुणेह ॥ ७२ ॥ अर्थ-यह समस्या पद है (पुन्नहिं लब्भइ एहु) पुण्यसे यह मिले है समस्या पद दियों के अनन्तर तत्काल सुरसुंदरी कन्या बोली अहो मैं इस समस्याको पूरी करूं आप सुनो कैसी सुरसुंदरी है अतिशय चपल याने चंचल है और अत्यन्त गर्भसे गहली है ॥७२॥ यथा धनु जुवण सुवियड्डपण, रोगरहिय नियदेहु । मणवल्लह मेलावडउ, पुन्नहिं लब्भइ एहु ॥७३॥ ___ अर्थ-धन यौवन विचक्षणपना तथा रोगरहित अपना शरीर तथा मनोवल्लभ प्यारा जो पुरषादि उन्होंके साथ सम्बन्ध ये वस्तुसमूह पुण्यसे मिले है ॥ ७३ ॥ तं सुणिय निवोतुट्ठो, पसंसए साहु साहु उवज्झाओ।जेणेसा सिक्खविया, परिसावि भणेइ सच्चमिणं७४ ६] अर्थ-सुरसुंदरीका बचन सुनके राजा संतुष्टमान भए इस प्रकारसे प्रशंसा करते भए अहो इसका उपाध्याय पढ़ा नेवाला गुरू बहुत अच्छा है जिसने इस पुत्रीको ऐसी सिखाई पढ़ाई तब सभाके लोग बोले हे महाराज यह सत्य है इसमें बिल्कुल झूठ नहीं है ॥ ७४ ॥ | तोरन्ना आइट्ठा, मयणा वि हु पूरए तं समस्सं । जिणवयणरया संता, दंता ससहावसारित्थं ॥७॥ | ॥१०॥ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobelirtth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir अर्थ-बाद राजाकी आज्ञासे मदनसुंदरीभी उस समस्याको पूर्ण करे कैसी है मदनसुंदरी जिनवचनोंमें रक्त और द्रशान्त उपसमयुक्त दान्त नाम इन्द्रिय दमयुक्त और कैसी समस्या अपने स्वभाव सरीखी ॥ ७५ ॥ यथा विणय विवेय पसण्णमणुं, सीलसुनिम्मल देह। परमप्पह मेलावडो, पुण्णहिंलब्भइ एह ॥७६ ॥ | अर्थ-विनय पूज्यादिकमें वन्दन नमस्कारादिरूप विवेक वस्तुओंका भेद जानना प्रसन्नमनः मनका निर्मलपना | तथा ब्रह्मचर्यसे अत्यन्त उज्वलशरीर पाना और परमपथ मोक्ष मार्गके साथ सम्बन्ध होना इतनी वस्तु पुण्यसे मिले हैं ॥ ७६॥ तो तीए उवज्झाओ,माया वि य हरिसिया न उण सेसा, जेण तत्तोवएसो, नकुणइ हरिसं कुदिट्रीणं ७७ I अर्थ-समस्या पूर्ण किये अनन्तर मदनसुंदरीका पाठक हर्षित भया और माताभी हर्षित भई परन्तु और राजा- |दिक लोगोंने हर्ष नहीं पाया इस कारणसे तत्वका उपदेश मिथ्यात्वी लोगोंको हर्ष नहीं करे है उसका बचन तत्वउपहै| देशरूप है राजादिक तो बाह्य दृष्टि है इस लिए सुनके हर्ष नहीं पाया कहा है गुणिनि गुणज्ञो रमते ॥ ७७॥ Pइओय कुरुजंगलंमिदेसे, संखपुरी नाम पुरवरी अत्थि। जापच्छा विक्खाया, जाया अहिछत्ता नामेणं ७८ 51 अर्थ-इधरसे इसके बाद जो भया सो कहते हैं कुरुजंगल नाम देशमें शंखपुरी नामकी प्रधान नगरी है वह नगरी कितने कालके अनन्तर अहिछत्रा नामसे प्रसिद्ध भई ॥ ७८ ॥ SAMSKRRECORDC ANDALASAREKASSACREAK For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobelirtth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi श्रीपालचरितम् ॥११॥ PARAAAAAACHICAS तत्थरिथ महीपालो, कालो इव वेरियाण दमियारी। पइवरिसंसो गच्छड, उज्जैणि निवस्स सेवाए॥७९॥ भाषाटीका___ अर्थ-उस शंखपुरी नामा नगरीमें शत्रुओंके कालके जैसा दमितारी नामका राजा है वह राजा प्रतिवर्ष उज्जैनी सहितम्. नगरीके राजाकी सेवाके लिये आता है ॥ ७९ ॥ अन्नदिणे तप्पुत्तो, अरिदमणो नाम तारतारुन्नो । संपत्तो पियठाणे, उज्जैणिं रायसेवाए ॥ ८॥ अर्थ-अन्य दिनमें दमितारी राजाका पुत्र अरिदमन कुमर राजाकी सेवाके वास्ते उज्जैनी आया कैसा है अरिदमन कुमर उद्भट तारुण्य यौवन है जिसका ॥ ८ ॥ तं च निवपणमणत्थं, समागयं तत्थ दिवरूवधरं। सुरसुंदरी निरिक्खइ, तिक्ख कडक्खेहिं ताडंति ॥८॥ __ अर्थ-उसवक्त राजाको नमस्कार करनेके लिए सभामें आया दिव्यरूपधारनेवाला अद्भुत सौंदर्य है जिसका ऐसा | अरिदमन कुमरको सुरसुंदरी राजकन्या तीखे कटाक्ष नेत्र प्रान्तभागोंसे ताड़ती देखे ॥ ८१॥ तत्थेव थिरनिवेसियदिट्ठी, दिट्ठा निवेण सा वाला।भणियाय कहसु वच्छे, तुज्झवरो केरिसो होउ ॥८॥ है - अर्थ उस कुमरमें निश्चल स्थापित करी है दृष्टि जिसने ऐसी सुरसुंदरी कन्याको राजाने देखी और कहा हे वत्से | कह तेरे कैसा भर्तार होवे ॥ ८२॥ Ix॥११॥ तोतीए हिट्ठाए, धिट्ठाए मुक्कलोयलज्जाए । भणियं तायपसाया, जइ लब्भइ मग्गियं कहवि ॥८॥ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनन्तर हर्षित भई धृष्टत्वयुक्त ऐसी तथा छोड़ी है लोकलाज जिसने ऐसी सुरसुंदरी बोली पिताके प्रसादसे जो कोई प्रकारसे मुखसे मांगा हुआही मिले है ॥ ८३ ॥ ता सबकला कुसलो, तरुणो वररूव पुण्ण लावन्नो । एरिसओ होउ वरो, अहवा ताओ च्चिय पमाणं ॥८४॥ अर्थ - तब सर्व कला में कुशल चतुर और यौवन अवस्थामें रहा हुआ प्रधानरूप आकृतिसे पवित्र लावण्य सौंदर्य जिसका ऐसा ये आगे रहा हुआ पुरुष भर्तार होओ अथवा पिता जो देवे वही वर प्रमाण है ॥ ८४ ॥ जेणं ताय तुमं चिय, सेवयजणमण समीहियत्थाणं । पूरणपवणो दीससि, पच्चक्खो कप्प रुत्रखुत ॥ ८५ ॥ अर्थ - अब सुरसुंदरी अपनी इष्टसिद्धिके लिए पिताकी स्तुति करे है हेपिताजी जिसकारणसे आपही सेवक लोगोंके मनोवांछित कार्य करनेमें तत्पर दीखतेहो किसके सदृश साक्षात् कल्पवृक्षके सदृश ॥ ८५ ॥ तो तुट्ठो नरनाहो, दिट्ठिनिवेसेण नायतीइमणे । पभणेइ होउ वच्छे, एस अरिद्मणो वरो तुझ ॥ ८६ ॥ अर्थ-तब राजा सुरसुंदरीका बचन सुननेसे संतुष्टमान भया और बोला, हेवत्से यह अरिदमन कुमार तेरा वर होओ कैसा है राजा कुमर में दृष्टि स्थापनेसे जाना है कुमरीका मन जिसने ॥ ८६ ॥ | तोसयल सभालोओ, पभणइ नरनाह एस संजोगो । अइ सोहणोहिवल्ली, पूगतरूणं व नियंतं ॥ ८७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाद चरितम् ॥ १२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - उसके अनन्तर सम्पूर्ण सभाके लोग बोले हे महाराज यह इन्होंका संयोग निःसंदेह अत्यन्त शोभनीय भया है किसके जैसा नागरवेल और सुपारीके वृक्ष जैसा जैसे नागरवेल सुपारीका संयोग है वैसा इन्होका भी संयोग शोभन है ॥ ८७ ॥ अह मयणसुंदरी विहु, रन्ना नेहेण पुच्छिया वच्छे । केरिसओ तुझवरो, कीरउ मह कहसु अविलंब ॥८८॥ अर्थ - अथ नाम सुरसुंदरीके वर प्राप्ति के अनन्तर राजाने मदनसुंदरीसे भी स्नेहसे पूछा है पुत्रि तेंभिक है तेरे कैसा भर्तार मैं करूं मेरे आगे विलंबरहित जैसा होवे वैसा कहो ॥ ८८ ॥ | सा पुण जिणवयणवियारसार, संजणिय निम्मल विवेया । लज्जा गुणिक्कसजा, अहोमुही जान जंपेइ ८९ अर्थ - जिन वचनोंके विचारसारसे उत्पन्न भया है निर्मल विवेक जिसको ऐसी इसवास्ते लज्जा गुणोंमें एक सज्ज नाम तत्पर ऐसी मदनसुंदरी नींचा किया है मुख जिसने ऐसी जितने नहीं बोले ॥ ८९ ॥ ताव नरिदेण पुणो, पुट्ठा साभणइ ईसिहसिऊणं । ताय विवेय समेओ, संपुच्छसि तंसि किमजुत्तं ॥ ९० ॥ अर्थ - उतने राजाने और पूछा तब मदनसुंदरी थोड़ी हसके राजासे कहने लगी हे पिताजी आप विवेकसहित हो यह अयुक्त मेरेसें क्या पूछो हो विवेकयुक्त आपको मेरेको यह पूछना अयुक्त है यह भाव है ॥ ९० ॥ जेण कुल बालियाओ, नकहंति हवेउ एस मज्झ वरो। जो किर पिऊहिं दिन्नो, सो चेव पमाणयत्ति ९१ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १२ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5] अर्थ-किस कारणसे सो कहते हैं जिस कारणसे कुलवालिका नाम सुकुलमें उत्पन्न भई कन्या ऐसा नहीं कहे मेरे यह भर्तार होवो जो निश्चय मातापिताका दिया वर होवे वही प्रमाण करना ॥ ९१ ॥ अम्मा पिउणोवि निमित्तमित्त, मेवेह वरपयामि । पायं पुत्वनिबद्धो, संबंधो होइ जीवाणं ॥ ९२॥ ___ अर्थ-इस संसारमें कन्याओंके वरप्रदानमें माता पिताभी निमित्त मात्रही है परन्तु तात्विक कारण नहीं है प्रायै [जिनोंने पूर्वभवमें जिसके साथ सम्बन्ध रचा हो उसकेही साथ यहां सम्बन्ध होवे है ॥ ९२ ॥ जंजेण जया जारिसमुवजिय होइ कम्म सुहमसुहं । तं तारिसं तया से, संपज्जइ दोरियनिबद्धं ॥ ९३ ॥ अर्थ-जो जिस प्राणिने जिस कालमें जैसा शुभाशुभ कर्म उपार्जन किया होवे उस प्राणिके उस कालमें अर्थात् उदयकालमें वैसाही कर्म उदय आता है कैसा वह डोरीसे बंधाहोय वैसा ॥ ९३ ॥ दूजाकन्ना बहुपुन्ना, दिन्ना कुकुलेवि सा हवइ सुहिया।जा होइ हीणपुन्ना, सुकुले दिन्नावि सा दुहिया ९४ाद अर्थ-जो कन्या बहुत पुण्यवाली होवे वह कुत्सित कुलमें अर्थात् दरियादिकुलमें दी भई सुखिनी होवे है और जो हीनपुण्यनी होवे वह अच्छे कुलमें दी भई दुःखी होवे है ॥ ९४ ॥ ताताय नायतत्तस्स, तुज्झनो जुज्झए इमोगहो। जंमज्झकयपसाया,पसायओ सुहदुहे लोए ॥१५॥ श्रीपा.च.३८ अर्थ-इस कारणसे हे पिताजी ! तत्वके जाननेवाले आप हो आपको ऐसा गर्व करना युक्त नहीं है जो मेरा किया SANSARSA For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुआ प्रसाद अप्रसादसे लोकमें सुख दुःख होवे है मेरे किए हुए प्रसादसे सुख और अप्रसादसें दुःख यह गर्व आपको करना उचित नहीं ॥ ९५ ॥ जो होइ पुन्न बलिओ, तस्स तुमं ताय लहु पसीएसि । जो पुण पुन्नविहूणो, तस्स तुमं नो पसीएसि ॥९६॥ अर्थ-जो पुरुष पुण्यसे बलवान् होवे उसपर आप जल्दी प्रसन्न होवो हो और पुण्यहीन होवे है उसपर आप नहीं प्रसन्न होवो हो ॥ ९६ ॥ भवियद्वया १ सहावो, २ दवाईया सहाइणो वावि । पायं पुवोवज्जियकम्मा गया फलं दिति ॥९७॥ अर्थ - भवितव्यता १ स्वभाव २ और द्रव्य १ क्षेत्र २ काल ३ भाव ४ इत्यादिक सहाय करनेवालाभी बहुलता करके पूर्व भवमें उपार्जन किया कर्मोंके अनुगत उन्होंसे मिला हुआही फल देते हैं उन्होंसे अलग नहीं ॥ ९७ ॥ तो दुम्मिओ य राया, भणेइ रे तं सि महपसाएण । बत्थालंकाराई, पहिरंती कीसि मं भणसि ॥९८॥ अर्थ - उसके अनन्तर राजा मनमें उदास हुआ पुत्रीसे कहे अरे तैं मेरे प्रसादसे वस्त्र अलंकारादि नानाप्रकारका अद्भुत नैपत्थ भूषणादि पहरती है और पूर्वोक्त कैसा कहती है ॥ ९८ ॥ हसिऊण भणइ मयणा, कयसुकयवसेण तुज्झ गेहंमि । उपपन्ना ताय ! अहं, तेणं माणेमि सुक्खाई ॥९९॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १३ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-तब मदनसुंदरी इसके कहे हे पिताजी ! पूर्व भवमें किया सुकृतके वशसे मैं तुह्मारे घर में उत्पन्न भई हूं और सुख भोगवती हूं ॥ ९९ ॥ पुढकयं सुकयं चिय, जीवाणं सुक्खकारणं होइ । दुकयं च कयं दुक्खाण, कारणं होइ निब्र्भतं ॥ १०० ॥ अर्थ - हे पिताजी ! जीवोंके पूर्वभवमें उपार्जन किया सुकृत पुण्यही सुखका कारण होवे है और पूर्वभवमें किया | हुआ पापही दुःखोंका कारण होता है ॥ १०० ॥ न सुरासुरेहिं नो नरवरेहिं, नो बुद्धिबलसमिद्धेहिं । कहवि खलिज्जइ इंतो, सुहासुहो कम्मपरिणामो ॥१॥ अर्थ - उदय आता हुआ शुभाशुभ कर्मोंका परिणाम कोई प्रकार से देव दानव नहीं दूर करसकते हैं और राजाभी नहीं हटा सकते हैं बुद्धिबल समृद्धभी दूर नहीं कर सकते हैं ॥ १ ॥ तो रुट्ठो नरनाहो, अहो अहो अप्पपुन्निया एसा । मज्झकयं किंपि गुणं, नो मन्नइ दुब्बियड्डा य ॥ २ ॥ अर्थ - मदनसुंदरीका बचन सुनके बाद राजा क्रोधातुर भया और इस प्रकारसे बोला अहो अहो लोगो यह कन्या अल्पपुण्यवाली हैं दुर्विदग्धा याने चातुर्यरहित है इसी कारणसे मेरा किया हुआ गुण कुछभी नहीं मानती है ॥ २ ॥ पभणेइ सहालोओ, सामिय ! किमियं मुणेइ मुद्धमई । तं चैव कप्परुक्खो, तुट्ठो रुट्ठो कयंतोय ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — बाद सभाके लोग कहे हे स्वामिन्! यह बाला मुग्धमती भोली है क्या जाने आप संतुष्ट भए वांछित फल देनेसे कल्पवृक्षके जैसे हो और क्रोधातुर भए यमराजके तुल्य हो शीघ्र निग्रह करनेसे ॥ ३ ॥ मयणा भणेइ धिद्धी, धणलवमित्तत्थिणो इमे सवे । जाणंतावि हु अलियं, मुहप्पियं चैव जंपंति ॥४॥ अर्थ - यह सभाके लोगोंका बचन सुनके मदनसुंदरी बोली इन सभाके लोगोंको धिक्कार होवो धनका लवमात्रकी अभिलाषा करते हुए जानते भी मिथ्या वचन मुखप्रिय बोलते हैं ॥ ४ ॥ जइ ताय ! तुह पसाया, सेवयलोया हवंति सद्देवि । सुहिया ता समसेवा, निरया किं दुक्खिया एगे ॥५॥ अर्थ- हे पिताजी! जो आपके प्रसाद से सर्व सेवक लोग सुखी होते हैं तब तुल्य सेवामें तत्पर ऐसे कितनेक सेवक लोग दुःखी कैसे सब सुखीही होना चाहिये ॥ ५ ॥ तम्हा जे तुम्हाणं, रुच्चइ सो ताय मज्झ होउ वरो । जइ अस्थि मज्झ पुन्नं, ता होही निग्गुणोवि गुणी ॥६॥ अर्थ - तिस कारणसे हे पिताजी ! जो आपको रुचे वह मेरा वरहोओ जो मेरे पुण्य है तो आपका दियाहुआ वर निर्गुणी भी गुणवान् होगा ॥ ६ ॥ | जइ पुण पुन्नविहीणा, ताय ! अहं ताव सुंदरोवि वरो । होही असुंदरुच्चिय, नूणं मह कम्मदोसेणं ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १४ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — और हे पिताजी ! जो मैं पुण्यविहीनहूं तो आपका दिया भया सुंदर वरभी निश्चय मेरे कर्मदोषसे असुंदरही होगा ॥ ७ ॥ तो गाढयरं राया, रुट्ठो चिंतेइ दुब्बियड्डाए । एयाइ कओ लहुओ, अहं तओ वैरिणी एसा ॥ ८ ॥ अर्थ - तदनंतर राजा अत्यर्थ नाराज हुआ विचारे क्या विचारे सो कहते हैं अज्ञानवती इस पुत्रीने मेरेको हलका किया इस कारण से यह मेरी वैरिणी है पुत्री नहीं है ॥ ८ ॥ रोसेण विवडभिउडी, भीसणवयणं पलोविऊणनिवं । दक्खो भणेइ मंती, सामिय रइवाडिया समओ ९ अर्थ - क्रोधसे विकराल भ्रकुटीसे भयानक मुखजिसका ऐसे राजाको देखके अवसरका जाननेवाला चतुर मंत्री कहे हे स्वामिन्! राजवाड़ीका समय है अर्थात् बगीचे जानेका वक्त है ॥ ९॥ रोसेण धमधमंतो, नरनाहो तुरयरयणमारूढो । सामंतमंतिसहिओ, विणिग्गओ रायवाडीए ॥ १० ॥ अर्थ - तब रोषसे धमधमा हुआ राजा घोड़ेपर सवार होके मंत्री सामंतोंसें परिवरा हुआ राजबाड़ी चला ॥ १० ॥ जाव पुराओ वाहिं, निग्गच्छइ नरवरो सपरिवारो । ता पुरओ जणवंद, पिच्छइ साडंबरमियंतं ॥११॥ अर्थ - जितने राजा परिवार सहित नगरसे बाहिर निकले उतने आगे आडंबर सहित मनुष्योंका समूह आता हुआ देखे ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो विम्हिएण रन्ना, पुट्ठो मंती सनायवृत्तंतो । विन्नवइ देव ! निसुणह, कहेमि जणवंद परमत्थं ॥ १२ ॥ अर्थ — बाद जाना है वृत्तान्त जिसने ऐसा मंत्रीको आश्चर्ययुक्त राजाने पूछा तब मंत्रीने विनती करी हे देव ! हे महाराज ! ये मनुष्योंके समूहका परमार्थ मैं कहूं आप सुनो ॥ १२ ॥ | सामिय! सरूवपुरिसा, सत्तसया नववया ससौंडीरा । दुट्ठकुट्ठाभिभूया, सबे एगत्थ संमिलिया ॥ १३ ॥ अर्थ - हे स्वामिन् ! सातसै पुरुष नवीन यौवन अवस्था जिन्होंकी अर्थात् जवान पराक्रमसहित ऐसे दुष्टको रोगसे पीड़ित ये सब इकट्ठे मिले हैं ॥ १३ ॥ एगो य ताण बालो, मिलिओ उंबरवाहिगहियंगो । सो तेहिं परिग्गहिओ, उंबरराणुत्ति कयनामो ॥१४॥ 1 अर्थ — और उन कुष्ठी पुरुषोंकों एक बालक ? मिला है कैसा है बालक उम्बर व्याधि कुष्ठ रोग विशेषसे गृहीत है। अंग जिसका ऐसे बालकको कुष्ठी पुरुषोंने उम्बरराणा ऐसा नाम करके अपना स्वामी किया है ॥ १४ ॥ वरवेसरिमारुठो, तयदोसी छत्तधारओ तस्स । गयनासा चमरधरा, घिणि २ सहा य अग्गपहा ॥ १५ ॥ अर्थ — वह बालक प्रधान खच्चरनी पर चढ़ा हुआ है श्वेतकुष्ठी पुरुष उम्बरराणेके छत्रधारक है गतनासा पुरुष चामर धारणेवाले है रोगके वशसे घिण २ ऐसा है शब्द जिन्होंका ऐसे मनुष्य उसके आगे चलनेवाले हैं ॥ १५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १५ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गयकन्ना घंटकरा, मंडलवइ अंगरक्खगा तस्स । दद्दुल थइयाइत्तो, गलियंगुलि नामओ मंती ॥ १६ ॥ अर्थ- गल गए हैं कान जिन्होंके ऐसे पुरुष घंटा बजानेवाले हैं रक्त मंडल रोगवाले पुरुष उम्बरराणेके अंगरक्षक हैं दादके रोगवाले पुरुष ताम्बूल धारनेवाले हैं और गलितअंगुलि नामका मंत्री है ॥ १६ ॥ केवि पसूइयवाया, कच्छा दद्दे (उभे) हिं केवि विकराला । केवि विउंचियपामा, समन्निया सेवगा तस्स १७ अर्थ-उस उम्बर राजाके कितनेक सेवक वातरोग युक्त हैं और कितनेक सेवकोंकी कक्षा दादोंसे विकराल है। कितनेक पामसहित हैं विचर्चिका जातिकी पाम उस करके सहित हैं ॥ १७ ॥ एवं सो कुट्टियपेडएण, परिवेढिओ महीवीढे । रायकुलेसु भमंतो, मुहमग्गियदाणं पगिन्हेइ ॥ १८ ॥ अर्थ - इस प्रकार से वह उम्बर राजा कोड़ियोंके समूहसे चौतर्फसे परिवरा हुआ पृथ्वीतलपर फिरता हुआ राजा लोगोंके घरोंमें मुखमार्गित दान लेता है ॥ १८ ॥ सो एसो आगच्छइ, नरवर ! आर्डवरेण संजुत्तो । तामग्गमिणं मुत्तुं, गच्छह अन्नं दिसं तुभे ॥१९॥ अर्थ - हे महाराज ! वह यह उम्बर राजा आडंबर सहित आता है इस लिए इस मार्गको छोड़के और दिशि तरफ, आप चलें ॥ १९ ॥ तो बलिओ नरनाहो, अन्नाइ दिसाइ जाव ताव पुरो । तं पेडयंपि तीए, दिसाइ बलियं तुरियं तुरियं ॥ २०॥ For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल चरितम् ॥ १६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनंतर राजा जितने और दिशि तरफ चले उतने आगे कोढ़ियोंका पेड़ाभी जल्दी २ उसी दिशातरफ पलटा ॥ २० ॥ राया भणेइ मंतिं, पुरओ गंतूणिमे निवारेसु । मुहमग्गियंपि दाउं, जेणेसिं दंसणं न सुहं ॥ २१ ॥ अर्थ — तब राजा मंत्री से कहे तुम आगे जाके इन्होको हटाव जो मांगे सो देके इस कारणसे इन कोढ़ियोंका दर्शन अच्छा नहीं है ॥ २१ ॥ जा तं करेइ मंती, गलियंगुलिनामओ दुयं ताव। नरवर पुरओ ठाउं, एवं भणिउं समाढत्तो ॥ २२ ॥ अर्थ - जितने राजाका बचन मंत्री करे उतने गलितांगुलि नामका मंत्री शीघ्र राजाके आगे आके खड़ा रहके इस प्रकारसे कहना शुरू किया ॥ २२ ॥ सामिय ! अम्हाण पहू, उंबरनामेण राणओ एसो । सवत्थवि मन्निज्जइ, गुरुएहिं दाणमाणेहिं ॥२३॥ अर्थ - हे स्वामिन् ! यह हमारा स्वामी उम्बर राजा सब ठिकाने बहुत दानमानसे माना जावे है राजादिक लोग सत्कार करे है || २३ ॥ | तेणऽम्हाणं धण कणय, चीरपमुहेहिं कीरइ न किंपि । एयस्स पसाएणं, अम्हे सवेवि अइसुहिणो ॥२४॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १६ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - इस कारणसे हमारे धन, स्वर्ण वस्त्रादिकसे कुछभी कार्य नहीं है इस उम्बर राजाके प्रसादसे हम सब अतिशय सुखी हैं ॥ २४ ॥ | किंच। एगो नाह! समत्थि, अम्ह मणचिंतिओ वियप्पुत्ति । जइ लहइ राणओ राणियंति ता सुंदरं होइ २५ अर्थ - परंतु हे नाथ एक हमारे मनमें मनोरथ है जो हमारा राजा अपने योग्य रानी पावे तब शोभन होवे ||२५|| ता नरनाह ! पसायं, काऊणं देहि कन्नगं एगं । अवरेणं कणगकप्पड, दाणेणं तुम्ह पजत्तं ॥ २६ ॥ अर्थ - इस कारण से हे महाराज ! प्रसन्न होके एक कन्या देवो और सोना वस्त्र वगैरह देनेसे सरा और पदार्थसें हमारे कार्य नहीं है ॥ २६ ॥ तो भणइ रायमंती, अहो अजुत्तं विमग्गि अंतुमए । को देइ नियं धूयं, कुट्टकिलिट्ठस्स जाणतो ॥२७॥ अर्थ - तब राजाका मंत्री कहे अहो तुमने अयुक्त मांगा कोढ़ रोगसे क्लेशयुक्त पुरुषको जानता भया कौन पुरुष अपनी पुत्री देवे अपि तु कोई नहीं देवे ॥ २७ ॥ गलियंगुलिणा भणियं, अम्हेहिं सुया निवस्सिमा कित्ती । जं किरमालवराया, करेइ नो पत्थणाभंगं ॥ २८ ॥ अर्थ - यह राजाके मंत्रवीका बचन सुनके गलितांगुल मंत्रीने कहा हमने राजाकी ऐसी कीर्ति सुनीथी कि मालवदेशका राजा किसीकी भी प्रार्थना का भंग नहीं करे है जो कोई भी वस्तु मागे उसको देता है ॥ २८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | तो सा निम्मलकित्ती, हारिजउ अज्ज नरवरिंदस्स | अहवा दिज्जउ काविहु, धूया कुकुले वि संभूया ॥२९॥ अर्थ - तिस कारण से हम यहां आए हैं परन्तु आज राजाकी निर्मल कीर्ति हारीजावे है अथवा कुत्सितकुलमें उत्पन्न भई भी कोई कन्या देओ तब कीर्ति बनी रहेगी ॥ २९ ॥ | पभणेइ नरवरिंदो, दाहिस्सइ तुम्ह कन्नगा एगा । कोकिर हारइ कित्ति, इत्तियमित्तेण कज्जेण ॥३०॥ अर्थ-तब राजा कहे तुमको एक कन्या हम देवेंगे निश्चय इतने कार्यके वास्ते बहुत प्रयलसे कीर्ति उत्पन्न करी जावे है सो कौन हारे ॥ ३० ॥ चिंतेइ मणे राया, कोवानलजलियनिम्मलविवेगो । नियधूयं अरिभूयं तं दाहिस्सामि एयस्स ॥ ३१ ॥ अर्थ - क्रोधाग्निसे जला है निर्मलविवेक जिसका ऐसा राजा विचारे क्या विचारे सो कहते हैं मैं शत्रुके जैसी अपनी कन्याको इस कोढ़ियेको दूंगा ॥ ३१ ॥ सहसा बलिऊण तओ, नियआवासंमि आगओ राया। बुल्लावइ तं मयणा, सुंदरिनामं नियं धूयं ॥३२॥ अर्थ - अकस्मात् उसी ठिकाने से पीछा पलटके राजा अपने प्रासादमें आके मदनसुंदरी अपनी पुत्रीको बुलाके ॥ ३२ ॥ ! हुं अज्जवि जइ मन्नसि, मज्झपसायस्स संभवं सुक्खं । ता उत्तमं वरं ते, परिणाविय देमि भूरिधणं ॥ ३३ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १७ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - क्या कहे सो कहते हैं हुं यह अनादरमें है अनादरसे राजा बोले अरे तैं अबीभी जो मेरे प्रसादसे उत्पन्न भया सुख मानती है तो मैं तेरेको उत्तम वर परणाके बहुत धन देऊं ॥ ३३ ॥ | जइ पुण नियकम्मं चिय, मन्नसि ता तुज्झ कम्मुणाणीओ। एसो कुट्ठियराणो, होउ वरो किं वियप्पेण ३४ अर्थ — जो फिर अपने कर्महीको तैं मानती है तो तेरा कर्मोंनें लाया हुआ यह कुष्ठी तेरा वरराज होवो यहां विचारका कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ३४ ॥ हसिऊण भणइ वाला, आणीओ मज्झकम्मणा जो उ । सो चेव मह पमाणं, राओ वा रंकजाओ वा ॥ ३५॥ अर्थ - यह राजाका बचन सुनके मदनसुंदरी बाला हसके कहे जो मेरा कर्म लाया है वही वर मेरे प्रमाण है राजा होवे या रंकका पुत्र होवे ॥ ३५ ॥ कोबंधेणं रन्ना, सो उंबरराणओ समाहूओ । भणिओ य तुममिमीए, कम्माणीओसि होसु वरो ॥३६॥ अर्थ —यह कन्याका बचन सुनके क्रोधान्ध राजाने उम्बर राजको अपने पासमें बुलाया और कहा क्या कहा सो कहते हैं तुमको इस कन्याके कर्म लाए हैं इस लिए इसका भर्तार होवो ॥ ३६ ॥ | तेणुत्तं नो जुत्तं, नरवर! बुत्तुं पि तुज्झ इय वयणं । को कणयरयणमालं, बंधइ कागस्स कंठमि ॥३७॥ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * 6 श्रीपालचरितम् भाषाटीकासहितम्.. ॥१८॥ अर्थ-यह राजाका बचन सुनके उम्बर राजा बोला हे महाराज! आपको ऐसा बचन कहनाभी युक्त नहीं है काग निंदनीय पक्षीके कंठमें सोनेरत्नकी माला कौन पहरावे अर्थात् मैं कागके तुल्य हूं और कन्या सोनेरत्नकी मालाके सदृश है ॥ ३७॥ एगमहं पुवकयं, कम्मं भुंजेमि एरिसमणज्झं । अवरं च कहमिमीए, जम्मं बोलेमि जाणंतो ॥३८॥ है अर्थ हे महाराज ! एकतो मैं ऐसा अनार्य पूर्वभवमें कर्म किया सो भोगवता हूं और जानता भया इस उत्तम कन्याका जन्म कैसे डुबोऊं मेरेको यह कार्य करना युक्त नहीं है ॥ ३८॥ ताभो नरवर! जइ देसि, काविता देसु मज्झ अणुरूवं । दासिविलासिणिधूयं, नोवा ते होउ कल्लाणं ३९ ता अर्थ-इस कारणसे हे राजन् ! जो कोईभी कन्या देते हो तो मेरे योग्य दासी विलासिनीकी पुत्री देवो अथवा ऐसी कोई न होवे तो तुम्हारे कल्याण होवो मेरे इस कार्यसे सरा ॥ ३९॥ तो भणइ नरवरिंदो, भो भो महनंदिणी इमा किंपि।नो मज्झकयं मन्नइ, नियकम्मं चेव मन्नेइ ॥४०॥ - अर्थ-तब राजा बोले भो भो उम्बरराज ! यह मेरी पुत्री मेरा किया हुआ उपकार कुछभी नहीं मानती है केवल अपने कर्महीको प्रमाण करती है ॥४०॥ तेणं चिय कम्मेणं, आणीओतंसि चेव जीइ वरो।जइ सा नियकम्मफलं, पावइ ता अम्ह को दोसो *KAISHISHIRISH ॥१८॥ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च. ४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — उसीही कर्मने इनका भर्तार होनेको तुमको यहां प्राप्त किया है जो यह मेरी पुत्री अपने कर्मका फल पावे तो हमारा क्या दोष है ॥ ४१ ॥ तं सोऊणं बाला, उट्ठित्ता झत्ति उंवरस्स करं । गिन्हइ निययकरेणं, विवाहलग्गं व साहंती ॥४२॥ अर्थ- वह राजाका बचन सुनके मदनसुंदरी कन्या उम्बर राजाका हाथ शीघ्र अपने हाथसे ग्रहण करे क्या करती होवे जैसी मानो विवाह लग्न साधती होवे वैसी ॥ ४२ ॥ सामंतमंतिअंतेउरीउ, वारंति तहवि सा बाला । सरयससिसरिसवयणा, भणइ सुचिय पमाणं ॥ ४३ ॥ अर्थ — सामंत मंत्री लोग और अंतेवरकी स्त्रियां मना करे हैं तौभी शरद ऋतुके चंद्रके जैसा है मुख जिसका ऐसी मदनसुंदरी मेरे यही वर प्रमाण है औरसे कार्य नहीं है ऐसा बोली ॥ ४३ ॥ एगत्तो माउलओ, एगत्तो रुप्यसुंदरी माया । एगत्तो परिवारो, रुयइ अहो केरिसमजुत्तं ॥ ४४ ॥ अर्थ — उस अवसर में एकदिशिमें मदनसुंदरीका मामा पुण्यपाल रोवे एकदिशिमें मदनसुंदरीकी माता रूपसुंदरी रानी रोवे एक तरफ उन्होंके परिवार के लोग रोवे अहो यह कैसा अयुक्त कार्य हुआ ऐसा विचारते भए ॥ ४४ ॥ | तहवि न नियकोवाओ, वलेइ राया अईव कठिणमणो । मयणावि मुणियतत्ता, निय सत्ताओ न पचलेइ ४५ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-तथापि राजा अपने क्रोधसे नहीं निवर्त होवे है कैसा है राजा अत्यन्त कठोर है मन जिसका मदनसुंदरीभी भाषाटीकाचरितम् || अपने सत्वसे धैर्यसे नहीं चले कैसी है मदनसुंदरी तत्त्वकी जाननेवाली हैं ॥ ४५ ॥ 15 सहितम्. दातं वेसरिमारोविय, जा चलिओ उंवरो नियय ठाणं। ता भणइ नयरलोओ, अहो अजुत्तं अजुत्तंति ॥४६॥ ___ अर्थ-तदनंतर उम्बर राणा उस कुमरीको खचरनीपर चढ़ाके वहांसे अपने स्थान चला उस समय नगरके लोग इस प्रकारसे बोले अहो यह कार्य अयुक्त भया अयुक्त भया ॥ ४६ ॥ एगे भणंति घिद्धी, रायाणं जेणिमंकयमजुत्तं । अन्ने भणंति धिद्धी, एयंअइदुविणीयंति ॥४७॥8 | अर्थ-उस अवसर कई लोग कहे राजाको धिक्कार होवो धिक्कार होवो जिस कारणसे राजाने यह अयुक्तकार्य हूँ किया और लोग ऐसे बोले इस दुर्विनीत कन्याको धिक्कार होवो जिसने पिताके बचन नहीं अंगीकार किए ॥४७॥ केवि निंदंति जणणिं, तीए निंदंति केवि उवज्झायं । केवि निंदंति दिवं, जिणधम्म केवि निंदंति॥४८॥ | अर्थ-और उस वक्तमें कईक लोग कन्याकी माताकी निंदा करे इसकी माताने सिखावन अच्छी नहीं दियी और कईक लोग उपाध्यायकी निंदा करे अच्छी पढ़ाई नहीं कितने लोग कहें इसका भाग्यही ऐसा है और कितनेक जैन धर्मकी निंदा करें जैनी कर्महीं कुमानते हैं ॥४८॥ ॥१९॥ तहवि हु वियसियवयणा, मयणा तेणुंवरेण सह जंती। नकुणइ मणेविसायं, सम्मं धम्मं वियाणंती ॥४९॥ KAU*XSAAN For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-तथापि निश्चय है मनमें जिसके ऐसी मदनसुंदरी कन्या उम्बर राजाके साथ जाती भई विकस्वर मान है मुख जिसका ऐसी मनमें दुःख नहीं करे कैसी है मयना सुंदरी सम्यक् धर्मको जाननेवाली है इससे ॥ ४९ ॥ उंवरपरिवारेणं, मिलिएणं हरिसनिब्भरंगेणं । नियपहुणो भत्तेणं, विवाहकिच्चाई विहियाइं ॥ ५० ॥ अर्थ-बाद इकट्ठा हुआ उम्बरका परिवारने विवाह कार्य किए कैसा है उम्बरका परिवार हर्षसे भरा है अंग 2 ६ जिन्होंका और अपने स्वामीका भक्त है ॥ ५० ॥ इतो रन्ना सुरसुंदरीइ, वीवाहणत्थमुवज्झाओ। पुट्ठो सोहणलग्गं, सोपभणइ राय ! निसुणेसु ॥५१॥ - अर्थ-इधरसे राजाने सुरसुंदरी कन्याका विवाह करने के लिए उपाध्यायको सम्यक् लग्न पूछा तव उपाध्याय बोला हे महाराज आप सुनो ॥५१॥ अजं चिय दिणसुद्धी, अत्थि परं सोहणं गयं लग्गं । तइया जइया मयणाइ, तीय कुट्ठियकरो गहिओ ५२8 __ अर्थ-आजही दिनशुद्धि है यह सम्पूर्ण दिन शुद्ध है परंतु केवल शोभन लग्न तो तव गया जब मदनसुंदरीने कोढ़ी उम्बर राणेका कर ग्रहण किया ॥५२॥ राया भणेइ हुँहुं, नाओ लग्गस्स तस्स परमत्थो । अहुणाविहु नियधूयं, एयं परिणावइस्सामि ॥५३॥ ROSMAHIRAHISISHA For Private and Personal use only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-हुं हुं यह अनादरमें है राजा अनादरसे बोले उस लग्नका परमार्थ जाना जिससे उसने कोढ़ीको परणा मैं भाषाटीकाश्रीपालचरितम् | इसी वक्तही अपनी पुत्रीका पाणिग्रहण कराउंगा ॥ ५३॥ |सहितम्. रायाएसेण तओ, खणमित्तेणावि विहियसामग्गिं । मंतीहिं पहिढेहि, विवाहपत्वं समाढत्तं ॥ ५४॥18 ॥२०॥ । अर्थ-तदनंतर राजाकी आज्ञासे हर्षित मंत्री अमात्योंने विवाह उत्सव प्रारंभ किया कैसा विवाह पर्व क्षणमात्रमें द करीगई है सामग्री जिसकी ॥५४॥ तं च केरिसं उसियतोरणपयडपडायं, वज्झिरतूरगहीरनिनायं । नच्चिरचारुविलासिणिघट्ट, जयजयसद्दकरंतसुभद्रं ॥ ५५॥ अर्थ-वह विवाह पर्व कैसा है सो कहते हैं ऊचे किए हुए तोरणोंपर ध्वजाएं बाधी गई जिसमें और बहुत प्रकारके वादित्र बाजते हैं उन्होंका गंभीर ध्वनि है जिसमें और नाटक करती भई मनोज्ञ वेश्यादिकका समुदाय है जिसमें और भट्ट लोग जय २ शब्द करे है जिसमें ऐसा ॥ ५५॥ पदृसुयघडओलिजमालं, कूरकपुरतंबोलविसालं । ॥२०॥ धवलदियंतसुवासिणिवग्गं, वुड्डपुरंधिकहियविहिमगं ॥५६॥ SHAR SECRECASSACRECCASKHECKS For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्थ - तथा नानाप्रकारके वर्णवाले उत्तम वस्त्रोंसे रचा है मंडप जिसमें तथा कूरादि नाम मिष्टान्नादि भोजनके ऊपर कपूर कस्तूरी सहित ताम्बूल दियाजाय जिसमें और सुवासिनी और बहुवां धवल मंगल गावें हैं जिसमें तथा वृद्धा पुत्र दोहिता दोहितियोंका परिवारवाली सधवस्त्रियोंने विवाहका विधिमार्ग कहा है जिसमें ॥ ५६ ॥ मग्गणजणदिजंतसुदाणं, सयणसुवासिणिकयसम्माणं । मद्दलवायचउप्फललोयं, जणजणवयमणिजणियपमोयं ॥ ५७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — तथा याचक लोगोंको शोभन दान दिया जावे जिसमें और अपने सम्बन्धी लोग और सुवासिनियोंका सन्मान बहुमान किया है जिसमें मृदंगोंका बजाना उससे बहुत लोग इकट्ठे हुए है जिसमें नगरके लोग और देशके लोगोंके मनमें किया है प्रमोद हर्ष जिसमें ऐसा ॥ ५७ ॥ कारियसुरसुंदरिसिणगारं, सिंगारियअरिदमणकुमारं । हथलेवइमंडलविहिचंगं, करमोयणकरिदाणसुरंगं ॥ ५८ ॥ अर्थ — तथा सुरसुंदरी कन्याको शृंगार कराया है जिसमें और अरिदमन कुमरको वस्त्र भूषणोंसे अलंकृत किया है जिसमें और पाणिग्रहणके समयमें ब्राह्मण करके किया जाय मंडलविधि लोक प्रसिद्ध उस करके रमणीक तथा करमोचन समयमें राजाने हाथी घोड़े वगेरेह दान दिया उस करके सुंदर ॥ ५८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री अर्थ उक्त प्रकार चरितम् ॥२१॥ के अरिदमन कुमर लोगो। धन्ना एसा सुरसार कन्याका अनुरूप एवं विहियविवाहो, अरिदमणोलद्धहयगयसणाहो । सुरसुंदरीसमेओ, जा निगच्छइ पुरवरीओ ॥५९॥[भाषाटीका___ अर्थ-उक्त प्रकारसे किया है विवाह जिसका और पाया है घोड़ा हाथी उन्हों करके सहित और सुरसुंदरी अपनी सहितम्स्त्री समेत हाथीपर सवार होके अरिदमन कुमर जितने उजैनीसे निकले अर्थात् रवाने होवे ॥ ५९॥ ता भणइ सयललोओ, अहोणुरूवो इमाणसंजोगो। धन्ना एसा सुरसुंदरी य, जीए वरो एसो ॥६॥ | अर्थ-उतने सर्व नगरके लोग याने बहुतसे लोग कहे अहो यह आश्चर्य है इन कुमार कन्याका अनुरूप योग्य सम्बन्ध भया है यह सुरसुंदरी कन्या धन्य है जिसका यह अरिदमन कुमर भर्तार हुआ ॥ ६॥ केवि पसंसंति निवं, केविवरं केवि सुंदरिंकन्नं । केवि तिए उवज्झायं, केवि पसंसंति सिवधम्मं ॥६॥ | अर्थ-और उस अवसरमें कईक लोग राजाकी प्रशंसा करे कितनेक लोग कुमरकी प्रशंसा करे कईक लोग सुरसुं-18 दरी कन्याकी शोभा करे कितनेक लोग कन्याकी माताकी और उपाध्यायकी प्रशंसा करे कईक लोग शिवधर्मकी प्रशंसा करे ॥६१॥ सुरसुंदरि सम्माणं, मयणाइ विडंबणं जणोदटुं। सिवसासणप्पसंसं, जिणसासणनिंदणं कुणइ ॥२॥ है। अर्थ-उस अवसरमें सुरसुंदरी राजकन्याका सन्मान सत्कार देखके और मदनसुंदरीकी विडंबना देखके बहिदृष्टि | ॥२१॥ लोग जैसे होय वैसा शिवशासनकी प्रशंसा और जैनशासनकी निंदा करे ॥२॥ NISHALISAMACROSA For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इओय नियपेडयस्स मज्झे, रयणीए उंबरेण सा मयणा।भणिया भद्दे निसुणसु, इमं अजुत्तं कयं रन्ना ६३ | अर्थ इधरसे अपना पेड़ा समुदायमें रात्रिमें उम्बरराजाने मदनसुंदरीसे इस प्रकारसे कहा हे शोभने तें सुन राजा है तेरे पिताने यह अयुक्त किया विगड़ा हुआ शरीर जिसका ऐसा मैं हूं मेरेकू दी ऐसा भाव है ॥ ६३॥ तहवि न किंपि विणटुं, अजवितं गच्छ कमवि नररयणं । जेणं होइ न विहलं, एयं तुह रूवनिम्माणं ६४ | अर्थ-तथापि कुछभी नहीं बिगड़ा है अवीभी तैं कोई श्रेष्ठ पुरुष पास जा अर्थात् कोई निरोगी पुरुषको अंगीकार कर जिससे तेरे यह रूपकी रचना निष्फल न होवे ॥ ६४ ॥ है इह पेडयस्स मज्झे, तुज्झवि चिटुंतिआइ नो कुसलं। पायं कुसंगजणियं, मज्झ वि जायं इमं कुटुं॥६५॥ PI अर्थ-इस समुदायमें रहती भई तेरेको कुशल नहीं है कैसे सो कहते हैं बहुत करके मेरेभी यह कोढ़ उत्पन्न भया है सो तेरे कभी न होजाय ॥ ६५ ॥ है तो तीए मयणाए, नयणंसुयनीरकलसवयणाए। पइपाएसु निवेसियसिराइ, भणियं इमं वयणं ॥६६॥ 1 अर्थ तदनंतर मदनसुंदरीने यह वक्ष्यमाण बचन कहा कैसी मदनसुंदरी नेत्रोंमें जो आंसूका जल उससे 3 मैला हुआ है मुख जिसका ऐसी और कैसी भर्तारके चरणों में स्थापा है मस्तक जिसने ऐसी क्या बोली सो 8 दि कहते हैं ॥६६॥ CANASOSLASHX UPHORUSSIHIATRA For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- सामिय! सवं मह आइसेसु, किंचेरिसं पुणो वयणं। नो भणियत्वं जं दूह, वेइ मह माणसं एयं ॥६७॥ भाषाटीकाचरितम् 31 अर्थ-हे स्वामिन् मेरेको और सब कार्यकी आज्ञा करो किंतु ऐसा बचन और नहीं कहना कैसे सो कहते हैं जिससहितम्. ॥२२॥ कारणसे यह बचन मेरे मनको दुःखावे है ॥ ६७॥ अन्नं च पढमं महिलाजम्म, केरिसयं तंपि होइ जइलोए। सीलविहणं नृणं, ताजाणह कंजियं कुहियं ६८ | अर्थ-औरभी सुनो पहले स्त्रीका जन्म अशुद्धही है वह स्त्रीका जन्म जो लोकमें ब्रह्मचर्य रहित होवे तब निश्चय कुथी भई कांजीके सदृश अत्यन्त अशुद्ध आप जानो ॥ ६८॥ सीलंचिय महिलाणं, विभूसणं सीलमेव सबस्सं। सीलं जीवियसरिसं, सीलाओन सुंदरंकिंपि॥६९॥ | अर्थ-जिस कारण स्त्रियोंके शीलही आभरण है और ब्रह्मचर्यही सर्वस्व सर्व सार है और स्त्रियों के शील ब्रह्मच र्यजीवितव्यके सरीखा है स्त्रियोंके शीलसे अधिक कुछभी सुंदर नहीं है ॥ ६९॥ है ता सामिय! आमरणं, मह सरणं तंसि चेव नो अन्नो।इय निच्छियं वियाणह, अवरं जं होइ तं होउ ७० PI अर्थ-इस कारणसे हे स्वामिन् मरणपर्यत मेरे आपहीका शरणा है और कोई शरणा नहीं है यह निश्चय युक्त |8| आप जानो और जो होनेवाला है सो होवो ॥७॥ ॥२२॥ एवं तीए अइनिच्चलाइ, दढसत्तपिरकणनिमितं । सहसा सहस्सकिरणो, उदयाचल चूलियं पत्तो ॥७॥ SCHOLA RGACAA-% SARASSADOS For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir AAAAAAA% अर्थ-कहे प्रकारसे अत्यन्त निश्चल उस मदनसुंदरीका जो दृढ़ सत्त्व धैर्य देखने के निमित्त होवे वैसा अकस्मात् सहस्रकिरण सूर्य उदयाचल निषध पर्वतकी चूलिका शिखा उसपर प्राप्त भया अर्थात् सूर्योदय भया ॥ ७१॥ मयणाए वयणेणं, सो उवरराणओ पभायमी। तीए समं तुरंतो, पत्तो सिरिरिसहभवणंमि ॥७२॥ ___ अर्थ-तब मदनसुंदरीके बचनसे उम्बरराजा प्रभातमें अपनी स्त्रीसहित शीघ्र २ चलता हुआ श्री ऋषभदेव स्वामीके मंदिर गया ॥७२॥ आणंदपुलइअंगेहिं, तेहिं दोहिंविनमंसिओसामी।मयणा जिणमयनिउणा, एवं थोउं समाढत्ता ॥७३॥ ___ अर्थ-आनंद हर्षसे रोमोद्गम युक्त शरीर जिन्होंका ऐसे वधूवर दोनों श्री ऋषभदेव स्वामीको नमस्कार किया बाद है |जैन धर्ममें निपुण ऐसी मदनसुंदरी वक्ष्यमाण प्रकारसे स्तुति करनी प्रारंभ करी ॥ ७३ ॥ भत्तिब्भरनमिरसुरिंदविंद!,वंदियपय पढमजिणिंदचंद!। चंदुजलकेवलकित्तिपूर,पूरियभुवणंतरवेरिसूर! 81 अर्थ-भक्तिके समूहसे नम्र नमनेका स्वभाव जिन्होंका ऐसे देवेन्द्रोंका समूह उन्हों करके वंदित है चरण कमल | जिन्होंका ऐसे हेप्रथमजिनेन्द्रचन्द्र चन्द्रके जैसा आल्हाद करनेवाला और चन्द्र के जैसा उज्वल धवल सम्पूर्ण जो कीर्तिका पूर नाम यशका समूह उस करके पूरित भरा हुआ तीन लोक जिस करके उसका सम्बोधन हे चन्द्रो० और अंतरंग शत्रु काम क्रोधादिकके जीतनेमे सूर उसका संबोधन ॥ ७४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥२३॥ SSESASARAMBASSAMAKAX सूरूव हरियतमतिमिरदेव, देवासुरखेयरविहियसेव । भाषाटीकासेवागयगयमयरायपाय, पायडियपणामह कयपसाव ॥ ७५॥ | सहितम्. अर्थ-और सूर्यके जैसा दूर किया है अज्ञानरूप अंधकार जिसने और वैमानिकादि देव भवनपत्यादि असुर और विद्याधर उन्होंने करी है सेवा जिसकी ऐसा हे देव! सेवाके वास्ते आया और गया है मद जिन्होंका ऐसे जो राजा है लोग उन्हों करके नमस्कार किया है चरणों में जिन्होंके ऐसा हे सेवा०? और किया है प्रसाद जिसने हे कृतप्रसाद! ॥७५॥ सायरसमसमयामयनिवास, वासवगुरुगोयरगुणविकास। कासुजलसंजमसीललील, लीलाइ विहियमोहावहील ॥ ७६ ॥ अर्थ-समुद्रके तुल्य समता अमृतके निवास इन्द्र गुरु लोकोक्तिसे बृहस्पतिः उसके विषयभूत है गुणोंका विस्तार जिन्होंका उसका सम्बोधन हे वासव० इत्यादि और कास तृणविशेष उसके सदृश संयम शील चारित्र स्वभावकी लीला जिसके ऐसा और लीलामात्रसे किया है मोहनीय कर्मका अनादर जिन्होंने ऐसे ॥ ७६॥ हीलापरजंतुसुअकयसाव, सावयजणजणियाणंदभाव। भावलयअलंकिय रिसहनाह, नाहत्तणु करि हरि दुक्खदाह ॥ ७७॥ For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - हीलनाही प्रधान जिन्होंके ऐसे जीव उन्होंपर नहीं किया है आक्रोश जिन्होंने और श्रावक लोगोंको उत्पन्न किया है आनंदका उदय जिन्होंने और भा नाम प्रभा उसका मंडल उस करके शोभित उसका सम्बोधन हे ? भा वलय० पूर्वोक्त विशेषणसहित हे ऋषभनाथ आप मेरे योग क्षेम करो मेरे दुःख दाह दूर करो ॥ ७७ ॥ इरिसहजिणेसर भुवणदिणेसर, तिजयविजयसिरिपाल पहो । मयणाहिय सामिय? सिवगइगामिय, मणहमणोरह पूरिमहो ॥ ७८ ॥ अर्थ — इस कहे प्रकारसे हे ऋषभजिनेश्वर हे भुवनदिनेश्वर लोकमें सूर्यसदृश तीनजगतकी विजयलक्ष्मीको पालनेवाला हे प्रभो हे कामका शत्रु हे स्वामिन् हे शिवगति गामिन् मेरे मनके मनोरथोंको पूर्ण करो यह तात्पर्यार्थ है और | श्लेषार्थ यह है तीन जगत् में विजय जिसका ऐसे श्रीपालका प्रभु उसका सम्बोधन तथा मदनसुंदरीका हित करनेवाला उसका सम्बोधन हे मदनाहित ! ॥ ७८ ॥ | एवं समाहिलीणा, मयणा जा थुणइ ताव जिणकंठा । करट्ठियफलेण सहिया, उच्छलिया कुसुमवरमाला अर्थ — इस प्रकारसे समाधि चित्तकी एकाग्रतामें लगा हुआ है मन जिसका ऐसी मदनसुंदरी जितने स्तुति करे उतने भगवान के कंठसे हाथमें रहा हुआ बिजोरेका फलसहित प्रधान पुष्पोंकी माला उछली ॥ ७९ ॥ मयणा वयणाओ उंबरेण, सहसत्ति तं फलं गहियं । मयणाइ सयंमाला, गहिया आनंदियमणाए ॥ ८०॥ For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥२४॥ अर्थ-उस समय मदनसुंदरीके बचनसे उम्बर रानेने शीघ्र वह फल ग्रहण किया आनंदयुक्त मनजिसका ऐसी भाषाटीकामदनसुंदरीने स्वयं माला ग्रहण करी ॥८॥ सहितम्. काभणियं च तीइ सामिय, फिहिस्सइ एस तुम्ह तणुरोगो।जेणेसो संजोगो, जाओ जिणवरकयपसाओ८१15 | अर्थ-और मदनसुंदरीने कहा हे स्वामिन् यह आपके शरीरका रोग चला जायगा अर्थात् मिट जायगा जिस कारणसे यह संयोग जिनवर श्री ऋषभदेव स्वामीने किया है प्रसाद जिसमें ऐसा भया है इससे जाना जाय है यह अर्थ है ॥८॥ तत्तो मयणा पइणा, सहिया मुणिचंदगुरुसमीवंमि । पत्ता पमुइयचित्ता, भत्तीए नमइ तस्स पए ॥२॥ | अर्थ-तदनन्तर मदनसुंदरी अपने भार सहित मुनिचन्द्र नामके गुरूके पासमें गई तब हर्षित है चित्तजिसका| ऐसी मदनसुंदरी गुरूके चरण कमलोंमें भक्तिसे नमस्कार किया ॥ ८२॥ गुरुणोय तयाकरुणा, परित्तचित्ता कहंति भवियाणं। गंभीरसजलजलहरसरेण,धम्मस्स फल मेवं ॥८॥ अर्थ-तब दयासे व्याप्त है चित्त जिन्होंका ऐसे गुरु भव्य जीवोंके आगे सजल मेघके जैसी गंभीर ध्वनिकरके वक्ष्यमाण प्रकार करके धर्मका फल कहे ॥८३॥ सुमाणुसत्तं सुकुलं सुरूवं, सोहग्गमारुग्गमतुच्छमाउं। ॥२४॥ रिद्धिं च विद्धिं च पहुत्तकित्ती, पुन्नप्पसाएण लहंति सत्ता ॥ ८४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18| अर्थ-किस प्रकारसे धर्म कहे सो कहते हैं अहो भन्यो शोभन मनुष्यपनो और उत्तम कुल वहांभी शोभनरूप || आकृति पांच इन्द्रिय पटु प्रगट वहां भी सब लोगोंको वल्लभ होना और निरोगता बड़ा आयुः और सम्पदा और वृद्धिः पुत्रादि परिवार और स्वामीपना कीर्ति इतनी वस्तुवां पुन्यके प्रसादसे धर्मके प्रभावसे प्राणी पावे है ॥ ८४ ॥ इच्चाइदेसणंते, गुरुणो पुच्छंति परिचियं मयणं । वच्छे कोऽयं धन्नो, वरलक्खणलक्खिय सुपुन्नो? ८५ । अर्थ-इत्यादि देशनाके अंतमें गुरूने अपनी परचित मदनसुंदरीसे पूछा हे वत्से यह तेरे आगे रहा हुआ धन्य प्रशंसनीय और प्रधान लक्षणोंसहित शोभन पुण्य जिसका ऐसा कौन पुरुष है ॥ ८५ ॥ मयणाइ रुयंतीए, कहिओ सबोवि निययवुत्तो। विन्नत्तं च न अन्नं, भयवं? मह किंपि अत्थि दुहं ८६ | अर्थ-तब मदनसुंदरी रोती भई सबही अपना वृत्तान्त कहा और बीनती किया हे भगवान हे पूज्य मेरेको और कुछभी दुःख नहीं है ॥ ८६॥ हा एवं चिय मह दुक्खं, जं मिच्छादिट्रिणो इमे लोया। निंदंति जिणह धम्म, सिवधम्म चेव संसंति ॥८७॥ __ अर्थ-किंतु यही बड़ा दुःख है जो मिथ्यादृष्टि यह लोग जैनधर्मकी निंदा करे है मिथ्या धर्मकी प्रशंसा | करे है ॥ ८७॥ ता पहु कुणह पसायं, किंपि उवायं कहेह मह पइणो। जेणेस दुट्ठवाही, जाइ खयं लोयवायं च ॥८॥ श्रीपा.च.५ BRUARCASUAGRAMMARY For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatih.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir ITA भाषाटीकासहितम्. श्रीपाल- अर्थ-तिस कारणसे हे प्रभो हे स्वामिन् आप प्रसाद करो प्रसन्न होवो कोई उपाय कहो जिससे मेरे पतीका यह चरितम् कोढ़रोग क्षय होवे और लोकापवादभी क्षय होवे अर्थात् व्याधिका क्षय क्या होवे लोगोंमें जो निंदा होवे उसका नाश होजाय ॥८॥ ॥२५॥ पभणेइ गुरू भद्दे !, साहणं न कप्पए हु सावज । कहिउं किंपि तिगिच्छं, विज्झं मंतं च तंतं च ॥८९॥ ___ अर्थ-तब गुरू कहे हे भद्रे साधुओंको कुछभी सावद्य दोष सहित वस्तु कहना नहीं कल्पे क्या सो कहते हैं चिकित्सा वैद्यकशास्त्र और विद्या मंत्र तंत्र यह सावद्य साधुओंको नहीं कहना ॥ ८१॥ तहवि अणवज्जमेगं, समत्थि आराहणं नवपयाणं । इयलोइयपारलोइय,-सुहाण मूलं जिणुदिदै॥१०॥ | अर्थ-तथापि एक नवपदोंका आराधन निर्दोष है कैसा वह इसभव परभवके सुखोंका मूल कारण है और कैसा है है श्री तीर्थकरोंने कहा है ॥९॥ अरिहं सिद्धायरिया, उवझाया साहुणो य सम्मत्तं । नाणं चरणं च तवो, इयपयनवगं परमतत्तं ॥११॥ IPI अर्थ-नवपदोंका नाम कहते हैं अरहंत १ सिद्ध २ आचार्य ३ उपाध्याय ४ साधु ५ सम्यक्त्व ६ ज्ञान ७ चारित्र 18/८ तप ९ ये नवपद उत्कृष्ट तत्व वर्ते है ॥ ९१॥ AKASSAR For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एएहिं नवपएहिं रहियं, अन्नं न अत्थि परमत्थं । एएसुच्चिय जिणसासणस्स, सबस्स अवयारो ॥९२॥ अर्थ - इन नवपदों करके रहित और परमार्थ तात्विक अर्थ नहीं है ये नवपदों में सर्व जिनशासनका अवत रण है ॥ ९२ ॥ | जेकिर सिद्धा सिइझंति, जेय जे यावि सिझ्झइस्संति । ते सधेवि हु नवपयझाणेणं चेव निब्भंति ॥९३॥ अर्थ - निश्चय जे जीव अतीत कालमें सिद्ध भया अर्थात् मुक्तिगया और जे वर्तमानकालमें सिद्ध होते हैं और अनागत कालमें ये मोक्ष जावेंगे वह सर्व नव पदोंके ध्यानसेही होंगे नव पदोंके ध्यानसिवाय नहीं ॥ ९३ ॥ एएसिं च पयाणं, पयमेगयरं च परमभत्तीए । आराहिऊण णेगे, संपत्ता तिजयसामित्तं ॥ ९४ ॥ अर्थ - और इन नव पदोंमें एक पदभी परम भक्ति करके आराधन करके अनेकजीव तीनजगत्का स्वामित्व प्राप्त भए है सकल कर्मके क्षय होनेसे तीन भवनका स्वामी भया ॥ ९४ ॥ एएहिं नवपएहिं सिद्धं सिरिसिद्धचक्कमेयं जं । तस्सुद्धारो एसो, पुवायरिएहिं निदिट्ठो ॥ ९५ ॥ अर्थ — इन नवपदोंसे सिद्ध याने निष्पन्न जो यह सिद्धचक्र नामका यन्त्र राजका उद्धार पूर्वाचार्योंने कहा है ॥ ९५ ॥ | गयण मकलियायतं, उट्ठाहसरं सनायविंदुकलं । सपणवबीयाणाहय, मंतसरं सरह पीढंमि ॥ ९६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ २६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - अब ग्रंथकार ग्यारह ११ गाथासे सिद्धचक्रका उद्धार विधिः कहते हैं गयण इत्यादि यहां गगनादि संज्ञा मंत्र शास्त्रोंसे जानना वहां गगनशब्दसे हू ऐसा अक्षर कहा जावे यन्त्रके सर्व मध्यभागमें हू ऐसा अक्षर स्मरण करो यहां स्मरणहीका अधिकार है स्मरणकी शक्ति न होवे तो पदस्थ ध्यान साधनेके लिए मनोज्ञ द्रव्योंसे पट्टादिकमें लिखनाभी पूर्वाचार्योंका आमनाय है ऐसा आगे भी विचारना वहां पहले अकार अक्षरकी कलिका व्याकरण संज्ञा मई वक्र s ऐसा अक्षररूप उस करके सहित हकार लिखना ऽह ऐसा भया यह गगनबीज कहा जावे कैसा गगनबीज ऊपर नीचे रेफसहित 5 र्हऐसा भया और कैसा नाद अर्ध चंद्राकारके ऊपर बिंदु सहित अर्ह ऐसा भया और ओंकार ह्रींकार और अनाहत कुंडलाकार सहित आम्नाय यह है अहै यह बीज ओंकारके उदरमें स्थापे यह बीज ह्रींकारके उदरमें स्थापना बाद ह्रींकारका ईकार स्वरकी रेखा घुमाके दो कुंडलाकार अनाहत करके तीनों बीजको बीटना और कैसा बीज चौतर्फ स्वर जिसके अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ लु ए ऐ ओ औ अं अः ये सोलह अंतमें स्वर हैं जिसके ऐसा मूल पीठमें ध्याओ ॥ ९६ ॥ | झायह अडदलवलए, सपणवमायाइए सुवाहंते । सिद्धाइए दिसासु, विदिसासु दंसणाईए ॥ ९७ ॥ अर्थ - अथ पीठलिखके उसके पासमें गोलमंडल लिखे उसके ऊपर आठ पांखडीका कमल लिखे उन्होंमें चार दिशाके पत्र में ओम् ह्रीं सिद्धेभ्यः स्वाहा पूर्व दिशिमें १ ओम् ह्रीं आचार्येभ्यः स्वाहा दक्षिणमें २ ओम् हीं उपाध्यायेभ्यः स्वाहा पश्चिममें ३ ओम् ह्रीं सर्व साधुभ्यः स्वाहा उत्तरमें ४ इसीतरह विदिशा में दर्शनादि चार पद ध्याओ लिख For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ २६ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | नेका विधि यह है ओं ह्रीं दर्शनाय स्वाहा अग्नि कोणमें १ ओम् ही ज्ञानाय स्वाहा नैऋतमें २ ओ ह्रीं चारित्राय स्वाहा वायव्यमें ३ ओम् ह्रीं तपसे स्वाहा ईशानमें ४ इस क्रमसे लिखे यह अष्टदल पहला वलय भया ॥ ९७ ॥ वीयवलयंमि अडदिसि, दलेसु साणाहए सरह वग्गे । अंतरदलेसु अट्ठसु, झायह परमिट्ठिपढमपए ९८ अर्थ - प्रथम वलय के बाहर सोलह पाखड़ीका कमल मंडलाकार लिखे वहां दूसरे वलयमें आठ एकांतरित दिग् दलमें अनाहत बीजसहित आठ वर्ग अ १ क २ च ३८४ त ५ प ६ ७ श ८ यह आठ वर्ग क्रमसे लिखके स्मरण करो पहले वर्ग में सोलह वर्ण है कवर्गादिक पांचोंमें प्रत्येक पांच २ वर्ण है अन्तिम दो वर्गमें चार २ वर्ण है बाद आठ वर्गोंके अंतर पत्रों में परमेष्ठी पद ओम् नमो अरिहंताणं ध्यावो यह दूसरा वलय हुआ ॥ ९८ ॥ तइयवल एवि अडदिसि, दिप्पंत अणाहएहिं अंतरिए । पायाहिणेण तिहि, पंतियाहिं झाएह लद्धिपए १९९ अर्थ- तीसरे वलयमेंभी आठ दिशामें आठ अनाहत लिखे दोनोंके अंतर में दो २ लब्धि पद ऐसे आठ अंतरोंमें | सोलह लब्धि पद पहली पंक्ति में एवं सोलहही दूसरी पंक्ति में और सोलहही तीसरी पंक्ति में इस प्रकारसे दीप्यमान आठ अनाहतोंके अंतर में प्रदक्षिणा करके तीन पंक्ति करके ४८ लब्धि पद तुम ध्यावो ॥ १९९ ॥ ते पणववीयअरिहं, नमोजिणाणंति एवमाईया । अडयालीसंणेया, सम्मं सुगुरूवएसेणं ॥ २०० ॥ अर्थ - लब्धिपद ओंकार ह्रींकार ऽहै ऐसा सिद्ध बीज पूर्वक नमोजिणाणं ऐसा पद ओम् हीं डर्ह नमोजिणाणं For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल-15 इत्यादि अड़तालीस पद सम्यक् सुगुरूके उपदेशसे जानना इन्होंका नाम और माहात्म्य लब्धिकल्पशास्त्रसे जानना 8 भाषाटीकाचरितम् इहां तो आराधन विधिः विना लिखनेमें दोष है ॥२०॥ सहितम्. तं तिगुणेणं माया,-वीएणं सुद्धसेयवपणेणं । परिवेढिऊण परहीइ, तस्स गुरुपायए नमह ॥ २०१॥ ___ अर्थ-वह पीठादि लब्धिपद पर्यंत त्रिगुण श्वेतवर्ण हींकारसे चौतर्फ वीटके परिधिमें आव गुरु पादुकाको नमस्कार करो यहां यह भाव है सर्व यन्त्रके ऊपर हींकार लिखके उसके ईकारसे तीनवलय देके चौथा आधावलयके अंतमें कौं ऐसा अक्षर लिखे उसकी परिधिमें आठ गुरु पादुका चरणन्यास लिखे ॥ २०१॥ अरिहं सिद्धगणीणं, गुरुपरमादिट्ठणंतसुगुरूणं । दुरणंताण गुरूण य, सपणववीयाओ ताओ य ॥२०॥ ___ अर्थ-अब आठ गुरुपादुका कहते हैं अर्हत पादुका १ सिद्ध पादुका २ आचार्य पादुका ३ उपाध्याय पादुका ४ परमगुरुपादुका ५ अदृष्टगुरुपादुका ६ अनंतगुरुपादुका ७ अनंतानंतगुरुपादुका ८ यह आठ गुरु पादुका ओम् ही युक्त लिखना ओम् ही ऽहत् पादुकाभ्यो नमः ऐसे सब लिखना ॥ २०२॥ रेहादुगकयकलसा,गारामियमंडलंव तं सरह, चउदिसि विदिशि कमेणं, जयाइभाइकयसेवं ॥२०॥ ॥२७॥ _ अर्थ-दो रेखा यन्त्रके ऊपर वाम दक्षिण निकली परस्पर लगा हुआ अंतभाग जिन्होंका ऐसी दो रेखा करके है। For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | किया है कलसाकार अमृत मंडलके जैसा स्मरण करो अर्थात् कलसाकार लिखे पूर्वादि चारदिशामें जया १ विजया १२ जयंती ३ अपराजिता ४ और अग्निआदि चार विदिशामें जंभा १ थंभा २ मोहा ३ गंधा ४ इन्होंनें करी है सेवा जिसकी ॥ २०३ ॥ | सिरिविमलसामिपमुहा, -हिट्ठायगसयल देवदेवीणं । सुहगुरु मुहाओ जाणिय, ताण पयाणं कुणह झाणं ४ अर्थ - श्री विमलस्वामी सौधर्म देव लोकमें रहनेवाला श्री सिद्धचक्रका अधिष्ठायक प्रमुख समस्त देव और चक्रे - श्वरी वगैरेह देवियां उन्होंका ध्यान गुरूके मुखसे जानके मंत्रपदोंका ध्यान करो इन्होंका नाम कलसाकार यन्त्रके ऊपर चौतर्फ लिखे ओम् ह्रीँ विमलस्वामिने नमः इत्यादि ॥ २०४ ॥ अर्थ | तं विज्जादेविसासण, सुरसासणदेविसेवियदुपासं । मूलगहं कंठणिहिं, चउपडिहारं च चउवीरं ॥ २०५ ॥ दो गाथा व्याख्यान कहते हैं वह श्री सिद्धचक्रयन्त्रराज पूजनेवाले मनुष्योंका मनोवांछित पूरता है कैसा है रोहिण्यादि विद्या देवी सोलह और गौमुखयक्षादि २४ शासन देव चक्रेश्वर्यादि २४ शासन देवी इन्होंसे सेवित है वाम दक्षिण पार्श्व भाग जिसका और कैसा है श्री सिद्धचक्र कलसके मूलमें सूर्यादि नव ग्रह है जिसके और कंठमें नैसपदि नव निधान है जिसके नैसर्प १ पांडुक २ पिंगल ३ सर्वरत्नक ४ महापद्म ५ काल ६ महाकाल ७ | माणव ८ शंखक ९ तथा ४ प्रतिहार कुमुद १ अंजन २ वामन ३ पुष्पदंत ४ है जिसके तथा ४ वीर मानभद्र १ पूर्ण For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ २८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भद्र २ कपिल ३ पिंगल नामका जिसके ऐसा इहां १६ विद्या देवी ओम् ह्रीँ रोहिण्यै नमः इत्यादि यन्त्रके चौतर्फ लिखे तथा शासन देव ॥ २०५ ॥ | दिसिवाल खित्तवालेहिं, सेवियं धरणिमंडलपइटुं । पूयंताण नराणं, नूणं पूरेइ मणइटुं ॥ २०६ ॥ अर्थ-यन्त्र के दक्षिण दिशिमें लिखे शासन देवी यन्त्रके वाम दिशिमें लिखे और कलसाकार चक्र की पड़घीके नीचे ओम् आदित्यायनमः इत्यादि नव ग्रहों का नाम लिखे कंठमें नवनिधान ओम् नैसर्पकाय नमः इत्यादि लिखे तथा चार दिशामें क्रमसे कुमुद १ अंजन २ वामन ३ पुष्पदंत ४ लिखे तथा माणभद्रादि ४ वीर लिखे ५ दिक्पाल १० इन्द्र १ अग्नि २ यम ३ नैऋत ४ वरुण ५ वायु ६ कुबेर ७ ईशान ८ ब्रह्म ९ नाग १० इन्हों करके और क्षेत्रपाल करके प्रसिद्ध सेवित और पृथ्वीपीठपर प्रतिष्ठ रहा हुआ दश दिग्पालोंमें ८ दिग्पालोंको पूर्वादि क्रमसे लिखना ओम् इन्द्रायनमः इत्यादि ऊर्ध्व दिशामें ओम् ब्रह्मणेनमः, अधो दिशामें ओम् नागायनमः, अपने जीवने तरफमें यन्त्रके कोने में ओम् क्षेत्रपालायनमः लिखे इसके लिखनेमें सम्यविधिः आम्नायजाननेवालों के मुखसे अथवा लिखित यन्त्रसे जानना ॥ २०६ ॥ एयं च सिद्धचक्कं कहियं विज्जाणुवायपरमत्थं । नाएण जेण सहसा, सिज्यंति महंतसिद्धीओ ॥२०७॥ अर्थ - ये सिद्धचक्र विद्यानुवादनामक दशम पूर्वका परमार्थरूप रहस्यभूत है जिसके जाननेसे अकस्मात् शीघ्र अणिमादि बड़ी सिद्धियों सिद्ध होवे है ॥ २०७ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ २८ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एयं च विमलधवलं, जो झायइ सुक्कझाणजोएण । तवसंजमेण जुत्तो, सो पावइ निज्जरं विउलं ॥२०८॥ अर्थ - यह निर्मल उज्वल श्री सिद्धचक्रको जो पुरुष उज्वल ध्यान व्यापारसे ध्यावे वह पुरुष विपुल नाम विस्तीर्ण निर्जरा पावे अर्थात् बहुत कर्मका क्षय करे कैसा वह पुरुष तप संयम सहित ऐसा ॥ २०८ ॥ अक्खयसुक्खो मुक्खो, जस्स पसाएण लम्भए तस्स । झाणेणं अन्नाओ, सिद्धीओ हुंति किं चुज्जं ॥ २०९ ॥ अर्थ — अक्षय सुख जिसमें ऐसा मोक्ष श्रीसिद्धचक्र के प्रसादसे प्राणी पाते हैं सिद्धचक्रके ध्यानसे और सिद्धियां होवे इनमें क्या आश्चर्य है ॥ २०९ ॥ एयं च परमतत्तं परमरहस्तं च परममंतं च । परमत्थं परमपयं, पन्नत्तं परमपुरिसेहिं ॥ २१० ॥ अर्थ – यह सिद्धचक्र उत्कृष्ट तत्व है और परम रहस्य गोप्य है और परम मंत्र है परमार्थ है और उत्कृष्ट स्थान है और परमपुरुष तीर्थंकरोंने कहा है | २१० ॥ तत्तो तिजयपसिद्धं, अट्टमहासिद्धिदायगं सुद्धं । सिरिसिद्धचक्कमेयं, आराहह परमभत्तीए ॥ २११ ॥ अर्थ - तिस कारण से अहो भव्यो तीन जगत् में प्रसिद्ध अणिमादि आठ सिद्धियोंका देनेवाला शुद्ध निर्मल ऐसा श्री सिद्धचक्र उत्कृष्ट भक्तिसे आराधन करो अर्थात् सेवना करो ॥ २११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ २९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खंतो दंतो संतो, एयस्साराहगो नरो होइ । जो पुण विवरीयगुणो, एयस्स विराहगो सो उ ॥ २९२॥ अर्थ - अब इसके आराधकका स्वरूप कहते हैं क्षांतः - क्षमायुक्त दांतः - जितेन्द्रियः शांतः- मनका विकार जीता जिसने ऐसे मनुष्य इस सिद्ध चक्र के आराधक होते हैं और जो विपरीत गुणवाला कामक्रोधादि युक्त वह पुरुष इस सिद्धचक्रका विराधक होवे है ।। २१२ ॥ तम्हा एयस्साराहगेण, एगंतसंतचित्तेणं । निम्मलसीलगुणेणं, मुणिणा गिहिणा वि होय ॥ २१३ ॥ अर्थ — इस कारण से इस सिद्धचक्रका आराधक मुनिः और ग्रहस्थको भी ऐसा होना कैसा सो कहते हैं एकान्त निश्चय करके शान्त विकार रहित चित्त जिसका और निर्मल शील गुण जिसका ऐसा ॥ ११३ ॥ जो होइ दुट्ठचित्तो, एयस्साराहगोवि होऊण । तस्स न सिज्झइ एयं, किंतु अवायं कुणइ नूणं ॥ २९४ ॥ अर्थ - जो पुरुष इसका आराधकभी होके दुष्टचित्तवाला हो उस पुरुषके यह सिद्धचक्र नहीं सिद्ध होवे किंतु निश्चय कष्टकारी होवे अर्थात् कष्ट पावे ॥ २१४ ॥ जो पुण एयस्साराहगस्स, उवरिंमि सुद्धचित्तस्स । चिंतइ किंपि विरूवं, तं नृणं होइ तस्सेव ॥ २१५ ॥ अर्थ- शुद्ध चित्त है जिसका वह शुद्ध चित्तवाला सिद्धचक्र के आराधक पुरुषके ऊपर कोई दुष्ट पुरुष कुछभी अशुभ विचारे वह अशुभ विचाराहुआ निश्चय उसी विचारनेवाले पुरुषके ऊपर पड़े ॥ २१५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ २९ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एएण कारणेणं, पसन्नचित्तेण सुद्धसीलेण । आराहणिज्जमेयं, सम्मं तवकम्मविहिपुवं ॥ २१६ ॥ अर्थ - इस कारण से प्रसन्न निर्मल चित्त जिसका वह और शुद्धशील जिसका ऐसे पुरुषको यह सिद्धचक्र सम्यक् तप कर्म विधिपूर्वक आराधना तप यहां आबिल होवे है और विधिः पूजन ध्यानादि सम्बन्धी तत् पूर्वक ॥ २१६ ॥ आसोयसेयअट्टमिदिणाओ, आरंभिऊणमेयस्स । अट्ठविहपूयपुवं, आयामे कुणह अट्ठ दिणे ॥ २१७ ॥ अर्थ - आसोज शुदि अष्टमीके दिनसे प्रारंभ करके इस सिद्धचक्रकी अष्टप्रकारी पूजा करके आठदिनतक अहो भव्यो आंबिलका तप करो यद्यपि मूलविधिः से अष्टमीके दिनसे तप करना कहा है परन्तु वर्तमानमें पूर्वाचार्योंकी आ चरणासे सप्तमीसे किया जावे है ऐसा जानना ॥ २१७ ॥ नवमंमि दिणे पंचामएण, न्हवणं इमस्स काऊणं । पूयं च वित्थरेणं, आयंविलमेव कायवं ॥ २९८ ॥ अर्थ - नवमे दिन सिद्धचक्रका दही दूध घी, जल, शर्करा स्वरूप पंचामृत से स्नात्रकराके और विस्तारसे पूजा करके आंबिलही करना ॥ २१८ ॥ एवं चित्तेवि तहा, पुणोपुणोऽहाहियाण नवगेणं । एगासीए आयंविलाण, एयं हवइ पुन्नं ॥ २१९ ॥ अर्थ - इस प्रकारसे चैत्र महीने में भी करना इसी प्रकारसे वारंवार करनेसे नव अट्ठाई होनेसे ८१ इक्यासी आविलों करके यह तप पूर्ण होवे है ॥ २१९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥३०॥ भाषाटीकासहितम्. CARRECORECAS है एयमि कीरमाणे, नवपयझाणं मणमि कायव्वं । पुन्ने य तवोकम्मे, उजमणंपि हु विहेयत्वं ॥ २२० ॥ ___ अर्थ-यह तप करनेमें मनमें नवपदोंका ध्यान करना नव पदोंका जाप यहां जघन्य १३ हजार होवे है ऐसा वृद्ध कहते हैं प्रथम पदका १२०० जाप दुसरे पदका ८०० तीसरे पदका ३६०० चौथे पदका २५०० पांचवें पद २७०० छठे पदका ५०० सातवें पदका ५०० आठवे पदका १००० नवमें पदका २०० सर्व मिलानेसे १३००० होता है और है| तप पूर्ण होनेसे निश्चय उजवनाभी करना ॥ २२१ ॥ एवं च तवोकम्म, सम्मं जो कुणइ सुद्धभावेणं । सयलसुरासुरनरवर, रिद्धीउ न दुल्लहा तस्स ॥ २२१ ॥ PI अर्थ-जो प्राणी यह तप अनुष्ठान अच्छी तरहसे शुद्ध भावसे करे उस प्राणीको सर्व देवेन्द्र नरेन्द्रकी सम्पदा दुर्लभ नहीं है किंतु सुलभही है ॥ २२१॥ एयंमि कए न ह दुट्ठकुट्ठ,-खयजरभगंदराईया। पहवंति महारोगा, पुत्रुप्पन्नावि नासंति ॥ २२२॥ अर्थ-यह सिद्धचक्र आराधनरूप तपकर्म करनेसे दुष्ट कोढ़ १ क्षय २ ज्वर ३ भगंदरादि ४ महारोग नहींही उत्पन्न होवे और पूर्वोत्पन्न रोग नष्ट होवे ॥ २२२ ॥ दासत्तं पेसत्तं, विकलत्तं दोहगत्तमंधत्तं । देहकुलजुंगियत्तं, न होइ एयस्स करणेणं ॥ २२३ ॥ MISADSANSAASAR AM ॥३०॥ For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च. ६. www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - इस तपके करनेवाले मनुष्यके दासपना न याने होवे नौकर न होवे कलाहीनपना, दुरभाग्यपना और अनिष्ट - | पना आंधा काणापना शरीर दूषितपना और जातिकुलादि दूषितपना यह इसलोकमें परलोकमें नहीं होवे है ॥ २२३ ॥ नारीणवि दोहग्गं, विसकन्नत्तं कुरंडरंडत्तं । वंझत्तं मयवच्छत्तणं च न हवेइ कइयावि ॥ २२४ ॥ अर्थ - स्त्रियोंके भी यह दोष कभी नहीं होवे कौनसे दोष सो कहते हैं दुर्भागनीपना भर्तारके अनिष्ट और विष कन्या तथा कुलक्षण स्त्रीपना तथा विधवापना तथा वंध्यापना तथा मृतवत्सापना यह दोष न होवे ॥ २२४ ॥ | किं बहुणा जीवाणं, एयस्स पसायओ सयाकालं । मणवंछियत्थसिद्धी, हवेइ नत्थित्थ संदेहो ॥ २२५ ॥ अर्थ — ज्यादा कहने करके क्या जीवोंके इस सिद्धचक्र के प्रसादसे सर्व कालमें मनोवांछित अर्थकी सिद्धि होवे है इसमें संशय नहीं है ॥ २२५ ॥ एवं तेसिं सिरि सिद्धचक्क, माहप्पमुत्तमं कहिउं । सावयसमुदायस्सवि, गुरुणो एवं उवइति ॥ २२६ ॥ अर्थ - इस प्रकार से श्रीपाल मदनसुंदरीके आगे उत्तम प्रधान श्रीसिद्धचक्रका माहात्म्य कहके श्रावक समुदाय | श्रद्धालु संघको भी गुरुः वक्षमाण प्रकारसे उपदेश देवे ॥ २२६ ॥ एएहिं उत्तमेहिं, लक्खिज्जइ लक्खणेहिं एस नरो । जिणसासणस्स नूणं, अचिरेण पभावगो होही २२७ For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ३१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - यह उत्तम लक्षणों करके जाना जावे है यह मनुष्य निश्चय थोड़े कालसे जिन शासनकी प्रभावना करनेवाला होगा ऐसा ॥ २२७ ॥ तम्हा तुम्हं जुज्जइ, एसिं साहम्मियाण वच्छलं। काउं जेण जिणिदेहिं, वन्नियं उत्तमं एयं ॥ २२८ ॥ अर्थ - इस कारण से तुम्हारेको इन साधर्मियोंका वात्सल्य करना युक्त है इस कारणसे तीर्थंकरोंने साधर्मियोंका वात्सल्य प्रधान वर्णन किया है ॥ २२८ ॥ तो तुट्ठेहिं तेहिं, सुसाएहिं वरंमि ठाणंमि । ते ठाविऊण दिन्नं, धणकणवत्थाइयं सर्व्वं ॥ २२९ ॥ अर्थ - तदनंतर श्रीगुरूके उपदेशसे संतोष पाए हुए सुश्रावकोंने श्रीपाल मदनसुंदरीको प्रधान आवास घर वगैरह रहनेको दिया धन धान्य वस्त्रादि सर्व वस्तु देते भए । २२९ ॥ न य तं करेइ माया, नेव पिया नेव बंधुवग्गो य । जं वच्छलं साहम्मियाण, सुस्सावओ कुणइ ॥ २३० ॥ अर्थ - वह वात्सल्य माता नहीं करे पिताभी नहीं करसके और भाइयोंका समुदाय भी नहीं करे जो वात्सल्य साधर्मि सुश्रावक करे है ॥ २३० ॥ तत्थ ट्ठिओ सो कुमरो, मयणावयणेण गुरुवएसेणं । सिक्खेइ सिद्धचक्कपसिद्धपूयाविहिं सम्मं ॥ २३१ ॥ For Private and Personal Use Only भापाटीकासहितम्. ॥ ३१ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- वहां रहा हुआ श्रीपाल कुमर मदनसुंदरीके बचनसे तथा गुरूके उपदेशसे श्री सिद्धचक्रका प्रसिद्ध पूजा विधिका सम्यकू अभ्यास करे ।। २३१ ॥ | अह अन्न दिणे आसोय, सेयअट्ठमितिहीइ सुमुहुत्ते । मयणासहिओ कुमरो, आरंभइ सिद्धचक्कतवं २३२ | अर्थ — उसके अनंतर अन्य दिन आश्विन सुदि ८ अष्टमी के दिन शुभ मुहूर्तमें मदनसुंदरी सहित श्रीपाल कुमर श्री सिद्धचक्रका तप प्रारंभ करे ।। २३२ ।। | पढमं तणुमणसुद्धीं, काऊण जिणालए जिणच्चं च । सिरिसिद्धचक्कपूयं, अट्ठपयारं कुणइ विहिणा ॥२३३॥ अर्थ - पहले शरीर और अन्तःकरणकी शुद्धि करके और जिनमंदिरमें श्री तीर्थंकर की पूजा करके श्री सिद्ध चक्रकी अष्ट प्रकारी पूजा करे ॥ २३३ ॥ एवं कयविहिपूओ, पच्चक्खाणं करेइ आयामं । आणंदपुलइअंगो, जाओ सो पढमदिवसे वि ॥ २३४ ॥ अर्थ - इस प्रकार से करी है विधिसे पूजा जिसने ऐसा श्रीपाल कुमर आंबिलका पच्चक्खान करे पहले दिवसमें भी आनंदसे रोमोद्गम युक्त अंग जिसका ऐसा भया ॥ २३४ ॥ वीर्यादिणे सविसेसं, संजाओ तस्स रोगउवसामो । एवं दिवसे दिवसे, रोगखए वड्ढए भावो ॥ २३५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ३२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — दूसरे दिनमें श्रीपाल कुमर के विशेष करके रोगका उपशम हुआ इस प्रकारसे दिन २ में रोगका क्षय होनेसे शुभ परिणामकी वृद्धि होवे ॥ २३५ ॥ अह नवमे दिवसंमी, पूयं काऊण वित्थरविहीए। पंचामएण न्हवणं, करेइ सिरिसिद्धचक्कस्स ॥ २३६ ॥ अर्थ - बाद नवमे दिनमें विस्तारविधिसे श्री जिनपूजा करके पंचामृत से श्री सिद्धचक्रयंत्रराजका विस्तारसे स्नात्र महोत्सव करे ॥ २३६ ॥ न्हवणूसवंमि विहिए, तेणं संतीजलेण सवंगं । संसित्तो सो कुमरो, जाओ सहसति दिवतणू ॥ २३७ ॥ अर्थ - श्री सिद्धचक्रका स्नात्रमहोत्सव करनेपर उस शान्ति जलसे सर्वशरीरसींचा अर्थात् वह जल शरीरमें लगाया तब वह कुमर अकस्मात् मनोहर अद्भुत दिव्य शरीर जिसका ऐसा भया ॥ २३७ ॥ सवेसिं संजायं, अच्छरियं तस्स दंसणे जाव । तात्र गुरू भणइ अहो, एयस्स कि मेयमच्छरियं ॥ २३८॥ अर्थ- वैसा रूप श्रीपालका देखनेसे जितने सब लोगोंको आश्चर्य भया उतने गुरू कहे अहो लोगो यह कुछभी आश्चर्य नहीं है किंतु ॥ २३८ ॥ इमिणा जलेण सब्बे, दोसा गहभूयसाइणीपमुहा । नासंति तक्खणेणं, भवियाणं सुद्धभावाणं ॥ २३९ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ३२ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * * * * अर्थ-इस शांति जल करके निर्मल मनपरिणामवाले भव्योंके ग्रह, भूत, शाकिबी प्रमुख सर्व दोष ततकालही नष्ट होवे हैं ॥ २३९॥ खयकुट्ठजरभगंदर-भूया वायाविसूइयाईया । जे केवि दुटुरोगा, ते सत्वे जंति उवसामं ॥ २४० ॥ | अर्थ-क्षय, कुष्ट, ज्वर, भगंदर तथा वायु रोग और विशूचिका अजीर्णादिक जे केइ दुष्ट रोग वह सर्व उपशम होवे है अर्थात् शान्त होवे है ॥२४० ॥ जलजलणसप्पसावय, भयाइं विसवेयणा उईईओ। दुपयचउप्पय मारीउ, नेव पहवंति लोयंमि ॥४१॥ | अर्थ-जल, अग्नि, सर्प, स्वापद, सिंहादिकोंसे भय तथा विषवेदना जहरसे भई पीड़ा तथा ईति नाम उत्पात तथा मनुष्य तिर्यञ्चोंके मरीका उपद्रव लोकमें नहीं होवे ॥ २४१॥ वंझाणवि डंति सुया, निंदूणवि नंदणा य नंदति । फिटंति पुट्टदोसा, दोहग्गं नासइ असेसं ॥२४२॥ है अर्थ-वध्या स्त्रियोंकेभी पुत्र होवे मृतवत्सारोगवाली स्त्रियोंके पुत्र बड़े होवे तथा उदर दोष नष्ट होवे और है 8 सम्पूर्ण दुर्भाग्य दूर होवे ॥ २४२ ॥ | इच्चाइ पभावं निसुणिऊण, दण तं च पञ्चक्खं । लोया महप्पमोया, संति जलं लिंति सविसेसं ॥४३॥ ANCHAR * ***** For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir + भाषाटीका. सहितम्. श्रीपाल- श्री सिद्धचक्रके स्नात्र जलका इत्यादि प्रभाव सुनके और प्रत्यक्ष प्रभाव देखके महान हर्ष जिन्होंको ऐसे लोग चरितम् विशेष करके शांति जल ग्रहण करके अपने २ घरमें लेजाके छांटा विमारों शांति जल लगाया उससे अच्छे भए ॥२४३॥ ॥३३॥ तिं कुट्टिपेडयं पि हु, तज्जलसंसित्तगत्तमचिरेण । उवसंतप्पायरुअं, जायं धम्ममि सरुई च ॥ २४४॥ 81 अर्थ-वह कोढ़ी मनुष्योंका समुदायभी शांति जलको अपने शरीरमें लगाया तब थोड़े कालमें उपशांत प्राय रोग त भया और धर्ममें रुचि अभिलाषा बढ़ी अर्थात् धर्ममें रुचिवाले भए ॥ २४४॥ |मयणा पइणो निरुवमरूवं च निरूविऊण साणंदा। पभणेइ पई सामिय, एसो सबो गुरुपसाओ ॥४५॥ | अर्थ और मदनसुंदरी अपने पतिका निरुपम अतिअद्भुत रूप देखके आनंद सहित भई श्रीपालकुमरकों कहे हे| |स्वामिन् यह सर्व श्रीगुरु महाराजका प्रसाद है ॥ २४५ ॥ मायपियसुयसहोयर,-पमुहावि कुणंतितं न उवयारं । जं निकारणकरुणा,-परो गुरू कुणइ जीवाणं ॥४६॥ | अर्थ-माता, पिता, पुत्र, भाई प्रमुख ग्रहणसे औरभी स्वजनवगैरह यह सर्व वह उपकार नहीं करसके है वह उपकार जीवोंका निष्कारण करुणा प्रधान जिन्होंके ऐसे गुरू करे हैं ॥ २४६ ॥ तं जिणधम्मगुरूणं, माहप्पं मुणिय निरुवमं कुमरो।देवे गुरुमि धम्मे, जाओ एगंतभत्तिपरो ॥ २४७ ॥ CROCHAMAMALAMA BORESEARCRACKAGA ॥३३॥ For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAMSUALLAHASY अर्थ-जिन, धर्म, गुरू इन्होंका सर्वोत्कृष्ट माहात्म्य जानके कुमर श्रीपाल देव वीतराग १ गुरू शुद्धसाधु २ धर्म| सर्वज्ञका कहा हुआ निश्चयसे इन्होंकी भक्तिमें तत्पर हुआ ॥ २४७ ॥ धम्मपसाएणं चिय, जहजह माणंति तत्थ सुक्खाइं।ते दंपईउ तह तह, धम्ममि समुज्जमा निच्चं ॥२४॥ __ अर्थ-वहां उज्जैनीमें रहते हुए स्त्री भर्तार धर्मके प्रसादसेही जैसे २ सुखभोगवे वैसा २ सद्धर्मके विषय निरंतर उद्यम करे ॥ २४८॥ अह अन्नया उतेजिणहराओ, जा नीहरंति ता पुरओ। पिक्खंति अद्धवुद्धिं, एगं नारिं समुहर्मितिं ॥२४९॥ । अर्थ-उसके अनंतर स्त्री भार श्रीपाल मदनसुंदरी अन्य दिनमें जितने जिनमंदिरसे बाहिर निकले उतने आगे एक अर्ध वृद्धा स्त्रीको सामने आती भई देखी ॥ २४९ ॥ तं पणमिऊण कुमरो, पभणइ रोमंचकंचुइजंतो। अहो अणब्भा वुट्ठी, संजाया जणणिदंसणओ ॥२५०॥ | अर्थ-उस स्त्रीको नमस्कार करके श्रीपाल कुमर आनन्दसे रोमोद्गम युक्त इस प्रकारसे बोला अहो आज माताके दर्शनसे बादल विना वर्षात भया ॥ २५० ॥ है मयणाविहु पियजणणिं, नाउं जा नमइ ता भणइ कुमरो।अम्मो एस पहावो, सबो इमीए तुह ण्हुहाए। For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ३४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - मदनसुंदरी भी अपने भर्तारकी माता जानके जितने नमस्कार करे उतने कुमर कहे हे माताजी यह प्रत्यक्ष जो देखा जाय है यह सर्व इस आपकी बहूका प्रभाव है ।। २५१ ॥ साणंदा सा आसीस, दाणपुवं सुयं च वहुयं च । अभिनंदिऊण पभणइ, तइयाहं वच्छ ! तं मुत्तुं ॥ ५२ ॥ अर्थ - कुमरकी माता आनंद सहित होके आशीर्वाद देने पूर्वक पुत्र और पुत्रकी बहूकी प्रशंसा करके कहने लगी अपना वृतान्तसो कहते है है वत्स उस वक्त में मैं तेरेको यहां रखके ॥ २५२ ॥ कोसंबीए बिजं सोऊणं, जाव तत्थ वच्चामि । ता तत्थ जिणाययणे, दिट्ठो एगो मुणिवरिंदो ॥ २५३॥ कौसांबी नगरीमें सब रोगको मिटानेवाला वैद्यको सुनके जितने वहां जाऊं उतने उस नगरीमें एक मुनिवरिन्द्रको देखा कैसा है मुनीन्द्र सो कहते हैं ॥ २५३ ॥ खंतो दंतो संतो, उवउत्तो गुत्तिमुत्तिसंयुत्तो । करुणारसप्पहाणो, अवितहनाणो गुणनिहाणो ॥ २५४॥ अर्थ - क्षमायुक्त दान्त नाम जितेन्द्रिय शान्तरस युक्त उपयुक्त उपयोगवान मन वचन कायाकी गुप्ति सहित और निर्लोभी और करुणारस प्रधान जिसके तथा सत्य ज्ञान जिसका इसीसे गुणोंका निधान ॥ २५४ ॥ धम्मं वागरमाणो, पत्थावे नमिय सो मए पुट्ठो । भयवं किं मह पुत्तो, कयावि होही निरुयग्रतो ॥५५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ३४ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । अर्थ-इस प्रकारका वह मुनीन्द्र धर्मका स्वरूप कहताथा तब अवसर पायके नमस्कार करके मैने प्रश्न किया हे भगवन् मैं प्रश्न करती हूं मेरा पुत्र कब निरोग होगा रोगरहित शरीर जिसका ऐसा ।। २५५ ॥ तेण मुर्णिदेणुत्तं, भद्दे सो तुझ नंदणो तत्थ । तेणं चिय कुट्टियपेडएण, दट्टण संगहिओ॥ २५६ ॥ | अर्थ-तब उस मुनिन्द्रने कहा हे भद्रे हे पुत्रि तेरे पुत्रको उजैनीमें उन कोढ़ी मनुष्योंने देखके ग्रहण किया अपने पासमें रक्खा है ॥ २५६ ॥ विहिओ उंबरराणुत्ति, नियपह लद्धलोयसम्माणो। संपइ मालवनरवइ,-धूयापाणप्पिओ जाओ ॥२५७॥ | अर्थ-बाद उन कोढ़ी पुरुषोंने तेरे पुत्रका उम्बर राणा ऐसा नाम करके अपना स्वामी किया है वह तेरा पुत्र लोकोंमें सत्कारपाया है इस वक्त मैं मालवदेशका राजा प्रजापालकी पुत्री मदनसुंदरीका प्राणप्रिय अर्थात् भर्तार भया है ॥ २५७ ॥ रायसुयावयणेणं, गुरूवइटुं स सिद्धवरचकं । आराहिऊण सम्म, संजाओ कणयसमकाओ ॥ २५८ ॥ ___ अर्थ-वह तेरा पुत्र राजपुत्री मदनसुंदरीके वचनसे श्री गुरूका कहा हुआ सिद्धचक्रयंत्रराजको विधिःसे आराधके | सोनेके सदृश शरीर जिसका ऐसा स्वर्णवर्ण देह भया है ॥ २५८ ॥ सोय साहम्मिएहिं, पूरियविहवो सुधम्मकम्मपरो।अच्छइ उज्जेणीए, घरणीइ समन्निओ सुहिओ २५९/ NAR-SAGARCARREARS For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ३५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- वह तेरा पुत्र इस वक्त अपनी स्त्रीसहित उज्जैनी में रहता है कैसा है वह साधर्मियोंने पूर्ण किया है स्वर्णादि द्रव्य जिसको और शोभन धर्म कार्य वही है प्रधान जिसके ऐसा और सुख भया है जिसके ऐसा सुखी रहता है ॥५९॥ तं सोऊणं हरिसियचित्ताहं वच्छ ! इत्थ संपत्ता । दिट्ठोसि बहूसहिओ, जुन्हाइ ससिव कयहरिसो ॥६०॥ अर्थ- वैसा गुरूका बचन सुनके हे वत्स मैं हर्षित चित्त भई ऐसी यहां प्राप्त भई हूं इस समय में चन्द्रमाकी चांदनी सहित चन्द्रके जैसा वह्नसहित तुमको देखा है यहां कुमरको चन्द्रकी उपमा और वह्नको चांदनी रात्रिकी उपमा कैसा है तैं किया है हर्ष जिसने ऐसा ॥ २६० ॥ ता वच्छ? तुमं बहुया, सहिओ जय जीव नंद चिरकालं । एसुच्चिय जिणधम्मो, जावज्जीवं च महसरणं २६१ अर्थ - तिस कारणसे हे पुत्र तैं वह्नसहित बहुतकालतक जयवन्ता होय सर्वोत्कृष्ट वर्त चिरंजीव रहो समृद्धि प्राप्त होवो इस जिनधर्मका जावज्जीव मेरे भी शरणा है | २६१ ॥ जिणरायपाय पउमं, नमिऊणं वंदिऊण सुगुरुं च । तिन्निवि करंति धम्मं, सम्मं जिणधम्मविहिनिउणा २६२ अर्थ —तदनंतर माता पुत्र वह यह तीन जीव श्री जिनेन्द्र देवका दर्शन करके और श्री सुगुरू महाराजको वन्दना करके सम्यक् धर्म करते हुए रहे कैसे हैं तीनों जिन धर्ममें निपुण है ॥ २६२ ॥ ते अन्नदिणे जिणवरपूयं, काऊण अंगअग्गमयं । भावच्चयं करिंता, देवे वंदंति उवउत्ता ॥ २६३ ॥ For Private and Personal Use Only भापाटीका सहितम्. ॥ ३५ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir SAUSAASAASA अर्थ-वे तीनों जणा अन्य दिनमें श्री तीर्थकरकी अंगपूजा और अग्रपूजा करके भावपूजा उपयोगसहित करते का अर्थात् देववंदना करते भए उस वक्त क्या भया सो कहते हैं ॥ २६३ ॥ इओय धूयादुहेण सा, रूप्पसुंदरी रूसिऊण सह रन्ना। नियभायपुण्णपालस्स, मंदिरे अच्छइ ससोया ॥ द्र अर्थ-इधरसे पुत्रीके दुःखसे रूप्पसुंदरी रानी राजाके साथ रूसके अर्थात् नाराज होके अपना भाई पुन्यपालके है घरमें जाके शोकसहित रहीं ॥ २६४ ॥ वीसारिऊण सोयं, सणियं सणियं जिणुत्तवयणेहिं । जग्गियचित्तविवेया, समागया चेइयहरंमि २६५/ ___ अर्थ-वह रूप्पसुंदरी रानी धीरे २ शोकको दूर करके तीर्थकरके कहे हुए बचनोंसे जाग्रत हुआ है चित्तमें निर्मल विवेक जिसके ऐसी जिनमंदिर आई ॥ २६५ ॥ जा पिक्खइ सा पुरओ, तं कुमरं देववंदणापउणं । निउणं निरुवमरूवं, पच्चक्खं सुरकुमारव(रंव) ॥२६॥ है अर्थ-वह रूपसुंदरी रानी जितने आगे उस कुमरको देखे कैसा है कुमर देववंदनामें लगा है मन जिसका और विचक्षण उपमारहित रूप आकृति सौंदर्य जिसका और प्रत्यक्ष देवकुमारके सदृश ऐसा ॥ २६६ ॥ 18| तप्पुट्ठीइ ठियाओ, जणणी जायाउ ताव तस्सेव । दट्ट्ण रुप्पसुंदरी, राणी चिंतेइ चित्तंमि ॥२६७॥ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-उतने कुमरके पीछे रही भई कुमरकी माता और स्त्रीको देखके रूप्पसुंदरी रानी मममें विचारती भई क्या भाषाटीकाविचारा सो कहते हैं ॥ २६७ ॥ सहितम्. ही एसा का लहुया, वहुया दीसेइ मज्झ पुत्तिसमा। जावनिउणं निरिक्खइ, उवलक्खइ ताव तं मयणं ६८ द्र अर्थ-हि यह विचारमें है रानी विचारती है मेरी पुत्रीके सदृश यह छोटी बहू कौन दीखती है ऐसा विचारके है|जितने अच्छी तरहसे देखे उतने उसको मदनसुंदरी है ऐसा जाने ॥ २६८ ॥ नूणं मयणा एसा, लग्गा एयस्स कस्सवि नरस्स । पुट्ठीइ कुट्ठियं तं, मुत्तूणं चत्तसइमग्गा ॥ २६९ ॥ 8 अर्थ-तब उसके अनन्तर इस प्रकारसे विचारे निश्चय यह मदनसुंदरी मेरी पुत्री उस कुष्टी पुरुषको छोड़के सतीके 8 दमार्गका त्याग किया है जिसने ऐसी यह कोई पुरुषके पीछे लगी है ऐसा जाना जाय है ॥२६९ ॥ मयणा जिणमयनिउणा, संभाविजइन एरिसंतीए।भवनाडयंमि अहवा, ही ही किंकिंन संभवइ ॥७॥ ___ अर्थ-मदनसुंदरी जिनमतमें निपुण वर्ते है उससे ऐसा अकार्यका करना नहीं संभवे अथवा ही ही इति अतिदूखेदे भव नाटकमें जीवोंके क्या २ नहीं संभवे अपि तु सर्व संभवे है ॥ २७० ॥ |विहियं कुले कलंकं, आणीयं दूसणं च जिणधम्मे। जीए तीइ सुयाए, न मुयाए तारिसं दुक्खं ॥२७॥8॥३६॥ का अर्थ-जिसने कुलमें कलंक लगाया जिन धर्मपर दूषण प्राप्त किया वह पुत्री मरजाती तो वैसा दुःख नहीं होता ॥७१॥ For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जारिसमेरिस असमंजसेण, चरिएण जीवयंतीए । जायं मज्झ इमीए, धूयाइ कलंकभूयाए ॥२७२॥ | अर्थ जैसा दुःख ऐसा अयोग्य आचरण करनेसे कलंकभूत पुत्री जीवती भईसे मेरेको उत्पन्न भया कि जिसने अपने पतिको छोड़के अन्य पुरुषको अंगीकार किया ॥ २७२॥ एवं चिंतंती रुप्पसुंदरी, दुक्खपूरपडिपुण्णा । करुणसरं रोयंती, भणेइ एयारिसं वयणं ॥ २७३ ॥ | अर्थ-इस प्रकारसे विचारती भई दुःखके पूरसे भरी भई रुप्पसुंदरी रानीभी करुणा स्वरसे रोती भई जैसा होय 8 वैसा ऐसा बचन बोली ॥ २७३ ॥ घिद्धी अहो अकज, निवडउ वजं च मज्झ कुच्छीए। जत्थुप्पन्नावि वियक्खणावि, ही एरिसं कुणइ २७४ | अर्थ-अहो इति आश्चर्ये इस अकार्यको धिक्कार होवो धिक्कार होवो और मेरी कुक्षि नाम उदरमें वज्र पड़ो इस 18| मेरी कुक्षिमें उत्पन्न भईभी और विचक्षण होके ऐसा अकार्य करे है ॥ २७४ ॥ तं सोऊणं मयणा, जापिक्खड रुप्पसुंदरी जणणि रुयमाणिता नाओ, तीए जणणीअभिप्पाओ॥२७५॥ है अर्थ-ऐसा बचन सुनके मदनसुंदरी जितने अपनी माताको रोती भई देखे उतने मदनसुंदरीने अपनी माताका अभिप्राय मनका विचार जाना ॥ २७५ ॥ MORCHASSANSAREESOM श्रीपा.च. ७ For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ३७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिअ वंदणं समग्गं, काऊणं मयणसुंदरी जणणिं । कर वंदणेण वंदिय, वियसियवयणा भणइ एवं २७६ अर्थ - तदनंतर मदनसुंदरी संपूर्ण चैत्य वंदना करके अपनी माताको हाथजोड़के प्रणाम करके विकस्वरमान मुख जिसका ऐसी कहा जायगा जिसका स्वरूप ऐसा वचन बोली ॥ २७६ ॥ अम्मो ? हरिसठ्ठाणे, कीस विसाओ विहिज्जए एवं, । जं एसो नीरोगो, जाओ जामाउओ तुम्हं ॥२७७৷ अर्थ- सो कहते हैं हे माताजी हर्षके ठिकाने दुःख कैसा करो हो जिसकारणसे यह तुम्हारा जमाई निरोग भया है इसलिए यहां हर्ष करना युक्त है ऐसा भाव है ॥ २७७ ॥ अन्नं च जं वियप्पह, तं जइ पुवाइ पछिम दिसाए, उग्गमइ कहवि भाणू, तहवि न एयं नियसुयाए २७८ अर्थ — और जो अकार्यका आचरण लक्षण अपनी पुत्रीका विचारो हो वह तो जो सूर्य पूर्वदिशिको छोड़के पश्चिम | दिशिमें ऊगे तथापि तुम्हारी पुत्रीसे नहीं होवे अर्थात् मदनसुंदरीसे अकार्य कभी होवे नहीं ॥ २७८ ॥ कुमरजणणीवि जंप, सुंदरि ? मा कुणसु एरिसं चित्ते । तुज्झ सुयाइ पभावा, मज्झ सुओ सुंदरी जाओ ॥ अर्थ — तब कुमरकी माता भी बोली हे सुंदरि तुम अपने मनमें ऐसा विचार करना नहीं जिस कारणसे तुम्हारी | पुत्री के प्रभाव से यह मेरा पुत्र ऐसा सुंदर भया है ॥ २७९ ॥ धन्नासि तुमं जीए, कुच्छीए इत्थिरयणमुप्पन्नं । एरिसमसरिससीलप्प-भावचिंतामणिसरिच्छं ॥ २८०॥ | For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ३७ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-हे सुंदरि तुम धन्य हो जिसकी कुक्षिमें ऐसा स्त्रीरत्न उत्पन्न भया है कैसा सो कहते हैं असदृश अनुपम उपमारहित जो ब्रह्मचर्य उसके प्रभावसे चिंतामणि रत्नके तुल्य है ॥२८॥ हरिसवसेणं सा रुप्प-सुंदरी पुच्छए किमयंति।मयणावि सुविहिनिउणा, पभणइ एयारिसंवयणं ॥२८॥ | अर्थ-ऐसा वचन सुनके रुप्पसुंदरी रानी हर्षके वशसे कुमरकी माताको ऐसा पूछा यह क्या वृत्तान्त है तब द्रविधिको जाननेवाली मदनसुंदरी इस प्रकारसे बोली ॥ २८१॥ चेइयहरंमि वत्ता,-लावंमि कए निसीहियाभंगो। होइ तओ मह गेहे, वच्चह साहेमिमं सवं ॥२८२॥ है अर्थ-क्या बोली सो कहते हैं चैत्यघर जिनमंदिरमें वार्तालाप करनेसे निसहीका भंग होवे है तिसकारणसे आप |मेरे घर चलो जिससे मैं यह सर्व वृत्तान्त कहूं ॥ २८२ ।। तत्तो गंतूण गिह, मयणाए साहिओ समग्गोवि । सिरिसिद्धचक्कमाहप्प,-संजुओ निययवुत्तंतो॥२८३॥ | अर्थ-बादमें घर जाके मदनसुंदरीने सब अपना वृत्तान्त कहा कैसा है वृतान्त श्री सिद्धचक्रका जो माहात्म्य उस करके सहित है ॥ २८३ ॥ तं सोऊणं तुट्ठा, रुप्पा पुच्छेइ कुमरजणणिपि। सुप्पत्तिं तुह नंदणस्स, सहि ? सोउमिच्छामि ॥२८॥ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-वह अपने जमाईका वृत्तान्त सुनके संतोष प्राप्त भई रुप्पसुंदरी रानी कुमरकी मातासे पूछे, सो कैसे, कहते भाषाटीकाचरितम् हैं हे सखि हे सम्वधनि तुम्हारे पुत्रकी वंशोत्पत्ति सुननेकी इच्छा है किस वंशमें उत्पन्न भया है ॥ २८४॥ 18| सहितम्. पभणेइ कुमरमाया, अंगादेसंमि अत्थि सुपसिद्धा। वेरिहिं कयअकंपा, चंपानामेण वरनयरी ॥ २८५॥ दू ॥ ३८॥ ___ अर्थ-अब कुमरकी माता कहती है अंग नाम देशमें अतिशय प्रसिद्ध चंपा नामकी प्रधान नगरी है वैरियोंने नहीं है किया है कंप जिसको ऐसी ॥ २८५॥ तत्थ य अरिकरिसीहो, सीहरहो नाम नरवरो अस्थि । तस्स पिया कमलपहा, कुंकुणनरनाहलहभइणी॥ | अर्थ-उस चंपानगरीमें वैरीही हाथी उन्होंको भगाने में सिंहके जैसा सिंहरथ नामका राजा है सामान्यसे वर्तमानका निर्देश किया है अन्यथा सिंहरथ राजा होता भया उस राजाके कुंकणदेशके राजाकी छोटी बहिन कमलप्रभा नामकी रानी है ॥ २८६॥ दूतीए अपुत्तियाए, चिरेण वरसुविणसूइओ पुत्तो। जाओ जणियाणंदो, वद्धावणयं च कारवियं ॥२८॥ | अर्थ-नहीं विद्यमान पुत्र जिसके ऐसी रानीके बहुत कालसे प्रधान स्वप्न सूचित पुत्र भया कैसा पुत्र उत्पन्न किया है है आनंद जिसने ऐसा राजाने वधाई कराई ॥ २८७ ॥ ४ ॥३८॥ पभणेइ तओ राया, अम्हमणाहाइ रायलच्छीए। पालणखमो इमो ता, हवेउ नामेण सिरिपालो ॥२८॥[RI For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir अर्थ-तदनंतर राजा कहे हमारी अनाथ राज्य लक्ष्मीको पालनेमें समर्थ है इस लिए इस कुमरका नाम श्रीपाल कुमर ऐसा होवो इस कहने कर उस कुमरका नाम श्रीपाल ऐसा स्थापा ॥ २८८ ॥ सो सिरिपालो वालो, जाओ जा वरिसजुयलपरियाओ।ता नरनाहो सूलेण, झत्ति पंचत्तमणुपत्तो ॥२८९॥ अर्थ-वह श्रीपाल बालक जितने २ वर्षका भया उतने उसका पिता सिंहरथ राजाने शूल रोगसे शीघ्र मरण पाया ८९ कमलप्पभा रुयंती, मइसायरमंतिणा निवारित्ता । धाईउच्छंगठिओ, सिरिपालो छाविओ रज्जे ॥ २९० ॥ ___ अर्थ-तब रोती भई कमलप्रभा रानीको मतिसागर मंत्री मनाकरके धाय माताकी गोदीसे श्रीपालवालकको लेके राज्यमें स्थापा ॥ २९० ॥ जंबालस्सवि सिरिपाल-नाम रन्नो पवत्तिया आणा। सवत्थवि तो पच्छा, निवमयकिच्चंपि कारवियं ॥२९१॥ | अर्थ-जो बालकभी श्रीपाल नाम राजाकी आज्ञा सर्वत्र प्रवर्ताई बाद राजाका मृतक कार्य अग्निसंसकारादि कराया ९१ है बालोवि महीपालो, रज पालेइ मंतिसुत्तेण । मंतीहिं सबथवि, रज रक्खिजए लोए ॥ २९२॥ P अर्थ-बालकभी श्रीपाल राजा मंत्रवीकी व्यवस्थासे राज्य पाले यह अर्थ युक्त है जिस कारणसे सर्वत्र लोकमें मंत्रियों करके राज्यकी रक्षा करी जावे है कहाभी है मंत्रिहीनो भवेद् राजा तस्य राज्यं विनश्यति इति वचनात् २९२ ACCASSACASSES For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi श्रीपालचरितम् ॥३९॥ ६ कइवयदिणपजते, बालयपित्तिजओ अजियसेणो।परिगहभेयं काउं, मंतह निवमंति बहणत्थं ॥२९॥दू भाषाटीकादा अर्थ-कितने दिनोंके बाद बालक श्रीपाल राजाका पितृव्य काका अजितसेन राजा परिवारका भेद करके राजा है। सहितम्और मंत्रवीको मारनेका विचार करे ॥ २९३ ॥ तं जाणिऊण मंति, कहिओ कमलप्पभाइ सबंपि। विन्नवइ देवि?जह तह, रक्खिजसु नंदणं निययं ९४ | अर्थ-मंत्री वह विचार जानके कमलप्रभा रानीको सब वृतान्त कहके विनती करी हे देवी हे महारानी यथा तथा जिस तिस प्रकार करके अपने पुत्रकी रक्षा करो ॥ २९४ ॥ जीवंतेण सुएणं, होही रज पुणोवि निष्भंतं । ता गच्छ इमं पित्तुं, कत्थवि अहयंपि नासिस्सं ॥२९५॥ | अर्थ-पुत्र जीता रहेगा तो औरभी निसंदेह राज्य होगा इसलिए इस बालकको लेके कहीं चलीजाओ मैंभी यहांसे भागके जाउंगा ॥ २९५॥ तत्तो कमला चित्तूण, नंदणं निग्गया निसिमुहंमि । मा होउ मंतभेओत्ति, सबहा चत्तपरिवारा ॥२९॥ | अर्थ-तदनंतर कमलप्रभा रानी पुत्रको लेके संध्या समयमें निकली कैसी रानी इस विचारको कोई जानो मत है ऐसा विचारके सर्वथा दास्यादि परिवारका त्याग किया जिसने ऐसी एकाकिनी निकली ॥२९६ ॥ ॥ ३९॥ निवभजा सुकुमाला, वहियवो नंदणो निसा कसिणा। चंकमणंचरणेहि, ही ही विहिविलसियं विसमं ९७/ trtttttt For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - राजाकी रानी है इस कारणसे सुकुमार शरीरवाली है और पुत्रको गोदीमें उठाके चलना होवे है तथा रात्रि अंधारी है और पगोंसे चलना है रथादिक सवारीके अभावसे इतनी आपदा एक वक्तमें पाई ही ही यह खेदकी बात है विधिका विलास अतिविषम है ॥ २९७ ॥ | पिय मरणं रज्ज सिरी, नासो एगागिणित्तमरितासो । रयणीवि विहायंती, हा संपइ कत्थ वच्चिस्सं ॥२९८॥ अर्थ — मार्ग में चलती भई कमलप्रभा विचार करे भर्तारका मरण राज्यलक्ष्मीका नाश एकाकिनीपना और वैरीका त्रास रात्रि जाती भई अर्थात् प्रभात होता भया दिखता है हा इति खेदे अब कहां जाऊं ॥ २९८ ॥ इच्चाइ चिंतयंती, जा वञ्चइ अग्गओ पभायंमि । ता फिट्टाए मिलियं, कुट्टियनरपेडयं एगं ॥ २९९ ॥ अर्थ — इत्यादि विचारती भई जितनें आगे चलती है उतने प्रभात समयमें एक कोढ़ी मनुष्योंका पेड़ा यानें समूह बिना विचाराही मिला अर्थात् अकस्मात् मिला ॥ २९९ ॥ तं दट्टणं कमला, निरुवमरूवा महग्घआहरणा । अबला वालिक्कसुया, भयकंपिर तणुलया रुयइ ॥ ३००॥ अर्थ-उन कुष्टी मनुष्योंके समुदायको देखके भयसे कांपती भई कमलप्रभा रोती भई कैसी है कमलप्रभा निरुपम अद्भुत है रूप जिसका और बहुत कीमतके आभरण हैं जिसके पासमें, और स्त्री होनेसे अबला है और बालक एक पुत्र है जिसके ऐसी ॥ ३०० ॥ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandit श्रीपालचरितम् ॥४०॥ जिव, काहने भाइयोंकरके आश्वासन SSSSSSSROOMALS तं रुयमाणि दुटुं, पेडयपुरिसा भणंति करुणाए। भद्दे कहेसु अम्हं, काऽसि तुमं कीस वीहेसि ॥३०१॥ भाषाटीका| अर्थ-तब कोढ़ियोंके पेड़ेका मनुष्यो ने उस रानीको रोती भई देखके करुणासे बोले हे भद्रे तैं हमसे कह तैं कौन है 3 सहितम्. और कैसे डरती है ॥ ३०१॥ तीए नियबंधूणिव, कहिओ सबोवि निययवुत्तंतो। तेहिं च सा सभइणिव, सम्ममासासिया एवं ॥२॥ | अर्थ-बादमें उस रानीने अपने भाइयोंके जैसा सर्व अपना वृतान्त कहा उन्होंसे, और उन्होंने उस रानीको अपनी बहिनके जैसी समझके और वक्ष्यमाण प्रकार करके आश्वसना दिया कैसे सो कहते हैं ॥३०२॥ मा कस्सवि कुणसु भयं, अम्हे सत्वे सहोयरा तुज्झ । एआइ वेसरीए, आरूढा चलसु वीसत्था ॥३०॥ __अर्थ-हे भगिनी तेरेको किसीकाभी भय नहीं करना जिस कारणसे हम सब तेरे भाई हैं इस खचरनीपर बैठी हुई विश्वास युक्त सुखसे चलो ॥३०३॥ तत्तो जा सा वरवेसरीए, चडिया पडेण पिहियंगी। पेडयमज्झमि ठिया, नियपुत्तजुया सुहं वयइ ॥४॥ अर्थ-तदनंतर कमलप्रभा रानी प्रधान वेशरणी नाम खचरनीपर बैठी भई और वस्त्रसे जिसका शरीर ढका है और 8 ॥४०॥ दाकोढ़ियोंके पेडेके मध्यमें रही भई अपने पुत्र सहित सुखसे चलती है ॥ ३०४॥ For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir ASSASSASSASSURASA तापत्ता वेरिभडा, उष्भडसत्थेहिं भीसणायारा। पुच्छंति पेडयं भो, दिट्ठा किं राणिया एगा ॥३०५॥ 8. अर्थ-उतने वैरी अजितसेन राजाका सुभट आके कोढ़ी मनुष्योंके वृन्दसे पूछे अहो तुमने क्या एकरानी देखी5 कैसे हैं सुभट उद्भट शस्त्रों करके भयंकर है आकार जिन्होंका ऐसे ॥ ३०५॥ पेडयपुरिसेहिं तओ, भणियं भो अत्थि अम्हसत्थंमि । रउताणियावि नूणं, जइ कजं ता पगिन्हेह ३०६ अर्थ-तदनंतर कोढ़ी पेटकके मनुष्योंने कहा अहो सुभटो हमारे साथमें निश्चय पामा नामकी रानी है जो तुम्हारे पामसे कार्य होवे तो अच्छी तरहसे लेवो ॥ ३०६ ॥ Pएगेण भडेण तओ, नायं भणियं च दिति मे पामं । सवं दिजइ संतं, तो कुटुभएण ते नट्ठा ॥३०७॥ अर्थ-तदनंतर एक सुभटने जाना और कहा यह कोढ़ी मनुष्य है पामा देवे है युक्त है यह जिसकारणसे सर्व विद्यमान होवे सो दिया जावे है बाद कोढ़के भयसे वह सर्व सुभट भाग गए ॥ ३०७॥ तेहिं गएहिं कमला, कमेण पत्ता सुहेण उजेणिं। तत्थ ट्ठिया य सपुत्ता पेडयमन्नत्थ संपत्तं ॥३०८॥ | अर्थ-बाद उन सुभटोंके जानेसे कमलप्रभा रानी क्रमसे चलती भई उजैनी नगरी सुखसे प्राप्त भई और पुत्रस-| ६ हित उज्जैनी नगरीमें रही कोढ़ियोंका पेडा तो और कहीं चला गया ॥ ३०८॥ है भूसणधणेण तणओ, जा विहिओ तीइ जुवणाभिमुहो। ता कम्मदोसवसओ, उंवररोगेणसो गहिओ३०९ । CAREERCISAR For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व भाषाटीकासहितम्. श्रीपाल अर्थ-बाद उस कमलप्रभाने गहना बेचके उस द्रव्यसे अपने पुत्रको यौवन अवस्था प्राप्त किया उतने पूर्वकृत कर्म चरितम् 18|दोषके वशसे उस बालकके उंवर कोढ़ विशेष रोग भया ॥ ३०९॥ ॥४१॥ वहएहिपि कएहिं, उवयारेहिं गुणो न से जाओ। कमलप्पहा अदन्ना, जणं जणं पुच्छए ताव ॥३१०॥ है। अर्थ-बहुत उपाय करनेसेभी वह रोग नहीं मिटा तब कमलप्रभा रानी अधीर भई हरएक मनुष्यसे रोग जानेका Pउपाय पूछे ॥ ३१॥ केणवि कहियं तीसे, कोसंबीए समत्थि वरविजो। जो अट्ठारसजाई, कुटुस्स हरेइ निष्भंतं ॥३११॥ - अर्थ-उतने किसी पुरुषने कमलप्रभासे कहा कौशाम्बी नगरीमें अठारह जातिका कुष्ट रोग मिटानेवाला प्रधान वैद्य है निसंदेह सब रोगोंको मिटाता है ॥ ३११॥ कमला पुत्तं पाडोसियाण, सम्मं भलाविऊण सयं । विजस्स आणणत्थं, पत्ता कोसंबिनयरीए ॥३१२॥ अर्थ-तब कमलप्रभा रानी अपने पुत्रको पाडोंसियोंको बोलाकर अर्थात् सौंपके आप वैद्यको बुलानेके वास्ते कौशाम्बी नगरी प्राप्त भई ॥३१२॥ तं विजं तित्थगयं, पडिक्खमाणी चिरं ठियातत्थ।मुणिवयणाओ मुणिऊण, पुत्तसुद्धिं इहं पत्ता ॥३३॥ ॥४१॥ For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — उस वैद्यको तीर्थयात्रा गया भया सुनके कमलप्रभा रानी वैद्यकी वाट देखती भई कौशाम्बी नगरीमें बहुत कालतक रही पीछे मुनिके बचनसे पुत्रकी खबर जानके यहां आई ॥ ३१३ ॥ साऽहं कमला सो एस मज्झ, पुत्तुत्तमो सिरिपालो । जाओ तुज्झ सुयाए, नाहो सवत्थ विक्खाओ ॥१४॥ अर्थ- वह कमलप्रभा मैं हूं वह यह मेरा पुत्रोत्तम श्रीपाल कुमर है जो तुम्हारी पुत्रीका भर्तार भया है और सर्वत्र लोकमें प्रसिद्ध भया है ॥ ३१४ ॥ सीहरहरायजायं, नाउं जामाउयं तओ रुप्पा । साणंद अभिनंदइ, संसइ पुन्नं च धूयाए ॥ ३९५ ॥ अर्थ - तदनंतर रुष्पसुंदरी रानी सिंहरथ राजाके पुत्रको जमाई जानके आनंदसहित जैसा होय वैसा पुत्रीके पुण्यकी अनुमोदना करे याने पुत्रीके पुण्यकी प्रशंसा करे ॥ ३१५ ॥ गंतूण गिहं रुप्पा, कहेइ तं भायपुन्नपालस्स । सोऽवि सहरिसो कुमरं, सकुटुंबं नेइ नियगेहं ॥ ३९६ ॥ अर्थ —तदनंतर रुप्पसुंदरी रानी अपने घर जाके अपने भाई पुण्यपालके आगे वह वृत्तान्त कहे तब पुण्यपाल भी हर्षसहित मातादि कुटुंब सहित कुमरको अपने घर लावे ॥ ३१६ ॥ अप्पेइ वरावासं, पूरइ धणधन्नकंचणाईयं । तत्थऽच्छइ सिरिपालो, दोगंदुकदेवलीलाए ॥ ३१७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीकासहितम्. ॥४२॥ अर्थ-प्रधान आवास रहनेके वास्ते देवे तथा धन धान्य कांचन वगैरहः सर्व वस्तु पूर्ण करे श्रीपाल कुमर उस आवासमें दोगंदुक त्रायस्त्रिंशक इन्द्रके पुरोहित स्थानीय देवोंके जैसी लीला करके रहे ॥ ३१७॥ अन्नदिणे तस्सावास,-पाससेरीइ निग्गओराया। पिक्खइ गवक्खसंठिय,-कुमरं मयणाइ संजुत्तं ॥३१॥ __अर्थ-अन्य दिनमें श्रीपालके आवासके पासमें सेरी मार्ग विशेष उस मार्गसे राजा निकला उस आवासके गोखहै डेमें मदनसुंदरीसहित श्रीपाल कुमरको बैठा भया देखा सेरी यह देशी शब्द है ॥ ३१८ ॥ तो सहसा नरनाहो, मयणं दट्टण चिंतए एवं । मयणाइ मयणवसगाइ, मह कुलं मइलियं नूणं ॥३१९॥ BI अर्थ-तदनंतर राजा प्रजापाल अकस्मात मदनसुंदरीको देखके इस प्रकारसे विचारकिया, कामके वसपड़ी भई मदनसुंदरीने निश्चय मेरे कुलको मलीन किया ॥ ३१९ ॥ |इक्वं मए अजुत्तं, कोवंधेणं तया कयं वीयं । कामंधाइ इमीए, विहियं ही ही अजुत्तयरं ॥ ३२०॥ __ अर्थ-उस अवसरमें एक तो मैंने कोपान्ध होके अयुक्त किया जो कोढ़िएको अपनी पुत्री दी और दूसरा इसने कामान्ध होके ही ही इति खेदे अयुक्ततर अतिशय अयुक्त किया जिसने अपने पतिको छोड़के अन्य पति अंगीकार किया ॥ ३२०॥ एवं जायविसायस्स, तस्स रन्नो सुपुण्णपालेण । विन्नतं तं सवं, धूयाचरियं सअच्छरियं ॥३२१॥ tortortortor ॥४२॥ For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RRCLEARNAGARLS १ अर्थ-एवं उक्तप्रकार करके उत्पन्न भया है दुःख जिसको ऐसे राजाके आगे शोभन पुण्यपालने वह सर्व पुत्रीका है चरित कहा कैसा है चरित आश्चर्य सहित वर्ते ऐसा ॥ ३२१॥ तं सोऊणं राया, विम्हियचित्तो गओ तमावासं । पणओ य कुमारेणं, मयणासहिएण विणएणं ॥३२२॥ ___ अर्थ-वह पुत्रीका चरित सुनके आश्चर्य पाया चित जिसका ऐसा भया थका मदनसुंदरीके आवासमें गया मदन|सुंदरी सहित श्रीपाल कुमरने विनयसे नमस्कार किया और सिंहासनपर बैठाया ॥ ३२२॥ लज्जाऽणओ नरिंदो, पभणइ धिद्धी ममं गयविवेयं । जंदप्पसप्पविसमुच्छिएण, कयमेरिसमकजं ॥३२३॥ । अर्थ-लज्जासे नम्र भए राजा बोले गया विवेक जिसका ऐसे मेरेको धिक्कार होवो धिक्कार होवो जिस कारणसे 2 अभिमानरूप सर्प उसका विष स्तब्धतालक्षण उससे मूर्छित होके मैंने ऐसा अकार्य किया ॥ ३२३ ॥ वच्छे ! धन्नासि तुमं, कयपुन्ना तंसि तंसि सविवेया। तं चेव मुणियतत्ता, जीए एयारिसं सत्तं ॥३२४॥ | अर्थ हे पुत्री तें धन्य है और कृतपुण्य है तै विवेक सहित है तथा जाना है तत्व जिसने ऐसी ही है जिसका ऐसा सत्व धैर्य है ।। ३२४ ॥ उद्धरियं मज्झकुलं, उद्धरिया जीइ निययजणणीवि।उद्धरिओजिणधम्मो, सा धन्ना तंसि परमिक्का २५] । For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir C श्रीपाल- अर्थ-हे पुत्री जिसने मेरे कुलका उद्धार किया और जिसने अपनी माताका उद्धार किया और जिनधर्मका उद्धार भाषाटीकाचरितम् किया अर्थात् जिनधर्मको शोभा प्राप्त किया ऐसी एक तें ही धन्य है ॥ ३२५ ॥ सहितम्. ॥४३॥ अन्नाणतमंधेणं, दुद्धरहंकारगयविवेगेणं । जो अवराहो तइया, कओ मए तं खमसु वच्छे ॥ ३२६ ॥ ___ अर्थ-अज्ञान ही अंधकार उससे आंधा उस करके और दुर्धर जो अहंकार उससे गया है विवेक जिसका ऐसे मैंने |उस वक्तमें जो तेरा अपराध किया वह क्षमा कर ॥ ३२६ ॥ विणओणया य मयणा, भणेइमा ताय कुणसुमणखेयं । एयं मह कम्मवसेण चेव, सबंपि संजायं ॥२७॥15 । अर्थ-इस प्रकारसे राजाने वचन कह्यों के बाद विनयसे नम्र ऐसी मदनसुंदरी बोली हे पिताजी मनमें खेद मतकरो है यह सर्व मेरे कर्मके वशसेही भया है यहां थोडाभी आपका दोष नहीं है ॥ ३२७ ॥ नोदेई कोइ कस्सवि,सुक्खं दुख्खं च निच्छओएसोनिययं चेव समज्जियमुव जइजंतुणा कम्मं ॥२८॥ __ अर्थ-हे तात यह निश्चय है कोई किसीको सुख या दुःख नहीं देवे है किंतु जीव अपना किया हुआ कर्मही भोगवे है ॥ ३२८ ॥ ॥४३॥ मा वहउ कोइ गवं, जं किर कजं मए कयं होइ । सुरवरकयंपि कजं, कम्मवसा होइ विवरीयं ॥३२९॥ SCANASTAS** RACACAMARG For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobelirtth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir अर्थ-निश्चय मेरा किया हुआ कार्य होता है ऐसा कोई गर्व मत धारो जिसकारणसे इन्द्रादिकका भी कार्य कर्मके वससे विपरीत होता है ॥ ३२९ ॥ |ता ताय जिणुत्तं तत्त, मुत्तमं मुणसु जेण नाएणं । नजइ कम्मजियाणं, बलाबलं बंधमुक्खं च ॥३०॥ | अर्थ-तिस कारण से हे पिताजी तीर्थकरका कहा हुआ तत्व उत्तम जानो जिसके जाननेसे कर्म और जीवों का बलाबल जाना जावे है कत्थवि जीवो वलीओ कत्थवि कम्माई हुंति वलियाई कभी जीव बलवान होता है कभी कर्म बलवान होते हैं जीव अनंत बली है और कर्म महाबली है और बंध मोक्ष जाना जाता है ॥ ३३० ॥ तत्तो धम्म पडिवजिऊण, राया भणेइ संतुट्टो । सीहरहरायतणओ, जं जामाया मए लद्धो ॥३३१॥ अर्थ-तदनंतर राजा धर्म अंगीकार करके संतुष्टमान होके बोले जो मैंने सिंहरथराजाका पुत्र जमाई पाया ॥३३॥ तं पत्थरमित्तकए, हत्थंमि पसारियंमि सहसत्ति । चडिओ अचिंतिओ च्चिय, नणं चिंतामणी एसो॥३२॥ ___ अर्थ-वह पाषाण मात्र ग्रहणनिमित्त हाथप्रसारण करनेसे अकस्मात निश्चय विना विचाराही यह चिंतामणि रत्न हाथमें आया ॥ ३३२॥ जामाइयं च धूयं, आरोविय गयवरंमि नरनाहो। महया महेण गिहमाणिऊण, सम्माणइ धणेहिं ॥३३॥ SUNU ACANCARNAGARCANGA For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ४४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनंतर राजा जमाई श्रीपाल और पुत्री मदन - सुंदरी इन दोनोंको प्रधान हाथीपर बैठाके बड़े उत्सवके साथ अपने घर लाकरके वहुत प्रकारका द्रव्योंकरके सत्कार करे ॥ ३३३ ॥ जायं च साहु वार्य, मयणाए सत्तसीलकलियाए । जिणसासणप्पभावो, सयले नय रम्मि वित्थरिओ ३४ अर्थ - तव सत्वसील धैर्य ब्रह्मचर्य करके युक्त मदनसुंदरीका साधुवाद भया यह महासती है ऐसी प्रसिद्धि भई तथा जिनशासनका प्रभाव सर्व नगरसें विस्तार पाया ॥ ३३४ ॥ अन्नदिणे सिरिपालो, हयगयरह सुहडपरियरसमेओ । चडिओ रयवाडीए, पञ्चक्खो सुरकुमारुव ॥ ३५ ॥ अर्थ - अन्यदिनमें श्रीपालकुमर घोड़ा हाथी रथ सुभटोंका परिवार सहित प्रत्यक्ष देवकुमारके जैसा राजवाड़ी चला अर्थात् बगीचे क्रीड़ा करनेको जाता है ॥ ३३५ ॥ लोएय सप्पमोए, पिक्खंते चडवि चंदसालासु । गामिलएण केणवि, नागरिओ पुच्छिओ कोवि ॥ ३३६॥ अर्थ-तब हर्ष सहित लोग चन्द्रशाला घरके ऊपरकी भूमिपर चढ़के कुमरको देखरहे हैं उतने किसी ग्रामीण मनुष्यने कोई नगरवासी पुरुषसे पूछा ॥ ३३६ ॥ भो भो कहेसु को एस, जाइ लीलाइ रायतणउब ! । नागरिओ भणइ अहो, नरवरजामाउओ एसो ॥३७॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ४४ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - अहो अहो तैं कहः राजकुमर सदृश लीला करके यह कौन जावे है ऐसा ग्रामीणने पूछनेसे नागरिक बोला अहो यह राजाका जमाई है ॥ ३३७ ॥ तं सोऊण कुमारो, सहसा सरताडिओव विच्छाओ । जाओ वलिऊण समागओय, गेहंमि सविसाओ ३८ अर्थ- वह नागरिकका वचन सुनके कुमर अकस्मात् वाणसे ताडितके जैसा उदासभया और विषाद सहित वहांसेही पलटकर अपने घर आया ।। ३३८ ॥ तं तारिसंच जणणी, दहूण समाकुला भणइ एवं, किं अज्ज वत्थ ! कोवि हु, तुह अंगे वाहए बाही ॥ ३३९ ॥ अर्थ - तब माता कुमरका वैसा उदास मुखदेखके व्याकुल भई इस प्रकारसे कहे हे वत्स आज तेरे शरीरमें क्या | कोई रोग पीडा उत्पन्न करे है ॥ ३३९ ॥ किं वा आखंडलसरिस, तुज्झ केणावि खंडिया आणा । अहवा अघडंतोवि हु, पराभवो केणवि कओ ते ४० अर्थ - अथवा हे आखंडल सदृश हे इन्द्रतुल्य हे पुत्र तेरी आज्ञा क्या किसी पुरुषने खंडन करी अथवा अघटमान भी निश्चय तेरा अनादर किसीने किया जिससे तैं ऐसा देखनेमें आवे है ॥ ३४० ॥ किंवा कन्नारयणं, किंपि हु हियए खडुक्कए तुज्झ । घरणीकओ अविणओ, सो मयणाए न संभवइ ॥ ४१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-अथवा कोई कन्या रत्न तेरे हृदयमें खटके है तथा अपनी स्वीका कीया हुआ अविनय भया है वह तो मदन- भाषाटीका. चरितम् सुंदरीमें नहीं संभवे है ॥ ३४१॥ कसहितम्. 18 केणावि कारणेणं, चिंतातुरमत्थि तुह मणं नूणं । जेणं तुह मुहकमलं, विच्छायं दीसई वच्छ ॥३४२॥ ॥४५॥ है| अर्थ-निश्चय कोई कारण करके तेरा मन चिंतातुर है जिसकारणसे हे वत्स तेरा मुहकमल उदास दीखता है॥३४२॥ कमरेण भणियमम्मो, एएसिं मझओ न एकंपि । कारणमत्थित्थमिमं अन्नं पुण कारणं सुणसु॥४॥ I अर्थ-कुमर बोला हे माताजी इन कारणोंमें एकभी यहां कारण नहीं है किंतु कारण और है वह तुम सुनो ॥३४॥ 8/नाहं निययगुणेहिं, न तायनामेण नो तुह गुणेहिं । इह विक्खाओ जाओ, अहयं सुसुरस्स नामेणं ॥४४॥ | अर्थ-इस नगरमें मैं अपने गुणोंसे प्रसिद्ध नहीं भयाहूं और पिताके नामसे भी विख्यात नहीं भयाहूं और तुम्हारे गुणोंसे भी प्रसिद्धि नहीं पाई है किंतु मैं यहां सुसरेके नामसे प्रसिद्ध भयाहूं ॥ ३४४ ॥ तं पुण अहमाहमत्तकारणं वज्जियं सुपुरिसेहिं । तत्तुच्चिय मझमणं, मिज्जइ सुसुरवासेणं ॥ ३४५॥ | अर्थ-वह जो सुसरेके नामसे प्रसिद्ध होना सो तो अधमाधमका कारण है जिस कारणसे कहा है उत्तमाः स्वगुणैः ख्याताः मध्यमाश्च पितुगुणैः । अधमाः मातुलैः ख्याताः श्वशुरेणाधमाधमाः॥१॥ इस बचनसे इसीकारणसे सत् पुरुषोंने मना किया है स्वसुरेके घरमें रहनेसे मेरा मन उदास होता है । ३४५॥ HUSUSHISHIANSANIAS For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MISSION तो भणियं जणणीए, बहुसिन्नं मेलिऊण चउरंग। गिन्हसु नियपियरज, मह हिययं कुणसु निस्सलं ॥४६॥ | अर्थ-तब माता बोली हे पुत्र चार अंगजिसके ऐसी हाथी घोड़ा वगैरेहः बहुत सैन्य एकट्ठी करके अपने पिताका राज्य ग्रहणकर और मेरा हृदय निशल्य कर ॥ ३४६ ॥ कुमरेणुत्तं सुसुरयबलेण, जं गिएहणं सरजस्स । तं च महच्चिय दूमेइ, मज्झचित्तं ध्रुवं अम्मो ॥३४७॥ ___ अर्थ-कुमरने कहा हे माताजी सुसरेके बलसे जो अपना राज्य लेना वह निश्चय मेरे मनको उदास करे है ॥३४७॥ उता जइ सभुयज्जिय सिरिबलेण, गिन्हामि पेइयं रजं । ता होइमझ चित्तंमि, निवई अन्नहा नेव ॥४८॥ ___ अर्थ-तिसकारणसे अपना भुजोंसें उपार्जितकीभई लक्ष्मीके वलसे अपने पिताका राज्य ग्रहण करूं तब मेरे चित्तमें निवृत्ति होवे अन्यथा और प्रकारसे सुख होवे नहीं ॥ ३४८ ॥ तत्तो गंत्तृणमहं, कत्थवि देसंतरमि इकिल्लो। अज्जियलच्छिबलेणं, लहं गहिस्सामि पियरजं ॥४९॥ ___ अर्थ-तिस कारणसे मैं एकाकी कहांभी देशान्तरमे जाके लक्ष्मी उपार्जनकरके जल्दी पिताका राज्य ग्रहण करूंगा ॥ ३४९॥ तं पइ जंपइ जणणी, वालो सरलोसि तंसि सुकुमालो, । देसंतरेसुभमणं, विसमं दुक्खावहं चेव ॥३५०॥ For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ४६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-उस श्रीपालको माता कहे हे पुत्र तैं बालक है और सरल है सुकुमार तेरा शरीर है देशान्तरोंमें फिरना तो 6 भाषाटीकाकठिन है इसी कारणसे दुःखकारक है ॥ ३५० ॥ सहितम्. तो कुमरो जणणीं पइ, जंपइ मा माइ ! एरिसं भणसु । तावच्चिय विसमत्तं, जाव न धीरा पवज्जंति ॥५१॥ अर्थ — उसके बाद मातासे कहे हे अंब हे माताजी ऐसा वचन मतकहो कार्यमात्रका विषमपना तबतकही है जबतक धैर्यवान पुरुष नही अंगीकार करे ।। ३५१ ॥ | पभणइ पुणोऽवि माया, वच्छय ! अह्मे सहागमिस्सामो । को अह्मं पडिबंधो, तुमं विणा इत्थ ठाणंमि ॥५२ अर्थ - और भी माता कहे हे वत्स हम तुम्हारे साथ आवेंगी यहां तेरे बिना हमारे रहनेका क्या कारण है अपितु कोई कारण नहीं है ॥ ३५२ ॥ कुमरो कहेइ अम्मो ! तुम्हेहिं सहागयाहिं सवत्थ । न भवामि मुक्कलपओ, ता तुम्हे रहह इत्थेव ॥५३॥ अर्थ - कुमर बोला हे माताजी आप साथमें आवो तो मेरे सर्वत्र पग बन्धन होवे सर्वत्र मोकला पग नहीं होवे इस वास्ते यहांही रहो ॥ ३५३ ॥ | मयणा भणेइ सामिय! तुम्हं अणुगामिणी भविस्सामि, । भारंपि हु किंपि अहं, न करिस्सं देहछायुव ॥ ५४॥ For Private and Personal Use Only ॥ ४६ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तब मदनसुंदरी बोली हे स्वामिन् मैं आपके अनुगामिनी पीछे २ चलूंगी निश्चय कुछभी भार नही करूंगी शरीरकी छाया सदृश चलूंगी ॥ ३५४ ॥ कुमरेणुत्तं उत्तमधम्मपरे, देवि! मज्झ वयणेणं । नियसस्सूसुस्सूसण, - परा तुमं रहसु इत्थेव ॥५५॥ अर्थ - कुमर बोला हे उत्तमधर्मतत्पर हे देवि मेरे वचनसे तैं अपनी सासूकी सेवा प्रधान जिसके ऐसी भई थकी यहांही रह ।। ३५५ ॥ मयणाह पइपवासं, सइओ इच्छंति कहवि नो तहवि । तुम्हं आएसुच्चिय, महप्पमाणं परं नाह ! ॥ ५६ ॥ अर्थ - तब मदनसुंदरी कहे सती सुशीला स्त्रियों कोईप्रकारसे अपने पतिका विदेश गमन नहीं वांछती है तथापि मेरे तो आपकी आज्ञाही प्रमाण है ।। ३५६ ॥ अरिहंताइपयाई, खर्णपि न मणाउ मिल्हिय वाइं । नियजणणिं च सरिज्जसु, कइयावि हु मंपि नियदासीं ॥ अर्थ- आप अर्हतादि नवपद क्षण मात्र भी अपने मनसे दूर करना नहीं और अपनी माताको याद करना कोई वक्त मैं दासी हूं मेरेकोभी याद करना ॥ ३५७ ॥ | जणणी वि तस्स नाऊण, निच्छयं तिलय मंगलं काउं । पभणइ तुह सेयत्थं, नवपयज्झाणं करिस्समहं ३५८ For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥४७॥ अर्थ-अथ माताभी श्रीपालकुमरका विदेश जानेमें निश्चय जानके तिलक मंगल करके कहती भई हेपुत्र तुम्हारे कल्याणके वास्ते मैं नवपदोंका ध्यान करूंगी ॥ ३५८ ॥ दसहितम्. मयणा भणेइ अहयंपि, नाह! निच्चंपि निच्चलमणेणं । कल्लाणकारणाइं, झाइस्सं ते नवपयाइं ॥३५९॥ ___ अर्थ-मदनसुंदरी बोली हे नाथ मैंभी निरंतर निश्चलमन करके एकाग्रचित्त करके आपके कल्याणका कारण नवपदोंका स्मरण ध्यान करूंगी ॥ ३५९ ॥ | तेणं मयणावयणा,-मरण सित्तो नमित्तु माइपए। संभासिऊण दइयं, सिरिपालो गहियकरवालो॥३६०॥ अर्थ-मदनसुंदरीके वचनामृतसे सींचा हुआ श्रीपालकुमर माताके चरणकमलोमें नमस्कार करके मदनसुंदरीके |साथ भाषण करके तलवारलेके ॥ ३६०॥ निम्मलवारुणमंडल-मंडियससिचारपाणसुपवेसे। तच्चरणपढमकमणं,-कमेण चल्लेइ गेहाओजुम्मं ॥३६१॥2 ___ अर्थ-निर्मल जो वारुणमंडल जलमंडल उसकरके मंडित जो शशिचारपाण चंद्रनाड़ि संचारि वायु उसका शोभन | प्रवेश होनेसे अर्थात् वामस्वररूप चंद्रनाड़ि वहतांथका उसी पगको प्रथम रखने करके ऐसे क्रमसे घरसे चले युग्म है ॥३६१॥18॥४७॥ सोगामागरपुरपट्टणेसु कोऊहलाई पिक्खंतो। निब्भयचित्तो पंचाणणुव, गिरिपरिसरं पत्तो ॥ ३६२ ॥ ACARA For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - वह श्रीपाल कुमर ग्राम आकर पुर पत्तनोंमें कौतूहल देखता हुआ पंचानन सिंहके जैसा निर्भय चित्त | जिसका ऐसा भयाथका एक पर्वतके पासमें पहुंचा ॥ ३६२ ॥ तत्थ य एगंमि वणे, नंदणवणसरिससरसपुप्फफले । कोइलकलरवरम्मं, तरुपतिं जा निहालेइ ॥ ३६३॥ अर्थ - वहां पर्वतके समीपदेशमें एक वनमें वृक्षोंकी पंक्ति यानें श्रेणी जितने देखे कैसा है वन नंदनवन सदृशसरस पुष्पफल है जिसमें कैसी है वृक्षोंकी पंक्ति कोयलोंकी मधुर धुनि करके रमणीक है ॥ ३६३ ॥ ता चारुचंपयतले, आसीणं पवररूवनेवत्थं । एगं सुंदरपुरिसं, पिक्खइ मंतं च झायंतं ॥ ३६४ ॥ अर्थ - उतने मनोहर चंपक वृक्षके नीचे रहा हुआ और प्रधानरूप आकृति वेष जिसका ऐसा एक पुरुष मंत्र ध्याता हुआ देखे || ३६४ ॥ | सो जाव समत्तीए, विणयपरो पुच्छिओ कुमारेण । कोसि तुमं किं झायसि, एगागी किं च इत्थ वणे | ३६५ अर्थ- वह पुरुष जाप समाप्ति होनेपर विनयमें तत्परभया उसको कुमरने पूछा तैं कौन है क्या ध्यावे है और इस वनमें एकाकी क्यों रहा है ॥ ३६५ ॥ | तेणुत्तं गुरुदत्ता विज्जा, मह अस्थि सा मए जविया । परमुत्तरसाहगमंतरेण, सा मे न सिज्झेइ ॥ ३६६॥ For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥४८॥ अर्थ-उस पुरुषने कहा मेरेपास गुरूकी दीभई विद्या हैं वह विद्या मैंने जपी परंतु उत्तर साधक याने सहायकारी भाषाटीकापुरुष विना सिद्ध होवे नहीं ॥ ३६६ ॥ सहितम्. जइतं होसि महायस! मह उत्तरसाहगो कहवि अज्ज । ताहं होमि कयत्थो, विजा सिद्धीड निब्भंतं ॥३६७॥ 31 अर्थ हे महायशस्विन् जो तै कोई प्रकारसे मेरा उत्तर साधक होवे तो मैं निसंदेह सिद्धभई है विद्या जिसकी ऐसा होजाऊं ॥ ३६७ ॥ तत्तो कुमरकरणं, साहज्जेणं स साहगो पुरिसो। लीलाइ सिद्धविज्जो, जाओ एगाइ रयणीए ॥३६८॥ ___ अर्थ-तदनंतर कुमरने किया सहाय करके वह साधकपुरुष लीलाकरके एकरात्रिमें सिद्ध होगई है विद्याजिसकी ऐसा भया ॥ ३६८॥ तत्तो साहगपुरिसेण, तेण कुमरस्स ओसहीजुअलं । पडिउवयारस्स कए, दाऊणं भणियमेयं च ॥३६९॥ अर्थ-विद्यासिद्धभयोंके वाद उस साधक पुरुषने पीछा उपकार करनेके लिए कुमरको २ (दो) औषधिः देके यह कहा ॥ ३६९॥ ॥४८॥ जल तारिणीअएगा, परसत्थनिवारिणी तहा बीया । एयाउओसहीओ, तिधाउमठियाउ धारिजा ३७०/5 For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - क्या कहा सो कहते हैं इन औषधियोंमें एक औषधिः जलतारिणी है और दूसरी औषधिः परशस्त्रनिवारिणी है ये दोनों औषधिः सोना रूपा तांबा इन धातुमें मढवाके भुजामें तुम धारण करो ॥ ३७० ॥ | कुमरेण समं सो विज्झासाहगो, जाइ गिरिनियंबंमि । ता तत्थ धाउवाइय, पुरिसेहिं एरिसं भणिओ ॥ ३७१ ॥ अर्थ - वह विद्यासाधकपुरुष कुमरके साथ जितने पर्वतका किनारा वहां जावे इतने धातुवादिपुरुषोंने ऐसा वचन कहा ॥ ३७१ ॥ देव! तुम्ह दंसिएणं, कप्पपमाणेण साहयंताणं । केणावि कारणेणं, अम्हाण न होइ रससिद्धी ॥३७२ ॥ अर्थ- हे देव अन्यदर्शित कल्पप्रमाणे साधतां रससिद्धी करतां हमारे कोई प्रकार से रससिद्धी नाम स्वर्णोत्पादक रसकी सिद्धी नहीं होती है ॥ ३७२ ॥ | कुमरेण तओ भणियं, भो मह दिट्ठीइ साहह इमंति । ता तेहिं तहाविहिए, जाया कलाणरससिद्धी ॥ ३७३ ॥ अर्थ - तव कुमरने कहा अहोपुरुषो मेरी दृष्टिके आगे यह रस साधो वाद उन्होंने उसी प्रकारसे किया करनेसे कल्याण रसनाम स्वर्णरसकी सिद्धि भई ॥ ३७३ ॥ श्रीपा.च. ९९ काऊण कंचणं साहगेहिं, भणियं कुमार! अम्हाणं । जंजाया रससिद्धी, तुम्हाणं सो पसाओत्ति ॥ ३७४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ४९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - वादमें साधकपुरुषोने स्वर्णसिद्धि करके और बोले हे कुमार हमारे यह स्वर्णरसकी सिद्धी भई सो आपका प्रसाद है ॥ ३७४ ॥ ता गिण्ह कणगमेयं, नो गिण्हइ निप्पिहो कुमारो य । तहविहु अलयंतस्सवि, कंपि हु वंधंति ते वत्थे ३७५ अर्थ - तिस कारण से यह सोना आप लेवो परन्तु कुमर निस्प्रही है नहीं लेवे तौभी नहीं लेता थकां भी कुमरके वस्त्रमें साधकपुरुष कितनाक सोना बांधे ॥ ३७५ ॥ तत्तो कुमरो पत्तो, कमेण भरुयच्छनामयं नयरं । कणगवएण गिण्हइ, वत्थालंकारसत्थाई ॥ ३७६ ॥ अर्थ — तदनंतर श्रीपाल कुमर भृगुकच्छ (भरुवच्छ) नगर पहुंचा वहां सोना वेचके वस्त्र अलंकार शस्त्रादि ग्रहण करे ३७६ काऊण धाउमढियं, ओसहिजुयलं च बंधइ भुयंमि । लीलाइ भमइ नयरे, सच्छंदं सुरकुमारु ॥३७७৷৷ अर्थ - और औषधि जुगल तीन धातुमें मढ़वाके भुजामें बांधे बाद कुमर देवकुमरके जैसी लीला करके स्वइच्छासे नगर में क्रीडाकरे ॥ ३७७ ॥ |इओ य कोसंवीनयरीए, धवलो नामेण वाणिओ अस्थि । सो बहुधणुत्ति लोए, कुवेरनामेण विक्खाओ ७८ अर्थ - इधर से कोशाम्बीनाम नगरीमें धवल नामका वानिया है वह धवल बहुत धन जिसके इस कारणसे लोकमें कुबेरनाम करके प्रसिद्ध भयाहै ॥ ३७८ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीका सहितम्. ॥ ४९ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — और जहाज कैसे हैं बहुत चामर छत्र सिरिकरी जहाजका आभरण विशेष ध्वजा और प्रधानमुकुट इन्हों करके किया है शृंगार जिन्होंका ऐसे और सढ नाम बडा वस्त्र मई उपकरण विशेष वायु देनेमें प्रसिद्ध और बड़े २ रस्से और सारनंगर लोहमय जहाजको खड़ारखनेका उपकरण और जहाजकी रक्षाके उपकरण भेरी दुंदुभी इन्हों करके करी है शोभा जिन्होकी ऐसे ॥ ३८७ ॥ जलसंवलइंधणसंगहेण, ते पूरिऊण सुमुहुत्ते । धवलोय सपरिवारो चडिओ चालावए जाव ॥ ३८८ ॥ अर्थ - जल संबल इन्धनोंका संग्रह करके उन जहाजोंको पूर्ण करके अच्छे मुहूर्तमें धवल सार्थवाह परिवार सहित जहाजपर चढा और जितने जहाजोंकोचलावे ॥ ३८८ ॥ ताव वलीसुवि दिजंतयासु, वजंततारतूरेसु । निज्जामएहिं पोया, चालिजंतावि न चलंति ॥ ३८९ ॥ अर्थ - उतने देव देवियोंको बलिदान देता थकां ऊंचेस्वरसे वादित्र बजानेसे और निर्यामक जहाजो के चलाने वालोंने जहाज चलाए तौभी जहाज नहीं चले ॥ ३८९ ॥ तत्तो सो संजाओ, धवलो चिंताइ तीइ कालमुहो । उत्तरिय गओ नयरिं, पुच्छइ सींकोत्तरिं चेगं ॥ ३९०॥ अर्थ - तदनंतर वह धवलक चिंताकरके श्याममुख होगया तब जहाजसे उतरके धवलसेठ नगरीमें गया और एक सिकोत्तरी स्त्री से पूछा ॥ ३९० ॥ For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ५१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सा कहइ देवयार्थभियाई, एयाई जाणवत्ताइं । वत्तीससुलक्खणनर, वलीइ दिन्नाइ चति ॥ ३९९ ॥ अर्थ- वह सिकोत्तरी स्त्री बोली यह तेरे जहाज देवताने स्तंभित किए हैं ३२ लक्षणा पुरुषको देवताको बलिदान देनेसे जहाज चलेंगे और उपाय करनेसे नहीं चलेंगे ॥ ३९१ ॥ तत्तो धवलो सुमहग्ध, वत्थु भिट्टाइ तोसिऊण निवं । विन्नवइ देवओग, वलिकज्जे दिज्जउ नरं मे ॥३९२॥ अर्थ - तदनंतर धवल सार्थपति बहुत कीमतका भेटनालेके राजाके पासमें गया भेटनादेके राजाको संतोष उत्पन्न करके वीनतीकरे हेदेव एकमनुष्य देवताको बलिदानके वास्ते देओ ॥ ३९२ ॥ रन्ना भणियं जो होइ कोवि, विदेसिऊ अणाहो य । तं गिन्ह जहिच्छाए, अन्नो पुण नो गहेयवो ॥ ३९३ ॥ अर्थ-तब राजा बोले जो कोई परदेशमें रहनेवाला अनाथ स्वामीरहित जिसके पीछे पुकार करनेवाला कोई नहीं आवे ऐसा मनुष्य होवे उसको तुम अपनी इच्छासे लेलेओ और कोई नहीं लेना ॥ ३९३ ॥ तत्तो धवलस्स भडा, जाव गवेसंति तारिसं पुरिसं । ता सिरिपालो कुमरो, विदेसिओ जाणिओ तेहिं ३९४ अर्थ - तदनंतर धवलसेठका सुभट जितने वैसे पुरुषकी गवेषणाकरे उतने उन्होंने श्रीपालकुमरको परदेशी जाना ॥ ३९४ ॥ | वत्ती लक्खणधरो, कहिओ धवलस्स तेहिं पुरिसेहिं । धवलेण पुणो राया, एसो गहिओ य तग्गहणे ३९५ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ५१ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वहुकणयको डिगाहिय, कयाणगो णेगवाणिउत्तेहिं । सहिओ सो सत्थवाई, भरुयच्छे आगओ अस्थि ३७९ अर्थ- बहुत करोड़ों सोनयोंका किरयाना जिसने ग्रहण कियाहैं ऐसा और अनेक वानियोंके पुत्रो सहित वह सार्थवाह भरौंच नगरमें आयाहै ॥ ३७९ ॥ जाओ य तत्थ लाहो, पवरो सो तहवि दवलोहेणं । परकूलगमणपउणो, पगुणइ बहुजाणवत्ताई ॥३८०॥ अर्थ — उस भरौचनगर में बहुत लाभ भयाहै तौभी वह सार्थपति द्रव्यके लोभसे परकूलनाम समुद्रके परतट जानेके लिए तत्पर भया बहुत जहाज तय्यार करे ॥ ३८० ॥ | मज्झिमजुंगो एगो, सोलसवर कूव एहिं कयसोहो । चत्तारि य लहुजुंगा, चउचउकूवेहिं परिकलिया ॥ ३८१ ॥ अर्थ - उन जहाजोंमें एक मध्यमजुंगनामका जहाज सोलहप्रधान कूपकस्तम्भोंकरके करी है जिसकी शोभा ऐसा है और चार लघुजुंगनामके जहाजहैं चार २ कूपस्तम्भों करके सहित है ।। ३८१ ॥ वडसफर पवहणाणं, एगसयं बेडियाण अट्ठसयं । चउरासी दोणाणं, चउसट्ठी वेगडाणं च ॥ ३८२॥ अर्थ- वृहत सफर नामका जहाज एक सौ है बेड़िका नामका जहाज १०८ हैं द्रोण जहाजविशेष ८४ हैं बेगड़ नामका जहाजविशेष ६४ है ॥ ३८२ ॥ सिलाणं चउपन्ना, अवात्ताणं च तहय पंचासा । पणतीसं च खुरप्पा, एवं सयपंचबोहित्था ॥ ३८३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - सिल्लनामका जहाज ५४ है आवर्तनामका जहाज ५० हैं और क्षुरप्र नामका जहाज ३५ हैं इस प्रकारसे ५०० जहाज तय्यार किए हैं ॥ ३८३ ॥ श्रीपाल - चरितम् ॥ ५० ॥ ॐ गहिऊण निवाएसं, भरिया विविहेहिं ते कयाणेहिं । नाखुइयमालिमेहिं, अहिट्टिया वाणिउत्तेहिं ॥ ३८४ ॥ अर्थ - राजाकी आज्ञालेके वह जहाज नानाप्रकारके किरियानोंसे भरे हैं और नाखुयिक ( नाखवा ) और मालिम | जहाजके अधिकारीओं करके तथा वणिक पुत्रों करके अधिष्ठित नाम आश्रित हैं ॥ ३८४ ॥ | मरजीवएहिं गब्भिल्लएहिं, खुल्लासएहिं खेलेहिं । सुंकणिएहिं सययं, कयजालवणीविहिविसेसा ॥ ३८५॥ अर्थ- समुद्र के जलमें प्रवेशकरके वस्तु निकाले वह मरजीवक कहे जावें और गब्भिल्लकनाम खलासीलोग और खेल और सुंकाणिक अपने २ जहाज सम्बन्धी व्यापारके अधिकारियो करके निरंतर किया है साचवण विधि विशेष जिन्होंमें ऐसे ॥ ३८५ ॥ नाणाविहसत्थविहत्थहत्थ, - सुहडाणद्ससहस्सेहिं । धवलस्स सेवगेहिं रक्खिजंता पयत्तेणं ॥ ३८६॥ अर्थ - और वह जहाज कैसे हैं अनेक प्रकारके शस्त्रों करके व्याकुलहैं हाथ जिन्होंके ऐसे दसहजार सुभट धवल | सेठके सेवकों करके प्रयत्नसे रक्षा करी गईहै जिन्होंकी ॥ ३८६ ॥ बहुचमरछत्तसिक्करि, धयवडवरमउडविहियसिंगारा। सढदोर सारनंगर, पक्खरभेरीहिं कय सोहा ॥ ३८७ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ५० ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- उन पुरुषोंने बत्तीस लक्षणका धारनेवाला श्रीपालकुमारको देखके धवलसेठसे कहा तब धवलसेठने उसको पकड़नेके लिए अर्थात् श्रीपालकुमरको पकड़नेके लिए और राजाकी आज्ञा लिया ।। ३९५ ॥ सो सिरिपालो चउहहयंमि, लीलाइ संनिविट्टोवि । धवलभडेहिं उभडसत्थेहिं, झत्ति आक्खित्तो ३९६ अर्थ - तब वह श्रीपाल कुमर बजार में लीलासे बैठा है तथापि उद्भट शस्त्रवाले धवलसेठके सुभटोंने शीघ्र प्रेरणा किया३९६ रेरे तुरियं चलसु रुट्ठो तुह अज्ज धवलसत्थवई । तं देवयाबलीए, दिज्झसि मा कहसि नो कहियं ॥ ३९७ ॥ अर्थ-कैसे आक्षेप कियासो कहते हैं अरे २ तैं जल्दीचल आज तेरेपर धवल सार्थवाह नाराज हुआ है तेरेको देवताके लिए बलिदान देगा नकारा करना नहीं ॥ ३९७ ॥ कुमरेणुत्तं रेरे, देह बलिं तेण धवलपसुणावि । पंचाणणेण कत्थवि, किं केणवि दिज्झए हु बली ॥ ३९८ ॥ अर्थ - तब कुमर बोला अरे २ पामरो तुह्मारास्वामी धवल पशुहैं उसकाही बलिदान देओ कारण सर्वत्र दुर्बल पशुकाही बलिदान दिया जावे है परंतु सिंहका बलिदान कहीं भी नहीं दिया जावे है ॥ ३९८ ॥ तत्तो पयडंति भडा, किंपि बलं जाव ताव कुमरकयं । सोऊण सीहनायं, गोमाउ गणुव ते नट्ठा ॥ ३९९ ॥ ॥ अर्थ - तदनंतर जितने धवलसेठके सुभट कुछ बल प्रगटकरें उतने कुमरका कियाभया सिंहनाद सुनकर वे धवलके सुभट शृगाल समूहके जैसा भाग गया ॥ ३९९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- चरितम् ॥५२॥ NAAMKARAN धवलस्स पेरिएणं, रन्नावि हु पेसियं नियं सिन्नं । तंपि हु कुमरेण कयं, हयप्पयावं क्खणद्धेणं ॥४०॥ भाषाटीका। अर्थ-धवलसेठकी प्रेरणासे राजानेभी धवलका कार्य सिद्ध होनेके लिए अपनी सेना भेजी वह सेनाभी कुमरने टू सहितम्. आधे क्षणमें नष्ट होगयाहै प्रताप जिसका ऐसी करी ॥ ४००॥ धवलाएसेण भडा, नरवइसिन्नेण संजुया कुमरं । वेढंति तिपंतीहि, मायावीयंव रेहाहिं ॥४०१॥ __ अर्थ-धवलकी आज्ञासे सुभट राजाकी सेनाके सुभटों सहित श्रीपालकुमरको तीन पंक्तिसे वीटा अर्थात् चारो | तरफ तीन घेरादिया किसके जैसा तीनरेखा करके वीटा हुआं मायाबीज हींकारके सदृश ॥ ४०१॥ धवलो भणेइ रे रे, एयं इत्थेव सत्थछिन्नतणुं । देह बलिं जेणेसा, संतुस्सइ देवया अज ॥ ४०२॥ अर्थ-तब धवलसेठ बोला अरे २ सुभटो इस पुरुषको इसी ठिकाने शस्त्रोंसे शरीर छेदके बलिदान देओ जिसकारणसे आज यह देवता संतुष्टमान होवे ॥ ४०२॥ ताण भडाणं सरसिल्ल-भल्लखग्गाइया न लग्गति । कुमरसरीरंमि अहो, महोसहीणं पभावुत्ति ॥४०३॥ | अर्थ-उन राजा और धवल सम्बन्धि सुभटोंका वाण सिल्ल भाला खड्गादि अर्थात् बाण बी भाला तलवार वगैरह |शस्त्रोंका प्रहार कुमरके शरीरमें नहीं लगे वहां हेतु यहहै महौषधियोंका प्रभाव आश्चर्यकारी है ॥ ४०३ ॥ ॥५२॥ कुमरेण पुणो तेसिं, केसिपि हु केसकन्ननासाओ । लूणियाउ नियसरेहि, करुणाइ न जीवियं हरियं ४०४|| **ASASA For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IH अर्थ-और कुमरने राजा और धवल सेठके कितने सुभटोंका केस कान नासिका वगैरह अवयव अपने बाणसे काटा ! | परंतु दयासे किसीका जीवतव्य नहीं लिया अर्थात किसीको मारा नहीं ॥ ४०४ ॥ तं पासिऊण धवलो, चिंतइ एसो न माणुसो नणं । खयरो वसुरवरोवा, कोइ इमोऽणप्पमाहप्पो ४०५ PI अर्थ-ऐसे श्रीपाल कुमरको देखके धवलसेठने विचार किया निश्चय यह मनुष्य नहीं है किंतु बहुत माहात्म्य जिसका | ऐसा यह कोई विद्याधर अथवा देवहै महानहै प्रभावजिसका ऐसा ॥ ४०५॥ काऊण अंजलिं मत्थयंमि, तो विन्नवेइ तं धवलो। देव तुममेरिसीए, सत्तीए कोवि खयरोऽसि ॥४०६॥ __ अर्थ-तदनंतर धवलसेठ मस्तकमें अंजिलीकरके श्रीपालकुमरको विनतीकरे हे देव हे महाराज आपऐसी शक्तिसे कोई विद्याधरहो ॥ ४०६॥ द्विता मह कुणसु पसायं, थंभियवेडीण मोयणोवायं। किंपि हु करेह जेणं, उवयारकरा हु सप्पुरिसा ४०७६ ___ अर्थ-जिस कारणसे मेरेपर प्रसन्नहोके मेरा जहाज स्तंभितभयाहै इन्होंके चलानेका उपाय करो जिस कारणसे सत्पुरुष निश्चय उपकार करनेवाले होवेहे ॥ ४०७॥ कुमरेणुत्तं जइ तुह, मोयाविनंति जाणवत्ताइं । ता किं लब्भइ सोवि हु, भणेइ दीणारलक्खंति ॥४०८॥ ___ अर्थ-कुमरने कहा जो तुह्मारा जहाज चलावे तो क्यापावे तब धवलसेठ बोला १ लाख सोनयिया देउं ॥ ४०८॥ ASSASSIS SAUSISISTA For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ५३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्तो चल्लइ कुमरो, वियसियवयणो य लोयपरिअरिओ । चडिओ य धवलसहिओ, अग्गिल्ले जाणवत्तंमि ॥ अर्थ-उसके बाद कुमर विकस्वरमानमुख जिसका ऐसा और लोगोंसे परिवरा हुआ अर्थात् बहुत लोग जिसके साथमें है ऐसा चले धवलसेठ सहित आगेके जहाजपर चढ़ा ॥ ४०९ ॥ निजामएसु नियनिय, पवहणवावारकरणपवणेसु । कयनयपयझाणेणं, मुक्का हक्का कुमारेणं ॥ ४१० ॥ अर्थ-तब निर्यामक जहाज चलाने वालोंने अपना २ जहाज चलाने में तत्पर होनेसे किया है नवपदोंका ध्यान जिसने ऐसे श्रीपाल कुमरने उंचे स्वरसे हक्कारव किया अर्थात् हाक भरी ॥ ४१० ॥ सोऊण कुमरहकं, सहसा सा खुद्ददेवया नट्ठा । चलियाई पवहणाई, वृद्धावणयं च संजायं ॥ ४११ ॥ अर्थ - कुमरकी करीभई हक्का सुनके अकस्मात् वह क्षुद्रदेवता दुष्टदेवी भागगई और जहाज चले वधाई भई ॥ ४११ ॥ वज्रंति भेरिभुंगल, - पमुहाउज्झाई गुहिरसहाई । नञ्चंति नहियाओ, महुरं गिज्जंति गीयाई ॥ ४९२ ॥ अर्थ - तथा भेरी भुंगल प्रमुख दुंदुभि वगैरह; वादित्रोंका गंभीर शब्द है ऐसे वादित्र बजाए जावे हैं और नांचनेवाली स्त्रियां नांचतीहैं और मधुर गीतध्वनि होवे है ॥ ४१२ ॥ तं अच्छरियं दहुं, धवलो चिंतेइ एस जइ होइ । अम्ह सहाओ कहमवि, ता विग्धं होइ न कयावि ॥ ४१३ ॥ For Private and Personal Use Only 2 भाषाटीका५ सहितम्. ॥ ५३ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-वह आश्चर्य देखके धवलसेठ मनमें विचारे जो यह पुरुष कोई प्रकारसे हमारे सहाई होवे तो कोईवक्त है। | कोई ठिकानेभी विघ्न नहीं होवे ॥ ४१३ ॥ इय चिंतिऊण धवलो, तंदीणाराण सयसहस्सं च।दाऊण विणयपणओ, भणेइ भोभोमहाभाग!४१४ ___ अर्थ-इस प्रकारसे विचारके धवलसेठ लाख सोनयिया कुमरको देके नम्र होके नमस्कार करके कुमरसे इस प्रकारसे बोला भोभो महाभाग हे महाभाग्यवान ॥ ४१४ ॥ दीणारसहसइक्विक्वमित्तयं, वरिसजीवणं दाउं । संगहिया संति मए, दससहसभडा ससोंडीरा ॥१५॥ अर्थ-एक २ हजार सोनयिया एक वर्षका जीवन याने आजीवका देके मैंने सौंडीर पराक्रम सहित दसहजार सुभदू टोंका संग्रह कियाहै अर्थात् दसहजार सिपाही रक्खेहैं ॥ ४१५ ॥ दूजइ तं पिहओलग्गं, गिन्हसि ता कहसु जीवणं तुज्झ। कित्तियमित्तं दिज्जइ,जेण तुमंगरुयमाहप्पो ४१६ ___ अर्थ-जो तुम सेवा अंगीकार करो हो तो तुम्हारा जीवन कहो तुमको कितना द्रव्य देवें जिस कारण तुम बड़े प्रभाव वाले हो ॥ ४१६ ॥ हसिऊण भणइ कुमरो, जित्तियमित्तं इमेसि सवेसिं। दिन्नं जीवणवित्तं, तित्तियमित्तं ममिकस ॥४१७॥ PAISESSASSOUHOSRSTICOS SAMACACAREER For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- XI अर्थ-यह सेठका वचन सुनके कुमर थोड़ा हसके बोला इन सब सुभटोंको जीविकाका जितना द्रव्य देते हो उतना भाषाटीकाचरितम् ! मेरेको चाहिए ॥ ४१७ ॥ सहितम्॥५४॥ तो सहसा विम्हिअओ, लिक्खं गणिऊण चिंतए सिट्ठी। दीणारकोडि एगा, सवेसि जीवणं अत्थि ४१८ ___ अर्थ-तदनंतर धवलसेठ आश्चर्यपायाहुआ शीघ्र सोनयियोंकी संख्या गिनके विचार करे सब सुभटोंका एक करोड़ सोनयिया होवेहै ॥ ४१८॥ एगो मग्गइ कोडिं, अहह अजुत्तं विमग्गियं नृणं। एएसिं किं अहियं, सिज्झिस्सइ कज्जममुणाऽवि ४१९ | अर्थ-यह अकेला करोड़ सोनयिया मांगताहै अहह इति खेदे खेदकी बातहै इसने अयुक्त मांगा निश्चय यह अकेला दसहजार सुभटोंसे जादा क्या कार्य करेगा ॥ ४१९ ॥ इय चिंतिऊण धवलेणुत्तं, जइ कुमर! दससहस्साई। गिन्हसितादेमि अहं, जंपुण कोडी तयं कूडं ४२० टू अर्थ-ऐसा विचारके धवलसेठ बोला हे कुमार जो वर्षका दसहजार सोनयिया लेओ तो मैं देऊं और जो तुमने करोड़ सोनयिया मांगा सो तो मिथ्याहै ॥ ४२० ॥ कुमरेणुत्तं मह तायतुल्ल, तुह जीवणेण नो कजं । किंतु अहं देसंतर, गंतुमणो एमि तुह सत्थे ॥४२१॥18॥ FACAMARPUR ACHEALUANLOADSSSSS ॥५४॥ For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। अर्थ-तब कुमरने कहा हेताततुल्य पितासदृश आपके पास जीविकाका द्रव्य लेनेसे कोई प्रयोजन नहीं है किंतु |मैं देशान्तर जानेवालाहूं इसवास्ते मैं तुम्हारे साथमें आऊं ॥ ४२१॥ जइ भाडएण चडणं, देसि ममं हरसिओ तओ सिट्टी। मग्गेइ भाडयं पइमासं, दीणारसयमगं ॥४२२॥ al अर्थ-जो भाडालेके मेरेको जहाजमें बैठाओ तो मैं तुम्हारे साथमें आऊं तदनंतर सेठ हर्षित होके एक २ महीनेका सौ २ सोनयिया भाड़ा मांगे ॥ ४२२॥ तं दाऊणं चडिए कुमरे मूलिल्लवाहणे तस्स । भेरीउ ताडियाओ, पत्थाणे रयणदीवस्स ॥ ४२३ ॥ PI अर्थ-वह भाड़ा देके श्रीपालकुमर सेठके मूल जहाजमें बैठा रत्नद्वीपके सन्मुख चलनेकेवास्ते भेरी बजाई गई ॥४२३॥12 हक्कारिजति सढे, तह वड्डिजति सिक्वयाओ य । चालिजते सुकाणयाइं, आउल्लयाइं च ॥ ४२४ ॥ __ अर्थ-उस वक्तमें पढ वस्त्र मई जहाजका उपकरण विशेषवायुपूरणेके लिए जहाजपर प्रसारण किया जावे तथा छींका रज्जुमई चढ़नेका उपकरण विशेष चढ़नेकेवास्ते बांधा जावे तथा सोंकानक जहाजोंके अग्रभागवर्ती ऊर्ध्व काष्ठ चाटु |विशेष चलाए जावें आबुल्लकानि काष्ठमई चलाने के उपकरण चलाए जावें ॥ ४२४ ॥ श्रीपा... एगे मवंति धुवमंडलं च, एगे हरंति घामत्तं । एगे मवंति वेलं, एगे मग्गं पलोयंति ॥ ४२५ ॥ HASALASAHERELES For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥५५॥ अर्थ-और उसवक्तमें कितनेक जहाजके चलाने वाले ध्रुवके तारेका मंडल देखे उससे दिशाओंका प्रमाण करे और भाषाटीकाकईक अंदर प्रवेशकिया जलको निकाले कईक काष्ठप्रयोगसे समुद्रकी वेलाका प्रमाण करे और कितनेक मार्ग जोवे ॥४२५॥ सहितम्. कत्थवि दट्टे मगरं, एगे वायंति ढुक्कलुक्काई। एगे य अग्गितिल्लं, खिवंति लहुढिंकलीयाहि ॥ ४२६ ॥ __ अर्थ-कोई प्रदेशमें मकर महामत्सविशेषको देखके कईक मनुष्य दुकलुक नामका चर्मसे मढ़ा हुआ वादित्र विशेष बजावे और कितनेक लोग लघुढिंकिलिका पात्र विशेषमें अग्नि जलाके तेल डाले ऐसा करनेसे वादित्रका शब्द सुनके अग्निज्वाला देखके मगरमच्छ दूर चले जावें ॥ ४२६ ॥ |चोराण वाहणाई, दट्ट निययाई पक्खरिजति । पंजरिएहिं भडेहिं, चं | अर्थ और कोई प्रदेशमें चोरोंका जहाज देखके जहाजके ऊपर पिजरेमें बैठेहुए पुरुष अपने जहाजके सुभटोंको तयार करें तब वीर पुरुषोंको देखके चोर दूरसे चलेजावें ॥ ४२७ ॥ उग्गमणं अत्थमणं, रविणोदीसेइ जलहिमज्झमि । वडवानलपज्जलिया, दिसाउदीसंति रयणीसु ४२८ __ अर्थ-और उस वक्तमें सूर्यका उदय अस्त यह दोनों समुद्रके अंदरही देखाजावे तथा रात्रिमें वडवानलअग्निविशेषता करके दिशाएं जलती भई देखनेमें आवें ॥ ४२८ ॥ एवं बिहाइं कोऊहलाइं, पिक्खंतओ समुदस्स । जा वच्चइ कुमरवरो, ता पंजरिओ भणइ एवं ॥४२९॥ CALCALCRECACACA For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SCRECICIANSARACTICARRONM अर्थ-इस प्रकारके समुद्रके कौतूहलनाम कौतुक देखता हुआ जितने कुमरश्रेष्ठ श्रीपाल चले है उतने ऊपर पीज-1 रेमें रहा हुआ पुरुष वक्षमाण प्रकारसे बोला ॥ ४२९॥ भो भो जइ जलइंधण-पमुहहिं किंपि अस्थि तुह्माणं। कजं ता कहह फुट, बबरकूलं समणुपत्तं ॥४३०॥ | अर्थ-अहो लोगो जो तुम्हारे जल इन्धन प्रमुखसे कुछभी कार्य होवे तो प्रगट कहो जिस कारणसे वबर कूल 12 नामका बंदर आया है रत्नद्वीप हालमें दूर है ॥ ४३०॥ है संजत्तिएहिं भणियं, ववरकूलस्स मंदिराभिमुहं। वच्चह जेण जलाई, गिन्हामो मा विलंवेह ॥ ४३१॥ ___ अर्थ-ऐसा वचन सुनके सांयात्रिक जहाजके वाणियोंने कहा ववरकूलबंदर के सामने चलो जिससे जलादिक लेवें इसमें देरी करना नहीं ॥ ४३१॥ पत्ताय तत्थ लोया, सपमोया उत्तरंति भूमीए । दससहसभडसमेओ, धवलोवि ठिओ तडमहीए ४३२ __ अर्थ-उस बंदरमें जहाज पहुंचे लोक हर्षसहित जहाजोंसे उतरे पृथ्वीपर तब दसहजार सुभटों करके सहित धवल | सेठ समुद्रके तटकी भूमिपर रहा ॥ ४३२ ॥ इत्थंतरंमि तेर्सि, हलवोलं सुणिय आगया तत्थ । बव्वररायनिउत्ता, मंदिरलागत्थिणो पुरिसा । ROSHANSHASARASSASHISHA For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ५६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - इस अवसरमें उन जहाजोंके मनुष्योंकी हलवोलनाम अव्यक्तध्वनि सुनके उस प्रदेशमें वबर राजाने अधिकारी किया बंदरका लागालेनेवाला पुरुष आए लागा मासूल विशेष है ।। ४३३ ॥ मग्गंताणवि तेसिं, लागं नो देइ जाव सो सिट्ठी । ता तेहिं महाकालो, वहाविओ ववराहिवई ॥ ४३४ ॥ अर्थ - लागा मांगते भए राजपुरुषोंको जितने सेठ लागा नहीं देवे उतने उनपुरुषोंने महाकाल नामका वघर कुलके राजाके पासमें जाके कहा तब राजा उन्होंकी प्रेरणासे प्रेरित भया ॥ ४३४ ॥ महकालो भूरिबलो तत्थागंतूण मग्गए लागं । सिट्ठी न देई पद्धर - पएहिं सुहडे पचारेइ ॥ ४३५ ॥ अर्थ — उसके बाद बहुत सैन्य जिसके ऐसा महाकालराजा उस बंदर में आके लागा मांगे परंतु धवलसेठ पाधरे पगे लागा नहीं देवे सुभटोंकी युद्धके वास्ते प्रेरणा करे ।। ४३५ ॥ | तो धवलभडाउब्भड, -सत्था सहसति बधरभडेहिं । जुज्झति जओ लोए, मरंति पञ्चारिया सुहडा ४३६ अर्थ - तदनंतर धवलकेसुभट उद्भट भयजनक शस्त्र जिन्होंके पासमे ऐसे शीघ्र तत्काल वबर राजाके सुभटोंके साथ युद्ध करे जिस कारणसे लोकमें सुभट पौरप उत्पादक वचनोंसे प्रेरा हुआ अपने स्वामी के सामने प्राणोंका त्याग करे है अर्थात् मरते हैं ॥ ४३६ ॥ पढमं धवलभडेहिं, भग्गं महकालभडवलं सयलं । तो महकालनिवेणं, उट्ठवियं सबलतुरणं ॥ ४३७ ॥ 1 For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ५६ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-तब पहले धवलसेठके सुभटोंने महाकाल राजाके सुभटोंका बल नाम सैन्यको भगाया तदनंतर महाकाल राजा बलवान घोड़े पर सवार होके आपसंग्रामके वास्ते आया ॥ ४३७ ॥ नटुं धवलभडेहिं, ववरवइतेयमसहमाणेहिं । पयचारी जुज्झतो, धवलो पुण पाडिओ बद्धो ॥ ४३८ ॥ अर्थ - तब वरपति वघरकूलका स्वामी राजाकातेज नहीं सहते हुए धवलके सुभट दशदिशमें भागे बाद प्यादल युद्ध करता हुआ धवलसेठको पृथ्वीपर गिराके बांधा ॥ ४३८ ॥ तं बंधिऊण रुक्खे, राया सुहडे निओइऊण निए। सत्थस्स रक्खणत्थं, सयं च चलिओ पुराभिमुहं ४३९ अर्थ - राजा महाकाल उसधवल सेठको वृक्षमें बंधवाके सार्थकी रक्षाकेलिए अपने सुभटोंको वहां रखके आप अपने नगरके सामने चला ॥ ४३९ ॥ इत्थंतरंमि कुमरो, धवलं बुल्लावए कहसु इन्हि । ते सुहडा कत्थगया, जेसिं दिन्ना तए कोडी ॥४४०॥ अर्थ — इस अवसर में श्रीपालकुमर धवलसेठसे बोला अहो धवल तुमकहो इसवक्त तुम्हारे सुभट कहां गए जिन्होंको तुम करोड़ सोनयिय्या देते थे । ४४० ॥ धवलो भणेइ भो भो, खयंमि किं कुणसि खारपक्खेवं । किं वा दट्टाणुवरिं, फोडयदाणक्कियं कुणसि ४४१ | For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ५७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-तब धवलसेठ कहे भोकुमर घावके ऊपर खारकाप्रक्षेप क्या करो हो अथवा जले हुएके ऊपर क्या जलाओ हो यह आप जैसों के अयुक्त है ॥ ४४१ ॥ तो कुमरो भणइ फुडं अज्जवि जइ कोवि तुज्झ सवस्सं । वालेइ तस्स किं देसिं, मज्झ साहेसु तं सर्व्वं ४४२ अर्थ - तदनंतर कुमर प्रगट कहे कि भो श्रेष्ठिन् जो अभी भी तुम्हारा सर्वस्व पीछा लेआवे तो उसको तुम क्या | देओ सो सत्य मेरेसे कहो ॥ ४४२ ॥ धवलो भणेइ न हु संभवेइ, एवं तहावि तस्स अहं । देमि सबस अद्धं, इत्थ पमाणं परमपुरिसो ॥ ४४३ ॥ अर्थ-तब धवलसेठ बोला निश्चय ऐसा नहीं संभवे गया हुआ पीछा कहांसे आवे तौभी जो मेरा सर्वस्व पीछा |लेआवे उसको मैं आधाधन देउं इसमें परमपुरुष परमेश्वरही प्रमाण है अर्थात् साक्षीभूत है ॥ ४४३ ॥ तो कुमरो धणुहकरो, अंसेसुणुबद्धउभयतूणीओ । बुल्लावइ महकालं, पिट्ठी गंतूण इक्विल्लो ॥ ४४४ ॥ अर्थ - तदनंतर धनुष है हाथमें जिसके तथा कांधोके पीछे बांधा है बाणोंका भाथड़ा जिसने ऐसा कुमर एकाकी पीछे जाके महाकाल राजाको बुलावे ॥ ४४४ ॥ | भो बवरदेसाहिव, एवं गंतुं न लब्भए इन्हि । ता बलिऊण वलं मे, पिक्खसु खणमित्तमिक्कस्स ॥४४५॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ५७ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — कैसे बुलावे सो कहते हैं भो वबर देशाधिप इस वक्तमें इस प्रकार से तुम नहीं जा सकोगे इसलिए एकवेर पीछा पलटकर क्षणमात्र मेरा हाथ देखो अर्थात् मेरा बल देखो || ४४५ ॥ तो वलिओ महकालो, पभणइ वालोसि दंसणीओसि । वररूवलक्खणधरो, मुहियाइ मरेसि किं इक्को ॥ अर्थ - तब महाकाल राजा पीछा पलटके कुमरसें कहे ते बालक है तै देखनेयोग्य है रूपलक्षणप्रधानहे तेरा अर्थात् प्रधान रूप लक्षणका धारनेवाला ऐसा तैं एकाकी व्यर्थ निकम्मा क्यों मरता है ॥ ४४६ ॥ | कुमरोवि भणइ नरवर, इय वयणाडंवरेण काउरिसा । भजंति तुह सरेहिंवि, महहिययं कंपए नेव ॥४४७॥ अर्थ — तब कुमरभी कहे हे नरवर हे महाराज यह वचनके आडंबरसे कायर पुरुष भागते हैं मेरा हृदयतो तुझारे बाणोंसे भी नहीं कांपे इस वास्ते वृथा वचनका आडंबर मतकरो मेरा हाथ देखो ॥ ४४७ ॥ इय भणिऊण कुमरो, अप्फालेऊण धणुमहारयणं । मिलं (ल्हं) तो सरनियरं, पाडइ केउं नरिंदस्स ४४८ अर्थ - इस प्रकार से कहके कुमर अपने धनुषको आस्फालनकरके वाणोंके समूहकी वर्षात करता भया राजाके आगेका झंडा गिरादिया ॥ ४४८ ॥ तो ववरसुहडेहिं, विहिओ सरमंडवो गयणमग्गे । तहवि न लग्गड़ अंगे, इक्कोवि सरो कुमारस्स ॥४४९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीकासहितम्. CASSAGALISASSASASARAM | अर्थ-बादमें वबर देशाधिपके सुभटोंने आकाशमार्गमें बाणोंका मंडप किया याने इतने बाण चलाए कि जिससे बाणोंका मंडप होगया तथापि कुमरके शरीरमें एकभी वाण नहीं लगे ॥ ४४९॥ कुमरसरहिं ताडिय,-देहा ते ववराहिवइसुहडा। केवि हुपडंति केवि हु, भिडंति नासंति केवि पुणो ४५० ___ अर्थ-कुमरके बाणोंसे ताडित देहजिन्होंका ऐसे वह ववर राजाके सुभट कितनेक पड़े याने गिरे और कितनोका| शरीर आपसमें मिले और कितनेक भाग गए ॥ ४५०॥ महकालोवि नरिंदो, मिल्लइ सयहत्थियं सहत्थेण । सोविन लग्गइ ओसहि,-पभावओ कुमरअंगमि ४५१ ___ अर्थ–महाकाल राजाभी अपने हाथसे शस्त्रको चलावे वह भी शस्त्र औषधिके प्रभावसे कुमरके शरीरमें नहीं लगे ॥ ४५१॥ तो वेगेणं कुमरो, गहिउं सयहत्थियं तयं चेव । अप्फालिऊण पाडइ, भूमीए बवराहिवइं ॥ ४५२॥ टू अर्थ-उसके बाद कुमर राजाके हाथको शस्त्रलेके और आस्फालन करके याने राजाके सामने फेंकके वधराधि पतिको पृथ्वीपर गिरावे ॥ ४५२ ॥ तंबंधिऊण कुमरो, आणइ जा निययसत्थपासंमि। तं दुटुं ते नट्ठा, सत्थाहिवरक्खगा पुरिसा ॥४५३॥ CASSAGESACCHER ॥५८॥ For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । 1. अर्थ-बादमें उन राजोको बांधके कुमर जितने अपने सथवाड़े के पास लावे उतने अपने राजाको बंधा हुआ देखके सथवाड़ेकी रक्षाके वास्ते जो पुरुष रक्खे थे वह पुरुष भाग गए ॥ ४५३ ॥ भवलो बंधविमुक्को, खग्गं चित्तूण धावए सिग्धं । महकालमारणथं, सिरिपालो तं निवारेइ ॥४५४॥ | अर्थ-अब धवलशेठ बंधनसे रहित हुआ खड्गलेके महाकाल राजाको मारनेके वास्ते जल्दी दौड़े तब श्रीपाल कुमर | धवलसेठको मनाकरे ॥ ४५४ । |गेहागयं च सरणागयं च वद्धं च रोगपरिभूयं । नस्संतं वुढे वालयं च, न हणंति सप्पुरिसा ॥४५५॥ | अर्थ-क्या कहके मनाकरे सो कहते हैं अहो सेठ अपने घर आया १ शरणे आया २ और बंधाहुआ ३ और रोगसे पीडित ४ और भागता हुआ ५ तथा वृद्ध नाम जरासे पीड़ित ६ और बालक इतने वैरी होवे तथापि सत्पुरुष नहीं मारे ऐसे नीतिके वचनसे यह राजाभी अपने घर आया है और बंधाहुआ है इसलिए अवध्य है अर्थात् मारने योग्य नहीं है ॥ ४५५॥ जे दससहस्ससुहडा, बबरसुहडेहिं ताडिया नट्ठा । तेसिं रुट्रो सिट्टी, जीवणवित्तीउ भंजेइ॥४५६ ॥ ___ अर्थ-जे दसहजार सुभट ववरराजाके सुभटोंसे ताड़े हुए भागगएथे उन्होंपर धवलसेठ नाराज होके उन्होंकी आजीवकाका निषेध किया ॥ ४५६ ॥ AAAAAAAAAA*** For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीपाल- ते सवेवि हु कुमरस्स, तस्स मुहियाइ सेवगा जाया। कुमरेण ते निउत्ता नियभागागयपवहणेसु॥४५७॥ भाषाटीकाचरितम् सहितम्. | अर्थ-बाद वह सर्वही सुभट अन्यत्र आजीवीका नहीं पातेहुवे श्रीपालकुमरके विनाही मूल्य सेवक भए तब कुमरने|8 पाउन सुभटोंको अपने भागमें आए भए जहाजोंका अधिकारी किया ॥ ४५७ ॥ सयमेव महाकालं, बधाओ मोइऊण सिरिपालो । नियभागपवहणाणं, वत्थाईहिं तमच्चेइ ॥ ४५८॥ __ अर्थ-बाद श्रीपालकुमर आपही महाकाल राजाको बन्धनसे छुड़वाके अपने भागमें आए जहाजोंमें लेजाके वस्त्र 8 आभूषणोंसे सत्कार करे ॥ ४५८ ॥ सोवि हु ते सुहडा, पहिरावेऊण पवरवत्थेहिं । संतोसिऊण मुक्का, कुमरेण विवेयवंतेण ॥ ४५९॥ | __ अर्थ-और विवेकवान कुमरने सर्व सुभटोंको प्रधानवस्त्र पहराके संतोष उत्पन्न करके राजा सम्बन्धी सुभटोंको छोड़े और महाकाल राजाका विशेष सत्कार किया ॥ ४५९ ॥ महकालोवि हदण, तस्स कुमारस्स तारिसंचरियं चित्ते चमकिओ तं, अब्भत्थइ विणयवयणेहिं ४६० ___ अर्थ-महाकालराजाभी उस कुमरका वैसा आश्चर्यकारी चरित आचार देखके चित्तमें चमत्कार प्राप्त भया ऐसी ॥ ५९॥ दि कुमरसे विनययुक्त वचनोंसे प्रार्थना करे ॥ ४६० ॥ -CRORISENSEEN For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAAALOG पुरिसुत्तम ? महनयरं, नियचरणेहिं तुमं पवित्तेहिं । अम्हेवि जेण तुम्ह, नियभत्तिं किंपि दंसेमो॥ ४६१॥ Pा अर्थ हे पुरुषोत्तम तुम अपने चरणोंसे मेरा नगर पवित्र करो जिस कारणसे हमभी तुह्मारी भक्ति करें अपनी भक्ति दिखावें ॥ ४६१॥ कुमरो दक्खिन्ननिही, जा मन्नइ ता पुणो धवलसीढ़ी। वारेइ घणं कुमरं, सवत्थवि संकिया पावा ४६२ ___ अर्थ-दाक्षिण्य परचित्तानुकूल उसका निधान कुमर जितने राजाके वचन अंगीकार करे उतने धवलसेठ कुमरको बहुत मना करे हे कुमर शत्रुके घरमें सर्वथा नहीं जाना इत्यादि वचनोंसे, किस कारणसें सो कहते है जिसकारणसे टू दुष्ट प्राणियोंको सर्व ठिकाने शंका रहती है उत्तम निःशंक रहते हैं ॥ ४६२ ॥ वारंतस्सवि धवलस्स, तस्स कुमरो समत्थपरिवारो। पत्तो महकालपुरं, तोरणमंचाइकयसोहं ॥४६३॥ | अर्थ-धवलसेठ मनाकरतेभी अर्थात् धवलसेठका वचन नहीं मानके सर्वपरिवार सहित कुमर महाकाल राजाके टूनगरमें पहुंचा कैसा नगर तोरण मंचादिकसे करी है शोभा जिसकी ऐसा ॥ ४६३ ॥ हे महकालो तं कुमर, भत्तीइ नियासणंमि ठावित्ता। पभणेइ इमं रज, महपाणावि ह तहायत्ता ॥४६॥ । अर्थ-अथ महाकाल राजाभी कुमरको भक्तिसे अपने सिंहासनपर बैठाके विशेष आदरके साथ कहे यह राज्य 18| तुम्हारे आधीन है जादा कहनेकर क्या निश्चय मेरे प्राणभी तुमारे आधीन हैं ॥ ४६४ ॥ 564542**********9649 स, तस्स कुत धवलसेठका वचन जिसकी ऐसा ॥ ४१३ महपाणावि हु तहात यह राज्य For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi श्रीपाल- चरितम् ॥६०॥ PASSESORIISISAASAS अन्नं च मज्झपुत्ती, पाणोहितोवि वल्लहा अस्थि । नामेण मयणसेणा, तं च तुमं पसिय परिणेसु ॥४६५॥ भाषाटीकाPI अर्थ-औरभी मेरे प्राणोंसेभी वल्लभ मदनसेना नामकी पुत्री है उस पुत्रीका प्रसन्न होके पाणिग्रहण करो ॥४६५॥ सहितम्कुमारेण भणियमहं, विदेसिओ तह अनायकुलसीलो, । तस्स कहं नियकन्ना दिजइ सम्मं वियारेसु ४६६ | अर्थ-कुमरने कहा मैं परदेशी हूं और मेरा कुलाचार तुमने नहीं जाना है अर्थात् अज्ञात कुलशील मेरेको अपनी 12 कन्या कैसे देते हो हेमहाराज कन्या प्रदानमें अच्छी तरहसे विचार करना ॥ ४६६ ॥ पभणेइ महाकालो, आयारेणावि तुह कुलं नायं । न य कारणे वि एसो, कुणसु इमं पत्थणं सहलं ४६७ ___ अर्थ-इस प्रकारसे कुमरने कहा तथापि महाकाल राजा बोले हमने आचारसेभी आपका कुल जाना है और अपना विदेशीपना जो कहा उसपर कहते हैं कन्या परदेशीको नहीं देना ऐसा नियम नहीं है इसलिए यह हमारी प्रार्थना सफल करो ॥ ४६७ ॥ आमिति कुमारेणं भणिए, महया महसवेण निवो। परिणावइ नियधूयं, देइ सिरिं भूरिवित्थारं ॥४६८॥ | अर्थ-तब कुमरने राजाका वचन अंगीकार किया बड़े उत्सवके साथ महाकाल राजा अपनी पुत्रीको पर्णावे बहुत ८ ॥६॥ विस्तार जिसका ऐसी लक्ष्मी देवे ॥४६८॥ ANASHER For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपान्व. ११ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवनाडयाई दाइज्झयंमि, दाऊण चारुवत्थेहिं । परिहावइ परिवारं कुमरेण सहागयं सयलं ॥ ४६९ ॥ अर्थ -- पाणिग्रहण के समयमें बहूवर के देने योग्य पदार्थ देते नवनाटक देके कुमरके साथमें आयाहुआ सब परिवा रको प्रधान पटकूल रेशमी वस्त्र वगेरेह पहरावे अर्थात् देवे ॥ ४६९ ॥ एगं च महाजुंगं, वाहणरयणं च मंदिरे पत्तं । काऊण कुमरसहिओ रायावि समागओ तत्थ ॥४७०॥ अर्थ - और एक महाजुंगनामका प्रधान जहाजपात्र बंदर में प्राप्तकरके कुमर सहित राजाभी उस बंदरमें आए ॥४७० ॥ सिट्ठीवि महाजुंगं, दहुं चउसट्ठिक्वयसणाहं । मणिकंचणपडिपुन्नं, चिंतइ निययंमि हिययंमि ॥४७॥ अर्थ - तब धवलसे भी ६४ कूपस्तम्भों करके सहित और मणिरत्न और सोने करके भराहुआ ऐसा महाजुंग नामका जहाजको देखके अपने मनमें विचार करे ॥ ४७१ ॥ अहह किमेयं जायं, जं एसो मज्झ सेवगसमाणो । सामित्तमिमं पत्तो, भाडयमित्तं न मे दाही ||४७२ ॥ अर्थ-क्या विचारे सो कहते हैं अहह इतिखेदे यह क्या होगया जिस कारणसे यह श्रीपाल मेरे सेवकके समान था इस वक्तमें स्वामी होगया अब मेरेको भाड़ाभी नहीं देवेगा ॥ ४७२ ॥ इय चिंतिय सो जायइ, कुमरं गयमासभाडयं सोवि । दावेइ दसगुणं तं, ही केरिसमंतरं तेसिं ॥ ४७३॥ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatih.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir श्रीपाल भाषाटीका. |सहितम्. चरितम् ॥६१॥ अर्थ-ऐसा विचारके वह धवलसेठ कुमरके पास जाके भाडा मांगा तब कुमरभी दसगुना भाडा दिलावे हि यह आश्चर्यमें है शास्त्रकार कहते हैं कुमर और सेठ इनदोनोंके आपसमें कितना अंतर है अर्थात् बहुत अंतर है ॥ ४७३ ॥ आरोविऊण कुमरं, तत्थ महापवहणे सपरिवारं। मुकलाविऊण धूयं, महकालो जाइ नियनयरिं ४७४ ___ अर्थ-बाद महाकाल राजा उस महानुंग जहाजपर परिवार सहित कुमरको चढ़ाके पुत्रीका मुकलावा करके मुकलावा यह देशी वचन है कुमरीकों भौला करके राजा अपनी नगरी जावें ॥ ४७४ ॥ पोएण जणा जलहि, लंघिय पावंति रयणदीवं तं । जह संजमेण मुणिणो, संसारं तरिय सिवठाणं ४७५] 5 अर्थ-लोक जहाजोंसे समुद्रको उलंघके रत्नद्वीप पहुंचे यहां दृष्टांत कहते हैं जैसे मुनि संयमसे संसार समुद्रको तिरके शिवस्थान मुक्तिपद पाते हैं वैसा ॥ ४७५ ॥ तत्थ य पोए तडमंदिरेषु, गुरुनंगरेहिं थंभित्ता। उत्तारिऊण भंडं पडमंडवमंडले ठवियं ॥ ४७६ ॥ | अर्थ-वे द्वीपमें तट मंदिरमें जहाजोंको नंगर गिराके खड़े करके जहाजों के अंदरसे क्रियाणा उतारके पट मंडपयाने तंबुओंमें रक्खै ॥ ४७६ ॥ कुमरोवि सपरिवारो, पडवंसावासमज्झमासीणो। पिक्खेइ नाडयाई, विमाणमज्झट्रियसुरुव For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - श्रीपाल कुमर भी अपने परिवार सहित तंबुओं में रहा हुआ सिंहासन पर बैठा हुआ नाटक देखे किसके जैसा विमानमें रहा हुआ देवके जैसा ॥ ४७७ ॥ सेट्ठिवि तंमि दीवे, बहुलाभं मुणिय विन्नवइ कुमरं । देव नियवाहणाणं, कयाणगे किं न विक्केह ॥ ४७८ ॥ अर्थ - धवल सेठभी उस द्वीपमें बहुत लाभ जानके कुमरसे वीनती करे हे देव हे महाराज अपने जहाजोंका क्रियाना कैसे नही वेचते हो ॥ ४७८ ॥ तो भइ कुमारो ताय, अम्हतुम्हाण अंतरं नत्थि । तं चिय कयाणगाणं, जं जाणसि तं करिज्जासु ४७९ अर्थ - तदनंतर कुमरकहे हे तात सदृश हमारे तुम्हारे अंतर नहीं है क्रियाणोंकी व्यवस्था जैसी तुमजानोहो वैसी करो ॥४७९ ॥ | हिट्ठो सिट्ठी चिंतइ, हुं हुं नियजाणियं करिस्सामि । जेण कयविक्कओ च्चिय, वणिणो चिंतामणि वित्ति ४८० अर्थ - यह श्रीपालका वचन सुनके सेठ बहुत खुशी हुआ विचारे अब मैं अपना जाना हुआ करूंगा जिस कारणसे वाणियोंके क्रय विक्रय चिंतामणि वांछित अर्थ साधक रत्नके सदृश लोक कहते हैं ॥ ४८० ॥ इत्तो य कोवि पुरिसो, सुरसरिसो चारुरूवनेवत्थो । सुपसन्ननयणवयणो, उत्तमहयरयणमारूढो ४८१ For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल-II अर्थ-इधरसै कोई पुरुष देवसदृशरूपआकृति वेष मनोहर जिसका ऐसा, नेत्र और मुख अतिशयप्रसन्नहर्षित जिसका|भाषाटीकाचरितम् 13 प्रधान घोड़ेपर सवार हुआ ऐसा ॥ ४८१॥ 18| सहितम्बहुपरिअरपरिअरिओ, पत्तो कुमरस्स गुड्डरदुवारं। पिक्खेइ नाडयं जा, तो सो कुमरेण आइओ॥४८॥ ___ अर्थ-और बहुत परिवारसे परवरा हुआ ऐसा कुमरके तंबूका दरवाजा वहां प्राप्त हुआ जितने नाटक देखे उतने कुमरने उसपुरुषको अपने पासमें बुलवाया ॥ ४८२॥ युग्मं सो कयकुमरपणामो, आसणदाणेण लद्धसम्माणो। विणयपरो वीसत्थो, उवविट्ठो कुमरपायंमि॥ ___ अर्थ-वह पुरुष किया है नमस्कार जिसने ऐसा तथा आसन देनेसे पाया है सन्मान जिसने और विनयमें ततपर | विश्वास युक्त स्वस्थ चित्त जिसका ऐसा कुमरके पासमें बैठा ॥ ४८३ ॥ * सुरपिच्छणयसरिच्छं, तं पिच्छणयं पलोइऊण खणं। चिंतइ एस इमाए, लीलाए कोवि रायसुओ ४८४ ___ अर्थ-देवताके नाटक सदृश वह नाटक क्षणमात्र देखके विचार करे इस लीलाकरके यह कोई राजकुमर है ऐसा| 15/जाना जावे है ।। ४८४ ॥ 13॥६२॥ ६ थक्कंमि नाडए सो, पुट्ठो कुमरेण कोसि भद्द तुमं । कत्थ पुरे तुह वासो, दिटुं अच्छेरयं किंपि ॥४८५॥ ******SASHAAAAAAA SAARESSANO For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - अथ नाटक पूर्ण होनेसे उस पुरुषको कुमरने पूछा हे भद्र तैं कौन है किस नगरमें तुम्हारा निवास है और कोई आश्चर्य देखा होय तो कहो ॥ ४८५ ॥ सो जंपइ विणयपरो, कुमरं पइ देव ? इत्थ दीवंमि । सेलोत्थि रयणसाणू, बलयागारेण गुरुसिहरो ४८६ अर्थ — इस प्रकारसे कुमरके पूछनेसे वह पुरुष विनयमें ततपर होके कुमरसे कहे हे देव हे महाराज इस द्वीपमें कड़े के जैसी गोल आकृति ऐसा रत्नसानु नामका बहुत हैं शिखर जिसके ऐसा पर्वत है ॥ ४८६ ॥ तम्मज्झ कयनिवेसा, अत्थि पुरी रयणसंचयानाम । तं पालइ विज्जाहर, राया सिरिकणयकेउत्ति ४८७ अर्थ - उस पर्वतके मध्यभागमे करी रचना जिसकी ऐसी रत्नसंचया नामकी नगरी है उस नगरीको श्रीकनककेतु नाम विद्याधर राजा पाले है अर्थात् रक्षाकरे है ॥ ४८७ ॥ | तस्सत्थि कणयमाला, नाम पिया तीइ कुच्छिसंभूया । कणयपह कणय सेहर, कणयज्झय कणयरुइपुत्ता ॥ अर्थ - उस राजा के कनकमाला नामकी रानी है उसकी कुक्षिसे उत्पन्न भए कनकप्रभ १ कनकशेखर २ कनक ध्वज ३ कनकरुचि ४ इन नामके चार पुत्र हैं ॥ ४८८ ॥ | तेसिं च उवरि एगा, पुत्ती नामेण मयणमंजूसा । सयलकलापारीणा, अइरइरूवा मुणियतत्ता ॥४८९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीका सहितम्. अर्थ-और उन चार पुत्रोंके ऊपर मदनमंजूसा नामकी एक पुत्री है कैसी है सम्पूर्ण कलाका पारपाया जिसने और रति कामदेवकी स्त्रीका रूप सौंदर्य उलंघा जिसने और जाना है तत्व जिसने ऐसी ॥ ४८९॥ तत्थ य पुरीइ एगो, जिणदेवो नाम सावगोतस्स । पुत्तोहं जिनदासो, कहेमि चुजं पुणो सुणसु ४९० __ अर्थ-उस नगरीमें एक जिनदेवनामका श्रावक है उसका जिनदास नामका मैं पुत्रहूं आश्चर्य अब मैं कहूं सो सुनो ॥४९ ॥ सिरिकणयकेउरन्नो, पियामहेणिस्थ कारियं अत्थि । गिरिसिहरसिरोरयणं, भवणं सिरिरिसहनाहस्स॥ ___ अर्थ-श्रीकनककेतू राजाका पितामह दादाने इस पर्वतके शिखरपर रत्न जैसा श्रीऋषभदेव स्वामीका मंदिर बनवाया है॥ ४९१॥ तं च केरिसं, संतमणोरहतुगं, उत्तमनरचरियनिम्मलविसालं । दायारसुजसधवलं, रविमंडलदलियतमपडलं ॥ ४९२ ॥ ___ अर्थ-सत्पुरुषोंका मनोरथ ऊंचा होवे है वैसा वह मंदिर ऊंचा है और उत्तमपुरुषोंके चरित्र जैसा वह मंदिर र निर्मल और विशाल है तथा दातारके जसके जैसा वह मंदिर धवला है सूर्यमंडलके जैसा अंधकार जिसने दूरकिया है| ऐसा वह मंदिर है ॥ ४९२ ॥ ESALCHAURANGALAAMAS For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | तम्मज्झे रिसहेसर, पडिमा कणयमणिनिम्मिया अत्थि । तिहुयणजणमणजणिया, -णंदा नवचंदलेहव ॥ अर्थ — उस मंदिरमें सोने और मणिरत्नसेंवनीभई श्री ऋषभदेवस्वामिकी प्रतिमा है कैसी है प्रतिमा नवीन चन्द्रमाकी | रेखाके जैसी तीनभवनके लोकोंके मनमें उत्पन्न किया है आनन्द हर्ष जिसने ऐसी ॥ ४९३ ॥ तं सो खेयरराया, निश्चं अच्चेइ भत्तिसंयुत्तो । लोओवि सप्पमोओ, नमेइ पूएइ झापइ ॥ ४९४ ॥ अर्थ- वह विद्याधरोंका राजा भक्तिसहित उस जिन प्रतिमाकी नित्यपूजा करे है नगर में रहनेवाले लोग भी हर्षसहितहोके उस प्रतिमाको नमस्कार करे है पूजाकरे है ध्यावे है ॥ ४९४ ॥ |सा नरवरस्स धूया, विसेसओ तत्थ भत्तिसंजुत्ता । अट्ठपयारं पूयं, करेइ निश्चं तिसंज्झासु ॥ ४९५ ॥ अर्थ — वह पहले कही मदनमंजूषानामकी राजकुमरी विशेष भक्ति संयुक्त उस जिनमंदिरमें तीनों संध्यामें निरंतर अष्टप्रकारी पूजाकरे है ॥ ४९५ ॥ अन्नदिणे विहिनिउणा, सा नरवरनंदिणी सपरिवारा। कयविहिवित्थरपूया, भावजुया वंद देवे ॥९६॥ अर्थ - अन्यदिनमें विधिमें निपुण चतुर वह राजकुमरी परिवारसहित विस्तारविधिसे करी पूजा जिसने ऐसी और शुभभावयुक्त देवनंदना करे ॥ ४९६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ६४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताव नरिंदोवि तहिं, पत्तो प्रयाविहिं पलोयंतो । हरिसेण पुलइअंगो, एवं चिंतेइ हिययंमि ॥४९७ ॥ अर्थ - उतने राजाभी पूजाविधि देखता हुआ उस जिनमंदिरमें आया विशेष पूजाके देखनेसे हर्षसे रोमराजी जिसकी विकस्वर मानभई ऐसा मनमें इसप्रकारसे विचारे ॥ ४९७ ॥ अहो अपुवा पूया, रइया एयाइ मज्झ धूयाए । अहो अपुत्रं च नियं, विन्नाणं दंसियमिमी ॥ ४९८॥ अर्थ - जैसे राजा विचारे सो कहते हैं अहो इति आश्चर्ये इस मेरी पुत्रीने अपूर्व पूजा रची ऐसी पूजा पहले कभी भी नहीं देखी और यहभी आश्चर्य है इस पुत्रीने अपूर्व अपना विज्ञान कलामें कुशल पणा दिखाया ॥ ४९८ ॥ एसा धन्ना कयपुन्निया य, जीए जिणिंदपूयाए । एरिसओ सुहभावो, दीसइ सरलो अ सुहहावो ४९९ अर्थ – यह मेरी पुत्री धन्या है और किया है पुन्य जिसने ऐसी कृतपुन्या है जिसका श्रीतीर्थंकरकी पूजामें ऐसा शुभ भाव वर्ते है और जिसका सरल, शोभन स्वभाव है ॥ ४९९ ॥ थिरियापभावणाकोसलत्त, - भत्तीसुतित्थसेवाहिं । सालंकारमिमीए, नज्जइ चित्तंमि संमत्तं ॥ ५०० ॥ अर्थ - जिनधर्म में स्थिरपना १ प्रभावना धर्मको शोभाप्राप्तकरना २ कुशलत्व जिनप्रवचनमें निपुणपना ३ भक्ति तीर्थकरादिकमें अंतरंगप्रीति ४ सुतीर्थसेवा स्थावर जंगम शोभनतीर्थकी सेवा ५ इन पांच अलंकारों करके इसके चिचमें सम्यक्त्व अलंकार सहितवर्ते है ॥ ५०० ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ६४ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ता एयाए एयारिसीइ, धूयाइ हवइ जइ कहवि । अणुरूवो कोइवरो, ता मज्झ मणो सुही होइ ॥ ५०१ ॥ अर्थ - तिसकारणसे ऐसी मेरी पुत्री के योग्य जो कोई भर्तारहोवे तब मेरे मनमें सुखहोवे ॥ ५०१ ॥ एवं नियधूयाए, वरचिंतासहसलिओ राया । अच्छइ खणं निसन्नो, सुन्नमणो झाणलीणुव ॥ ५०२|| | अर्थ - इस प्रकार से अपनी पुत्रीके वरकी चिंतारूप सल्य से सल्लितभया सल्य युक्त राजा क्षणमात्र उसी विचारमें लीनमन जिसका ऐसा शून्यमन होके बैठा ।। ५०२ ॥ सावि हु नरिंदधूया, पूयं काउण विहियतिपणामा। नीसरइ जाव पच्छिम, -पएहिं जिणगब्भगेहाओ ५०३ अर्थ - वह राजकुमरी भी पूजाकरके किया है तीनप्रणाम नमस्कार जिसने ऐसी जितने मूलगुंभारेसे पीछे पगोंसे बाहर निकले ।। ५०३ ॥ I तक्कालं तह मिलियं, तद्दारकवाडसंपुढं कहवि, । जहवलिएणवि केणवि, पणुल्लियं उग्घडइ नेव ॥ ५०४ ॥ अर्थ—उतने ततकाल उस जिनमंदिरके दरवज्जेका कपाट कोई प्रकार से वैसामिला अर्थात् बन्ध होगया जैसे कोई बलवान पुरुषकी प्रेरणा से भी नहीं खुले अर्थात् उघड़े नहीं ॥ ५०४ ॥ तत्तो सा निवधूया, अप्पं निंदेइ गरुयसंतावा । हा हा अहं हयासा, किं कयपावा असुहभावा ॥ ५०५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल-| अर्थ-उसके अनन्तर वह राजपुत्री बहुत संताप जिसके ऐसीभई अपने आत्माकी निंदाकरे किया पाप जिसने ऐसी भाषाटीकाचरितम् | अशुभ भाववाली में हूं ॥ ५०५॥ सहितम्. है जेण मए पावाए, पमायलग्गाइ मंदभग्गाए । संकरकयाइ पूयाइ, दंसणं खणमवि नलद्धं ॥ ५०६ ॥ __ अर्थ-जिस कारणकरके मैं पापनी प्रमादमें लगीभई और मन्दभागिनीने संकरभाव शुभाशुभ रूप मिश्रभावसे | पूजाकरी जिससे प्रभुका दर्शन क्षणमात्रभी नहीं पाया ॥ ५०६ ॥ ही ही अहं अहन्ना, अन्नाणवसेण कम्मदोसेण । आसायणंपिकाहं, किंपिधुवं वंचिया तेण ॥५०७॥ है। अर्थ-हही इति खेदे खेदसे कहती है मैं अधन्य हूं अज्ञानके वशसे कर्मके दोषसे कोई आशातना विराधनाकरी है इस कारणसे निश्चय मैं ठगी गई हूं ॥ ५०७ ॥ एवं ममावराहं, खमसु तुमं नाह कुणसु सुपसायं । मह पुन्नविहीणाए, दीणाए दंसणं देसु॥५०८॥ है अर्थ-हे नाथ यह मेरा अपराध क्षमाकरो आप सुष्टुनाम शोभन प्रसाद नाम अनुग्रह प्रसन्नताकरो पुन्यविहीन दीन मेंहूं ऐसी मेरेको दर्शन देओ ॥ ५०८ ॥ एवं तं रुयमाणिं, दट्टणं नंदणिं भणइ राया । वच्छे (वत्थे)तुहावराहो, नत्थि इमो किंतु मह दोसो ५०९/॥६५॥ . अर्थ-इस प्रकारसे रोती भई पुत्रीको देखको राजा कहे हे वत्से यह तेरा अपराध नही है किंतु मेरा दोष है ॥५०९॥RI SAUSIASSASSIS For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंजिणहरमझगओ, तुहकयपूयं निरिक्खमाणोवि। जाओऽहं सुन्नमणो, तुहवरचिंताइ खणमिकं ५१० ___ अर्थ-कैसे सोकि जो मैं जिनमंदिरमें आया हुआ तेरी करीभई पूजा देखता हुआभी तेरे वरकी चिंता करके एक क्षणमात्रतक शून्यमन होगया ॥ ५१० ॥ हतीए य मणोणेगत्तरूव,-आसायणाइ फलमेयं । संजायं तेण अहं, नियावराहं वियक्केमि ॥ ५११ ॥ अर्थ-उसमनसे अनेक प्रकारकी आशातना होती है उस आशातनाका यह जिनमंदिरका द्वार बंधभया यह फल हुआ उस कारणसे मैं अपना अपराध विचारूं हूं ॥ ५११॥ देवोय वीयराओ, नेवं रूसेइ कहवि किंतु इमं । जिणभवणाहिट्ठायग, कयमपसायं मुणसु वच्छे ५१२ 81 अर्थ-देवतो वीतराग है कोई प्रकारसे नहीं नाराज होवे किंतु हे पुत्रि यह जिनमंदिरके अधिष्ठायक देवका किया हुआ अप्रसाद अप्रसन्नपना तैं जान, ॥ ५१२॥ तत्तो नरेहिं आणाविऊण, बलिकुसमचंदणाईयं । कप्पूरागुरुमयनाहि,-धूवरूवं च वरभोगं ॥५१३॥ ___ अर्थ-उसके अनन्तर पूजाके निमित्त पुष्प चंदनादि सेवक लोगोंके पाससे मंगवाके और कपूर अगर कस्तूरी प्रमु8|खका प्रधान भोगदेवयोग्य द्रव्य मंगवाके ॥ ५१३ ॥ 4XUSUSISUSTUSSEISUS For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ६६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राया धूयाईजुओ, धूवकडुच्छेहिं कुणइ भोगविहिं । निम्मलचित्तो निञ्चल, गत्तो तत्थेव उवविट्ठो ५१४ अर्थ - राजा पुत्री सहित धूपधानोंमें भोगविधिः नामधूपदानादि विधिः करे कैसा है राजा निर्मल है चित्तजिसका और निश्चल शरीर जिसका ऐसा जिनमंदिरमें बैठा ॥ ५१४ ॥ युग्मं, उववासतिगंजायं, धूयासहियस्स नरवरिंदस्स । तो रंगमंडवोवि हु, रंगं नो जणइ जणहियए ॥ अर्थ – जिनमंदिरमें धूपदानादि विधिः करते पुत्रीसहित राजाके तीनउपवास भया तब रंगमंडपभी लोगोंके मनमें राग नहीं उत्पन्न करे ॥ ५१५ ॥ | सामंतमंतिपरिगह, पउरजणेसुवि विसन्नचित्तेसु । उवविट्ठेसु निरंतर, जलंतदिप्पंतदीवेसु ॥ ५९६ ॥ अर्थ - सामंत और मत्रवी और परिवार और नगरमें रहने वालेलोग खेदातुर भया है चित्तजिन्होंका तथा निरंतर दीपक जलरहे है उसवक्तमें ॥ ५१६ ॥ केवि हुदियंति कन्नाइ, दूसणं केवि नरवरिंद्स्स । एवं बहुप्पयारं, परप्परालाव मुहरजणे ॥ ५१७ ॥ अर्थ — कई लोग कन्याको दूषण देवे और कितनेक राजाको दूषण देवें इसप्रकारसे यथा तथा लोगोंका परस्पर भाषण होनेसे लोग दुर्मुख हुआ इच्छामे आवे ऐसा बोले ॥ ५१७ ॥ तइयाए रयणीए, पच्छिमजामंमि निज्झुणिसहाए । सहसत्ति गयणवाणी, संजाया एरिसी तत्थ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ६६ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तीसरी रात्रिके चौथे प्रहरमें ध्वनि निकली अर्थात् उस रंगमंडपमें अकस्मात् ऐसी आकाशवाणी भई ॥ ५९८ ॥ दोस न कोइ कुमारियह, नरवर दोस न कोइ । जिणकारणि जिणहरु जडिओ, तं निसुणउ सहु कोइ ॥ अर्थ - वह वाणी दोहा छन्दोसे कहते हैं यहां कुमरीका दोष कोई नहीं है और राजाकाभी दोष नहीं है जिस कारणसे जिनमंदिर ढका गया है वह कारण सबलोग सुनो ॥ ५१९ ॥ तं सोऊणं वाला, संजाया हरिसजणियरोमंचा। रायावि हु साणंदो, संजाओ तेण वयणेण ॥ ५२० ॥ अर्थ - तदनंतर देववाणी सुनके राजकन्या हर्षित भई रोमराजी जिसकी विकस्वरमान भई राजाभी उसवाणी से आनंद सहितभए ॥ ५२० ॥ लोयावि सप्पमोया, जाया सवेवि चिंतयंति अहो । किं कारणं कहिस्सइ ! तत्तो वाणी पुणो जाया ५२१ अर्थ - लोकभी हर्षसहित हुआ ऐसा सब विचारे अहो यह आश्चर्य है क्या कारण कहेगा बाद और वाणी भई ॥ जसु नरदिट्ठिहिं होइसइ, जिणहरु मुक्कदुवारु । सोइज मयणमंजूसियह, होइसइ भत्तारु ॥ ५२२ ॥ अर्थ - जिस मनुष्यके देखनेसे जिनमंदिरका दरवाजा उघड़ेगा अर्थात् खुलेगा वहही नररल मदनमंजूषा राजपुत्री का भर्तार होगा ।। ५२२ ॥ श्रीपा.च. १२ गाढयरं तो तुट्ठा, सबे चिंतंति कस्सिमा वाणी । एवं च कया होही, तत्तो जाया पुणो वाणी ॥ ५२३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ६७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनंतर सबलोग अत्यन्त संतुष्टमान हुआ विचारे किसकी यह वाणी है और कब वह पुरुष आवेगा और कब जिन मंदिरका दरवाजा खुलेगा ऐसा विचारोंके अनन्तर और वाणी भई ॥ ५२३ ॥ सिरिरिसहेसर ओलगिणि, हउं चक्केसरिदेवि । मासब्भंतार तसु नरह, आविसु निच्छइ लेवि ॥ ५२४ ॥ अर्थ - श्री ऋषभदेवस्वामीकी सेवाकरनेवाली मैं चक्रेश्वरी देवी हूं १ महीने में उस पुरुषको लेके निश्चय आऊंगी २२४ इत्थंतरंमि जायं, विहाणयं वज्जियाई तूराई । रायावि सपरिवारो, समुट्ठिओ नियगिहं पत्तो ॥ ५२५ ॥ 1 अर्थ - इस अवसर में प्रभातहोगया प्रभातयोग्य वादित्र वजे राजाभी परिवारसहित अपने घरगए ॥ ५२५ ॥ तत्तो कयगिहपडिमा - पूयाइविहीहिं पारणं विहियं । सवत्थवि वित्थरया, सावत्ता लोयमज्झमि ॥२६॥ अर्थ - तदनंतर घरदेरासर में जिनप्रतिमाकी विधिः से पूजाकर के पुत्रीसहित राजाने तीनउपवासका पारणाकिया वह वार्ता सबलोक में प्रसिद्ध भई है ।। ५२६ ॥ आवंति तओ लोया, सपमोया जिणहरस्स दारंमि । अणउग्घडिए तंमिवि, पुणोवि गच्छंति सविसाया २७ अर्थ — तदनंतरलोक हर्षसहित जिनमंदिर जावे मंदिरका दरवज्जा बन्ध देखके विषादसहित हुआ पीछा अपने ठिकाने जावे ।। ५२७ ॥ तं जिणहरस्स दारं, केणवि नो सक्कियं उघाडेउं । किंतु कओ बहुएहिंवि उग्घाडो निययकम्माणं २८ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम् ॥ ६७ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — वह जिनमंदिरका दरवज्जा कोई उघाड़नेको समर्थ नहीं हुआ किंतु बहुतलोकोंने अपना भाग्य उघाड़नेका उपाय किया परन्तु किसीका भाग्य उघड़ा नहीं ॥ ५२८ ॥ एवं च तस्स चेईहरस्स, ढंकियदुवारदेसस्स । संजाओ किंचूणो मासो, एयं तमच्छरियं ॥ २९ ॥ अर्थ — इस प्रकारसे जिनमंदिरका दरवज्जा बन्धहोनेको आज कुछ कम एक महीना हुआ है यह आश्चर्य है ॥५२९ ॥ जइ पुण पुरिसुत्तम, ? तंसि चेव तं जिणहरस्स वरदारं । उग्धाडेसि धुवं तो, मिलिया चक्केसरीवाणी ॥३०॥ अर्थ- हे पुरुषोत्तम जो फेर तुमही उस जिनमंदिरका दरवज्जा उघाडो तो निश्चय चक्रेश्वरीकी वाणी मिले ॥ ५३०॥ तो तं कुणसु महायस, जिणभवणुग्घाडणं तुरियमेव । उग्घडिए तंमिजओ, अम्हाणवि उग्धडइ पुन्नं ३१ अर्थ-तिसकारणसे हे महायशस्विन् आप जिनमंदिरका दरवज्जा जल्दी उघाड़ो इसमें यत्नकरो जिसकारणसे जिन मंदिर के उघड़ने से हमारा पुन्य उघड़े है ॥ ५३१ ॥ तत्तो कुमरो तुरियं, तुरयारूढो पयंपए सिट्ठि । आगच्छसु ताय ? तुमंपि, जिणहरं जेण गच्छामो ५३२ अर्थ - उसके अनन्तर कुमर घोडेपर सवार होकर शीघ्र धवल सेठसेकहे हे पितासदृश हेसेठ तुमभी आओ जिससे जिनमंदिर जावें ॥ ५३२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ६८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो सिट्टी कुमरं पइ, जंपइ तुभ्भे अवेयणा जेण, भुलह अणज्जियं चिय, निच्चं निक्खीणकम्माणो ॥ ५३३॥ अर्थ - तदनंतर सेठ कुमरसे कहे आप अवेदन है नहीं विद्यमान है वेदन विचार जिन्होंको ऐसे किसकारणसे सो कहते है जिसकारण से आप निरंतर क्षीणकर्मी हो विनाकमाया हुआ भोगवोहो ॥ ५३३ ॥ | नूणं तुह्माणंपिव, अह्मेवि न तारिसा इहच्छामो, गच्छ तुमं चिय अह्मे, नियकज्जाई करिस्सामो ॥५३४॥ अर्थ - निश्चय आपके जैसा हमभी इसवक्त निक्षीणकर्मा नहीं कमायाहुआ खानेवाला नहीं रहें इसलिए आपही जाओ हमतो हमारा कार्य करेंगे ॥ ५३४ ॥ तो धवलं मुत्तणं, अन्नो सवोवि सत्थपरिवारो, । चलिओ कुमरेण समं, पत्तो जिणभवणपासंमि ॥ ५३५॥ अर्थ - वाद धवल सेठको छोड़के और सब परिवार कुमर के साथमें चला तब कुमर जिनमंदिर के पासमें पहुंचा ५३५ कुमरो भणेइ भो भो, पिहु पिहु गच्छेह जिणवरदुवारं, जेण फुडं जाणिज्जइ, सो दारुग्घाडओ पुरिसो ५३६ अर्थ-तब कुमर कहे अहो लोगो तुम अलग अलग जिनमंदिरमें जाओ जिससे प्रगट दरवज्जा उघाड़नेवाला पुरुष जाननेमें आवे ॥ ५३६ ॥ | तो जंपइ परिवारो, मा सामिय ? एरिसं समाइससु, । किं सुरमंतरेणं, पडिबोहइ कोवि कमलवणं ५३७ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ६८ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-तदनंतर परिवारके लोग कहें हे स्वामिन् ऐसी आज्ञा मतदेओ जिस कारणसे सूर्य विना क्या कोई कमलोका वन विकस्वरमान करे है अपितु नहीं करे ॥ ५३७ ।। ससिमंडलं विणा किं, कमुयवणुल्लासणं कुणइ कोवि, । किंच वसंतेण विणा, वणराई कोवि मंडेइ ५३८ | अर्थ-तथा चन्द्रमाके मंडलविना क्या कोई कुमुदोंके वनको विकस्वरमान करसके है अपितु कोई नहीं करसके द और वसंतऋतु विना वनराजिको कौन प्रफुल्लित करसके किंतु कोई नहीं करसके ॥५३८॥ | किं सहकारेण विणा, उग्घाडइ कोवि कोइलाकंठं, । ता देव तं दुवारं, तुमं विणा केण उग्घडइ ५३९ अर्थ-तथा आमेकी मांजरविना कोयलका कंठ कौन उघाडसके है किंतु कोई नहीं उघाडसके तिसकारणसे यह जिन ६ मंदिरका दरवजा आपविना कौन उघाड़े अर्थात् कोई नहीं उघाड़े ॥ ५३९॥ है तो कुमरो तुरयाई, मोइत्ता विहिय उत्तरासंगो, कयनिस्सीहीसदो, सीहदुवारंमि पविसेइ ॥ ५४०॥ | अर्थ-तदनंतर, कुमर घोड़ेसे उतरके कियाहै उत्तरासन जिसने ऐसा उच्चारणकिया है निसहीका शब्द जिसने ऐसा हाचैत्यका सिंहद्वार नाम प्रथमद्वारमें प्रवेशकरे ॥ ५४०॥ जा जाइ मंडवतो, कुमरो उप्फुल्लनयणमुहकमलो, ता कयकिंकाररवं, अररिजुयं झत्ति उग्घडियं ॥५४१॥ SHIRASHISEASESORAS For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-अब कुमर विकस्वरमान है नेत्र और मुखकमल जिसका ऐसा जितने मंडपके अंदर जावे उतने किया है। ट्रभाषाटीकाचरितम् दकिंकारव शब्द जिसने ऐसा कपाट युग्म दोनों कपाट जल्दी उघड़े ॥ ५४१॥ सहितम्. सो तत्थ रिसहनाई, बत्थालंकारघुसिणकयपूयं, अमिलाणकुसुमदाम, वंदिय ढोएइ फलमउलं ॥५४२॥ ॥ ६९॥ 3 अर्थ-वह श्रीपालकुमार उसजिनमंदिर में श्रीऋषभदेवस्वामी देवाधिदेवको नमस्कार करके सर्वोत्कृष्ट फल चढावे कैसे श्रीऋषभदेवस्वामी उत्तमवस्त्र और अलंकार आभूषण करके और केसरकरके करी है पूजा जिन्होकी और विकस्वर मान फूलोंकी माला कंठमें है जिन्होंके ऐसे ॥ ५४२ ॥ इत्थंतरंमि राया, धूयासहिओ समागओ तत्थ, । अच्छरियकारिचरियं, पिच्छइ कुमरं नियनिहयं ५४३ - अर्थ-इस अवसरमें कनककेतुराजा पुत्रीसहित उस जिनमंदिरमें आयाभया आश्चर्यकारी चरित्र आचार जिसका है ऐसे कुमरको निश्चल दृष्टि से देखे ॥ ५४३ ॥ कुमरोऽवि हरिसवसओ, पंचंगपणामलीढमहिवीढो। सिरसंठियकरकमलो,रिसहजिणिंदं थुणइ एवं ५४४ अर्थ-कुमरभी हर्षके वशसे पंचांगप्रणामकरके पृथ्वीका स्पर्श किया है जिसने मस्तकमें अर्थात् ललाटदेशमें अंजलि करी है जिसने ऐसा कहाजाय प्रकारसे श्रीऋषभदेवस्वामी की स्तुति करे ॥ ५४४ ॥ सिरिसिद्धचक्कनवपय, महल्लपढमिल्लपयमय जिणिंद । असुरिंदसुरिंदच्चिय, पयपंकय नाह ! तुज्झनमो ४५/ AASARA For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmanair अर्थ-श्रीसिद्धचक्रमें जे नवपद उन्होंमें वड़ा जो प्रथमपद वह स्वरूप जिसका ऐसा उसका सम्बोधन हे श्रीसिद्ध हे | जिनेन्द्र और चमर बलिन्द्र आदि असुरेन्द्र सौधर्म ईशानादि सुरेन्द्र उप लक्षणसे नागेन्द्रादिककाभी ग्रहण है इन्हों करके पूजित है चरण कमल जिन्होंका ऐसे आपको नमस्कार होवे ॥ ५४५॥ सिरिरिसहेसरसामिय, कामियफलदाणकप्पतरुकप्य!। कंदप्पदप्पगंजण, भवभंजण देव तुज्झ नमो ॥ ५४६ ॥ PI अर्थ-हे श्रीऋषभेश्वरस्वामी वांछितफलदेने कल्पवृक्षके सदृश और कंदर्पनामकामकां जो अभिमान उसको मर्दन |करनेवाले हे भवभंजन हे देव आपको नमस्कार होवो ॥ ५४६ ॥ सिरिनाभिनामकुलगर,-कुलकमलुल्लासपरमहंससम, । असमतमतमोभर,-हरणिकपईव तुज्झ नमो ४७ ६ अर्थ-श्रीनाभिनाम जो कुलगर उनोका जो कुलरूपकमल उसको विकास करनेमें उत्कृष्ट सूर्यसदृश उसका सम्बोधन हे श्रीनाभि और नहीं विद्यमान है तुल्य जिसके ऐसा अज्ञानरूप अंधकारकासमूह उसके हरनेमे अद्वितीय प्रदीप समान 18| ऐसा हे देव आपके लिए नमस्कार होवो ॥ ५४७ ॥ ६ सिरि मरुदेवासामिणि, उदरदरीदरियकेसरिकिसोर?। घोरभुयदंडखंडिय,-पयंडमोहस्स तुज्झ नमो५४८ SAECAUSALESALASAALC For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपाल-18| अर्थ-श्रीमरुदेवी स्वामिनीका उदरही गुफा उसमें निर्भय केसरी सिंहके बालक सदृश और प्रचंड भुजदंड करके भाषाटीकाचरितम् खंडित किया हैं दुर्धर मोहको जिसने ऐसा हे देव आपके अर्थ नमस्कार होवो ॥ ५४८ ॥ | सहितम्. इक्खागुवंसभूसण,गयदूसण दुरियमयगलमइंद, चंदसमवयण वियसिय, नीलुप्पलनयण तुज्झनमो॥ ___ अर्थ-हे इक्ष्वाकुवंशभूषण और गए हैं दूषण जिससे ऐसे हेगत दूषण और पापही मदोत्कट हाथी उन्होंके हटाने में सिंहके जैसा और चन्द्र के तुल्य मुखजिसका और विकसित नीलकमलके सदृश नेत्रजिन्होंके ऐसे हे प्रभो आपको नमस्कार होवो ॥ ५४९॥ कल्लाणकारणुत्तम,-तत्तकणयकलससरिससंठाण ?।कंठट्रियकलकुंतल, नीलप्पलकलिय तुज्झ नमो ५० __ अर्थ-कल्याणका कारण जो उत्तम तपा हुआ सोना उसका जो कलश उसके सदृश संस्थान आकार जिन्होंका उसका सम्बोधन और कंठमें रहे हुए मनोहर पांचवीमुट्ठी सम्बन्धी केश वह ही नीलोत्पल उन्हों करके युक्त अर्थात् कलशके कंठमें नीलोत्पल कमल होते हैं वैसा प्रभुके कंठमें बाल शोभते हैं ऐसे आपको नमस्कार होवो ॥ ५५०॥ आईसर जोईसर,-लयगयमणलक्खलक्खियसरूव, भवकूवपडियजंतुतारण,-जिणनाह तुज्झ नमो॥५१॥ | अर्थ-हे आदीश्वर और योगीश्वरोंके लयगत मनसे जाना जाय स्वरूप जिसका उसका सम्बोधन हे योगीश्वर और 5॥७॥ भवरूप कूपमें गिरते हुए प्राणियोंको तारनेवाले ऐसे हे जिननाथ आपको नमस्कार होवो ॥ ५५१॥ NAGARSANGRAGACASS PCOCALLECOMCAESS C For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिरिसिद्धसेलमंडन, दुहखंडण खयररायनयपाय । सयलमहसिद्धिदायग, जिणनायग होउ तुज्झ नमो ॥ ५२॥ अर्थ-हे श्रीसिद्धशैल शत्रुजयगिरिका मंडन और विद्याधर राजाने नमस्कार किया है चरणों में जिसके और मेरेको टू सर्व सिद्धीके देनेवाले ऐसे हे जिननायक आपको नमस्कार होवो ॥ ५५२॥ तुज्झ नमो तुज्झ नमो, तुज्झ नमो देव तुज्झ चेव नमो, पणयसुररयणसेहर, रुइरंजियपाय तुज्झ नमो __अर्थ-आपको नमस्कार हो आपके लिए नमस्कार हो आपके अर्थ नमस्कार हो हे देव आपहीको नमस्कार होवो टू और अतिशय नमस्कार किया देवोंने उन्होके रत्नोंके शेखरोकी दीप्ति करके रंजित है चरणकमल जिन्होंका ऐसे हेदेव टू आपको नमस्कार होवो ॥ ५५३ ॥ इति स्तवनं, रायावि सुयासहिओ, निसुणंतो कुमरविहिय । संथवणं, आणंदपुलइअंगो, जाओ अमिएण सित्तुव ॥ ५५४ ॥ | अर्थ-यह स्तुति करी तब पुत्रीसहित राजाभी कुमरकी करी भई स्तुति सुनता हुआ आनंदसे रोमोद्गम युक्त अंग दिजिसका ऐसा भया अमृतसे सींचा हुआ होय वैसा ॥ ५५४॥ KUSAGGASSASSASAUCAM For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥७१॥ SCAISESSASSASSASSASSASSA कुमरोवि जिणं नमिउं, सीसंमि निवेसिऊण जिणसेसं, । वहिमंडवंमि करवंदणेण, वंदेइ नरनाहं ५५५/भाषार्टीका___ अर्थ-कुमरभी तीर्थंकरोंको नमस्कार करके और अपने मस्तकपर प्रभुका निर्माल्य पुष्पादिक रखके बाहिरके मंडपमें सहितम्. राजाको नमस्कार करे अर्थात् हाथजोडके प्रणाम करे ॥ ५५५ ॥ नरनाहो अभिणंदिय, तं पभणइ वच्छ जह तए भवणं, उग्घाडियं तहा नियचरियं,-पि हु अम्ह पयडेसु ५६ है अर्थ-राजा श्रीपालको आशीर्वादसे संतोषितकरके बोले हे वत्स जैसा तुमने जिनमंदिर उघाडा वैसा अपना चरितभी हमारे सामने प्रगट कहो अर्थात् कुलादिक कहो ॥ ५५६ ॥ नियनामंपि हुन जंपंति, उत्तमा ता कहेमि कह चरियं,।इय जाचिंतइ कुमरो, ता पत्तो चारणमुणिंदो॥ टू अर्थ-हु यह निश्चयमें है उत्तम पुरुष अपने मुखसे अपना नामभी नहीं कहे है तो मैं अपना चरित्र कैसे कहूं ऐसा |जितने कुमर विचारे उतने वहां आकाशमार्गसे चारण मुनीन्द्र आए ॥ ५५७॥ सो वंदिऊण देवे, उवविट्ठोजाव ताव तं नमिउं । उवविद्वेसु निवाइसु, चारणसमणो कहइ धम्म ५५८ | अर्थ-वह चारणलब्धिमान साधु देववंदना करके जितने बैठे उतने राजादिक उन साधुको नमस्कार करके सामने बैठे तब चारणलब्धिमान श्रमण राजादिक लोगोंके आगे धर्म कहने लगे ॥ ५५८॥ KAARAKS ॥७१॥ For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भो भो महाणुभावा, सम्मं धम्मं करेह जिणकहियं । जइ वंछह कल्लाणं, इहलोए तहय परलोए ५५९ अर्थ - अहो महानुभावो तुम तीर्थंकरका कहा हुआ धर्म अच्छी तरहसे करो जो इसभवमें और परभवमें कल्याण सुखकी इच्छा करते हो ॥ ५५९ ॥ धम्मो जिणेहिं कहिओ, तत्ततिगाराहणामओ रम्मो, । तत्ततिगं पुण भणियं, देवो य गुरू य धम्मो य ॥ अर्थ - तीर्थंकरोंने तीनतत्वकी आरानधारूप रमणीक मनोज्ञ धर्म कहा है तीनतत्व देव १ गुरू २ धर्म ३ देवतत्व १ गुरूतत्व २ धर्मतत्व ३ यह है ॥ ५६० ॥ इक्किस्स उ भेया, नेया कमसो दु तिन्नि चत्तारि । तत्थऽरिहंता सिद्धा, दो भेया देवतत्तस्स ॥ ५६१ ॥ अर्थ — और एक एक तत्वका क्रमसे २-३-४ भेद जानना देवतत्वके २ भेद गुरुतत्वके ३ भेद और धर्मतत्वके ४ भेद वहां देवतत्वके २ भेद अरहंत १ सिद्ध २ ॥ ५६१ ॥ आयरियउवज्झाया, सुसाहुणो चेव तिन्नि गुरुभेया । दंसणनाणचरितं तवो य धम्मस्स चउभेया ५६२ अर्थ - आचार्य १ उपाध्याय २ सुसाधु ३ यह तीन गुरुतत्वके भेद जानो । तथा दर्शन सम्यक्त्व ? ज्ञान तत्वका अवबोध २ विरतिरूप चारित्र ३ अनशनादि तप ४ यह धर्म तत्वका चार भेद है । ५६२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ७२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एएसु नवपएसु, अवयरियं सासणस्स सवस्सं । ता एयाई पयाई, आराहह परमभत्तीए ॥ ५६३ ॥ अर्थ - यह नवपदों में जिनशासनका सरवस्व याने सर्वसार अवतीर्ण है तिस कारणसें अहो भव्यो तुम यह पद परम भक्तिसे आराधन करो अर्थात् सेवो ॥ ५६३ ॥ जहा जियंतरंगारिजणे सुनाणे, सुपाडिहेराइसयप्पहाणे, । संदेहसंदोहरयं हरंते, झाएह निच्चंपि जिणेरिहंते ॥ ५६४ ॥ अर्थ - जीता अंतरंगशत्रु कामक्रोधादि जिन्होंने और प्रधान ज्ञान जिन्होंका तथा शोभन अशोक वृक्षादि प्रातिहार्य अतिशयों करके प्रधान ऐसे और संशयोंका जो समूह वही रज धूलि उसको दूर करनेवाले ऐसे अरहन्तोंको निरंतर ध्यावो ।। ५६४ ।। दुट्ठट्ठकम्मावरणप्पमुक्के, अनंतनाणाइसिरीचउक्के । समग्गलो गग्गपयप्पसिद्धे, झाएह निच्चंपि ममि सिद्धे ॥ ५६५ ॥ अर्थ - दुष्ट आठकर्मही आवरणों करके प्रकर्षपने करके मुक्त अनंत ज्ञानादिलक्ष्मीचतुष्क है जिन्होंके अनंतज्ञान १ अनंतदर्शन २ अनंतसुख ३ अनंत अकर्णवीर्य ४ इन्हों करके युक्त तथा सम्पूर्णलोकका ऊपरका स्थान वहां प्रसिद्ध | सिद्धपना प्राप्तभया ऐसे सिद्धोंको तुम निरंतर मनमे ध्यावो ॥ ५६५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ७२ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECORDA पारमें जीवोंको जा५६६॥ समयविस्सुएण ॥ ५६७ ॥ न तं सुहं देइ पिया न माया, जं दिति जीवाणिह सूरिपाया, । तम्हा ह ते चेव सया महेह, जं मुक्खसुक्खाइं लहं लहेह ॥ ५६६ ॥ अर्थ-इस संसारमें जीवोंको जो सुख मातापिता नहीं देवे है वह सुख आचार्य देवेहै ऐसा आचार्योंको तुम निरंतर पूजो जिससे मोक्षसुख शीघ्र पावो ॥ ५६६ ॥ सुतत्थसंवेगमयस्सुएणं, सन्नीरखीरामयविस्सुएणं, । पीणंति जे ते उवझायराए, झाएह निच्चंपि कयप्पसाए ॥ ५६७ ॥ अर्थ-उपाध्याह सूत्रार्थ संवेगमय श्रुत करके भव्यजीवोंको तृप्तकरे है उन उपाध्याय राजको निरंतर तुम ध्यावो सुत्रमीठे पानीके जैसा अर्थ दूधके जैसा संवेगमयश्रुतको अमृतकी उपमा है कैसे हैं उपाध्याय राज किया है प्रसाद अनुग्रह जिन्होंने ऐसे ॥ ५६७ ॥ खंते य दंते य सुगुत्तिगुत्ते, मुत्ते पसंते गुणजोगगुत्ते, । गयप्पमाए हयमोहमाए, ज्झाएह निच्चं मुणिरायपाए ॥ ५६८ ॥ अर्थ-क्षमायुक्त दमयुक्त नाम इन्द्रियमनको दमनेवाले मनोगुप्त्यादि गुप्त और मुक्त निर्लोभी प्रशान्त नाम शान्त रस युक्त गुणोंके सम्बन्ध सहित गया मदादि प्रमाद जिन्होंसे मोहमाया रहित ऐसे मुनिराजोंको तुम निरंतर ध्यावो ॥५६८॥ R श्रीपा.च.१३/ S For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥७३॥ ACCORNERIC जं दवछक्काइसु सदहाणं, तं दंसणं सत्वगुणप्पहाणं, । * भाषाटीकाकुग्गाहवाही उ वयंति जेण, जहा विसुद्धेण रसायणेण ॥ ५६९ ॥ 3 सहितम्. अर्थ-जो षड् द्रव्यादिकका श्रद्धान वह दर्शन नाम धर्म सर्व गुणोंमें प्रधान वर्ते है जिस सम्यक् दर्शन करके कुग्राह हठवाद ही रोग दूर होते है जैसे निर्मल रसायन करके, यह भाव है जरा व्याधिको मिटानेवाला औषध रसायन कहा जावे है उस रसायनसे जैसा सबरोग अच्छे होवे हैं वैसा ॥ ५६९ ॥ नाणं पहाणं नयचक्कसिद्धं, तत्तावबोहिक्कमयं पसिद्धं । धरेह चित्तावसहे फुरंतं, माणिक्कदीवुव तमोहरंतं ॥ ५७०॥ अर्थ-नैगमादि नयोंका चक्रनाम समूह उसकरके सिद्ध निष्पन्न और तत्वज्ञानही है एक स्वरूप जिसका ऐसा | सर्वत्र प्रसिद्ध प्रधान ऐसा ज्ञान अपने मनमंदिरमें धारो कैसा ज्ञान देदीप्यमान माणिक्य दीपकके जैसा अज्ञानरूप अंधकारको दूर करनेवाला ॥ ५७० ॥ सुसंवरं मोहनिरोहसारं, पंचप्पयारं विगयाइयारं । ॥७३॥ मूलोत्तराणेगगुणं पवित्तं, पालेह निच्चंपि हु सच्चरित्तं ॥ ५७१ ॥ A For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECRUSALARIA अर्थ-अहो भव्यो शोभन संवर है जिसमें तथा मोहका निरोधही है श्रेष्ठ जिसमें ऐसा और सामायकादि पांचलाभेद है जिसका और गया अतिचार जिससे ऐसा और मूलउत्तररूप अनेकगुण हैं जिसमें मूलगुण प्राणातिपात विरमउणादिक चरणसत्तरी और उत्तर गुण पिंडविशुद्ध्यादि करणसत्तरी इन्हो करके पवित्र ऐसा सत्चारित्र निरंतर तुम पालों ॥ ५७१॥ बज्झं तहाभिंतरभेयमेयं, कयाइदुब्भेयकुकम्मभेयं, दुक्खक्खयत्थं कयपावनासं, तवं तवेहागमयं निरासं ॥ ५७२ ॥ अर्थ-अहो भन्यो तुम यह बाह्य अभ्यंतर भेद है जिसका ऐसा तप तपो कैसा है तप अतिशय दुर्भेद कुकर्मोंका |विदारण किया जिन्होने ऐसा इसी कारणसे किया है पापका नाश जिसने और कैसा तप गई आशा जिससे ऐसा | तपकरो दुःख क्षय करनेकेवास्ते ॥ ५७२॥ एयाइं जे केवि नवप्पयाई, आराहणंतिट्रफलप्पयाइं। लहंति ते सुक्खपरंपराणं, सिरिं सिरीपालनरेसरुव ॥ ५७३ ॥ अर्थ-जे कोई जीव यह वांछित फल देनेवाले ऐसे नवपदोंकी आराधना करे वह श्रीपाल राजाके जैसी सुखकी परंपरा और लक्ष्मी पावे ॥ ५७३ ॥ सम्बपरंपरार्थ सिरि सिरीपालनरेसका २७ राजा की सरकार For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandi श्रीपाल- चरितम् ॥७४॥ राया पुच्छइ भयवं, को सिरिपालत्ति तो मुणिंदोवि, करसन्नाए दंसइ, एसोतुह पासमासीणो ५७४ भाषाटीका___ अर्थ-तब राजा पूछे हे भगवान कौन श्रीपाल तव मुनिवरिंद हाथकी संज्ञासे दिखावे यह तुम्हारे पासमें बैठा सहितम्. हुआ श्रीपाल है ॥ ५७४ ॥ तं नाऊणं राया, सपमोओ विन्नवेइ मुणिरायं, भयवं? करेह पयर्ड, एयस्स सरूवमम्हाणं ॥५७५॥ ___ अर्थ-राजा उनको श्रीपाल जानके हर्षसहित मुनिराजसे वीनंती करे हे भगवन् इन्होंका स्वरूप हमारे आगे प्रगट करो ॥ ५७५॥ तत्तो चारणसमणेण, तेण आमूलचूलमेयस्स । कहियं ताव चरित्तं, जिणभुवणुग्घाडणं जाव ॥५७६॥ अर्थ-वाद चारण श्रमणने श्रीपाल कुमरका सर्व चरित जिनमंदिर उघाडा वहां तक कहा ॥ ५७६ ॥ है इत्तोवि परं एसो, परिणिंतोणेगरायकन्नाओ। पियरज्जे उवविट्ठो, होही रायाहिराओत्ति ॥ ५७७ ॥ ___ अर्थ-तिसके अनंतरभी यह श्रीपाल कुमर अनेक राजकन्याओंका पाणिग्रहण करके पिताके राज्यमें बैठा भया राजाधिराज होगा अर्थात् राजालोगोंमें बडा राजा होगा ॥ ५७७ ॥ ॥७४।। तत्थ सिरिसिद्धचक्कं, विहिणा आराहिऊण भत्तीए । पाविस्सइ सग्गसुहं, कमेण अपवग्गसुक्खं च ५७८३ For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — उस महाराज अवस्थामें श्रीसिद्धचक्रका विधिसे आराधन करके देवलोकका सुख पावेगा क्रमसे मोक्षसुख पावेगा ॥ ५७८ ॥ तत्तो एस महप्पा, महत्पभावो महायसो धन्नो । कयपुन्नो महभागो, संजाओ नवपयपसाया ॥ ५७९ ॥ अर्थ-तिसकारणसे यह महात्मा महाप्रभावजिसका और महायश जिसका ऐसा धन्य और किया हे पुन्य जिसने ऐसा कृतपुण्य महाभाग्य जिसका ऐसा महाभाग नवपदोंके प्रसादसे भया ॥ ५७९ ॥ जो कोइ महापावो, एयस्सुवरिंपि किंपि पडिकूलं । करिही सच्चिय लहिही, तक्कालं चैव तस्स फलं ५८० अर्थ- जो कोई महापापी पुरुष श्रीपालकुमरके ऊपर कुछभी प्रतिकूल विरुद्धकरेगा उसका फल वह करनेवाला तत्काल पावेगा ॥ ५८० ॥ एयस्स सिद्धसिरी सिद्धचक्क, - नवपयपसायपत्तस्स । धुवमावयावि होही, गुरुसंपयकारणं चेव ॥ ५८१ ॥ अर्थ - सिद्ध याने निष्पन्न श्रीसिद्धचक्र उसमें जो नवपद उन्होंका जो प्रसाद पात्र ऐसा यह श्रीपाल इसके निश्चय आपदाभी बहुत सम्पदाकी कारण होगी ॥ ५८१ ॥ एवं चैव कहतो, संपत्तो मुणिवरो गयणमग्गे । लोओ अ सप्पमोओ, जाओ नरनाहपामुक्खो ॥ ५८२ ॥ अर्थ — इस प्रकारसे कहता हुवा मुनिवरिन्द्र आकाश मार्गसे अन्यत्र गए राजादिक लोक आनंद सहित भए ॥ ५८२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥ ७५॥ SCRECHARGADACCOR ६ तत्कालं चिय कुमरस्स, तस्स दाऊण मयणमंजूसं। काऊण य सामग्गिं, सयलंपि विवाहपवस्स ॥५८॥ दिभाषाटीकाहै। अर्थ-मुनिराज गयोंके अनन्तर राजा तत्कालही श्रीपाल कुमरको अपनी कन्या मदनमंजूसा देके और विवाह है सहितम्. उत्सवकी सर्व सामग्री तय्यार करके ॥ ५८३॥ तस्स भवणस्स पुरओ, मिलिए सयलंमि नयरलोयंमि।महया महेण रन्ना, पाणिग्गहणंपिकारवियं ५८४ __ अर्थ-उस जिन मंदिरके आगे सर्व नगरके लोग मिलनेसे बड़े उत्सवके साथ पाणिग्रहण कराया ॥ ५८४॥ दिन्नाइंबहुविहाई, मणिकंचणरयणभूसणाईणि। दिन्ना य हयगयावि य, दिनोय सुसारपरिवारो ५८५ | अर्थ-बहुत प्रकारके मणिरत्न जडे हुए ऐसे सोनेरत्नोके भूषणदिए और घोडा हाथी बहुतसे दिए सार परिवार दिया५८५ दिन्नो य वरावासो, तत्थ ठिओ दोहिं वरकलत्तेहिं । सहिओ कुमारराओ, जाओ सवत्थ विक्खाओ ५८६ ___ अर्थ-प्रधान आवास प्रासाद रहेनेके वास्ते दिया उस आवासमें रहा हुआ दोय स्त्रियों सहित राजकुमार सर्वत्र प्रसिद्ध भया ॥ ५८६ ॥ निच्चपि तंमि चेइयहरंमि, कुमरो करेइ साणंदो। पूयापभावणाहिं, सहलं नियरिद्धिवित्थारं ॥५८७॥ ॥ ७५॥ ___ अर्थ-निरंतर उस जिनमंदिरमें कुमार आनंद सहित पूजा प्रभावनादिक करके अपनी समृद्धिका विस्तार सफलकरे ॥ ५८७ ॥ SAMACHAR For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अह चित्तमासअट्ठाहियाओ, विहियाओ तत्थ विहिपुवं । सिरिसिद्धचक्वपूया-विहीवि आराहिओ तेण ॥ ५८८ ॥ अर्थ —तदनंतर श्रीपाल कुमरने उस नगरीमें विधिपूर्वक चैत्रमासकी अट्ठाई करी सिद्धचक्रकी पूजा विधिसे आराधन करी ॥ ५८८ ॥ अन्नदिणे तस्स जिणालयस्स, सुबलाणयंमि आसीणो । राया कुमारसहिओ, कारावइ जाव जिणमहिमं ॥ ५८९ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - अन्य दिनमें उस जिनमंदिरका बलानक नाम लोगोके बैठनेका मंडप वहां कुमरसहित राजा बैठे हैं जितने भगवानका महिमा करावे है ॥ ५८९ ॥ ता दंडपासिएणं विन्नत्तो, देव ? सत्थवणिएणं । एगेण दाणभंगं, काओ आणावि तुह भग्गा ॥ ५९० ॥ अर्थ - उतने कोटवालने आके राजासे वीनती कही हे देव हे महाराज एक सार्थ वाणिएने दाण भंग किया अर्थात् महसूलकी चोरी करी इसलिए आपकी आज्ञाका भंग किया है ।। ५९० ॥ सो अस्थि मए बद्धो, एसो को तस्स सासणाएसो । राया भणेइ आणा, - भंगे पाणा हरिजंति ॥ ५९१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-उस सार्थ वाणिएको मैंने बांधा है उसके लिए क्या आज्ञा है क्या शिक्षा दी जाने तब राजा बोले आज्ञा भाषाटीका चरितम् दूभंग करे उसका प्राण लेना ॥ ५९१ ॥ | सहितम्. ॥७६ ॥ कुमरोभणेइ मा मा, मारणादेसमिह ठिओ देसु । सावज्जवयणकहणेवि, जिणहरे जेण गुरुदोसो ५९२/ | अर्थ-ऐसा राजाका वचन सुनके कुमर कहे हे महाराज इस जिनमंदिरकी भूमिमें रहे हुए मारनेकी आज्ञा मत देओ जिस कारणसे जिनमंदिरमें सदोषवचन कहने में भी महादोष होवे हैं ॥ ५९२ ॥ तो राया छोडाविय, आणावइ जाव निययपासंमि । तं दट्टणं कुमरो, उवलक्खइ धवलसत्थवइ ॥५९३॥ ४ FI अर्थ-तदनंतर राजा उसको छुडवाके जितने अपने पासमें बुलवावे उतने कुमर श्रीपाल देखके धवल सार्थ वाहको ६ पहिचाने यह तो धवल सार्थवाह है ऐसा जाने ॥ ५९३ ॥ चिंतइ मणे कुमारो, अहह कहं एरिसंपि संजायं। अहवा लोहवसेणं, जीवाणं किं न संभवइ॥ ५९४॥ ___ अर्थ-कुमर मनमें विचारे अहह इति खेदे ऐसा अकार्य कैसे भया अथवा जीवोंके लोभके वशसे क्या २ नहीं संभवे है अर्थात् सब अकार्य संभवे है ।। ५९४ ॥ 5 ॥७६॥ तं नियजणयसमाणं, कहिउं मोआविओ नरिंदाओ।उवयारपरो कुमरो, विसज्जए निययठाणे य॥५९५॥ ACADREAUCRACK CARRORSCOPE For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - उसके अनंतर उपकार करनेमें तत्पर कुमर उस धवल सेठको अपने पिताके समान कहके याने यहमेरे पिताके तुल्य है ऐसा कहके राजासे छुड़ाया और अपने ठिकाने जानेकी आज्ञा दिलाई ॥ ५९५ ॥ अह अन्न दिने कुमरो, विन्नत्तो ? वाणिएण एगेण । सामिय पूरियपोया, अम्हे सवेवि संवहिया ५९६ अर्थ - अथ अन्य दिनमें एक वानिएने कुमरसे वीनती किया हे स्वामिन् हे महाराज क्रियाणोंसे जहाज भरे हैं। यहां से चलने के वास्ते सब लोग तय्यार हुए है अर्थात् जो क्रियाणा लाएथे वह सब यहां बेचा है यहां सम्बन्धी क्रियाणा खरीदकर जहाज तय्यार किए हैं हम लोग देश जानेके वास्ते तय्यार भए हैं । ५९६ ॥ तो जह चिय कुसलेणं, अम्हे तुम्हेहिं आणिया इहयं । तह नियदेसंमि पुणो, सामिय तुरियं पराणेह ॥ ५९७ ॥ अर्थ - तिस कारण से जैसे आप कुशलसे हमको यहां लाएहो उसी प्रकारसे हे स्वामिन् अपने देश शीघ्र पहुंचाओ ॥५९७॥ तो कुमरो नरनाहं, आपुच्छइ निअयदे सगमणत्थं । कह कहवि सो विसज्जइ, काऊणं गुरुयसम्माणं ५९८ अर्थ - तदनंतर कुमर राजासे अपने देश जानेके लिए पूछे तब राजा बहुत सत्कार करके देश जानेकी आज्ञा मुश्किलसे देवे ॥ ५९८ ॥ दाउं सुयाइसिक्खं, कुमरस्स भलाविऊण धूयं च । पोयंमि समारोवि अ, कुमरं वलिओ नरवरिंदो ॥ ५९९॥ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपाल- __ अर्थ-राजा पुत्रीको सिखावन देके मेरी पुत्रीको अच्छी तरहसे रखनी इत्यादि कथन पूर्वक पुत्री कुमरको सौंपके भाषाटीकाचरितम् पुत्री सहित कुमरको जहाजमें चढाके राजा पीछे चले स्वस्थान प्रति ॥ ५९९॥ दिसहितम् कुमरो बहमाणेणं, धवलंपि ह सारसारपरिवारं । नियपोयंमि निवेसइ, सेसजणे सेसपोएस ॥६००। ॥७७॥ , अर्थ-कुमर सार २ परिवार और धवलसेठको आदर सहित अपने जहाजमें बैठावे और लोगोंको दूसरे जहाजोंमें | बैठावे ॥६००॥ तपत्थाणमंगलंमी, पहयाओ दुंदुहीउ भेरीओ। सज्जीकया य पोया, चल्लंति महल्लवेगेणं ॥६०१॥ ___ अर्थ-प्रस्थान मंगलके समयमें दुंदभी नामकी भेरिओं बजाई गई और सजकिए हुए जहाज बहुत वेगसें चलते हैं ॥६०१॥ पोयारूढो कुमरो, जलहिंमिवि अणुहवेइ लीलाओ।जह पालयाहिरूढो, देविंदो गयणमग्गेवि ॥६०२॥ ___ अर्थ-अथ जहाजपर बैठा हुआ कुमर समुद्रमें लीला(क्रीडा) अनुभवे कैसे सों कहते हैं जैसे पालक विमानमें बैठा हुआ देवेन्द्र आकाशमार्गमें चलता हुआ लीला अनुभवे वैसा ॥ ६०२॥ प्रदट्टण कुमरलीलं, रमणीजुयलं च रिद्धिवित्थारं । धवलोवि चलियचित्तो, एवं चिंतेउ माढत्तो ॥६०३॥ | अर्थ-तव धवलसेठ कुमरकी लीला तथा दो २ स्त्री और ऋद्धिका विस्तार देखके विशेष करके चलचित भया ॥७७॥ ऐसा इस प्रकारसे विचारने लगा ॥ ६०३ ॥ RICALCALCOMCAM For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहह अहो जणमित्तो, संपत्तो केरिसं सिरिं एसो । अन्नं च रमणिजुयलं, एरिसयं जस्स सो धन्नो ॥ ६०४ ॥ अर्थ - अहह इति खेदे अहो इति आश्चर्ये यह श्रीपाल एकाकी मनुष्यमात्र था थोडे दिनोंमें कैसी लक्ष्मी पाई और इसके अति अद्भुत रूप सौंदर्य वाली दो स्त्रियों हैं इसलिए यह धन्य है ॥ ६०४ ॥ ता जइ एयस्स सिरी, रमणिजुयलं च होइ मह कहवि । ताऽहं होमि कयत्थो, अकयत्थो अन्नहा जम्मो ॥ । अर्थ - इस कारण से जो यह श्रीपालकी लक्ष्मी और दो स्त्रियों कोई प्रकारसे मेरे होवे तो मैं कृतार्थ होऊं अन्यथा इन्होंकी प्राप्तिविना मेरा जन्म अकृतार्थ याने निष्फल है । ६०५ ॥ एवं सो धणलुडो, रमणीझाणेण मयणसरविद्धो । दुज्झवसायाणुगओ, न लहेइ रई ससव ॥ ६०६ ॥ अर्थ - इस प्रकार से परद्रव्यका लोभयुक्त तथा कामके बाणोंसे ताडित इसी कारणसे दुष्ट परिणामयुक्त यह धवल सेठ शल्य सहितके जैसा रति शाता नहीं पावे ॥ ६०६ ॥ इक्किक्कओवि लोहो, बलिओ सो पुण सदप्यकंदप्पो । जलणुव पवणसहिओ, संतावइ कस्स नो हिययं ६०७ अर्थ – एकाकी भी लोभ बलवान है और दर्प, कंदर्प याने अभिमान काम सहित किस पुरुषके हृदयको नहीं संताप करे किंतु सबके हृदयको संताप करे किसके जैसा वायुसहित अग्निके जैसा जैसे वायु प्रेरित अग्नि सबकों संताप करे है ।। ६०७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥७८ ॥ SASHISHAMISASSARISHISHIS तत्तो सो गयनिहो, सयणीयगओवि मज्झरयणीए । दुक्खेण टलवलंतो, दि हो तम्मित्तपुरिसेहिं॥६०८॥ भाषाटीका__अर्थ-तदनंतर वह धवलसेठ गई निद्रा जिसकी ऐसा आधीरात्रिके समय शय्यापर लुठता हुआ मित्रोंने देखा ६०८||सहितम्. पुटो य तेहिं को अज, तुज्झ अंगंमि वाहए वाही । जेण न लहेसि निदं, तो कहसु फुडं नियं दुक्खं ६०९/ __ अर्थ-और उन मित्रोंने पूछा अहो सेठ आज तुह्मारे शरीरमें क्या रोग पीड़ा उत्पन्न करे है जिससे तुमको निद्रा 8 नहीं आवे हैं इसलिए प्रगट तुम आपना दुःख कहो ॥ ६०९॥ कह कहवि सोवि दीहं, नीससिऊणं कहेइ मह अंगं । वाही न बाहए किंतु, बाहए मं दुरंताही ॥६१०॥ 1 अर्थ-वाद धवलसेठभी दीर्घ निश्वासा डालके बड़े कष्टसे कोई प्रकारसे बोला मेरे शरीरमें व्याधि नहीं है किंतु मेरेको आधिनाम मानसिक दुःख पीड़ा करता है ॥ ६१०॥ पुढो पुणोवि तेहिं, का सा तुह माणसीमहापीडा?। तो सो कहेइ सवं, तं निययं चितियं दु;॥६११॥ । अर्थ-तव उनमित्रोंने औरभी पूछा तुम्हारे मनमें क्या दुःख है तव धवलसेठने अपना सब दुष्ट विचार मित्रोंको 5 सुनाया ॥ ६११॥ तं निसुणिऊणतेवि ह, भणंति चउरोवि मित्तवाणियगा। हहहा किमियं तुमए, भणियं कन्नाण सूलसमं ॥ ६१२ ॥ RASANSAR H ॥७८॥ For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobelirtth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir अर्थ-वह धवल सेठका विचारा हुआ सुनके वे चारोंही मित्र वाणिया बोले अहह इति खेदे तेने कानोंमें शूल है तुल्य यह क्या कहा ॥ ६१२॥ अन्नस्सवि धणहरणं, न जुजए उत्तमाण पुरिसाणं । जं पुण पहणो उवयारिणो य, तंदारुणविवागं ६१३ | अर्थ-उत्तम पुरुषोंको किसीकाभी धन हरना युक्त नहीं है जो फेर अपना प्रभु स्वामी और उपकारीका धन | हरणकरना उसका तो भयानक फल होवे है ॥ ६१३ ॥ इयरिस्थीणवि संगो, उत्तमपुरिसाण निंदिओ लोए।। जा सामिणीइ इच्छा, सा तक्खयसिरमणिसरिच्छा ॥ ६१४ ॥ अर्थ-उत्तम पुरुषोंको अन्य सामान्य लोगोंकी स्त्रियोंकाभी संयोग लोकमें निंदनीय है और अपनी स्वामिनीकी जो इच्छा है वहतो नागराजके मस्तककी मणिकी इच्छाके तुल्य है महादुःख दाई होनेसे ॥ ६१४ ॥ अन्नस्सवि कस्सवि पाण,-दोहकरणं न जुज्जए लोए । जं सामिपाणहरणं, तं नरयनिवंधणं नृणं ॥६१५॥ __ अर्थ-और किसीभी प्राणीका प्राण हरना लोकमें अयुक्त है और जो स्वामीका प्राण हरण करना वह तो निश्चय है है नरक दुर्गतिकाही कारण है ॥ ६१५॥ श्रीपा.च./ता तुमए परिसयं, पावं कह चिंतियं निए चित्ते।जइ चिंतियं च कह, कहियं तुमए सजीहाए ॥६१६॥ 81 CACANCHAMALAMAUCRACT For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषार्टीकासहितम् ॥७९॥ OSSILISHIGERUS HI अर्थ-सलिए तैने अपने मन में ऐसा पाप कैसे विचारा और जो विचारा तो तेंने अपनी जिव्हासे कैसे कहा तेरेको लज्जाभी नहीं आई ॥ ६१६ ॥ आसि तुम अम्हाणं, सामि य मित्तं च इत्तियं कालं। एरिसयं चिंतंतो, संपइ पुण वेरिओ तंसि॥१७॥ है अर्थ-इतने कालतक तैं हमारा स्वामी और मित्रथा इसवक्तमें ऐसा विचारता हुआ तैं हमारा वैरी है ॥ ६१७ ॥ पोयाण चालणं तं, तह महकालाउ मोयणं तं च, विज्जाहराउ मोयावणं च, किं तुज्झ वीसरियं ॥१८॥ 5 अर्थ-जहाजोंको देवताने स्तंभित किया था सो इस महा पुरुषने चलाया महाकाल राजाने तेरेको बांधा था सो इस कुमरने छुड़ाया और विद्याधर राजाने मारनेकी आज्ञा दिया था सोभी इसी उत्तम पुरुषने बचाया इतना उपकार तें भूलगया ॥ ६१८॥ |एवंविहोवयाराण, कारिणो जे कुणंति दोहमणं । दुजणजणेसु तेसिं, नणं धुरि कीरए रेहा ॥ ६१९ ॥ ___ अर्थ-इस प्रकारके उपगारोंके करनेवाले पुरुषके ऊपर जो दुष्ट द्रोह युक्त मनकरे उन पुरुषोंकी दुष्ट पुरुषोंके आदिमें रेखा दी जाती है निश्चयसे ॥ ६१९॥ मलिणा कुडिलगईओ, परछिद्दरया य भीसणा डसणा, पयपाणवि लालंतयस्स मारंतिदोजीहा ६२० | अर्थ-द्विजिव्हा सर्प और खल पुरुष किसको सुख देवे है अपि तु किसीको नहीं देवे अब दोनोंका सदृश विशे-| ACARRANI ॥७९॥ For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षणसे तुल्यपना बतलाते हैं द्विजिव्हा सर्प दूध पिलानेवालेको भी मारता है वैसा दुष्ट पुरुषभी जो लालनेवाला उसकाही नुकसान करे दोनों कैसे मलीन, सर्प वर्णसे मलीन होवे, और दुष्ट पुरुष भावसे मलीन होता है और कुटिल, सर्प पक्षमें वक्रगति और दुष्ट पुरुषके पक्षमें वक्र चेष्टा जिन्होंकी ऐसे और परछिद्रोंमें रक्त दुष्टके पक्षमें दूसरोंका दोष कहने में रक्त सर्प पक्षमें औरोंके मूषक वगेरेहके बिलोंमें रक्त और भयानक दांत जिव्हासे दूसरोंका घात करनेवाला ॥ ६२० ॥ पयडियकुसीलयंगा, कयकडुयमुहा य अवगणियणेहा । मलिणा कढण सहावा, तावं न कुणंति कस्स खला ॥ ६२१ ॥ अर्थ-अब ज्वरकी उपमा करके दुर्जनका स्वरूप कहते है दुर्जनपुरुष ज्वरके जैसा किसको संताप नहीं करे अपितु सबको करे कैसे हैं दोनों प्रगट किया है कुत्सित स्वभाव शरीरमें जिन्होंने नहीं गिना है स्नेह प्रेम जिन्होंने ज्वर पक्षमें स्नेह घृतादिक खल पक्षमें स्नेह प्रेम उन्होंको नहीं गिणने वाले तथा मलिन स्वभाववाले दोनों दुर्जन भावसे मैले होवे है अतएव इसी कारणसे दोनो भी कठिन स्वभाववाले ज्वर पक्षमें देहको कठिन करनेवाला ॥ ६२१ ॥ विरसं भसंति सविसं डसंति, जे छन्नमिंति सुंघंता । ते कस्स लद्धछिद्दा, दुज्जणभसणा सुहं दिति ॥ ६२२॥ अर्थ — अब श्वानकी उपमा करके दुर्जनका स्वरूप दिखाते हैं वह दुर्जन भुसनेवाले स्वानके जैसे छिद्रपाके अर्थात् छलपाके किसको सुख देवे अपितु किसीको नहीं देवे कैसे वह सो कहते हैं गया रस मधुरात्मक जिन्होंसे विरल जैसा For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीका सहितम्. ॥८ ॥ CARE CASA GRASASAKTAI होय वैसा दूसरेकी निर्भर्त्सना करे स्वान पक्षमें अव्यक्त शब्द करे सविष डसे और प्रछन्न सुंघते हुए फिरें दुर्जन पक्षमें दूसरेका विनाश होवे ऐसा छिद्र प्रकाशन करना और परछिद्र देखनेके लिए जाना ॥ ६२२ ॥ ता तं न होसि धवलो, कालोसि इमाइ किन्हलेसाए । ता तुम्ह दंसणेणवि, मालिन्नं होइअम्हाणं ६२३ | अर्थ-इस कारणसे तैं धवल नहीं होवे है किंतु इस कृष्ण लेश्यासे काला है तेरेको देखनेसे हम लोग मैले होते हैं ६२३ इय भणिय गया निय निय,ठाणेसु जावतिन्नि वरपुरिसा। तुरिओ कुडिलसहावो,पुणोवि तप्पासमासीणो अर्थ-ऐसा कहके जितने तीन प्रधान पुरुष उठके अपने २ ठिकाने गए उतने कुटिल वक्र स्वभाव जिसका ऐसा लाचौथा पुरष औरभी धवल सेठके पासमें आके बैठा ॥ ६२४ ॥ सो जंपइ धवलं पइ, न कहिज्जइ एसिमरिसंमंतं । जं एए अरिभूया, तुह अहियं चेव चिंतंति ॥२५॥ I अर्थ-वह पुरुष धवल सेठ से कहे कि अहो सेठ ऐसा विचार इनतीनोंको नहीं कहा जावे जिसकारणसे वे तुम्हारे शत्रु हैं तुम्हारा अहितही विचारते हैं ॥ ६२५ ॥ है इक्कोहं तुहमणबंच्छियत्थ,-संसाहणिक्कतल्लिच्छो।अच्छामि ता तुमं मा, नियचित्ते किंपि चिंतेसु ॥२६॥ ___ अर्थ-एक मैं तुम्हारा मनोवांछित अर्थ सम्पादन करनेकी इच्छा जिसकी ऐसा तुम्हारा अर्थ साधनमें तत्पर रहता हूं इसलिए तुम अपने मनमें कोई प्रकारकी चिंता मत करो ॥ २६ ॥ *************** For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किंतु विसेसेण तुम, सिरिपालेणं समं कुणसु मित्तिं । जं सो वीसत्थमणो, अम्हाणं सुहहओ होई ६२७/ | अर्थ-किंतु तुम विशेष करके श्रीपालके साथ मैत्री करो जिससे विश्वासयुक्तमनजिसका ऐसा श्रीपाल सुखसे मारा 3॥ जायगा ॥ ६२७॥ तो धवलो तुमणो, भणेइ तुम चेव मज्झवरमित्तो। किंतु मह बंछियाणं सिद्धी होही कहं कहसु ६२८ PI अर्थ-तदनंतर धवल संतोषमान होके कहे ते ही मेरा प्रधान मित्र है किंतु मेरे वांछितकी सिद्धि कैसे होगी सो तें कह ॥ ६२८ ॥ सो आह जुज्झणत्थं, दोराधारेण मंडिए मंचे। कह कहवितं चडाविय, केणवि कोऊहलमिसेण ६२९ है अर्थ-वह कुमित्र बोला डोरोंके आधारसे युद्धादि करनेके लिए मंचा बांधेगे कोई प्रकारसे कोई कौतुकके छलसे श्रीपालको उस मांचेपर चढ़ाके ।। ६२९ ॥ दछन्नं चिय छिन्ने दोरयंमि, सोनिच्छयं समुइंमि। पडिही तो तुह बंच्छिय,-सिद्धी होही निरखवायं ६३० ___ अर्थ-प्रच्छन्नही डोरा काटनेसे श्रीपाल निश्चयसे समुद्रमें पड़ेगा तदनंतर निरपवाद जैसे बने वैसा तुम्हारे वांछितकी सिद्धी होजायगी लोकोंमें अपवाद निंदाभी नहीं पाओगे ॥ ६३०॥ तो संतुट्ठो धवलो, कुमरसहाए करेइ केलीओ। बहुहासपेसलाओ, तहा जहा हसइ कुमरोवि ॥६३१/81 XALOGASAASAASAASAASAS ISOARALISASISAK For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥८१॥ अर्थ-तदनंतर धवल सेठ संतुष्टमान होके कुमरकी सभा में बहुत हास्य सहित रमणीक क्रीडा करे अर्थात् वैसा हास्य | भाषाटीकाकरे जिससे श्रीपाल कुमरभी थोड़ा हसे ॥ ६३१॥ सहितम्. अन्नदिणे सो उच्चे, मंचे धवलो सयंसमारूढो । सिरिपालं पइ जंपइ, पिच्छह पिच्छह किमेयंति ६३२ | अर्थ-अन्यदिनमें धवल सेठ आप ऊंचे मंचपर चढा हुआ श्रीपाल कुमरसे ऐसा कहे कि भो कुमार आप देखो ६ २ कैसा आज आश्चर्य है पाणी दौड़ता है समुद्रमें बहुत आश्चर्य दीखता है ॥ ६३२॥ दीसइ समुद्दमज्झे, अदिट्ठपुर्व मइत्ति जंपंतो। उत्तरइ सयं तत्तो, कहेइ कुमरस्स सविसेसं ॥ ६३३॥ ___ अर्थ-मैंने पहिले ऐसा कभी नहीं देखा है वाहनसे मुसाफिरी करते बहुत वर्ष होगए हैं परंतु आज समुद्र में अपूर्व आश्चर्य है ऐसा बोलता हुआ मांचे से उतरे और विशेष करके कुमरसे कहे ॥ ६३३ ॥ कुमर अपुवं कोऊहलंति, तुज्झवि पलोयणसरिच्छं। जंजीवियाउबहुअं, दिदं पवरं भणइ लोओ ६३४ ___ अर्थ क्या कहें सो कहते हैं हे कुमार अपूर्व कुतूहल आज है इसलिए तुम्हारेभी देखने योग्य है जिस कारणसे लोग जीनेका फल बहुत देखनाही प्रधान कहते हैं ॥ ६३४॥ तो सहसा कुमारोऽवि हु,चडिओ जा तत्थ उच्चए मंचे।ता मंचदोरच्छेओ, विहिओय कुमंतिणा तेण ६३५ । For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CORROSA SANAAAX ___ अर्थ-तदनंतर कुमरभी धवलकी प्रेरणासे अकस्मात् जितने उस ऊंचे मांचेपर चढ़ा उतने उस कुमित्रने मंचेका टू डोरा काट दिया ॥ ६३५ ॥ है तो सहसा मंचाओ, कुमरोवि पडतओ नवपयाई। झाएइ तक्खणं चिय, पडिओमगरस्स पुट्टीए ॥६३६॥ I अर्थ-उसके अनन्तर अकस्मात् शीघ्र मांचेसे पड़ता हुआ कुमरभी नवपदोंका ध्यानकरे उस ध्यानके प्रभावसे || तत् कालही मकर महामत्स विशेषकी पीठपर पड़ा ॥ ६३६ ॥ नवपयमाहप्पेणं, ओसहियवलेण मगरपुट्टि ठिओ, खणमित्तेणवि कुमरो, सुहेण कुंकुणतडे पत्तो ६३७ __ अर्थ-तदनंतर नवपदोंके महात्म्यसे और औषधिके प्रभावसे मगरमच्छकी पीठपर रहा हुआ कुमर क्षणमात्रमें सुखसे कुकणदेशके तटमें प्राप्त भया ॥ ६३७॥ तत्थ य वर्णमि कत्थवि, चंपयतरुवरतलंमि सो सुत्तो, जा जग्गइ तो पिच्छइ, सेवापर सुहड परिवेढं ६३८ ___ अर्थ-वहां कुंकण तटके किनारे प्रधान चंपक वृक्षके नीचे श्रीपाल सोता निद्रा आई वाद जितने जगे उतने सेदावा करनेमें तत्पर ऐसे सुभटोंसे अपना आत्मा वीटा हुआ देखे ॥ ६३८॥ है विणओणएहिं तेहिं, भडेहिं पंजलिउडेहिं, विन्नत्तं । देव? इह कुंकुणक्खे, देसे ठाणाभिहाणपुरे ६३९/है। APASAT38424344 For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ८२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - विनयसे नम्र इसी कारणसे हाथ जोड़के उन सुभटोंने वीनती करी सो कहते है हे देव इस कोंकण देशमें 6 भाषाटीकास्थाना नामका प्रधान नगर है उस नगरमें ॥ ६३९ ॥ सहितम्. वसुपालो नाम निवो, तेणं अम्हे इमं समाइट्ठा। जलहितडे जं अचलंतच्छायतरुतले समासीणं ॥ ६४०॥ अर्थ- वसुपाल नामका राजा है उन्होंने हमको ऐसी आज्ञा दी है सो कहते हैं समुद्रके तीरपर अचलछाया जिसकी ऐसा वृक्षके नींचे रहा हुआ पुरुष रत्नको ॥ ६४० ॥ पिच्छेह पुरिसरयणं, अज्झदिणे चेव, पच्छिमे जामे । तं तुरियंचिय तुरया, रूढं काऊण आणेह ६४१ अर्थ- आजही दिनके पीछेके प्रहरमें तुमदेखो उस पुरुषरत्नको शीघ्रही घोड़ेपर चढ़ाके लावो ॥ ६४१ ॥ ता अम्हेहिं तुमंचिय, दिट्ठोसि जहुत्ततरुतलासीणो । सामिय पुन्नवसेणं, ता तुरियं तुरयमारुहह ॥ ६४२ ॥ अर्थ - यह राजाका आदेश है इसलिए हे स्वामिन् हमने यथोक्त वृक्षके नींचे रहे हुए आपको पुण्यके वशसे देखे हैं इससे शीघ्र कृपा करके घोड़ेपर सवार होओ ॥ ६४२ ॥ | कुमरोवि हयारूढो, तेहिं सुहडेहिं चेव परियरिओ । खणमित्तेणवि पत्तो, ठाणयपुर परिसरवणंमि ॥६४३ ॥ अर्थ - कुमर भी घोड़े पर सवार होके उन पुरुषोंके साथ परवरा हुआ क्षण मात्रसे अर्थात् थोड़ी वक्तसे थाना नगरके पासके बनमें पहुंचा ॥ ६४३ ॥ For Private and Personal Use Only ॥ ८२ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्साभिमुहं रायावि, मंतिसामंतसंजुओ एइ । महया महेण कुमरं, पुरे पवेसेइ कयसोहे ॥ ६४४ ॥ अर्थ - राजा वसुपाल भी मंत्री सामंत सहित श्रीपालके सामने आया करीशोभाजिसकी ऐसे नगर में महोत्सवके साथ कुमरको प्रवेश करावे ॥ ६४४ ॥ काऊण य पडिवत्तिं, तस्स कुमारस्स असणवसणेहिं । पभणेइ सबहुमाणं, राया एयारिसं वयणं ६४५ अर्थ — और कुमरकी अशनपान वस्त्र वगैरहसे भक्ति करके राजा वसुपाल बहुमान सहित ऐसा वचन कहे ६४५ पुविं सहाइपत्तो, एगो नेमित्तिओ मए पुट्ठो । को मयणमंजरीए, महपुत्ती वरो होही ॥ ६४६ ॥ अर्थ - कैसे वचन कहे सो कहते है पहले मेरी सभामें एक नैमित्तिया आयाथा उसको मैंने पूछा मेरी मदनमंजरी पुत्रीका कौन भर्तार होगा ॥ ६४६ ॥ तेणुत्तं जो वइसाहसुद्ध, - दसमीइ जलहितीरवणे । अचलंतच्छायतरुतल, - ठिओ हवइ सो इमीइ वरो अर्थ – ऐसे पूछनेसे उस नैमित्तिएने कहा वैशाख सुदी दशमीके दिन समुद्र के किनारे जो वन है उसमें अचल छाया जिसकी ऐसे वृक्षके नीचे जो रहा होवे वह पुरुष इस कन्याका भर्तार होगा ॥ ६४७ ॥ अज्जं चिय तंसि तहेव, पाविओ वच्छ पुण्णजोएणं । ता मयणमंजरिमिमं मह धूयं ज्झत्ति परिणेसु ६४८ For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ८३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - आजही हे वत्स पुण्य योग से नेमित्तिएने जो प्रकार कहा उसी तरह तुम मिले हो इस कारण से वह मदनमंजरी मेरी पुत्रीका शीघ्र पाणिग्रहण करो ॥ ६४८ ॥ एवं भणिऊण नरेसरेण, अइवित्थरेण वीवाहं । काराविऊण दिन्नं हयगयमणिकंचणाईयं ॥ ६४९ ॥ अर्थ - इस प्रकारसे कहके राजाने अत्यन्त विस्तारसे पाणिग्रहण कराके घोड़ा, हाथी, रत्न स्वर्णादिक दिया ॥ ६४९ ॥ तत्तो सिरिसिरिपालो, नरनाह समप्पियंमि, आवासे । भुंजइ सुहाई जं पुन्नमेव मूलं हि सुक्खाणं ६५० अर्थ — तदनंतर श्रीमान् श्रीपाल कुमर राजाके दिए हुए आवासमें सुख भोगवै जिस कारणसे सुखोंका मूलकारण पुन्य है पुन्यवान जहां जावे वहां सुख पावै ॥ ६५० ॥ रनो दिंतस्सवि देसवासगामाइअहिवत्तंपि । कुमरो न लेइ इकं, थइयाइत्तं नु मग्गेइ ॥ ६५१ ॥ अर्थ- देश नगर ग्रामादिकका स्वामिपना देते हुए भी कुमर नहीं लेवे किंतु एक ताम्बूल देनेका अधिकार मांगे ६५१ राया तं हीणंपि हु, कम्मं दाऊण तस्स तुट्टिकए । अचंतमाणणिजाण, तेण दावेइ तंबोलं ॥ ६५२ ॥ अर्थ - राजा वसुपाल कुमरको संतोषके लिये ताम्बूल देनेका हीन काम है तथापि वह अधिकार देके अत्यन्त माननीय पुरुषोंको कुमरके हाथसे ताम्बूल दिलावे ॥ ६५२ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ८३ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir **CHOSASSASSAGGIO इओ य जइया समुदमज्झे,पडिओ कुमरोतया धवल-सिट्ठी,तेणकुमित्तेण समं,संतुट्ठोहिययमझमि ५३ PI अर्थ-इधरसे जब कुमर समुद्र में गिरा तव धवल सेठ उस कुमित्रके साथ मनमें बहुत संतोष पाया ॥ ६५३॥ | लोयाण पच्चयत्थं, धवलो पभणेइ अहह किं जायं, जं अम्हाणं पहु सो, कुमरो पडिओ समुदंमि ६५४३ 8. अर्थ-लोगोंको प्रतीति उत्पन्न करनेके लिए धवल प्रकर्षपने करके कहे अहह इति खेदे यह क्या भया बहुत है| बुरा कार्य भया जिसकारणसे जो हमारा स्वामी कुमर समुद्रमें गिरा ॥ ६५४ ॥ हिययं पिटेइ सिरं च, कुटेइ पुक्करेइ मुक्कसरं । धवलो मायावहुलो, हा कत्थगओसि सामि तुम ६५५ | अर्थ-अब बहुत है माया जिसके ऐसा धवल सेठ छाती कूटे और मस्तक कूटे और ऊंचे स्वरसे जैसा होय वैसा पुकार करे कैसे सो केहते हैं हे स्वामिन् आप कहा गए हो इसप्रकारसे पुकार करे ॥ ६५५ ॥ होतं सोऊणं मयणाओ, ताओ हाहारवं कुणंतीओ। पडियाओ मुच्छियाओ, सहसा वजाहयाउव्व ॥६५६॥ है। अर्थ-वह धवलका किया हुआ पुकार सुनके मदनसेना मदनमंजूषा दोनों स्त्रियों हाहारव करती वजाहतके जैसी मूछित होके गिरी ॥ ६५६ ॥ जलणिहिसीयलपवणेण, लद्धसंचेयणाउ ताउ पुणो। दुक्खभरपूरियाओ, विमुक्कपुक्काउ रोयंति ६५७।। Attractor For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- चरितम् ॥८४॥ अर्थ-समुद्रके शीतल वायुसे पाई चेतना जिन्होंने ऐसीदोगें स्त्रियों दुःखके भरनामपूरसे भरा है हृदय जिन्होंका भाषाटीकाइसी कारणसे ऊंचेस्वरसे रोती भई कैसी रोती भई सो कहते हैं ॥ ६५७ ॥ सहितम्हा प्राणनाह गुणगणसणाह, हा तिजयसारउवयार।हा चंदवयण हा कमलनयण, हा रूवजियमयण६५८ | अर्थ-हा इति खेदे हे प्राणनाथ हे गुणगण सनाथ गुणोंका समूह करके सहित हा तीनजगतमें सार उपकार |जिसका ऐसा हे चन्द्रसम वदन हे कमल सदृश नेत्रवाला हा इति खेदे रूपसे जीता है कामको जिसने उसका सम्बो धन हे रूपजित मदन ॥ ६५८॥ ६ हा हा हीणाण अणाहयाण, दीणाण सरणरहियाण।सामियतए विमुक्काण, सरणमम्हाण को होही ६५९/६ है अर्थ हाहा इति खेदे हे स्वामिन् आपने हमको छोड़ दी इसी कारणसे शरण रहित हमारे किसका सरणा होगा कैसी हैं हम दीन हैं हीन हैं अनाथ हैं ॥ ६५९॥ तो धवलो सुयणो इव, जंपइ सुयणु करेह मा खेयं । एसोहं निच्चंपि हु, तुम्हं दुक्खं हरिस्सामि ६६०/3 | अर्थ-इसप्रकारसे उन्होंका रोना सुनके तदनंतर धवल सेठ स्वजनके जैसा उन्होंके पासमें आके इस प्रकारसे ल बोला हे सुतनु शोभन अंगवाली स्त्रियो तुम मनमें खेद मत करो मैं तुम्हारा दुःख दूर करूंगा मैं तुम्हारा आज्ञा है ॥ ८४ ॥ कारी हूं ॥ ६६०॥ SARAN ACANCESS For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECASSAMAGRAM तो सोऊणं ताओ, सविसेसं दुक्खियाउ चिंतंति । नूणमणेणं पावेण, चेव कयमेरिसमकजं ॥ ६६१॥ __ अर्थ-तदनंतर धवलसेठका वचन सुनके वे दोनों स्त्रियो विशेष दुःखी होके विचारकरे निश्चय इसी पापी क्रूरने ऐसा अकार्य किया यह जाना जाता है ॥ ६६१॥ इत्यंतरे उच्छलियं जलेहिं वियंभियं उब्भडमारुएहिं । समुन्नयं घोरघणावलीहिं, कडक्वियं रुद्दतडिल्लयाहिं | अर्थ-इस अवसरमें समुद्रका पानी उछला तथा दुःसह वायु वजने लगा और भयानक मेघकी घटा उत्पन्न भई चौतर्फ फैल गई और विजलियों चमकनेलगी और विजलियों कड़की ॥ ६६२॥ घोरंधयारेहिं विवाड्वियंच रउद्दसद्देहिं समुट्रियं च। अट्टहासेहिं पयटियं च, सयं च उप्पायसएहिं जायं ६३ 81 अर्थ-और घोर अंधकार विशेष करके बढ़ा और भयानक ध्वनियां होने लगीं अट्टहास होने लगा सैकडों उत्पात आपहीसे हुआ ॥ ६६३ ॥ तत्तो हल्लोहलिएसु तेसु पोएसु पोयलोएहिं, खलभलियं । जलजलियं, कलललियं मुच्छियं च रवणं ६६४ अर्थ-तदनंतर जहाजोका लोक व्याकुल हुआ और खलवले और झल झलितभया और कल कल शब्द युक्त भए और क्षण मात्र मूर्छित होगए ॥ ६६४॥ डम २ डमंतडमरुय, सद्दो अचंतरुहरूवधरो। पढमं च खित्तवालो, पयडीहओ सकरवालो ॥ ६६५ ॥ CRECRUGARCANCARELCALCAR श्रीपा.च.१५ For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीकासहितम्. अर्थ-वादमें क्या भया सो कहते हैं पहले क्षेत्रपाल प्रगट भया कैसा है क्षेत्रपाल डम २ शब्द होवे जिसमें ऐसा डमरु बजाता हुआ और अत्यन्त रौद्र रूपका धारने वाला और खग है हाथमें जिसके ऐसा तलवार सहित ॥ ६६५॥ तो माणिपुन्नभद्दा, कविलो तह पिंगलोइमे चउरो। गुरुमुग्गरवग्गकरा, पयडीहया सुरा वीरा ॥ ६६६ ॥ | अर्थ-तदनंतर क्षेत्रपालके पीछे माणिभद्र १ पूर्णभद्र २ कपिल ३ पिंगल ४ यह चार वीरदेव प्रगट भए कैसे हैं ये हावीरदेव बड़े मुद्रशस्त्र विशेष हैं हाथमें जिन्होंके ऐसें ॥ ६६६ ॥ कुमुयंजणवामणपुप्फदंत,-नामेहिं दंडहत्थेहिं । पयडीयं च तओ, चउहिंवि पडिहारदेवहिं॥ ६६७॥ ___ अर्थ-और तदनंतर कुमुद १ अंजन २ वामन ३ पुष्पदंत ४ ये चार प्रतिहार देव प्रगट भए कैसे हैं ये देव दंड है हाथमें जिन्होंके ऐसे ॥ ६६७ ॥ |चक्केसरी य देवी, जलंतचक्कदुयं भमाडंती। बहदेवदेविसहिया, पयडीहया भणइ एवं ॥ ६६८॥ __ अर्थ-और चक्रेश्वरी देवी प्रगट होके इस प्रकारसे कहे कैसी हैं चक्रेश्वरी देवी देदीप्यमान दोनों हाथोमें चक्रघुमावती और बहुत देव देवियां करके सहित ॥ ६६८॥ गिन्हह एयं, पढमं दुब्बुद्धिदायगं पुरिसं। जं सवाणत्थाणं, मूलं एसुच्चिय न अन्नो ॥ CLASCCC ॥८५॥ रसि For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-चक्रेश्वरी देवी क्या कहे सो कहते है रे रे देवो तुम पहले यह दुर्बुद्धि देनेवाले पुरुषको पकड़ो जिस कारणसे दसर्व अनर्थोंका मूल येही पुरुष है दूसरा नहीं ॥ ६६९॥ तो झति खित्तवालेण, सो नरो बंधिऊण पाएहिं, । अवलंविओ य कूवय-खंभंमि अहोमुहं काउं ६७० ___ अर्थ-चक्रेश्वरीके वचनके अनन्तर क्षेत्रपालने शीघ्र उस दुर्बुद्धि देनेवाले मनुष्यको पकड़के पग बांधके नीचा मुख करके कूपस्थंभमें लगादिया अर्थात् नीचा मुख ऊपर पग करके बांध दिया ॥ ६७०॥ दाऊण मुहे असुइं, खग्गेणं च्छिन्निऊण अंगाई। सो दिसिपालाणं वलिब्ब, दिन्नओ संतिकरणत्थं ६७१ PI अर्थ-उसके मुखमें अशुचि विष्ठा देके खड्गसे उसके अंग बाहू वगैरह काटके दिक्पालोंको वलीके जैसा शांति कर-13 |ने के लिए शरीरका टुकड़ा २ करके दशों दिशामें फेंक दिया ॥ ६७१॥ तत्तो सो भयभीओ, धवलोमयणाण ताण पिद्विठिओपभणेइ ममं रक्खह, रक्खह सरणागयं निययं ६७२ | अर्थ-तदनंतर डराहुआ धवलसेठ मदनसेना मदनमंजूषाके पीछे जाके और इस प्रकारसे बोला कि मैं तुम्हारे हासरणे आयाहूं मेरी रक्षा करो रक्षा करो ॥ ६७२ ॥ ६ता चक्केसरिदेवी पभणइ रे दुट्ट घिट्ट पाविट्ठ । एयाण सरणगमणेण, चेव मुक्कोसि जीवंतो ॥ ६७३॥ दी अर्थ-तदनंतर चक्रेश्वरी देवी कहे अरे दुष्ट अरे धेठा इन महा सतियोंके सरणे जानेसे तैं जीता हुआ रहा है ॥६७३॥ है| CACALCASCALCALCALCSCA For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ८६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विणओणयाउ ताओ, मयणाओ दोवि विम्हियमणाओ । भणियाओ देवीए, सपसायं एरिसं वयणं ६७४ अर्थ - विनयसे नम्र और आश्चर्य भया मनमें जिन्होंके ऐसी दोनों मदनाओंको चक्रेश्वरी देवी प्रसन्नता सहित ऐसा वचन बोली ।। ६७४ ॥ 1 वच्छा वह तुम्हतणउ, गरुईरिद्धिसमेउ । मासभितरिनिच्छइण, मिलिसइ धरहु म खेउ ॥ ६७५ ॥ अर्थ- हे पुत्रियो तुम्हारा वल्लभ भर्तार बड़ी ऋद्धिसहित एक महीने में मिलेगा तुम्हारे खेद करना नहीं ॥ ६७५ ॥ | एम भणेविणु चक्कहरि, परिमलगुणेहिं विसाल । मयणह कंठिहिं पक्खिवइ, सुरतरुकुसुमह माल ॥६७६॥ अर्थ - इस प्रकार से कहके चक्रेश्वरी देवी मदनसेना और मदन मंजूषा दोनों स्त्रियोंके कंठमें सुगंधगुण करके विशाल कल्पवृक्षके पुष्पोंकी माला पहनाई ॥ ६७६ ॥ तुम्हह दुहु न देखिसइ, मालह तणई पमाणि । एम भणेविणु चक्कहरि, देवि गई नियट्ठाणि ॥ ६७७ ॥ अर्थ - मालाके प्रभावसे तुमको दुष्ट पुरुष नहीं देखसकेगा ऐसा कहके चक्रको धारनेवाली चक्रेश्वरी देवी अपने स्थान गई यहां तीन दोहा छंद है ॥ ६७७ ॥ पभणंति तओ तिन्निवि, ते पुरिसा सरलबुद्धिणो धवलं । दिट्टं कुबुद्धिदायग, - फलं तए एरिसविवागं ६७८ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम् - ॥ ८६ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनंतर वे तीनों सरल बुद्धिवाले पुरुष धवलसे कहे हे धवल कुबुद्धि देनेवालेको ऐसा फल भया सो तुमने देखाही है ।। ६७८ ॥ एयाणं च सईणं, सरणपभावेण जहवि जीवंतो । छुट्टोसि तहवि पावं, पुणो करंतो लहसिऽणत्थं ६७९ अर्थ — और इन सतियोंकें शरणेके प्रभावसे यद्यपि जो तैं जीता बचा है तथापि और पापकर्ता हुआ अनर्थ पावेगा ॥ ६७९ ॥ जो पररमणीरमणि, - कलालसो होइ रागगहगहिओ । जइ सो बुच्चइ पुरिसो, ता के खरकुक्कुरा अन्ने ६८० अर्थ - जो पुरुष पर स्त्रियोंके साथ रमनेमें एक लालसा तृष्णाजिसकी ऐसा कामरागग्रहसे ग्रहीत नाम ग्रहण किया जिसने ऐसा मनुष्य रूपसे गर्दभ कुत्तेके सदृश कहा जावे ॥ ६८० ॥ द्धि द्धी ताण नराणं, जे पररमणीण रूवमित्तेण । खुहिया हणंति सबं, कुलजससग्गापवग्गसुहं ॥ ६८१ ॥ अर्थ- उन मनुष्योंको धिक्कार होवो धिक्कार होवो जे पर स्त्रियोंके रूपमात्रसे चल चित्त भया सर्वकुल वंश स्वर्ग अपवर्ग के सुखका विनाश करे हैं कुल उंचा गोत्र यश कीर्ति स्वर्ग सुख प्रसिद्ध है अपवर्ग सुख मोक्ष सुख ये न होवे ॥६८१ ॥ जलहिंमि वहंताणं, पोयाणं जाव कइवयदिणाई । जायाइं तओ पुणरवि, धवलो चिंतेइ हिययंमि ॥६८२॥ अर्थ - समुद्र में जहाज चलता थकां कितनेक दिन भए तब और भी धवलसेठ मनमें विचारे ॥ ६८२ ॥ अत्थि अहो मह पुन्नो, -दयंत्ति जं सो उवद्दवो टलिओ । फलिया एसा य सिरी, सव्वावि सुहेण मज्झेव ६८३ | For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् 11 2011 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- क्या विचारे सो कहते हैं अहो इति आश्चर्ये मेरे पुण्यका उदय है कि जिस कारणसे वह जिसका स्वरूप कहा वह उपद्रव टल गया और यह सर्वलक्ष्मी सुखसे मेरे सफल भई है अब मेरे विना इस लक्ष्मीका कौन स्वामी है ॥ ६८३ ॥ जइ रमणीओ, ऐयाओ कहवि मन्नंति महकलत्तत्तं । ताऽहं होमि कयत्थो, इंदाओ वा समब्भहिओ ६८४ अर्थ- जो ये दोनों स्त्रियों कोई प्रकारसे मेरी स्त्रियां हो जावे तो मैं कृतार्थ होउं अथवा इन्द्रसे भी अधिक हो जाऊं ॥ ६८४ ॥ इय चिंतिऊण तेणं, जा दुईमुहेण पत्थिया ताओ । ता ताहिं कुवियाहिं, दुई निभच्छिया वाढं ॥ ६८५॥ अर्थ - ऐसा विचार के धवल सेठने जितने दूतीके मुखसे उन स्त्रियोंकी प्रार्थना कराई उतने क्रोधातुर हुई दोनों मदना दूतीकी अत्यर्थ निर्भर्त्सना करी अर्थात् तर्जना करी ॥ ६८५ ॥ तहविहु सो काम पिसायाहिठ्ठिओ, नट्ठ निम्मलविविओ । तेणज्झवसाएणं, खर्णपि पावेइ नो सुक्खं ६८६ अर्थ - तथापि निश्चय कामरूप पिशाच दुष्टव्यन्तरसे आश्रित इसी कारणसे नष्ट भया है निर्मल विवेक जिसका ऐसा धवलसेठ उस अध्यवसायसे नहीं निवृत्त होवे और क्षणमात्रभी सुख नहीं पावे ॥ ६८६ ॥ अन्नदिने सो नारीवेसं, काऊण कामगहगहिलो । मयणाणं आवासं, सयं पविट्टो सुपाविट्ठो ॥ ६८७ ॥ For Private and Personal Use Only भापाटीकासहितम्. ॥ ८७ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __ अर्थ-अन्यदिनमें वह धवलसेठ स्त्रीका वेष करके कामग्रहसे गहला भया आपही मदना श्रीपालकी स्त्रियोंके आवासमें प्रवेश किया कैसा है धवल अतिशय पापिष्ठ है ॥ ६८७ ॥ जाव पलोएइ तहिं, ताव न पिच्छेइ ताओमयणाओ। पुरिओ ठियाउमालाइ,-सएण अदिस्सरूवाओ॥ है अर्थ-जितने उस आवासमें देखे उतने आगे रहीं भई दोनों स्त्रियोंको नहीं देखे कैसी हैं दोनों स्त्रियों मालाके प्रभावसे अदृश्य भया है रूपजिन्होंका ॥ ६८८॥ सो रागंधो अंधुत्व, जाव भमडेइ तत्थ पवडंतो। तो दासीहिं सुणउब्ब, कट्टिओ कुहि ऊण वहिं ॥६८९॥ ता अर्थ-वह धवल कामरागसे आंघे पुरुषके जैसा इधर उधर गिरता हुआ जितने मदनाओंके आसपासमें फिरता है उतने मदानाओंकी दासिओंने कुत्तेके जैसा कूटके बाहिर निकाला ॥ ६८९॥ 18| इत्तो ते वोहित्था, मग्गेणऽन्नेण निजमाणावि । सयमेव कुंकुणतडे, पत्ता मासंमि किंचूणे ॥ ६९० ॥ | अर्थ-इधरसे वे जहाज और मार्गसे लेजाता थकां आपहीसै कुछकम एक महीना होनेसे कुंकण तटमें प्राप्त हुए ॥६९०॥ पढमं उत्तरिऊणं, धवलो जा जाइ पाहुडविहित्थो। रायकुलं ता पासइ, नरवरपासंमि सिरिपालं ॥६९१॥| अर्थ-अब धवल पहले जहाजसे उतरके भेटना लेके राजकुलमें गया राजाको जाके भेटना देवे उतने राजाके 18|पासमें बैठाहुआ श्रीपाल कुमरको देखे ॥ ६९१॥ SANGACASSASARDARS 954545ASAUGARCAM For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥८८॥ रायावि सत्थवाहस्स, तस्स दावेइ गुरुयबहमाणं । तंबोलं तेणं चिय, सिरिपालेणं विसेसेणं ॥६९२॥ | भाषाटीका | अर्थ-राजाभी उस सार्थवाहको श्रीपालके हाथसे विशेष सत्कार करनेके लिए ताम्बूल दिलावे ॥ ६९२ ॥ सहितम्. सिरिपालकुमारेणं, नाओ सिट्ठी स दिट्ठमित्तोवि । सिट्ठी पुण सिरिपालं, दट्टणं चिंतए एवं ॥६९३॥ PI अर्थ-श्रीपाल कुमरने धवल सेठको देखनेसेही पहिचान लिया और सेठ श्रीपालको देखके इस प्रकारसे ६ विचारे ॥ ६९३ ॥ धि द्धी किं सो एसो, सिरिपालो धवलसिट्टिणो कालो। किंवा तेण सरिच्छो अन्नोपुरिसो इमो कोऽवि ६९४ Pा अर्थ क्या विचारे सो कहते हैं धिक्कार होवो धिक्कार होवो वह यह श्रीपाल है कैसा है श्रीपाल धवलसेठके काल | सदृश है अथवा श्रीपालके तुल्य यह कोई दूसरा पुरुष है ॥ ६९४ ॥ ठाऊण खणं नरवर,-सहाइ जा उट्ठिओ धवलसिट्ठी। पडिहाराओ पुच्छइ, थइयाइत्तो इमो को उ६९५४ ___ अर्थ-ऐसा विचारके धवलसेठ क्षणमात्र राजाकी सभामें बैठके जितने उठा उतने बाहर आके द्वारपालसे पूछे यह | ताम्बूल देनेका अधिकारी कौन पुरुष है ॥ ६९५ ॥ ६ तेणं कहिओ सबोवि तुस्स कुमरस्स चरियवुत्तंत्तो । तं सोऊणं सिट्ठी, जाओ वजाहउ दुही ॥६९६॥8 18॥८८॥ है। अर्थ-उस प्रतिहारने कुमरका सर्ववृतान्त कहा उस वृतान्तको सुनकर सेठ वज्राहतके जैसा दुःखी भया ॥ ६९६ ॥ SCORCARECARSACROCOMCAEX For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CAUSESASURUCCCCC चिंतेइ हिययमझे, ही ही विहिविलसिएण विसमेण, जं जं करोमि कजं, तं तं मे होइ विवरीयं ६९७।। 8| अर्थ-तब हृदयमें सेठ बिचारे ही ही इति खेदे विषम विधिके विलाससे जो जो कार्य मैं करूं हूं वह सब विपरीतही181 होता है ॥ ६९७ ॥ Pएसो सो सिरिपालो, जाओ जामाउओनरिंदस्स । गुरुओ ममावराहो, किं होही तं न याणामि ६९८] अर्थ-यह श्रीपाल राजाका जमाई हुआ है मेरा अपराधतो बड़ा है अब क्या होगा सो नहीं जानू ॥ ६९८॥ | तहवि नियकजविसए, धीरेण समुज्झमो न मुत्तब्बो । जं सम्ममुजमंताण, पाणिणं संकए हु विही ६९९ ___ अर्थ-तथापि बुद्धिमानको अपने कार्यमें अच्छी तरहसे उद्यम करना अर्थात् उद्यम छोड़ना नहीं जिस कारणसे सम्यक् उद्यमवान् प्राणियोंसे निश्चय विधिः देवभी शंकता है ॥ ६९९ ॥ एवं सो चिंतंतो, जा पत्तो निययंमि उत्तारे । ता तत्थ गीयनिउणं, डुंबकुटुंबं च संपत्तं ॥ ७००॥ I अर्थ-बह धवल सेठ इस प्रकारसे विचारता हुआ जितने अपने उतारे पहुंचा उतने वहां गीत कलामें निपुण डुं| दामोंका कुटुंब आया ॥७००॥ सो ताण गायणाणं, जाव न चिंताउलो दियइ दाणं । ता डुवेणं पुट्ठो, रुट्ठो किं देव अम्हुवरि ॥७०१॥ SAUGACASER-MAHARAA% For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmanair श्रीपाल- । अर्थ-वह धवल चिंतासे आकुल हुआ जितने उन गायनोंको दान नहीं देवे उतने डुंबने सेठसे कहा हेदेव हे महा- भाषाटीकाचरितम् शराज क्या हमारेपर नाराज भयाहो इससे दान नहीं देवो हो ॥७०१॥ | सहितम्. ॥८९॥3|एगते डुंबं पइ सो जंपइ, देमि तुजूझ भूरिधणं । जइ इवं मह कजं, करेसि केणवि उवाएणं ॥७०२॥ | अर्थ-यह डुंमका वचन सुनके सेठ एकान्तमें डुमसे कहे तेरेको बहुत धन देउं जो कोई उपाय करके एक मेरा है कार्य करे ॥ ७०२॥ डुंबोवि भणइ पढम, कहेह मह केरिसं तयं कजं । जेण मए जाणिज्जइ, एयं सज्झं असझं वा ७०३ 81 अर्थ-यह धवलका वचन सुनके डुंब बोला पहले मेरेको वह कैसा कार्य है सो कहो जिससे जानने में आवे वह टू कार्य साध्य है अथवा असाध्य है ॥ ७०३ ॥ धवलो भणेइ जो,नरवरस्स जामाउओइमो अत्थि। जइ तं मारेसि तुमं, तो तुह मुहमग्गियं देमि ७०४ 2. अर्थ-तब धवल सेठ कहे जो यह राजाका जमाई है जो तैं राजाके जमाईको मार देवे अर्थात् प्राणरहित करे तो 18| मैं जो मांगेसो देउं ॥ ७०४॥ हाडंबो भणेइ तं मारणंमि, इक्कुत्थि एरिसोवाओ। जं अन्नायकुलं तं, पयडिस्सं एस डुबुत्ति ॥ ७०५ ॥ SASSASSASSIRRIS ACANCERSALCHAK For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-डुंब कहे उस राजाके जमाईको मारनेमें एक ऐसा उपाय है जिस कारणसे राजाके जमाईका कुल याने वंश | किसीने जाना नहीं है मैं उस राजाके जमाईको डोंम करके प्रगट करूंगा ॥ ७०५ ॥ तत्तो राया जामाउयंपि, तं जमगिहमि पैसेही । एवं च कए jण, होही तुह कज्ज सिद्धीवि ॥ ७०६ ॥ | अर्थ-तदनंतर राजा उस जमाईकोभी यमराजाके घर पहुंचा देगा ऐसे करनेसे निश्चय तुम्हारे कार्यकीभी सिद्धी होगी ॥७०६॥ मंतण तेण तुट्ठो, धवलो अप्पेइ कोडिमुल्लंपि । नियकरमुद्दारयणं, वेगेणं तस्स पाणस्स ॥ ६०७ ॥ | अर्थ-उस विचारसे संतुष्टमान भया धवल कोड़ कीमतकी अपने हाथकी मूदड़ी डोंमको शीघ्र देवे ॥७०७॥ | तुट्टो सोवि हुडंबो सकुडुंबो जाइ निवगवक्खस्स। हिटिममहीइ चिट्ठइ, गायंतो गीयमइमहुरं ॥ ७०८ ॥ | अर्थ-वह डोंमभी मूदड़ी पाके बहुत खुशी भया कुटुंब सहित राजभवनके द्वार जावे अत्यन्त मधुर गीत गाता | 81हुआ राजाके गोखड़ेकी नीचेकी भूमिमें रहे ॥ ७०८ ॥ ताणं कोमलकंठुब्भवेण, गीएण हरियमणकरणो। राया भणेइ भो भो, जं मग्गह देमि तं तुज्झ ॥७०९॥ ___ अर्थ-उन डोंमोंका कोमल कंठसे उत्पन्न भए गीतसे हरण भया मन और श्रोत्रइन्द्रिय जिसका ऐसा राजा वसुपाल बोले अहो गायनो जो तुम मांगो सो मैं तुमको देउं ॥ ७०९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ९० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाणो भणेइ सामिय, सवत्थाहं लहेमि बहुदाणं । किं तु न लहेमि माणं, ता तं मह देसु जइ तुट्ठो ७१० अर्थ-तब डोंम कहे हे स्वामिन् मैं सर्वत्र बहुत दान पाताहं किंतु मान सत्कार कहांभी नहीं मिले है इस लिए हे महाराज जो आप संतुष्टमान भए हो तो मेरेको मान देवो ॥ ७१० ॥ राया भणेइ माणं, जस्साहं देमि तस्स तंबोलं । दावेमिमिणा जामाउएण, पाणप्पिएणावि ॥७११॥ अर्थ - राजा कहे है जिसको मैं मान देउ हूं उसको यह प्राणोंसे भी प्यारा जमाईके हाथसे तांबूल दिलाता हूं ॥७११॥ डुंबो सकुटंबोऽवि हु, पभणइ सामिय ! महापसाउत्ति । तो रायाएसेणं, कुमरो जा देई तंबोलं ७१२ अर्थ-तब कुटुंबसहित डोंम राजाको नमस्कार करके बोला हे महाराज हमारेपर महाप्रसाद याने वेसी प्रसन्नता करो तब राजाकी आज्ञासे कुमर श्रीपाल जितने तांबूल देवे ॥ ७१२ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ताव सहसति एगा, बुड्डी डुंबी कुमारकंठंमि । लगेइ धाविऊण, पुत्तय पुत्तय कओ तंसि ॥ ७१३ ॥ अर्थ - उतने अकस्मात् तत्काल एक बूढी डोंमनी दौड़के कुमरके कंठमें लगी हे पुत्र हे पुत्र तैं यहां कहां से है। कहां से आया है ऐसा वचन बोलती ।। ७१३ ॥ ॥ ९० ॥ | कंठ विलग्गा पभणइ, हा वच्छय कित्तियाउ कालाओ । मिलिओऽसि तुमं अम्हं, कत्थ य भमिओसि देसंमि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CARECRUST अर्थ-और कंठमें लगी भई कहनेलगी हा इतिखेदे हे वत्स कितने कालसे ते हमको मिला है और किस २ देशमें | फिरा है ॥ ७१४ ॥ सणिओसि हंसदीवे, पत्तो कुसलेण पवहणारूढो। तत्तो इह संपत्तो, कहं कहं पुत्तय कहेसु ॥७१५॥ 2 अर्थ-हे पुत्र तैं जहाजपर बैठके कुशलसे हंसद्वीप पहुंचा ऐसा हमने सुनाथा वहांसे किस प्रकारसे यहां आया सो हमसे कह ॥ ७१५॥ टूएगा भणेइ भत्तिजओसि, अन्ना भणेइ भायासि । अवरा कहेइ महदेवरोसि, पुन्नेण मिलिओसि ७१६ है। अर्थ-एक डोमनी कहे मेरा भतीजा है भाईका पुत्र है और डोमनी कहे मेरा भाई है और कहे मेरा देवर है| पुण्यसे मिला है ॥ ७१६ ॥ डुंवो भणेइ सामिय, मह लहुभाया इमो गओ आसि।संपइ तुम्ह समीवे ठिओवि नो लक्खिओ सम्मं॥ __ अर्थ-अब डोम राजाके सामने देखके बोला हे स्वामिन् यह मेरा छोटाभाई कहांभी चला गयाथा इस वक्त में आपके पासमें बैठा हुआ अच्छी तरहसे पहिचाना नहीं ॥ ७१७ ॥ एएण कारणेणं, माणमिसेणं अणाविओ पासे । उवलक्खिओ य सम्म बहुलक्खणलक्खिओ एसो ७१८|| CAESAACAREERACK श्रीपाच. For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ९१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - इस कारण करके मानके मिससे पासमें बुलाया और अच्छी तरहसे पहिचाना हे स्वामिन् यह मेरा भाई बहुत गुणवान् हैं प्रशस्त लक्षणों करके युक्त है हे महाराज हम तो डोम हैं हमको कोई मान देवे तो हम क्या बडे हो जावें डोम तो डोमही रहे परंतु इसको पहिचाननेके लिए यह प्रपंच किया सो क्षमा करें ॥ ७१८ ॥ राया चिंतेइ मणे, ही ही विद्यालियं कुलं मज्झ । एएणं पावेणं, तो एसो झत्ति हंतो ॥ ७१९ ॥ अर्थ - यह डोमका बचन सुनके राजा मनमें विचारे हीही इति खेदे इस पापी दुष्टने मेरे कुलको बिटाल दिया दोष सहित किया इस कारण से यह पापीकों शीघ्र मारना योग्य है । ७१९ ॥ | नेमित्तिओ य बंधाविऊण, आणाविओ नरवरेणं । भणिओ रे दुट्ठ इमो, मायंगो कीस नो कहिओ ७२० अर्थ - और नेमित्तिएको राजाने बंधवाके बुलवाया और कहा अरे दुष्ट यह मातंग डोम कैसे नहीं कहा ॥ ७२० ॥ | नेमित्तिओवि पभणइ, नरवर एसो न होइ मायंगो। किंतु महामायंगा, - हिवई होही न संदेहो ७२१ अर्थ - नेमित्तियाभी बोला हे महाराज यह मातंग चांडाल नहीं है किंतु महामातंग नाम महागजों का अधिपति स्वामी होगा इस अर्थ में संदेह नही है | ७२१ ॥ गाढयरं रुट्टेणं, रन्ना नेमित्तिओ कुमारो य । हणणत्थं आइट्ठा, निययाणं जाव सुहडाणं ॥ ७२२ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीका सहितम्. ॥ ९१ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECERICAUSHREE अर्थ-तदनंतर अत्यन्त क्रोधातुर हुए राजाने नेमित्तिया और कुमरको मारने के लिए अपने सुभटोंको आज्ञा दिया ॥७२२॥ तामयणमंजरीवि हु, सुणिऊण समागया तहिं ज्झत्ति । पभणेइ ताय किमियं, अवियारियकजकरणंति॥ है। अर्थ-उतने मदनमंजरी राजकन्याभी यह वार्ता सुनके शीघ्र राजाके पासमें आई आके कहनेलगी पिताजी यह बिना विचारा कार्य क्या करते हैं ॥ ७२३ ॥ आयारेणवि नज्झइ, कुलंति लोएवि गिज्जए ताय । लोओत्तरआयारो, किं एसो होइ मायंगो ॥७२४॥ __ अर्थ-और क्या कहे सो कहते हैं हे तात आचारसें भी कुलजाना जावे है ऐसा लोकमें कहते हैं आचारः कुलमा-18 ख्याति इस बचनसे सबलोगोके उपरिवर्ति प्रधान आचार वर्ताव जिसका ऐसा यह कुमर क्या चंडाल होवे अपितु कदापि नहीं होवे ॥ ७२४ ॥ तो पुछइ नरनाहो, कुमरं भो नियकुलं पयासेसु । ईसि हसिऊण कुमरो, भणइ अहो तुज्झ च्छेयत्तं ७२५/४ ६. अर्थ-तदनंतर राजा कुमरको पूछे अहो कुमार अपना कुल कहो तब कुमर थोड़ा हंसके कहे अहो आप बहुत|8 |विचक्षण हैं जिस कारणसे पहले अपनी पुत्री देके पीछे कुल पूछते हैं ॥ ७२५ ॥ |अहवा नरवर! तुमए, एयं अक्खाणयं कयं सच्चं । पाऊण पाणियंकिर, पच्छा पुच्छिज्जए गेहं ॥७२६॥ ROCHASSOSASSARI For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥९२॥ SAUGACASSAULOCALCUR अर्थ-अथवा हे राजन् आपने यह आख्यानक लौकिक कथन सत्य किया कि पहले पानीपीके पीछे घर पूछना अर्थात् भाषाटीकाकोई ब्राह्मण वगैरह मारवाड देशमें चला जाताथा बहुत तृषालगी बादमें किसीसे कहा भाई पानी पिलाओ उसने पानी|8| सहितम्, पिलाया बाद ख्याल हुआ और पूछा घर किसका है उसने कहा ढेड़का है इत्यादि ॥ ७२६ ॥ सिन्नं करेह सज्जं जं मम हत्था कुलं पयासंति । जीहाए जं कुलवन्नणं,-ति लज्जाकरं एयं ॥७२७॥ | अर्थ-जो मेरा कुल श्रवणकी इच्छा होवे तो यह करिए कि अपनी सेना तय्यार करो जिससे मेरा हाथ कुल कहेगा अपनी जिव्हासे कुल कहना यहतो लज्जाकारी है ॥ ७२७ ॥ अहवा पवहणमज्झ,-ठियाओ जा संति दुन्निनारीओ।आणाविऊण ताओ, पुच्छेह कुलंपिजह कजं ७२८ | अर्थ-अथवा जहाजमें दो स्त्रियों हैं उन स्त्रियोंको यहां बुलाके जो आपके कार्य होवे तो कूल पूछो ॥ ७२८॥ तो विम्हिओ यराया, आणाविय धवलसत्थवाहंपि । पुच्छइ कहेसु किं संति, पवहणे दुन्नि नारीओ ७२९ __अर्थ-तदनंतर राजा आश्चर्ययुक्त भया धवल सार्थवाहको बुलाके पूछे अहो सेठ कहो जहाजमें क्या दो स्त्रियों हैं ॥७२९॥ धवलोवि हु कालमुहो, जा जाओ ताव नरवरिंदेणं । नारीण आणणत्थं पहाणपुरिसा समाइट्ठा ७३० है। | अर्थ-यह राजाका बचन सुनके धवलसेठ जितने स्याममुख होगया उतने राजाने उन स्त्रियोंको बुलाने के वास्ते ॥ ९२॥ अपने प्रधान पुरुषोंको आज्ञा दिया ॥७३०॥ SECARIOS For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेहिं गंतूण तओ तर्हि, भणियाओ नरवरिंदधूयाओ । पइणो कुलकहणत्थं, वच्छा आगच्छह दुयंति ७३१ अर्थ- वह प्रधान पुरुष वहां जाहाजों में जाके उन राजपुत्रियोंको इस प्रकारसे कहा हे वत्से पुत्रियो तुम अपने पतिका कुल कहनेके लिये शीघ्र आओ ॥ ७३१ ॥ तं सोऊणं ताओ, मयणाओ हरिसियाओ चित्तंमि । तेण मणवल्लहेणं, नूणं आणाविया अम्हे ॥७३२ ॥ अर्थ- वह प्रधान पुरुषोंका वचन सुनके दोनों मदना मनमें हर्षित भई और विचारतीं भई अपने भर्तारने अपनेको बुलाई हैं ऐसा विचारके हर्षित भई ॥ ७३२ ॥ सिवियाए चडियाओ, संपत्ता नरवरिंदभवणंमि । दहूण पाणनाहं, जाया हरिसेण पडिहत्था ॥ ७३३॥ अर्थ - तदनंतर पालकी में बैठके दोनों स्त्रियों राजा वसुपालके भवनमें प्राप्त भई और वहां अपने प्राणनाथ भर्तारको | देखके आनंद व्याप्त भई अर्थात् परिपूर्ण आनंद पाया ॥ ७३३ ॥ रन्नावि पुच्छियाओ, वच्छा भंजेह अम्हसंदेहं । को एसो वृत्तंतो, कहेह आमूलचूलंति ॥ ७३४ ॥ अर्थ - राजाने भी इस प्रकारसे पूछा हे वत्से हे पुत्रियो तुम हमारा संदेह दूरकरो यह क्या वृतान्त है यह क्यावात है मूलसे लेके चूल पर्यंत कहो ॥ ७३४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ९३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो विज्झाहरधूया, कहेइ सर्व्वपि कुमरचरियं जा । ताव निवो साणंदो, भणइ इमो भइणिपुत्तो मे ७३५ अर्थ - तदनंतर विद्याधरराजाकी पुत्री मदनमंजूषाने सर्व कुमरका चरित कहा कुमर समुद्रमें पड़ा वहां तक उतने वसुपाल राजा आनंदसहित बोले यहकुमर मेरी बहिनका पुत्र भानजा है ॥ ७३५ ॥ गाढपरं संतुट्ठो, राया कुमरस्स देई बहुमाणं । डुंबं सकुडंबंपि हु, ताडावइ गरूयरोसेण ॥ ७३६ ॥ अर्थ —तदनंतर अत्यन्त संतुष्टमान भया राजा कुमरका बहुत सत्कार करे और बहुत क्रोधसे कुटुंबसहित डोमको अपने सेवकोंके पास पिटवावे ॥ ७३६ ॥ डुबो कहे सच्चं, सामिय कारावियं इमं सवं । एएण सत्थवाहेण, देव दाऊण मज्झ धणं ॥ ७३७ ॥ अर्थ - तब डोम सत्य कहे हे स्वामिन् हे देव हे महाराज इस सार्ववाणिएने मेरेको धन देके यह सर्व अकार्य कराया सर्व अनर्थका मूल यह सार्थवानिया है ॥ ७३७ ॥ तो राया धवलंपि हु, बंधावेऊण निविडबंधेहिं । अप्पेइ मारणत्थं, चंडाणं दंडपासीणं ॥ ७३८ ॥ अर्थ - तदनंतर राजा धवल सार्थवाहको मजबूत बंधनोंसे बंधवाके अत्यन्त दुष्ट कोटवाल पुरुषों को मारनेके वास्ते देवे ॥ ७३८ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ९३ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir 9649*** ******** कुमरो निरुवमकरुणारस,-वसओ नरवराउ कहकहवि । मोयावइ तं धवलं, डंबं च कुटुंबसंजुत्तं ३९/21 ___ अर्थ-कुमार श्रीपाल उपमा रहित जो करुणारस उसके वशसे धवलसेठको कोईप्रकारसे राजाके पास छुडवावे और कुटुंबसहित डोमकोभी छुडवावे ॥ ७३९ ॥ मायंगाहिवइत्तं, पुट्ठो नेमित्तिओ कहइ एवं । मायंगा नाम गया, तेसिं एसो अहिवइत्ति ॥७४०॥ ___ अर्थ-वादमें राजाने नेमित्तिएको मातंगाधिपतिका अर्थ पूछा तब नेमित्तिया कहे हे महाराज महामातंग नाम हाथी उन्होंका अधिपति नाम स्वामी ॥ ७४०॥ संपूइऊण राया, सम्म नेमित्तियं विसजेइ । भयणीसुयंति धूया, वरंति कुमरं च खामेइ ॥ ७४१ ॥ दूा अर्थ-राजा वसुपाल नेमित्तिएका वस्त्राभरर्णादिकसे सत्कार करके विसर्जन करे और कुमर बहिनका पुत्र है और पुत्रीका वर है इस कारणसे विशेष करके खमावे ॥ ७४१॥ राया भणेइ पिच्छह अहह अहो उत्तमाण नीयाणं । केरिसमंतरमेयं, अमियविसाणंव संजायं ७४२ | अर्थ-राजा कहे अहह इति खेदे अहो इति आश्चर्ये अहो लोको तुम देखो देखो उत्तम पुरुष और नीच पुरुषों में यह | कितना अंतर है अमृत और जहरके जैसा अंतर है ॥ ७४२॥ For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल चरितम् । ॥९४॥ CACACARSAKARAN धवलो करेइ एरिस,-मणत्थमुवगारिणोवि कुमरस्स । कुमरो एयस्स अणत्थ-कारिणो कुणइ उवयारं भाषाटीका 81 अर्थ-धवलसेठ उपकारी कुमरपर ऐसा अनर्थ करे है कुमर अनर्थ करनेवाला धवलसेठका उपकार करे है ॥ ७४३॥|8| सहितम्. जह जह कुमरस्स जसं धवलं, लोयंमि वित्थरइ एवं। तह तह सोधवलोविहु, खणखणे होइ कालमुहो४४ है अर्थ-जैसे २ कुमरका उज्वल यश लोकमें कथित प्रकारसे विस्तार पावे वैसा २ निश्चयकरके धवलसेठभी क्षण २ में स्याम मुख होवे ॥ ७४४ ॥ तहवि कुमारेणं सो,आणीओ नियगिहं सबहुमाणं । मुंजाविओ य विस्सामिओ य, नियचंदसालाए ४५/४ ___ अर्थ-तथापि कुमरने बहुमान सहित अपने घर जैसे बने वैसा बुलाया नाना प्रकारका भोजन कराया बाद चन्द्र शाला अपने घरके ऊपरकी भूमिमें रक्खा ॥ ७४५ ॥ तत्थ टिओ सो चिंतह, अहह अहो केरिसो विही वंको।जमहं करेमि कज्जं, तं तं मे निप्फलं होइ ७४६ BI अर्थ-वहां चन्द्रशालामें रहा हुआ वह धवलसेठ विचारे क्या विचारे सो कहते हैं अहह इति खेदे अहो इति आश्चर्ये विधि, देव मेरेपर कैसा वक्र है मैं जो २ कार्य कर्ता हूं वह २ मेरे निष्फल होवे है ॥ ७४६ ॥ द्र एवं ठिएवि, अज्जवि, मारिजइ जइ इमो मए कहवि । ता एयाओ सिरीओ, सबाओ हुँति महचेव ७४७। GARSASKALIGUSLSX का॥१४॥ For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SALAAMSAX अर्थ-ऐसे रहतेभी जो इस कुमरको मैं अबीभी कोई प्रकारसे मारूं अर्थात् प्राण रहित करूं तो यह लक्ष्मी मेरेही होवे ॥ ७४७॥ अन्नं च इत्थ सत्तम,-भूमीए सुत्तओ इमो इक्को । ता हणिऊणं एयं, रमणीवि बलावि माणेमि ७४८ PI अर्थ-औरभी यहां सातवीं भूमिपर कुमर इकेला सोता है इस लिए इस कुमरको मारके इसकी तीनों स्त्रियोंको जबरदस्तीसे में भोगवू ॥ ७४८॥ इय चिंतिऊण हिट्ठो, धिट्ठो दुठ्ठो निकिट्ठपाविट्ठो। असिवेणुं गहिऊणं, पहाविओ कुमरवहणत्थं ॥७४९॥6 | अर्थ-ऐसा विचारके वह धवल हर्षित होके छुरी लेके कुमरको मारनेके लिए चला कैसा है धवल धेठा है और दुष्टर है इसी कारणसे निकृष्ट नाम अधम है और अतिशय पापी है ॥ ७४९ ॥ उम्मग्गमुक्कपाओ, पडिओ सो सत्तमाओ भूमीओ। छुरियाइ उरे विद्धो, मुक्को पाणेहिं पावुत्ति ७५० | अर्थ-भय और उतावलके वशसे उन्मार्गमें चढ़ते पग डिगगया सातवीं भूमिसे गिरा अपने हाथमें रही भई छुरी 8 यह पापी है ऐसा करके मानो पेटमें प्रवेश करगई अर्थात् प्राणोंसे रहित भया ॥ ७५० ॥ है सो सत्तमभूमीओ, पडिओ पत्तो य सत्तमि भूमि । नरयस्स तारिसाणं, समत्थि ठाणं किमन्नत्थ ॥७५१॥ 26***ARAGUSAHA * For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-वह धवल सातवीं भूमिसे गिरा और सातवीं नरक पृथ्वी याने सातमी नरक गया यह अर्थयुक्त है जिसकार- भाषाटीकाचरितम् दाणसे ऐसे दुष्टोंको सातमी नरकसे और कौन ठिकाना है अपि तु कोई नहीं ॥ ७५१ ॥ | सहितम्. हैतं दह्ण पभाए, लोओ चिंतेइ इमाइ चिट्ठाए। कुमरहणणत्थमेसो, नजइ आहाविओ नूणं ॥७५२॥ | अर्थ-प्रभातमें लोक अपने हाथकी छुरीसे मराहुआ धवलको देखके विचारे निश्चय इस चेष्टासे धवल कुमरको मारनेके लिए ऊपर चढा है और गिरके मरगया ॥ ७५२॥ अहह अहो अहमत्तं, एयस्स कुबेरसिट्ठिणो नूणं । जो उवयारिकपरे, कुमरेवि करेइ वहबुद्धिं ॥ ७५३॥ | अर्थ और क्या विचारे सो कहते हैं अहह इति खेदे अहो इति आश्चर्ये इस कुवेरसेठका अधमत्व आश्चर्यकारी है कैसे सो कहते हैं निश्चय उपकार करने में तत्पर ऐसे कुमरपर यह दुष्ट मारनेकी बुद्धि करता है ॥ ७५३ ॥ एएणं पावणं, जो दोहो चिंतिओ कुमारस्स । सो एयस्सवि पडिओ, अहो महप्पाण माहप्पं ७५४ 5 अर्थ-इस पापी क्रूर धवलने जो कुमरका द्रोह विचारा वह इसीहीपर पड़ा और महापुरुषोंका माहात्म्य आश्चर्य-12 कारी है ॥ ७५४ ॥ ॥९५॥ कुमरोवि हु तच्चरियं, चिंतंतो सोइऊण खणमिक्कं । काऊण पेयकिच्चं, दावेइ जलंजलिं तस्स ॥७५५॥ है| RECAUSERECRUGRUAR GASTASAARISAARA OG For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - कुमर भी धवलसेठका चरित आचार विचारता हुआ क्षणमात्र सोच करके उसका मृतककार्य अग्निसंस्का रादि करके उसको जलांजलि दिलावे ।। ७५५ ॥ वरबुद्धिदाइणो जे, मित्ता धवलस्स आसि तिन्नेव । ते सव्वाइ सिरीए, कुमरेणहिगारिणो ठविया ॥७५६॥ अर्थ - प्रधानबुद्धिके देनेवाले धवलके तीनमित्रोंको कुमरने धवल सम्बन्धी सर्व लक्ष्मीका अधिकारीकिया ॥ ७५६ ॥ मयणातिगेण सहिओ, कुमरो तत्थ ट्ठिओ समाहीए । केवलसुहाइ भुंजइ, मुणिब्ब गुत्तितयसमेओ ५७ अर्थ-तीन मदनासहित कुमर उस नगरमें समाधिसे रहा हुआ केवल सुख भोगवे किसके जैसा तीनगुप्ति मन, वचन, कायगुप्तिसहित जैसे मुनि सर्व सुख भोगवे वैसा यहभी ।। ७५७ ॥ अन्नदिणे सो कुमरो, रयवाडीए गओ सपरिवारो । पिच्छइ एवं सत्थं, उत्तरियं नयरउज्जाणे ॥७५८ ॥ अर्थ — अन्य दिनमें परिवारसहित कुमर राजवाड़ी गया हुआ नगरके उद्यानमें एक सथवाड़ा उतरा हुआ देखे ७५८ जो तत्थ सत्थवाहो, सोवि हु कुमरं समागयं दहुं । घित्तूण भिहणाइ, पणमइ पाए कुमारस्स ७५९ अर्थ- जो वहां सार्थवाह है वह कुमरको आया भया देखके भेटना लेके कुमरको नमस्कार किया यानें भेट ना दिया ।। ७५९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ९६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमरेण पुच्छिओ सो, सत्थाहिव ! आगओ तुमं कत्तो । पुरओवि कत्थ गच्छसि किं कत्थवि दिट्ठमच्छरियं अर्थ - कुमरने सार्थवाहसे पूछा हे सार्थपते तैं कहांसे आया है आगे कहां जाता है कहांभी कोई आश्चर्य जो देखाहो तो कहो ॥ ७६० ॥ तो भइ सत्थवाहो, कंतीनयरीओ आगओ अहयं । गच्छामि कंबुदीवं, निसुणसु अच्छेरयं एयं ७६१ अर्थ — तव सार्थवाह कहे मैं कंती नगरीसे आया हूं कंबुद्वीप जाता हूं मार्गमें आश्चर्य देखा सो सुनो ॥ ७६१ ॥ इत्तो य जोयणसए, कुंडलनयरं समत्थि विक्खायं । तत्थत्थि गुरुपयावो, राया सिरिमगरकेउत्ति ७६२ अर्थ - इस नगरसे सो योजन दूर प्रसिद्ध कुंडलपुर नामका नगर है वहां महाप्रताप जिसका ऐसाश्री मकरकेतु नामका राजा है । ७६२ ॥ तस्स कप्पूरतिलया देवी कप्पूरविमलसीलगुणा, । तकुच्छिभवा सुंदर, पुरंदरक्खा दुवे पुत्ता ॥ ७६३ ॥ अर्थ — उस राजाके कर्पूरतिलका नामकी रानी है कैसी है कपूरके जैसा निर्मल सीलगुण जिसका उसकी कुक्षिमें उत्पत्ति जिन्होंकी ऐसें सुंदर पुरंदर नामके दो पुत्र है ॥ ७६३ ॥ ताण उवरिं च एगा, पुत्ती गुणसुंदरित्ति नामेणं । जा रूवेणं रंभा, वंभी य कला कलावेणं ॥ ७६४ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ९६ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च. १७ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — उन पुत्रोंके ऊपर एक गुणसुंदरी नामकी पुत्री है रूपलावण्य सौंदर्य करके वह कन्या रंभा देवाङ्गनाके तुल्य है और कलाके समूहसे ब्राह्मी सरस्वतीके तुल्य है ॥ ७६४ ॥ तीए कया पन्ना, जो मं वीणाकलाइ निजिणइ । सो चेव मज्झभत्ता, अन्नेहिं न किंपि मह कर्ज ७६५ अर्थ-उन कन्याने प्रतिज्ञा करी है जो पुरुष वीणा बजानेकी कलामें मेरेको जीते उसीको भर्तार करना और पुरुषसे मेरे कुछ प्रयोजन नहीं ॥ ७६५ ॥ तं सोऊणं पत्ता, तत्थ नरिंदाण नंदणाणेगे । वीणाए अब्भासं, कुणमाणा संति पइदिवसं ॥ ७६६ ॥ अर्थ -- वह प्रतिज्ञा सुनके उस नगरमें बहुत राजपुत्र आए है निरंतर वीणाका अभ्यास करें हैं । ७६६ ॥ मासे मासे तेसिं, होइ परिक्खा परं न केणावि । सा वीणाए जिप्पइ, पञ्चक्खसरस्सईतुला ॥७६७॥ अर्थ - महीने २ में उन राजकुमरोंकी परीक्षा होवे है परन्तु किसी राजपुत्रने उसकन्याको वीणा बजाने में नहीं जीती कैसी है कन्या साक्षात् सरस्वतीके तुल्य है । ७६७ ॥ एगपरिक्खादिवसे, दिट्ठा सा तत्थ देव अम्हेहिं । रमणीण सिरोरयणं, सा पुरिसाणं तुमं देव ७६८ अर्थ - एक परीक्षाके दिनमें वह राजपुत्री हमने भी देखी परन्तु हम ऐसा जाने हैं हे देव हे महाराज सब स्त्रियोंके शिरो रन वह कन्या है सब पुरषोंके शिरो रत्न आप हो । ७६८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ९७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अघटतोवि हु जइ कहवि, होइ दुन्हंपि तुम्ह संजोगो । ता देव पयावइणो, एस पयासो हवइ सहलो ७६ अर्थ — यद्यपि नहीं संभवे है तुम्हारे दोनोंका सम्बन्ध तथापि कोई प्रकारसे सम्बन्ध होवे तव हे महाराज प्रजापति विधाताका तुम दोनोंके रूप रचनेका प्रयास सफल होवे ॥ ७६९ ॥ T तं सोऊणं कुमरो, सत्थाहिवई पसत्थवत्थेहिं । पहिराविऊण संझा, - समए पत्तो नियावासं ॥ ७७० ॥ अर्थ- वह पूर्वोक्त सुनके कुमर सार्थ पतिको प्रशस्त वस्त्र पहराके संध्या समय अपने आवास आए ॥ ७७० ॥ चिंतेइ तओ कुमरो, कह पिक्खिस्सं कुऊहलं एयं । अहवा नवपयझाणं, इत्थ पमाणं किमन्नेणं ॥ ७७१॥ अर्थ - तदनंतर कुमर विचारे यह कौतुक कैसे देखूंगा अथवा इस कार्यमें अर्हदादि नवपदोंका ध्यानही प्रधान है। और विचारसे क्या प्रयोजन है ।। ७७१ ॥ | इय चिंतिऊण सम्मं, नवपयझाणं मणंमि ठावित्ता । तह झाइउं पवत्तो, कुमरो जह तक्खणा चेव ७७२ अर्थ- ऐसा विचारके सम्यक् नवपदका ध्यान मनमें स्थापके कुमर श्रीपाल उस प्रकारसे ध्यान करना सुरू किया जिससे तत्कालही ॥ ७७२ ॥ सोहम्मकप्पवासी, देवो विमलेसरो समणुपत्तो । करकलिउत्तमहारो, कुमरं पइ जंपइ एवं ॥ ७७३ ॥ For Private and Personal Use Only • भाषाटीकासहितम् ॥ ९७ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-सौधर्मदेवलोकमें रहनेवाला विमलेश्वर नामका देव वहां आया हुआ कुमरसे इस प्रकारसे कहे कैसा है देव हाथमें प्रधान हार है जिसके ऐसा इस प्रकारसे कहे ॥ ७७३ ॥ इच्छाकृतिव्योमगतिः कलासु, प्रौढिर्जयः सर्वविषापहारः । कंठस्थिते यत्र भवत्यवश्यं, कुमार! हारं तममुं ग्रहाण ॥ ७७४ ॥ ___ अर्थ-हे कुमर तुम इस हारको ग्रहणकरो यह हार कंठमें रहनेसे यह पांच कार्य निश्चयसे होवे है वही कहते हैं| जैसी इच्छा करे वैसा रूप बनावे १ और आकाशमें गतिनाम गमन २ सर्वकलामें निपुणपना ३ शत्रुओंको जीतना ४ सर्व प्रकारके जहरका उतरना ५॥ ७७४ ॥ एवं वदन्नेव स सिद्धचक्रा,-धिष्ठायकः श्रीविमलेशदेवः।। कुमारकंठे विनिवेश्य हारं जगाम धामाद्भूतमात्मधाम ॥ ७७५॥ [४] अर्थ-वह श्रीसिद्धचक्रका अधिष्ठायक श्रीविमलेश्वर नामका देव कुमरके कंठमें हारपहराके अपना धाम तेजसे || अद्भुत ऐसा स्वर्ग गया ॥ ७७५ ॥ तं लभ्रूण कुमारो, निचिंतो सुत्तओ अह पभाए । उटुंतोवि हु कुंडल,-पुर गमणं नियमणे कुणइ ७७६ है। RECENGALASSACREASSES For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ९८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - कुमर उस हार को पाके चिंता रहित होके सोता बाद प्रभातमें उठता हुआही कुंडलपुर जानेकी इच्छा करे ॥७७६ ॥ हारपभावेणं कय, - वामणरूवो गओ पुरे तत्थ । पासइ वीणाहत्थे, रायकुमारे ससिंगारे ॥ ७७७ ॥ अर्थ — हारके प्रभावसे किया है वामनरूप जिसने ऐसा कुमर उस नगरमें गया हुआ वीणा है हाथमें जिन्होंके ऐसे शृंगारसहित राजकुमरोंको देखे ॥ ७७७ ॥ कुमरो वामणरूवो, राया कुमारे हिं सहगओ तत्थ । जत्थत्थि उवज्झाओ, वीणासत्थाई पाढंतो ७७८ अर्थ - कुमर वामनेका रूप किया हुआ और राजकुमारोंके साथ जहां वीणाशास्त्र पढ़ानेवाला उपाध्याय है वहां गया ।। ७७८ ।। जह जह उवज्झायं पइ, वामणओ कहइ मंपि पाढेह । तह तह रायकुमारा, हसंति सबै हडहडत्ति ७७९ अर्थ- जैसे २ वामन उपाध्यायसे कहे मेरेकोभी पढ़ावो अर्थात् वीणा बजाना सिखावो वैसा २ सर्व राजकुमर हड २ शब्द करके हसें ॥ ७७९ ॥ दट्टु अपाढयंतं, उवज्झायं झत्ति तस्स वामणओ । अप्पेइ हत्थखग्गं, हेलाए अइ महग्घंपि ॥ ७८० ॥ अर्थ - तब वामन उपाध्यायको नहीं पढ़ाता हुआ देखके बहुत कीमतका अपने हाथका खड्न लीलासे शीघ्र उपाध्यायको देवे ॥ ७८० ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ९८ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो उवज्झाओ तं आयरेण, पुरओ निवेसइत्ताणं । अप्पेइ सिक्खणत्थं, नियवीणं तस्स हत्थंमि ७८१ अर्थ - तदनंतर उपाध्याय उस वामनेको आदरसे आगे बैठाके सिखाने के वास्ते अपनी वीणा उस वामनेके हाथमें देवे ।। ७८१ ॥ वामणओ तं वीणं, विवरीयत्तेण पाणिणा लिंतो । संतिं वा तोडतो फोडतो तुंबयं वावि ॥ ७८२ ॥ अर्थ- वामना उस वीणाको हाथसे विपरीतपने लेता हुआ तांत तोड़ता भया तूंबेको फोड़ता हुआ ॥ ७८२ ॥ सवेसिं कुमराणं, हासरसं चैव वट्टयंतोवि । केवलदाणवलेणं, अग्घइ उवज्झायपासंमि ॥ ७८३ ॥ अर्थ- सर्व राजकुमरोंके हास्य रस बढ़ाता हुआ भी केवल दानके बलसे उपाध्यायके पास आदर योग्य होवे ॥ ७८३ ॥ सोवि परिक्खासमए, रक्खिजंतोवि तेहिं सवेहिं । कुंडलदाणवसेणं, कुमरिसहाए गओ झत्ति ॥ ७८४ ॥ अर्थ - वह वामनाभी परीक्षा समय में सबलोगोंके साथ अंदर प्रवेश करताथा द्वारपालने मने किया तब कुंडलदेके शीघ्र कुमरीकी सभामें गया ॥ ७८४ ॥ तं कयइच्छारूवं, कुमरी पासेइ निरुवमसरुवं । अन्ने वामणरूवं, पासंति निवाइणो सबे ॥ ७८५ ॥ अर्थ — किया है इच्छासे रूपजिसने ऐसा कुमरको कुमरी राजकन्या निरुपम उपमा रहित रूप जिसका ऐसा देखे और राजादिक सवलोक वामनेका रूप देखे ॥ ७८५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥९९॥ चितइ मणे कुमारी, मज्झ पइन्ना इमेण जइ पुन्ना । ताहं पुन्नपइन्ना, अप्पं मन्नेमि कयपुन्नं ॥७८६॥18 भाषाटीका__ अर्थ-तब कुमरी मनमें विचारे यह राजकुमर मेरी प्रतिज्ञा पूर्णकरे तो मैं अपने आत्माको कृत पुण्य जानु करा है| सहितम्. पुण्य जिसने ऐसा और मैं पूर्ण प्रतिज्ञ होजाऊं ॥ ७८६ ॥ जइ पुण मज्झ पइन्ना, इमिणावि न पूरिया अहन्नाए । ताहं विहियपइन्ना, सवैरिणी चेव संजाया ७८७ । अर्थ-और जो इस पुरुषनेभी मेरी प्रतिज्ञा नहीं पूर्णकरी तो अधन्या अकृत पुण्या मैंने करी प्रतिज्ञा वाही मेरी वैरिणी भई अर्थात् मैंही मेरी वैरिणी भई हूं ॥ ७८७ ॥ उवझायाएसेणं, तेहिं कुमारेहिं दंसियं जाव । वीणाए कुसलत्तं, ताव कुमारीवि दंसेइ ॥ ७८८ ॥ NI अर्थ-तदनंतर उपाध्यायकी आज्ञासे राजकुमरोंने वीणा बजानेकी कला दिखाई अर्थात् वीणा बजाई उतने कुमरी| ने भी अपनी वीणा बजानेका कुशलपना बताया ॥ ७८८ ॥ तीए कुमरिकलाए, संकुडियं सयलरायकुमराणं । वीणाए कुसलत्तं, चंदकलाइव कमलवणं ॥७८९॥ ] अर्थ-उस कुमरीकी कलासे सब राजकुमरोंकी वीणा बजानेकी कला मुद्रित होगई जैसे चन्द्रमाकी कलासे कमलका | ॥९९॥ वन मुद्रित होवे है वैसा ॥ ७८९॥ USALSAPNA For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं च कुमारीइ कलं, सयलोवि जणो पसंसए जाव । ताव कुमारो वामण,-रूवधरो वजरइ एवं ७९. I अर्थ-जितने उस कुमरीकी कलाकी सबलोक प्रशंसाकरे उतने वामनरूप धारनेवाला कुमर श्रीपाल इस प्रकारसे | कहे ॥ ७९०॥ अहो सुजाणो कुंडल,-पुरलोओ केरिसो इमो सवो। तो संकिया कुमारी, उवहसियं मन्नए अप्पं ७९१ | अर्थ-कैसे कहे सो कहते हैं अहो इति आश्चर्ये झूठी प्रशंसा करनेमें यह सब कुंडलपुरका लोग कैसे विचक्षण है अर्थात् अज्ञानवान है वाद ऐसा कुमरका बचन सुनके कुमरी शंकित भई कुमरने मेरा हास्य किया ऐसा मानती भई ॥७९१॥ अप्पेइ नियं वीणं तस्स कुमारस्स रायधूयावि । कुमरोवि सारिऊणं, तं च असुद्धं कहइ एवं ॥७९२॥ ___ अर्थ-तब राजकन्याभी उस कुमरको अपनी वीणा बजानेको देवे कुमरभी उस वीणाको सारके अशुद्ध कहे ॥७९२॥ तंती सगब्भरूवा, गलगहियं तुंवयं च एयाए । दंडोवि अग्गिदट्रो, तेण असुद्धा मए कहिया ७९३ PI अर्थ-कैसे सो कहते हैं इस वीणाकी तंत्री सगर्भरूप जिसका ऐसी फटी भई है और तूंबा गले में लगा हुआ है और 13|इसका दंड अग्निसे जला हुआ है इस लिये इस वीणाको मैंने अशुद्ध कही ॥ ७९३ ॥ दाते दंसिऊण सम्मं, आसारेऊण वायए जाव । ताव पसुत्तुव जणो, सबोवि अचेयणो जाओ ॥७९॥ CCCCCCESSAGAULESO GRASHRAMERASACANCES For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपालचरितम् | सहितम्. ॥१०॥ COMSABSCANCHORE अर्थ-तन्त्री वगैरह दोषोंको दिखाके अच्छी तरहसे स्वरावट मिलाके जितने कुमर वीणा बजावे उतने सब लोक सोते होंवें वैसा अचेतन भया ॥ ७९४ ॥ कस्सवि मुद्दारयणं, कस्सवि कडयं च कुंडलं मउडं । कस्सावि उत्तरीयं, गहिऊण कओय उक्करडो ७९५ हा अर्थ-तब कुमरने किसीका मुद्रारत्न किसीका कड़ा किसीका कुंडल किसीका दुपटा लेके ऊंचा ढिगला किया ॥७९५॥ अह जग्गियंमि लोए, अच्छरियं पासिऊण सा कुमरी। धन्ना पुन्नपइन्ना, वरइ कुमारं तिजयसारं ७९६ | अर्थ-उसके अनन्तर लोकोंके जागनेसे कुमरी वह आश्चर्य देखके तीन जगत्में सार ऐसे श्रीपाल कुमरको वरे कैसी है कुमरी धन्य है और पूर्ण भई है प्रतिज्ञा जिसकी ॥ ७९६ ॥ रायाईओ य जणो, जा चिंतइ वामणो हहा वरिओ। ताव कुमारो दंसइ, सहावरूवं नियं झत्ति ७९७ | अर्थ-राजादिक लोक मनमें विचारे अहह इति खेदे वामनेको वरा उतने कुमर शीघ्र अपना मूलरूप दिखावे ७९७ आणंदिओ य राया, परिणावेऊण तेण नियधूयं । दावेइ हयगयाई, धणकंचणपूरियं भवणं ॥७९८॥ ___ अर्थ-तब राजा हर्षित भया उस कुमरको अपनी पुत्रीका पाणिग्रहण करावे और घोड़ा हाथी वगैरह देवे धन सोने वगैरहसे भरा हुआ घर देवे ॥ ७९८ ॥ ॥१० ॥ For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MAMAKALUMAM तत्थ टिओ सिरिपालो, पुन्नविसालो महाभुयालोय। गुणसुंदरीसमेओ, निच्चंपि करेइ लीलाओ ॥७९९॥ अर्थ-उस भवनमें रहा भया श्रीपालकुमार गुणसुंदरी अपनी स्त्रीसहित निरंतर लीलाक्रीडाकरे कैसा है श्रीपाल है|पुण्य है विशाल नाम विस्तीर्ण जिसके और प्रचंड है भुजदंड जिसका ॥ ७९९ ॥ अन्नदिणे नयराओ, रयवाडीए गएण कुमरेण । दिवो एगो पहिओ, विसेसवत्तं च सो पुट्रो॥८॥ | अर्थ-अन्यदिनमें कुमर नगरके बाहर राजवाड़ीमें गया वहां एक पथिक याने काशीदको देखा और विशेषवार्ता | पूछी ॥ ८००॥ सो भणइ देव कुंडिण,-पुराओ पट्टावणीइ पट्टविओ । नयरंमि पइटाणे, इब्भेण धणावहेणाहं ॥८०१॥ | अर्थ-तब वह पथिक कहे हे देव धनाढ्य धनावह नामके सेठने मेरेको कुंडनपुर नगरसे प्रतिष्ठानपुर नगर दिनके | नियमसे भेजा है ॥ ८०१॥ आगच्छंतेण मए, कंचणपुरनामयंमि नयरंमि । जं अच्छरियं दिटुं, पुरिसुत्तम! तं निसामेह ॥८०२॥ __अर्थ-आते भए मैंने कांचनपुर नगरमें हे पुरुषोत्तम जो आश्चर्य देखा वह तुम सुनो ॥ ८०२॥ तत्थत्थि कंचणपुरे, राया सिरि वज्जसेणनामुत्ति तस्सत्थि पट्टदेवी कंचणमालत्ति विक्खाया ॥ ८०३॥ ISESSAAR-584ESORIS For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ १०१॥ समुभव, पुत्ता-चत्तारि संति सोंडीरामक प्रसिद्ध कंचनमाला नामकी पटरानी है। श्रीपाल- अर्थ-उस कांचनपुर नगरमें श्रीवज्रसेन नामके राजा हैं उन्होंके प्रसिद्ध कंचनमाला नामकी पटरानी है ॥ ८०३॥ भाषाटीकाचरितम्तीए कुक्खिसमुब्भव, पुत्ता-चत्तारि संति सोंडीरा।जसधवल जसोहर, वयरसिंह गंधव नामाणो ८०४ सहितम्. ॥१०१॥8| अर्थ-कांचनमाला रानीकी कुक्षिसे उत्पत्ति जिन्होंकी ऐसे चार पुत्र हैं कैसे हैं ? पुत्रपराक्रमवंत हैं यशोधवल १ यशोधर २ वज्रसिंह ३ गंधर्व ४ यह नामके हैं ॥ ८०४॥ ताण उवरिं च एगा,-पुत्ती तियलुक्कसुंदरी अस्थि । तियलोएवि न अन्ना, जीए पडिछंदए कन्ना ५/१ ___ अर्थ-उन पुत्रोंके ऊपर एक त्रैलोक्यसुंदरी नामकी पुत्री है जिस कन्या सरीखी तीन लोकमें कन्या नहीं है ॥८०५॥ तीए अणुरूववरं, अलहंतेणं च तेण नरवइणा । पारद्धो अस्थि तहिं, सयंवरामंडवो देव ॥ ८०६ ॥ | है। अर्थ-उस कन्याफे योग्य वर नहीं पाता हुआ राजाने हे देव उस नगरमें स्वयंवरा मंडप प्रारंभ किया है ॥ ८०६॥ तत्थथि सुविच्छिन्नो उत्तुंगो मूलमंडवो रम्मो। मणिकंचणथंभट्टिय, पुत्तलिया-खोहियजणोहो ८०७ PI अर्थ-उस स्वयंवरा मंडपमें अतिशय विस्तीर्ण ऊंचा रमणीक मूलमंडप है और कैसा है रत्न सोनेमई स्तंभोमें पुत-12 | लियोंने क्षोभित किया है लोकोंका समूह जिसमें ऐसा ॥ ८०७ ॥ ॥१०१॥ तत्तो चउपासेसुं, रइया कोऊहलेहिं परिकलिया। मंचाइमंचसेणी, सग्गविमाणावलि सरिछा ८०८६। For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 240SSSSSSS अर्थ-उस मंडपसे चारों तरफ रची भई कौतुक सहित मंचातिमंच श्रेणी है अर्थात् सिंहासनोंकिश्रेणी रची भई। हा है जैसे देव लोकमें विमानोंकी श्रेणी होवे वैसी ॥ ८०८॥ जे संति निमंतियनरवराण, पडिवत्तिगउरवनिमित्तं । तत्थ कणतिणसमूहा, तेगरुया गिरिवरेहिंतो ८०९ अर्थ-उस प्रदेशमें बुलाए भए राजाओंकी भक्तिके निमित्त अन्न और तृणसमूहका ढिगला पर्वतोसे भी बड़ा किया हुआ है ॥ ८०९॥ आसाढ पढमपक्खे, वीयाए अस्थि तत्थ सुमुहुत्तो । कल्ले सा पुण वीया, मग्गो पुण जोयणे तीसं ८१० __अर्थ-आषाढ वदी दूजका उस नगरमें विवाहका मुहूर्त है वह द्वितीया कल्ल है और मार्ग यहांसे तीस योजन हैं ॥८१०॥ हतं सोऊणं कुमरेण, तस्स पहियस्स दावियं झत्ति । नियतुरयकंठकंदल,-भूसणसोवन्नसंकलयं ॥८११॥ ता अर्थ-वह पथिकका वचन सुनके कुमरने उस पथिकको शीघ्र अपने घोड़े के कंठका सोनेका कंदोला दिया ॥८११॥ कुमरो य नियावासं, पत्तो चिंतेइ पच्छिमनिसाए । काऊण खुजरूवं, तं पिह गंतूण पिच्छामि ॥८१२॥ | अर्थ-और कुमर अपने आवासमें आया और रात्रिके पश्चिम प्रहरमें विचारे कूबड़ेका रूपकरके वह स्वयंवर मंडप कादेखू ॥ ८१२॥ ASSASSA*** For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१०२॥ हारस्स पभावेणं, संपत्तो तत्थ खुज्जरूवेणं । पिच्छेइ रायचक्रं, उवविढे उच्चमंचेसु ॥ ८१३ ॥ दभाषाटीका। अर्थ-तदनंतर कुमर हारके प्रभावसे उस नगरके पासवर्ति स्वयंवर मंडपमें कुब्जरूप करके पहुंचा ऊंचे सिंहासनों सहितम्पर बैठे हुए राज समूहको देखे ॥ ८१३ ॥ कुमरोवि खुजरूवो, सयंवरामंडवंमि, पविसंतो। पडिहारेण निसिद्धो, देई तओ तस्स करकडयं ८१४ | अर्थ-कुमरभी कूबड़ेके रूपवाला स्वयंवर मंडपमें प्रवेश करताथा तब द्वारपालने मना किया तदनंतर उस द्वार पालको कडा दिया और अंदर प्रवेश किया ॥ ८१४ ॥ पत्तो य मूलमंडवथंभट्टियपुत्तलीण पासंमि । चिट्रेड सुहं निसन्नो, कमरो कयकित्तिमकरूवो ॥८१५॥ ___ अर्थ-और मूल मंडपके थंभोमें रही भई पूतलियोंके पासमें जाके सुखसे बैठा कैसा है कुमर किया है कृत्रिम कुरूप जिसने ॥ ८१५॥ तं उच्चपिट्टिदेसं, संकुडियउरं च चिविडनासउडं । रासहदंतं तह उट्टहट्टयं, कविलकेससिरं ॥ ८१६ ॥ । अर्थ-अब विशेष करके कृत्रिम रूपका वर्णन करते हैं उस कूबड़ेको देखके यहां सम्बन्ध है कैसा है कूबड़ा उंचा है पीछेका भाग जिसका और संकुचित हृदय जिसका चीपडी नासिका गधेके जैसा दांत जिसका ऊंटके जैसा होठ जिसका ॥१०२॥ पीला केश मस्तकमें जिसके ॥ ८१६ ॥ KORX*XHISISHAHAR For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च.१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिंगलनयणं च पलोइऊण, लोया भणति भो खुज्ज । कज्जेण केण पत्तो, तुमंति? तत्तो भणइ सोऽवि ८१७ अर्थ — और पीले नेत्र जिसके ऐसे उस कूबड़ेको देखके लोक कहे अहो कुब्ज तैं किस कार्यके लिए यहां आया है। तब कुबड़ा कहे क्या कहे सो कहते हैं ।। ८१७ ॥ | जेण कज्जेण तुब्भे, सधे अच्छेह आगया इत्थ । तेणं चिय कज्जेणं, अहयंपि समागओ एसो ॥ ८१८ ॥ अर्थ - जिस कार्य के लिए तुम यहां आके रहे हो उसी प्रयोजनके वास्ते मैं भी आया हुं ॥ ८१८ ॥ हडहड हसति सबे, अहो इमो एरिसो सरूवोवि । जइ न वरिस्सइ नरवर, धूया तो सा कहं होही ॥ ८१९ ॥ अर्थ - यह कुलका वचन सुनके सब राजकुमरादिक हड २ शब्द करके हसे और इस प्रकार वोलेकि ऐसा स्वरूप वाला तैं है जो राजपुत्री तेरेको नहीं वरेगी तो कैसा होगा ॥ ८१९ ॥ इत्थंतरंमि नरवरधूया, वरनरविमाणमारूढा । खीरोदगवरवत्था, मुत्ताहलनिम्मलाहरणा ॥ ८२० ॥ अर्थ – इस अवसरमें उज्ज्वल रवीरोदक प्रधान वस्त्र पहरे हैं जिसने मोतियों के निर्मल हारादिआभरण पहरे हुए है जिसने ऐसी राजकुमारी पालकीमें बैठके ।। ८२० ॥ करकलियविमलमाला समागया मूलमंडवे जाव । ता सहसच्चिय कुमरं, सहावरूवं पलोएइ ॥ ८२१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१०३॥ ***SESSORIAUSICA अर्थ-और हाथमें निर्मल वरमाला है जिसके ऐसी जितने मूलमंडपमें आई उतने अकस्मातही शीघ्र कुमरका भाषाटीकास्वाभाविक मूलरूप देखे ॥ ८२१ ॥ सहितम्. तं दट्टण पमुइयचित्ता, चिंतेइ सा निवइधूया।रे मण ! आनंदेणं, वहसु एयस्स लाभेणं (लंभेणं) ८२२/8 ___ अर्थ-तब राजकन्या स्वाभाविक सुंदररूप है जिसका ऐसे श्रीपालकुमरको देखके हर्पित चित्त जिसका ऐसी विचारे | रे मन तें इस वरके लाभसे आनंदमें वर्त अर्थात् आनंद युक्त रह ॥ ८२२॥ धन्ना कयपुन्नाऽहं, महंतभागोदओऽवि मह अत्थि। मह मणजलनिहिचंदो,जं एस समागओ कोऽवि८२३ | अर्थ-मैं धन्य हूं और किया है पुण्य जिसने ऐसी कृतपुण्य हूं मेरा भाग्योदयभी बड़ा है जिस कारणसे मेरा मन रूप समुद्रको उल्लास करनेमें चन्द्रसदृश यह कोई पुरुष आया है ॥ ८२३ ॥ कुमरोवि तीइ दिदि, दहणं साणुराग सकडक्खं । दंसेइ खुज्झयंपि ह अप्पाणं अंतरंतरियं ॥८२४॥ ___ अर्थ-कुमरभी उस कन्याकी दृष्टि अनुराग सहित और कटाक्षयुक्त देखके बीचबीचमें अपना कूबड़ेका रूप दिखावे २४|8 इत्तोवि ह पडिहारी, जंजं वन्नेइ नरवरं तं तं । विक्खोडेइ कुमारी, रूववओदेसदोसेहिं ॥ ८२५॥ । अर्थ-इधरसे प्रतिहारीणि स्त्री जिस २ राजाका वर्णन करे उस २ राजाको कुमरी रूप, उमर, देशके दोषोंसे ||॥१० दूषितकरे इस राजाका रूप ठीक नहीं है इस राजाकी वय ठीक नहीं है इसका देश रमणीय नहीं है इत्यादि ॥ ८२५ ॥ 11 REACREASSES For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो जइया वन्निज्जइ, सो तइया होइ सरयससित्रयणो । जो जइया हीलिज्जइ, सो तइया होई साममुहो ८२६ अर्थ - जिसवक्त जिस राजाका वर्णन होवे तब उसराजाका शरदऋतुके चन्द्रमा जैसा मुख होवे और जब राजकुमरी जिस राजाकी रूपादिकसे हीलना करे तब वह राजा स्याममुख होवे अर्थात् उदास मुख होंजाय ॥ ८२६ ॥ जा पडिहारी थक्का, सयलं निवमंडलंपि वन्नित्ता । तात्र कुमारी सप्पियं, खुज्जं पासेइ सविलक्खा ॥ ८२७॥ अर्थ - जितने प्रतिहारी सर्व राजमंडलका वर्णन करके मौन धारके रही उतने कुमरी स्वप्रिय कुलको देखे कुब्जको देखके कैसी भई जिसका मुख उदास भया ।। ८२७ ॥ इत्थंतरंमि थंमट्टियाइ, वरपुत्तलीइ वयणंमि । होऊण हारहिट्ठायग, देवो एरिसं भणइ || ८२८ ॥ अर्थ - इस अवसर में थंभे में रही भई पूतली के मुखमें प्रवेश करके हारका अधिष्ठायक देव ऐसा कहने लगा ॥ ८२८ ॥ यदि धन्यासि विज्ञासि, जानासि च गुणांतरं । तदैनं कुब्जकाकारं वृणु वत्से नरोत्तमं ॥ ८२९ ॥ अर्थ — हे वत्से हे पुत्री जो तैं धन्य है वह विशेष जानने वाली हैं और गुणोंका अंतरभेद जाने है तो इस कूबडेका आकारवाला इस पुरषोत्तमको वर पणें अर्थात् भर्तार पणें अंगीकारकर ।। ८२९ ॥ तं सोऊण कुमारी, वरेइ तं झत्ति कुज्जरूवंपि । कुमरो पुण सविसेसं, दंसेइ कुरूवमप्पाणं ॥ ८३० ॥ For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-वह सुनके कुमरी शीघ्र कूबड़ेका रूप जिसका ऐसे कुमरको वरे और कुमर अपना विशेष करके लोकोंको भालाका चरितम् |8| कुरूप दिखावे ॥ ८३०॥ सहितम्. इत्थंतरंमि सवे, रायाणो अक्खिवंति तं खुजं । रे रे मुंचसु एयं, वरमालं अप्पणो कालं ॥८३१॥ * ॥१०४॥ | अर्थ-इस अवसरमें सब राजा उस कूबड़ेपर आक्षेप करे कैसे सो कहते हैं रेरे कुज इस वरमालाको छोड़ कैसी है. वरमाला यह तेरी काल रूप है ॥ ८३१॥ ६ जइ किरि मुद्धा एसा, न मुणइ गुणागुणपि पुरिसाणं। तहवि हु एरिस कन्नारयणं, खुजस्स न सहामो ८३२८ ___ अर्थ-जो वह मुग्धा भद्रक स्वभाववाली पुरुषोंका गुण औगुण नहीं जाने तथापि ऐसा कन्या रत्न कूबड़ेको नहीं दे सकते हैं ॥ ८३२॥ जाता झत्ति चयसु मालं, नो वा अम्हं करालकरवालो। एसो तुह गलनालं, लुणिही नूनं सवरमालं ॥८३३॥ है। अर्थ-इस कारणसे शीघ्र मालाको छोड़ जो नहीं छोड़ेगा तो हमारी तलवार वरमाला सहित तेरा मस्तक छेदेगी। अर्थात् वरमाला सहित तेरा मस्तक लेलेवेगी ॥ ८३३ ॥ हसिऊण भणइ खुज्जो, जइ किरितुब्भेइमीइ नो वरिया। दोहग्गददेहा, कीसनरूसेहता विहिणो८३४ाटू अर्थ-तव कूबड़ा हसके कहे जो इस कन्याने तुमको नहीं बरा कैसे हो तुम दुर्भाग्यसे दूषित है शरीर जिन्होंका RSACREASURES ACANCE ॥१०४॥ For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐसे तुम हो तो अपने भाग्यपर कैसे नाराज नहीं होतेहो जिस दुर्भाग्यने तुमको दूषित किया मेरेपर नाराज क्यों होते हो । ८३४ ॥ इन्हि पुण तुम्हाणं, परित्थिअहिलासविहियपावाणं। सोहणखमं इमं मे, असिधारा तित्थमेवत्थि ॥ ८३५॥ अर्थ - इस वक्तमें परस्त्रीकी अभिलाषासे किया हैं पाप जिन्होंने ऐसे तुमहो तुझारे पापकी शुद्धि करने में समर्थ यह मेरे खड्गकी धारा रूप तीर्थही हैं ॥। ८३५ ॥ इय भणिऊणं तेसिं, खुज्जेणं दंसिया तहा हत्था । जह ते भीइविहत्था, सवेवि दिसोदिसिं नट्ठा ॥ ८३६॥ अर्थ - ऐसा कहके कूबड़ेने उन राजाओंको वैसा हाथ दिखाया कि वह तव राजा भयसे व्याकुल भए दिशो दिश भाग गए । ८३६ ॥ खुज्जेण तेण तह कहवि, दंसिओ विकमो रणे तत्थ । जह रंजियचित्तेहिं, सरेहिं मुक्का कुसमवुट्ठी ॥८३७॥ अर्थ - उस कूबडेने वहां संग्राममें उस प्रकारसे ऐसा पराक्रम दिखाया कि जिससे प्रसन्नभया मनजिन्होंका ऐसे | देवोंने कूबड़ेपर पुष्पों का वर्सात् किया ॥ ८३७ ॥ तं दहूणं सिरिवज्जसेण, -रायावि रंजिओ भणइ । जह पयडियं बलं तह, रूवं पयडेसु वच्छ नियं ॥ ८३८॥ For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मने अपना बल प्रगट श्रीपाल भाषाटीका सहितम्. चरितम् ॥१०५॥ | अर्थ-वह कूबडेका पराक्रम देखके श्रीवत्रसेन राजा रंजित भया कहे हे वत्स जैसा तुमने अपना बल प्रगट किया है वैसा अपना रूप प्रगट करो ॥ ८३८॥ तक्वालं च कुमार, सहावरूवं पलोइऊण निवो । परिणाविय नियधूयं, साणंदो देइ आवासं ॥८३९॥ 8 अर्थ-तब राजा तत्काल मूल रूपयुक्त कुमरको देखके अपनी पुत्रीको परणाके आनंद सहित रहनेके वास्ते प्रधान प्रासाद देवे ॥ ८३९॥ तत्थ ट्रिओ सिरिपालो, कुमरो तिलुक्कसुंदरी सहिओ। पावइ परमाणंद, जीवो जह भावणासहिओ ८४० है। अर्थ-वहां रहा हुआ त्रैलोक्यसुंदरी सहित श्रीपालकुमर परम आनंद पावे भावना सदूअध्यवसाय सहित जीव परमानंद पावे वैसा ॥ ८४०॥ अन्नदिणे कोइ चरो, रायसहाए समागओ भणइ। देवदलपट्टणंमी, अत्थि नरिंदो धरापालो ॥ ८४१॥ __ अर्थ-अन्यदिनमें कोई चर खबरदेनेवाला पुरुष राजसभामें आया कहे देवदल नाम पत्तनमें धरापाल नाम राजा है है ॥ ८४१॥ तस्सुत्तमरायाणं, पुत्तीओ राणियाउ चुलसीई । ताण मज्झमि पढमा, गुणमाला अस्थि सविवेया॥८४२॥ * ॥१०५॥ For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — उस राजाके उत्तमराजाओं की पुत्रियो ८४ चौरासी रानी हैं उन्हों में पहिली गुणमाला नामकी विशेष विवेकवती रानी है ।। ८४२ ॥ तीए य पंचपुत्ता, हिरण्णगब्भो य नेहलो जोहो । विजियारीय सुकन्नो, ताणुवरिं पुत्तिया चेगा ॥ ८४३ ॥ अर्थ - उसरानीके पांच पुत्र हैं उन्होंका नाम कहते हैं हिरण्यगर्भ १ स्नेहल २ योध ३ विजितारी ४ सुकर्ण ५ इन पांच पुत्रोंके ऊपर एक पुत्री है ॥ ८४३ ॥ सा नामेणं सिंगार, -सुंदरि सिंगारिणी तिलुक्कत्स । रूवकलागुणपुन्ना, तारुन्नालंकियसरीरा ॥ ८४४ ॥ अर्थ — उसका नाम शृंगारसुंदरी हैं कैसी हैं तीनलोकमे शृंगारशोभाकरनेवाली हैं और रूप कला गुणों करके पूर्ण है। यौवन अवस्थासे अलंकृत है शरीर जिसका ऐसी ॥ ८४४ ॥ | तीए जिणधम्मरयाइ, पंडिया तह वियक्खणा पउणा । निउणा दक्खत्ति सहीण, पंचगं अस्थि जिणभत्तं ८४५ अर्थ - जिन धर्ममें रक्त उस कन्या के पांच सखी है उन्होंका नाम कहते है पंडिता १ विचक्षणा २ प्रगुणा ३ निपुणा ४ दक्षा ५ कैसा है सखी पंचक तीर्थंकरका भक्त है ॥ ८४५ ॥ ताणं पुरो कुमारी, भणेइ अह्माणजिणमयरयाणं । जइकोइ होइ जिणमय-, विऊ वरो तो वरं होई ॥८४६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल-18] अर्थ-कुमरी उन सखियोंके आगे कहे जिनशासनमें रक्त अपने जो कोई जैनधर्मका जाननेवाला वर होवे तो| भाषाटीकाचरितम् तो अच्छा होवे ॥ ८४६ ॥ सहितम्. ॥१०६॥ जेणं वरो वरिजइ, मणनिबुइ कारणेण कन्नाहि, । सा पुण धम्मविरोहे, पइपत्तीणं कओ होई ॥८४७॥ PI अर्थ-जिस कारणसे कन्या मनमें सुखके वास्ते भार वरे है वह मानसिक सुख भर्तार और स्त्रीके धर्ममें विरोध होनेसे कहांसे होवे प्रायः नहीं होवै हैं ॥ ८४७॥ तमा अमेहि परिक्खिऊण, सम्म जिणिंदधम्ममि, जो होइ निच्चलमणो, सो चेव वरो वरेयवो ८४८ | अर्थ-इस कारणसे अपने अच्छी तरहसे परीक्षा करके जो पुरुष जिनधर्ममें निश्चल मनवालाहोबे वहही भार्तार |अंगीकार करना ॥ ८४८॥ भणियं च पंडियाए, सामिणि जुत्तं तए इमं वुत्तं। किंतु निरुत्तो भावो, परस्स नजइ कवित्तेण ॥८४९॥ 8 | अर्थ-तब पंडिता नामकी सखीबोली हे स्वामिनी आपने यह ठीक कहा परंतु और पुरषका निरुक्त अप्रकाशितभाव है अभिप्राय कवित्वसे जाना जाय है जैसा मनमें होवे वैसा कवित्वसे प्रगट होवे ॥ ८४९॥ ॥१०६॥ Iता काऊण समस्सा,-पयाइं सदिद्विपरिणिजाई । अप्पेह जेहिं नजइ, सुहासुहो धम्मपरिणामो ॥ ८५० ॥1 HASSASSASS SALASAHKALASS For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmanair 181 अर्थ-तिस कारणसे सम्यदृष्टि पूर्ण करनेको समर्थ होवे ऐसे समस्या पद बनाके देओ जिन्होंको पूर्ण करनेसे ! शुभाशुभ धर्मका परिणाम जाना जाय ॥ ८५०॥ . तो तीइ कुमारीए, अस्थि पइन्ना कया इमा जो उ। चित्तगयसमस्साओ पूरिस्सइ सो वरेयवो॥८५१॥ है अर्थ-तदनंतर उनकुमरीने यह प्रतिज्ञा करी है कि जो मनोगत समस्या पूर्ण करेगा वह पुरष हमारे वरना ॥८५१॥3 सोऊण तं पसिद्धिं, समागयाणेगपंडिया पुरिसा। पूरंति समस्साओ, परं न तीए मणगयाओ॥८५२॥ अर्थ-उस प्रसिद्धिको सुनके अनेक पंडितपुरष आए भए समस्या पूर्ण करे है परंतु उस कन्याकी मनोगत समस्या कोई पूर्ण करने को नहीं समर्थ भया है ॥ ८५२॥ ४एवं सा निवधूया, सुपंडियाईहिं पंचहिं सहीहिं। सहिया चित्तपरिवखं, कुणमाणा वइ जणाणं ॥८५३॥ + अर्थ-इस प्रकारसे वह राजपुत्री सुंदर विचक्षणा पंडितादि पांच सखियो सहित लोकोंके चित्तकी परीक्षा करती भई रहे है ॥ ८५३॥ तं सोऊणं सबो, सहाजणो भणइ केरिसं चुजं । पूरिजंति समस्सा, किं केणवि परमणगयाओ ॥८५४॥ । अर्थ-वह वचन सुनके सब सभाके लोग कहें अहो कैसा आश्चर्य है दूसरेके मनोगत समस्या क्या कोई पूर्ण कर है सके है ॥ ८५४ ॥ SAROKAR-CASNOCALSCREOS For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १०७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं सोऊण कुमारो, धणियं संजायमणचमुक्कारो । पत्तो नियावासं पुणो पभायंमि चिंतेइ ॥ ८५५ ॥ अर्थ - वह वचन सुनके अत्यन्त मनमें चमत्कार भया ऐसा कुमर अपने आवास गया रात्रि व्यतिक्रान्त करके प्रभातमें विचारे क्या विचारे सो कहते हैं ॥ ८५५ ॥ हारस्स पभावेणं, मह गमणं होउ पट्टणे तत्थ । जत्थत्थि रायकन्ना, विहियपइन्ना समस्साहिं ॥८५६॥ अर्थ - हारके प्रभावसे वहां देवदलपतन में मेरा गमन होवो जिस नगरमें राजकन्याने समस्यापूर्णकी प्रतिज्ञाकी है ॥ ८५६ ॥ पत्तो य तक्खणं चिय, सहावरूवेण मंडवे तत्थ । जत्थत्थि रायपुत्ती, संयुक्त्ता पंचहिं सहीहिं ॥ ८५७ ॥ अर्थ — बाद कुमर तत्कालही स्वाभाविक रूपसे उस मंडपमें प्राप्त हुआ जिस मंडपमें ५ सखी सहित राजपुत्री है ॥८५७॥ दट्टण तं कुमारं, मारोवमरूवमसमलायन्नं । नरवरधूयावि खणं, विह्नियचित्ता विचिंतेइ ॥ ८५८ ॥ अर्थ - कामके जैसी उपमा जिसको ऐसा रूप जिसका इसी कारणसे अतुल्य लावण्य जिसका ऐसे कुमरको देखके राजपुत्री भी क्षणमात्र आश्चर्य युक्त चित्त जिसका ऐसी विचारे क्या विचारे सो कहते हैं ।। ८५८ ॥ जइ कहवि हु एस मणोगयाउ, पूरेइ मह समस्साओ । ताहं तिन्नपन्ना, हवेमि धन्ना सुकयपुन्ना ॥८५९ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम् . ॥ १०७ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - निश्चय यह पुरुष जो कोई प्रकारसे मेरी मनोगत समस्या पूर्ण करे तब मैं पारपाया प्रतिज्ञाका जिसने ऐसी धन्य कृतपुण्य होऊं ॥ ८५९ ॥ पुच्छइ तओ कुमारो, कहह समस्सापयाई निययाइं | तो कुमरिसंन्निया, पंडियावि पढमं पयं पढइ ८६० अर्थ - तदनंतर कुमर पूछे तुम अपना समस्या पद कहो तब कुमरीने संज्ञा किया ऐसी पंडितासखी एक समस्या पद पढ़े ॥ ८६० ॥ मणुवंच्छिय फलहोइ, एसा सहीमुहेणं, जं कहइ समस्सापयं तयं मएणावि, पूरेयवं केणवि, | पुत्तलयमुहेण हेलाण ॥ ८६१ ॥ अर्थ — कौनसा समस्या पदसो कहते हैं मणुवंच्छिय फलहोइ यह पहला समस्या पद है यह समस्यापद सखीके | मुहसे सुनके कुमर विचारे यह राजकन्या सखी के मुखसे समस्या पद कहवाती है वह मैं कोई पूतलेके मुखसे समस्या पद पूर्ण करावं ॥ ८६१ ॥ इय चिंतिऊण पासट्ठियस्स, थंभस्स, पुत्तलयसीसे, कुमरेण करो दिन्नो, ता पुत्तलओ भणइ एवं ॥ ८६२॥ अर्थ - ऐसा विचारके कुमरने पास के थंभे में रहा हुआ पूतला उसके मस्तकपर हाथ रक्खा तब पूतला ऐसा बोला ॥८६२॥ For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरितम् भाषाटीकासहितम्. श्रीपाल- अरिहंताईनवपय, नियमणु धरइ जु कोइ । निच्छइ तसु नरसेहरह, मणुवंच्छियफलहोई ॥ ८६३॥ है अर्थ-अहंदादि नवपदोंको जो कोई अपने मनमें धारण करे निश्चय उस नरशेखरके मनोवांछित फल होवे ॥८६॥ ॥१०८॥ तओ वियक्खणा पढेइ, अवर म झंखहु आल, तओ कुमरकरपवित्तो, पुत्रलओ पूरेइ । अरहंतदेव हसुसाधु गुरु, धम्म तु दयाविसाल, मंतुत्तमनवकारपर, अवर म झंखह आल ॥ ८६४ ॥ 31 अर्थ-तब विचक्षणा नामकी दूसरी सखी कहे अवरम झंख हु आल यह दूसरा समस्या पद तब कुमरके हाथसे पवित्र भया पूतला समस्या पूर्ण करे सो कहते हैं अरिहंत देव सुसाधु गुरु दयासे विशाल धर्म मंत्रोमें उत्तम नवकार मंत्र यह देवगुरुधर्ममंत्र प्रधान है इस कारणसे इन्होंको सेवो और सर्व अनर्थक वस्तु अंगीकार मत करो ॥ ८६४ ॥ तओ पउणा पढेइ, करि सफलउं अप्पाणु, पुत्तलओ पूरेइ, आराहिय धुरि देवगुरु, देहि सुपत्तिहिं जादाणु, तवसंजमउवयार करि, करि सफलउं अप्पाणु ॥ ८६५॥ ___अर्थ-तब प्रगुणा तीसरी सखी कहे करि सफलु अप्पाणु यह तीसरा समस्या पद तब पूतला पूर्ण करे धुरि नाम आदिमें देव वीतराग गुरू सुसाधु इन्होंकी सेवा करके सुपात्रको दानदेवो और तप संयम उपकार करके आत्माको सफल करो ॥ ८६५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MAHARMA तओ निउणा पढेई, जित्तउं लिहिलं बिलाडि, पुत्तलओ भणेइ, अरि मन अप्पिडं खंचि धरि,चिंता जालि म पाडि, फल तित्तिउं परिपामीयइ, जित्तउं लिहिउं निलाडि ॥ ८६६ ॥ ___ अर्थ-तब निपुणा चौथी सखी कहे (जित्तउ लिहिओ लिलाडि) यह चौथा समस्या पद पूतला कहे अरे मन ते आत्माको खींचके धार चिंता जालमें मतगिरा फलतो उतनाही मिलेगा जितना कर्मरूप लिलाटमें लिखा हुआहै ॥८६६॥ तओ दक्खा पढेइ, तसु तिहयण जण दासु, तओ पुत्तलओ भणेई, अत्थि भवंतरसंचिउं। पुन्न समग्गलजासु, तसु बल तसु मइ तसु सिरिय, तसु तिहुअणजण दासु ॥ ८६७ ॥ | अर्थ-तब दक्षा नामकी पांचमी सखी कहे (तसु तिहु अणजण दासु) यह पांचवां समस्या पद तव पूतला कहे जिस पुरपके भवान्तरमें संचित जादा पुण्य हैं उस पुण्यके बलसैं पराक्रम और बुद्धि लक्ष्मी और शोभा होवे है और तीन भुवनका लोक दास होवे है ॥ ८६७ ॥ दट्ठण तं समस्सा, पूरणमइविझिया कुमारीवि । आणंदपुलइअंगी, वरइ कुमारं तिजयसारं ॥ ८६८॥ __अर्थ-वह समस्या पूर्ण भई देखके कुमरी अत्यंत आश्चर्य पाई इसीकारणसे आणंद हर्षकेवससे रोमोद्गमयुक्त अंग जिसका ऐसी कुमरको वरे कैसा है कुमर तीन जगतमें सारभूत है ॥८६८॥ श्रीपा.च.१९ For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- चरितम् ॥१.९॥ रायपमुहोवि लोओ, भणइ अहो चुज्जमेगमेयंति। पूरिजति मणोगयाउ, एवं समस्साओ ॥ ८६९ ॥ भाषाटीकाPI अर्थ-राजा प्रमुख लोक इस प्रकारसे कहे अहो यह एक बड़ा आश्चर्य है कि औरोंकी मनोगत समस्या इस प्रका सहितम्. रसे पूर्ण करे ॥ ८६९ ॥ जं च इमं सकरेणं, पुत्तलयमुहेण पूरणं ताणं । तं लोउत्तरचरियं, कुमरस्स करेइ अच्छरियं ॥८७०॥ ___ अर्थ-जो अपने हाथके स्पर्शसे पूतलेके मुखसे समस्याका पूर्ण कराना वह कुमरका लोकोत्तर चरित है सर्व लोकोंसे प्रधान चरित आश्चर्य उत्पन्न करे है ॥ ८७० ॥ |राया नियधूयाए, तीए पंचहिं सहीहिं सहियाए । कारेइ वित्थरण, पाणिग्गहणं कुमारेणं ॥ ८७१॥ __ अर्थ-राजा पांच सखियों सहित अपनी पुत्रीका विस्तारविधिसे पाणि ग्रहण करावे ॥ ८७१॥ इत्थंतरंमि एगो भट्टो, दट्ठण कुमरमाहप्पं, पभणेइ उच्चसई, भो भो निसुणेह मह वयणं ॥ ८७२ ॥ ___ अर्थ-इस अवसरमें एक भट्ट कुमरका माहात्म्य देखके ऊंचे शब्दसे कहे कि अहो २ लोको मेरा वचन सुनो॥८७२॥ कुल्लागपुरे नयरे, अत्थि नरिंदो पुरंदरो नाम । तस्सत्थि पट्टदेवी, विजयानामेण सुपसिद्धा ॥ ८७३ ॥ ॥१०९॥ ___ अर्थ-कुल्लागपुर नगरमें पुरंदर नामका राजा है उस राजाके विजयानामकी अतिशय प्रसिद्ध पटरानी है ॥ ८७३ ॥ NOLE For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobelirtth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir हरिविक्कमनरविक्कम,-हरिसिरिसेणाइसत्तपुत्ताणं, उवरिंमि अत्थि एगा, पुत्ती जयसुंदरीनामा ॥८७ ___ अर्थ-हरिविक्रम १ नरविक्रम २ हरिसेण ३ सिरिसेणादि ४ सातपुत्रों के ऊपर एक जयसुंदरीनाम की कन्या है ॥८७४॥ तीए कलाकलावं, रूवं सोहग्गलडहलावन्नं । दट्टण भणइ राया, कोणु इमीए वरो जुग्गो॥८७५॥ ___ अर्थ-उस कन्याका कलाका समूह और रूप आकृति सौभाग्यसे सुंदर लावण्य देखके राजा कहे इस कन्याके योग्य ||भर्तार कौन होगा ॥ ८७५ ॥ तो तीए उवज्झाओ भणइ महाराय तुज्झ पुत्तीए । सयलकलासत्थाइ, अवगाहंतीइ एयाए ॥८७६॥ | अर्थ-तब उस कन्याका उपाध्याय राजासे कहे हे महाराज सर्व कला शास्त्रका अभ्यास करती इस आपकी पुत्रीने शस्त्र कलाके प्रस्तावसे ॥ ८७६ ॥ सत्थप्पत्थावपत्तं, राहावेयस्स साहणसरूवं । विणएण अहं पुट्रो, कहियं च तयं मप एवं ॥८७७॥ | अर्थ-शस्त्र कलाके अधिकारसे प्राप्त भया राधावेधसाधनका स्वरूप विनयसे मेरेसे पूछा मैंने राधा वेधसाधनका स्वरूप इस प्रकारसे कहा ॥ ८७७ ॥ मंडिजंते थंभट्टिय?,-चक्काई जंतजोगेणं । सिद्विविसिट्टिकमेणं, एगंतरियं भमंताई ॥ ८७८ ॥ SHERLOCHISSAISTES For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-धंभेमें रहे हुए आठचक्र रचे जावें यन्त्रके जोगसे सृष्टि विसृष्टि क्रमसे एकके अंतरसे भ्रमणकरे एकसीधा फिरे भाषाटीका. चरितम् ||दूसरा उलटा फिरे ।। ८७८ ॥ | सहितम्चिक्कारयविवरोवरि, राहानामेण कट्रपुत्तलिया। ठविया हवेइ तीए, वामच्छी किजए लक्खं ॥ ८७९॥ ॥११॥3 । अर्थ-चक्रोंका अरोंमें जो छिद्र है उन्होंके ऊपर राधानामकी एक पूतली थापी होवे है उसका डावा नेत्रका लक्ष लेके वेध किया जावे ॥ ८७९॥ हिट्टियतिल्लकडाहयंमि, पडिबिंबलद्धलक्खेणं, उड्डसरेण नरेणं, तीए वेहो विहेयवो॥८८०॥ ___ अर्थ-नीचे रक्खा हुआ जो तेलका कडाव उसमें पड़ा हुआ जो राधाका प्रतिबिंब उससे पाया लक्षका वेध जो मनुष्य बाणको ऊंचा खांचके राधाके डावे नेत्रका वेध करे वह राधावेध कहा जावे ॥ ८८०॥ सो पुण केणवि विरलेण, चेव विन्नाय धणुहवेएण। उत्तमनरेण किजई, जंगिजइ एरिसं लोए ॥८८१॥ । अर्थ-और वह राधावेध कोई विरला उत्तम पुरुष करे है जिसने धनुर्वेद अच्छी तरहसे जाना होवे वही राधावेध साध सके है । जिस कारणसे लोकमें ऐसा कहा जावे है ॥ ८८१॥ विणयंता चेव गुणा, संतंतरसा किया उ भावंता। कवं च नाडयंतं, राहावेहंतमीसत्थं ॥८८२॥ ॥११॥ | अर्थ-विनय अंतमें जिन्होंके ऐसे गुण हैं सर्व गुणोंमें विनयहीका प्राधान्य है तथा रसोंमें शान्तरस प्राधान्य है|8| RSSSSSSSSS RAKAAS For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और देव दर्शनादि क्रियायोंमें भावशुद्ध अध्यवसायही प्रधान है काव्यमें नाटकही प्रधान है इसी तरह शस्त्र कलामें राधावेधही प्रधान है ॥ ८८२ ॥ तं सोऊणमिमीए, नरवर ! तुह नंदणाइ सहसति । बहुलोयाण समक्खं, इमा पइन्ना कया अस्थि ॥ ८८३ ॥ अर्थ - वह राधावेधका स्वरूप सुनके हे महाराज इस आपकी पुत्रीने अकस्मात बहुत लोकोंके सामने यह प्रतिज्ञा किया है सो कहते हैं ॥ ८८३ ॥ जो किर महदिट्ठीए, राहावेहं करिस्सए कोवि । तं चैव निच्छएणं, अहं वरिस्सामि नररयणं ॥ ८८४ ॥ अर्थ - जो कोई पुरुष मेरी दृष्टिके सामने राधावेध करेगा उसी नररलको मैं भर्तार पने अंगीकार करूंगी ॥ ८८४ ॥ एयाइ पइन्नाए, नज्जइ पुरिसोत्तमस्स कस्सावि । नूणं इमा भविस्सइ, पत्ती धन्ना सुकयपुन्ना ॥ ८८५ ॥ अर्थ - इस प्रतिज्ञा करके जाना जावे है यह आपकी पुत्री कोई पुरषोत्तम उत्तम पुरुषकी स्त्री होगी कैसी है यह धन्य है कृत पुण्य है ॥ ८८५ ॥ ता तुब्भेवि नरेसर !, एवं चिंतं चएवि वेगेण । कारेह वित्थरेणं, राहावेयस्स सामरिंग ॥ ८८६ ॥ अर्थ - इस कारण से है नरेश्वर यह पूर्वोक्त चिंताको छोड़के शीघ्र राधावेधकी सामग्री विस्तारसे करावो ॥ ८८६ ॥ च तहा मंडाविय, रन्नावि निमंतिया नरिंदाय । परमिक्केणवि केणवि, राहावेहो न सो विहिओ ॥ ८८७॥ For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१११॥ सहितम् Hottestertentuntunun अर्थ-वह राधावेधकी सामग्री उसी प्रकारसे करवाके राजानेभी और राजाओंको बुलाया है और बहुत राजा आए भाषाटीकाहै हैं परन्तु एकनेभी राधावेध नहीं किया है ॥ ८८७ ॥ सो विहु जइ होइ अणेण, चेव कुमरेण गुरुपभावेण।नो अन्नेणं केणवि, होही सो निच्छओ एसो॥८८८॥ ___ अर्थ-निश्चय जो वह राधावेधभी होवे तो इसी कुमरसे होवे बड़ा है प्रभाव जिसका ऐसा यह कुमर है और कोई पुरुससे नहीं होगा ऐसा निश्चय है ॥ ८८८॥ एवं कहिऊण नियट्टियस्स, भट्टस्य कुंडलं दाउं। कुमरो वि सपरिवारो, निवदत्तावासमणुपत्तो॥ ८८९ ॥ ___ अर्थ-इस प्रकारसे कहके निवृत्त हुआ भट्टको कुंडल देके कुमरभी ख्यादि परिवार सहित राजाका दिया हुआ आवासमें प्राप्त भया ॥ ८८९॥ तत्थ ढिओ तं रयणि, रमणीगणरमणरंगरसवसओ। पञ्चूसे पुण पत्तो, कुल्लागपुरे तहच्चेव ॥ ८९० ॥8 __अर्थ-स्त्रियोंका जो समूह उसके साथजो क्रीड़ा करना उसमें जो राग वह ही रसकास्वाद उसके वश सबरात्रि वहां रहा प्रभातमें उसी प्रकारसे हारके प्रभावसे कुल्लागपुर पहुंचा ॥ ८९० ॥ ॥११॥ उवविडेय नरिंदे, मिलिए लोए कुमरिदिट्ठीए । कुमरेण कओ राहा,-वेहो हारप्पभावेणं ॥ ८९१ ॥ POSLASHAŁASSASALARISA For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - राजा लोक बैठे हैं और सबलोक जहां मिले हैं जिस मंडपमें वहां कुमर श्रीपालने कुमरीके सामने हारके प्रभाव से राधावेध किया ।। ८९१ ॥ वरिओ तीए जइसुंदरीवि, कुमरो पमोयपुन्नाए । नरनाहोवि हु महया, - महेण कारेइ वीवाहं ॥ ८९२ ॥ अर्थ-आनन्दसे पूर्णभई ऐसी जयसुंदरी कन्याने कुमरको वरा राजाभी बहुत उत्सवसे विवाह कराया ॥ ८९२ ॥ नरवइदिन्नावासे, सुक्खनिवासे रहेइ जा कुमरो। ता माउलनिवपुरिसा, तस्साणयणत्थमणुपत्ता ॥ ८९३ ॥ अर्थ- सुखकारी निवास जिसमें ऐसा राजाके दिए हुए प्रासादमें जितने कुमर रहे उतने मामा राजा वसुपालका पुरुष सेवक कुमरको बुलानेके वास्ते आया ॥ ८९३ ॥ | कुमरो नियरमणीणं, आणयणत्थं च पेसए पुरीसे । ताओवि सुंदरीओ, सबन्धुसहियाउ पत्ताओ ॥ ८९४ ॥ अर्थ – कुमर अपनी स्त्रियोंको बुलानेके वास्ते पुरुषोंको भेजे वह स्त्रियोंभी अपने २ भाईयोके साथ वहां आई ८९४ | मिलियं च तत्थ सिन्नं, हयगयरहसुहडसंकुलं गरुयं । तेण समेओ कुमरो, पत्तो ठाणाभिहाणपुरं ॥ ८९५॥ अर्थ — और वहां बहुत सेना इकट्ठी भई घोड़ा हाथी रथ प्यादलोंसे व्याप्त उस सेनासहित कुमर थाणा नगर आया ।। ८९५ ॥ आनंदिओय माउल, -राया तस्सुत्तमं सिरिदहुं । सुंदरि चउक्कसहियं, दट्टूण पहुं च मयणाओ ॥ ८९६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ११२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - और मातुल (मामा) राजा वसुपाल कुमरकी उत्तमलक्ष्मी देखके आनन्द प्राप्त भया और मदनसेनादि कुमरकी तीन स्त्रीयों चार सुंदरी सहित अपने भर्तारको देखके आनन्द सहित भई ॥ ८९६ ॥ ततो माउलयनिवो, अणेगनरनाहसंजुओ कुमरं । सिरिसिरिपालं थप्पड़, रज्जे अभिसेयविहिपुवं ॥ ८९७॥ अर्थ - तदनंतर मामा वसुपालराजा अनेक राजाओं करके सहित श्री श्रीपाल कुमरको अभिषेकविधि पूर्वक राज्यमें स्थापे । ८९७ ॥ सीहासणे निविट्ठो, वरहार किरीडकुंडलाहरणो । वरचमरछत्तपमुहेहिं, राय - चिन्हेहिं कयसोहो ॥ ८९८ ॥ अर्थ - राज्याभिषेक के अनन्तर जैसा राजा भया सो कहेते हैं सिंहासन पर बैठा भया प्रधान हार मुकट कुंडल वगैरहः पहरनेको जिसके और प्रधान चामर छत्र प्रमुख राजचिन्हों करके करी शोभा जीसकी ऐसा ॥ ८९८ ॥ | सिरिसिरिपालो राया, नरवरसामंतमंतिपमुहेहिं । पणमिज्जइ बहु हयगय - मणिमुत्तियपाहुडकरेहिं ८९९ अर्थ - श्रीपालराजाको राजा 'सामंत' मंत्री प्रमुख आके नमस्कार करें कैसे राजा वगैरह घोड़ा हाथी मणि वैडूर्यादि रत्न मुक्ताफल वगैरह भेटना है हाथमें जिन्होके ऐसे ॥ ८९९ ॥ पवहणसिरिसमेओ, असंखचउरंग सिन्नपरिकरिओ । चल्लर सिरिपालनिवो, नियजणणीपायनमणत्थं ॥ ९०० ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ ११२ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-जहाजोंकी लक्ष्मी करके सहित नहीं विद्यमान संख्या जिसकी ऐसा असंख्य जो चतुरंग हाथी, घोड़ा रथ प्यादल रूप सैन्य करके सहित श्रीपालराजा अपनी माताके चरणोंमें नमस्कार करनेके लिए चले ॥ ९.०॥ सो विह आगच्छंतो, ठाणे ठाणे नरिंदविंदहिं । बहुविहभिट्टणएहिं, भिहिजइ लद्धमाणेहिं॥ ९०१॥ PI अर्थ-श्रीपालराजा मार्गमें चलता हुआ ठिकाने २ नृपसमूह करके अनेक प्रकारके भेटनों से भेटा जावे कैसे राज समूह पाया है सन्मान जिन्होंने ॥ ९०१॥ सोपारयंमि नयरे, संपत्तो तत्थ परिसरमहीए। आवासिओ ससिन्नो, सो सिरिपालो महीपालो ॥९०२॥ | अर्थ-ऐसे प्रयाण करते हुए क्रमसे सोपारक नाम नगर प्राप्त भया वहां नगरके पासकी भूमीमें श्रीपालराजा सेनासहित निवास किया ॥९०२॥ पुच्छइ पहाणपुरिसे, जं सोपारयनिवो न दंसेइ । भत्तिं वा सत्तिं वा, तं नाऊणं कहह तुरियं ॥९०३॥ _ अर्थ-तदनंतर श्रीपालराजा प्रधान पुरुषोंसे पूछे सो पारक नगरका राजा भक्ति प्रसन्नता अथवा सक्तिसामर्थ्य कैसे नहीं दिखावे है वह जानके शीघ्र कहो ॥ ९०३ ॥ नाऊण तेहिं कहियं, नरनाहो नाम इत्थ अस्थि महसेणो।ताराय तस्स देवी, तक्कुच्छिसमुभवा एगा९०४ AUTHOR:SSUESIACAS For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ११३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — उन प्रधान पुरुषोंने वह स्वरूप जानके राजाके आगे कहा हे महाराज इस नगरमें महासेन नामका राजा है 5 भाषाटीकाउस राजाके तारा नामकी रानी है और उन्होंके तिलक सुंदरी नामकी पुत्री है ॥ ९०४ ॥ सहितम्. तिजयसिरितिलयभूया, धूया सिरितिलय सुंदरीनामा । अज्जेव कहवि दुट्टेण, दीहपिट्ठेण सा दट्ठा ॥ ९०५ ॥ अर्थ - कैसी है तिलकसुंदरी तीन लोककी लक्ष्मीके ललाटमें तिलक सदृश ऐसी तिलकसुंदरी कन्याको आजही कोई प्रकार से दुष्ट सर्पने इसी है ।। ९०५ ॥ विहिया वहुप्पयारा, उवयारामंतओसहि मणीहिं । तहवि न तीए सामिय?, कोवि हु जाओ गुणवि सेसो ९०६ अर्थ – मंत्र औषधी मणियों करके बहुत उपचार किया तथापि हे स्वामिन् उस कन्याके निश्चय कोई गुण विशेष नहीं भया ॥ ९०६ ॥ तेण महादुक्खेणं पीडियहियओ नरेसरो सोउ । नो आगओत्थि इत्थं, अपसाओ नेव कायवो ९०७ अर्थ – उस महादुःखसें पीडित हृदय जिसका ऐसा वह राजा नहीं आया है यहां अप्रसन्नता नहीं करनी ॥ ९०७ ॥ राया भणेइ सा कत्थ, अत्थि दंसेह मज्झ झत्ति तयं । जेणं किज्जइ कोवि हु, उवयारो तीइ कन्नाए ९०८ अर्थ-तब राजा श्रीपाल कहे कन्या कहां है शीघ्र मेरेको दिखाओ जिससे उस कन्याका उपाय जहर दूर करनेका किया जाय ॥ ९०८ ॥ For Private and Personal Use Only ॥ ११३ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAUSI A S + एवं चेव भणंतो, नरनाहो तुरयरयणमारुहिउं। जा जाइ पुराभिमुहं, ता दिट्ठो बहुजणसमूहो ॥९०९॥ | अर्थ-इस प्रकारसे कहता हुआ राजा श्रीपाल घोड़ेपर सवार होके जितने नगरके सामने जावे उतने नगरके बाहर 8|बहुत लोकोंका समूह देखा ॥ ९०९॥ नायं च नरवरेणं, नूणं साआणिया मसाणंमिातहविहु पिच्छामि तयं, माहुजियंती कहवि हज्जा॥९१०॥ अर्थ-और राजाने जाना निश्चय वह कन्या श्मसानमें लाई भई दीखे है तथापि उस कन्याको देखू कदाचित् । जीवती न होवे ॥ ९१०॥ एवं च चिंतयंतो, पत्तो सहसत्ति तत्थ नरनाहो।पभणेइ इक्कवारं, मह दंसह झत्ति तं दद्रं॥९११॥ है। अर्थ-इस प्रकारसे विचारता हुआ राजा अकस्मात शीघ्र वहां प्राप्त भया हुआ कहे अहों लोको सर्पको डसी भई . कन्याको एक वक्त शीघ्र दिखाओ ॥ ९११॥ भणियं च तेहिं नरवर?, किं दंसिजइ मयाइ बालाए।अम्हाणं सबस्सं, अवहरियं अज्ज हयविहिणा ९१२ ___ अर्थ-उन लोकोंने कहा हे महाराज मरी भई कन्याको क्या दिखावें हत इति खेदे आज विधि देवने हमारा सरवस्व हरण कर लिया ॥ ९१२॥ राया भणेइ भोभो, अहिदट्ठा मुच्छिया मयसरिच्छा। दीसंति तहवितेसिं, जहा तहा दिजइ न दाहो ९१३ ESCASSIANICS*CASAS PASAULES For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥११४॥ XHOSASSASSACHUSESUAISIA अर्थ-राजा कहे अहो लोको सर्पके डसे हुए। पुरुष मूच्छित होके मरे हुए सदृश दीखते हैं तथापि उन सर्पके डसे भाषाटीकाहुए पुरुषोंको जैसे तैसे दाह देना नहीं ॥ ९१३ ॥ सहितम् तो तेहिं दंसिया सा, चियासमीवंमि महियले मुक्का । कंठट्रियहारेणं, रन्ना करवारिणा सित्ता॥ ९१४॥ | अर्थ-तदनंतर उन पुरुषोंने चिताकेपासकी भूमिपर रक्खी भई कन्याको दिखाई तव कंठस्थित हारके प्रभावसे 5 राजा श्रीपालने हाथमें जल लेकर छांटा ॥ ९१४ ॥ तत्कालं सा वाला, सुत्तविबुद्धुत्व उठ्ठिया झत्ति । विम्हियमणाय जंपइ, ताय किमेसो जणसमूहो ९१५ १ ___ अर्थ-तत्काल वह कन्या सोती भई जगे बैसी तत्काल उठी और आश्चर्य युक्तमन जिसका ऐसी शीघ्रबोली हे 8 तापिताजी इन लोकोंका समूह क्यों इकट्ठा भया हैं ॥९१५ ॥ महसेणो साणंदो, पभणइ वच्छे तुमं कओ आसि । जइ एस महाराओ नागच्छिज्जा कयपसाओ ९१६/२ ___ अर्थ-तब महसेन राजा आनंद सहित कहे हे पुत्रि जो यह महाराज यहां नहीं आते तो तें कहां थी कैसे हैं यह महाराज किया है अनुग्रह जिन्होंने ॥ ९१६ ॥ है एएणं चिय दिन्ना, तुहपाणा अज परमपुरिसेण । जेण चियाओ उत्तारिऊण, उट्ठावियासि तुम ९१७) ११४॥ . अर्थ-इसी परम पुरुषने आज तेरेको प्राण दिया जिसने चितासे उतारकर तेरेको उठाई ॥९१७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च.२० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो तीए साणंद, दिट्ठो सो समणसायरससंको । सिरिपालो भूवालो, सिणद्धमुद्धेहिं नयणेहिं ॥ ९९८ ॥ अर्थ —तदनंतर उस राजकन्याने आनन्द हर्ष सहित श्रीपाल राजाको स्निग्ध मुग्ध स्नेह सहित रमणीक नेत्रोंसे देखा | कैसा है श्रीपालराजा अपने मनरूप समुद्र के उल्लास करने में चन्द्रके जैसा जैसे चन्द्रोदयसे समुद्र उल्लास पावे है वैसा ॥९९८ ॥ महसेणो भणइ निवं, अम्हं तुम्हेहिं जीवियं दिनं । तो जीवयाओ अहियं, एयं गिन्हेह तुज्झेवि ९१९ अर्थ-बाद महसेनराजा श्रीपाल राजासे कहे आपने हमको जीवित दिया है तिस कारणसे हमारे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी इस मेरी पुत्रीको ग्रहणकरो ॥ ९१९ ॥ I इय भणिऊणं रन्ना, नियकन्ना तस्स रायरायस्स । दिन्ना सा तेणावि हू, परिणीया झत्ति तत्थेव ९२० अर्थ - ऐसा कहके महसेन राजाने श्रीपाल महाराजको अपनी कन्यादी श्रीपाल महाराजने भी शीघ्र उसी ठिकाने उस कन्याका पाणिग्रहण किया ।। ९२० ॥ तीए य तिलयसुंदरी, सहियाओ ताओ अट्ठमिलियाओ। सिरिपालस्स पियाओ, मणोहराओ परं तहवि ९२१ अर्थ - तिलक सुंदरी सहित मनोहर सब लोगोंका मनहरनेवाली श्रीपालराजाकों आठरानी मिली तथापि श्रीपाल राजा नवमी प्रिया मदनसुंदरीको याद करे ॥ ९२१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् जह अट्ठदिसाहिं अलंकिओवि, मेरू सरेइ उदयसिरिं।जह बंछइ जिणभत्तिं, अडग्गमहिसीजुओवि हरी भाषार्टीका__अर्थ-कौन किसके जैसा आठ पूर्वादि दिशा करके अलंकृत शोभित मेरु सूर्योदय लक्ष्मीको याद करे है और जैसे | आठ इन्द्रानियों सहितभी इन्द्र नवमी जिन भक्तिकी वांछा करे है ॥ ९२२॥ अविअट्ठदिट्ठिसहिओ, जहा सुदिट्ठी समीहए विरई। साहू जहट्ठपवयण, माइजुओवि हुसरइ समयं ९२३/8 ___ अर्थ-और जैसे आठ दृष्टि मित्रा १ तारा २ वला ३ प्रदीपा ४ स्थिरा ५ कान्ता ६ प्रभा ७ परा ८ सहितभी सम्यक् दृष्टि आत्मा विरति सावद्ययोग त्याग रूपकी इच्छा करे है आठ दृष्टिका स्वरूप योगदृष्टि समुच्चय ग्रंथसे जानना और जैसे आठ प्रवचन माता समिति ५ गुप्ति ३ सहितभी साधु निश्चय समता समभावरूपका स्मरण करे ॥९२३॥ जह जोई अट्ठमहासिद्धि,-समिद्धोवि ईहए मुत्तिं। तह झायइ पढमपियं, सो अट्ठपियाइं सहिओवि ९२४ __ अर्थ-और जैसे योगी ज्ञान, दर्शन चारित्रात्मक योगयुक्त पुरुष आठ महा सिद्धि अणिमादिक करके समृद्धभी है। नवमी मुक्तिकी इच्छा करे है उसी प्रकारसे श्रीपालराजा आठ स्त्रियों सहितभी पहली स्त्री मदनसुंदरीका निरंतर हृदशायमें स्मरण करे ॥ ९२४॥ तो तीए उक्कंठियचित्तो, जणणीइ नमणपवणो य । सो सिरिपालो राया, पयाणढक्काओ दावेइ ॥९२५॥ SANCHARACREARCAKAM ११५॥ For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4SEASESSHOSHOSHISHIGASH | अर्थ-तदनंतर मदनसुन्दरीके साथ मिलनेमें उत्कंठित मन जिसका और माताके चरणों में नमस्कार करनेमें तत्पर श्रीपालराजा सोपारक पत्तनसे प्रयाण भेरी दिलावे ॥ ९२५ ॥ मग्गे हयगयरहभड,कन्नामणिरयणसत्थवत्थेहि, । भिहिजइ सो राया, पए पए नरवरिंदेहिं ॥९२६॥ | अर्थ-वह श्रीपालराजा मार्गमें ठिकाने २ राजाओं करके भेटनोंसे भेटा जाबे है हाथी घोड़ा रथ प्यादल कन्या |मणि चन्द्रकान्तादि रत्नमाणिकादि शस्त्र, वस्त्र वगैरहः भेटना राजालोक लाके देते हैं ॥ ९२६ ॥ है एवं ठाणे ठाणे, सो बहुसेणाविवड्डियबलोहो । महिवीढे नइवड्डिय, नीरो उयहिव वित्थरइ ॥९२७॥ देते हैं ॥ ९२६॥ | अर्थ-इस प्रकारसे श्रीपालराजा ठिकाने २ बहुत सेना करके वढाहै सैन्य समूह जिसके ऐसा पृथ्वीपीठपर विस्तार पावे जैसा नदियों करके बढ़ा हुआ समुद्रका जल वैसा श्रीपालराजाका कटक पृथ्वीपर विस्तार पाया ॥ ९२७ ॥ मरहट्ठय सोरट्रय, सलाडमेवाडपमुहभूवाले । साहंतो सिरिपालो, मालवदेसं समणुपत्तो ॥ ९२८॥ अर्थ-महाराष्ट्र सोरठलाट देशहित मेदपाट प्रमुखदेश विशेषके राजाओंको स्वाधीन करता हुआमालवदेशमें पहुंचा ९२८ तं परचक्कागमणं, सोऊणं चरमुहाओ अइगरुयं । सहसत्ति मालविंदो, भयभीओ होइ गढसज्जो॥९२९॥ _ अर्थ-मालव देशका राजा प्रजापाल चर पुरुषके मुखसे बहुत बड़ा परसैन्यका आगमन सुनके अकस्मात भयभीत हुआ गढ़ तय्यार करके रहा ॥ ९२९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ ११६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कंप्पड चुप्पडकणतिण, - जलइंधण संगहाय किज्जंति । सज्जिज्जंति य जंता, तह सज्जिज्जंति वरसुहडा ९३० अर्थ - तथा वस्त्र और घृतादि धान्य घास जल इन्धनवगैरहका संग्रहः किया जावे है और यन्त्र शतघ्नी वगैरह तय्यार किए जावें प्रधान सुभटोंकी प्रशंसा करी जावे ॥ ९३० ॥ एवं सा उज्जेणी, नयरी बहुजणगणेहिं संकिन्ना, । परिवेढिया समंता, तेणं सिरिपालसिनेणं ॥ ९३१ ॥ अर्थ - इस प्रकार से वह उज्जैनी नगरी बहुत लोकोंके समूहसे सांकरी भई और श्रीपालकी सेनासे चौतर्फ वीटी गई अर्थात् श्रीपालकीसेना नगरीके बाहर चौतर्फ बीटके उतरी ॥ ९३१ ॥ आवासिय सिन्ने, रयणीए पढमजामसमयंमि । हारपभावेण सयं, राया जणणीगिहं पत्तो ॥ ९३२ ॥ अर्थ - सेनाका उतारा कियोंके बाद रात्रिके पहले प्रहर में श्रीपालराजा हारके प्रभावसे माताके घर गया ॥ ९३२ ॥ | आवासदुवारि ठिओ, सिरिपालनरेसरो सुणइ ताव, । कमलप्पभा पर्यपइ, बहुयं पइ एरिसं वयणं ॥९३३॥ अर्थ - श्रीपालराजा माताके घरके दरवज्जेके बाहर खड़ा हुआ जितने सुने उतने कमल प्रभा माता मदनसुंदरी बहूसे | ऐसा वचन कहे ॥ ९३३ ॥ वच्छे परचकेणं, नयरी परिवेढिया समंतेणं । हलोहलिओ लोओ, किं किं होही न याणामि ॥ ९३४ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीका सहितम्. ॥ ११६ ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ – कैसा वचन कहे सो कहते है है वत्से परसेनासे नगरी चौतर्फ वीटी भई है सबलोक व्याकुल भए हैं अब क्या २ होगास नहीं जानू ॥ ९३४ ॥ वच्छस्स तस्स देसतरंमि, पत्तस्स वच्छरं जायं । वच्छे कावि न लब्भइ, अज्जवि सुद्धी तुह पियस्स ॥ ९३५॥ अर्थ- वह मेरा पुत्र देशान्तर गया है उसको एक वर्ष भया है हे पुत्री अबतक तेरे भर्तारकी सुद्धीभी नही मिली अर्थात् बिल्कुल समाचार नहीं आया है ॥ ९३५ ॥ | पभणेइ तओ मयणा, मा मा मा माइ किंपि कुणसु भयं । नवपयझाणंमि मणे, ठियंमि जं हुंति न भयाई ॥ अर्थ - तदनंतर मदनसुंदरी प्रकर्षपनेकहे हे माताजी मनमें कुछ भय करो मत जिस कारणसे नवपदका ध्यान मनमें रहनेसे भय नहीं होवे है ॥ ९३६ ॥ जं अजंचिय संज्झा, - समए मह जिणवरिंदप डिमाओ । पूयंतीए जाओ, कोइ अपुवो सुहो भावो ९३७ अर्थ — और आजही संध्या समयमें तीर्थंकर की पूजा करते मेरे जो कोई अपूर्व शुभभाव अध्यवसाय उत्पन्न भयो ३७ | तेणं चिय अज्जवि मह मणंमि, नो माइ माइ आणंदो । निक्कारणं सरी रे, खणे खणे होइ रोमंचो ॥९३८ ॥ अर्थ - तिस कारणसेही हे माताजी अबतकभी मेरे मनमें आनन्द हर्ष नहीं मावे है तथा क्षण २ में शरीरमें विनाकारणही रोमोद्गम होवे है अर्थात् रोमराजी विकस्वरमान होवे है ॥ ९३८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल-18 अन्नं च मज्झ वाम, नयणं वामो पओहरो चेव । तह फंदइजह मन्ने, अजेव मिलेइ तुह पुत्तो॥९३९॥ दूभापाटीका |सहितम्. चरितम् ता अर्थ-औरभी मेरा डावा नेत्र और डावा स्तन वैसा फरके हैं जैसे आजही आपका पुत्र मिलैगें ऐसा मानती हूं ॥९३९॥ ॥११७॥ हैतं सोउणं कमलप्पभावि, आणंदिया भणइ जाव । वच्छे सुलक्खणा तुह,-जीहा एयं हवउ एवं ॥९४०॥ PI अर्थ-वह वचन सुनके कमलप्रभामाता आणंदसहित चित्त जिसका ऐसी जितने कहे हे वत्से तेरी जिव्हा सुल क्षणी है यह इसी तरह होवो ॥ ९४०॥ ताव सिरिपालराया, पियाइ धम्ममि निच्चलमणाए । नाऊण सञ्चवयणं, बारं बारंति जंपेइ॥९४१॥ । अर्थ-उतने श्रीपालराजा धर्ममें निश्चल मन जिसका ऐसी अपनी स्त्रीका सत्यवचन जानके द्वारं २ दरवजा खोलो| दरवज्जा खोलो ऐसा कहे ॥ ९४१॥ कलमप्पभा पयंपइ, नूणमिणं मज्झ पुत्तवयणंति। मयणावि भणइ जिणमय, वयणाई किमन्नहा हुंति॥ ___ अर्थ-तब कमलप्रभा राजाकी माता कहे निश्चय यह मेरे पुत्रके वचन हैं तब मदनसुंदरीभी कहे जैनधर्मकी सेवा करनेवालोंका वचन क्या झूठा होवे है अपितु नहीं होवे है ॥ ९४२॥ उग्घाडियं दुवारं, सिरिपालो नमइ जणणि पयजुयलंदइयं चविणयपउणं, संभासइपरमपिम्मेणं ९४३ MONSORESCUSS ARCASE ॥११७॥ CACAM For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAMAKAMSAKALAM का अर्थ-तदनंतर दरवजा उघाड़ा श्रीपालराजा माताके चरणोंमें नमस्कार करे और विनय करनेमें तत्पर प्रिया मदन हा सुंदरीके साथ परमप्रेमसे भाषणकरे ॥ ९४३ ॥ है आरोविऊण खंधे, जणणिं दइयं च लेवि हत्थेण । हारप्पभावउच्चिय, पत्तो नियगुट्टरावासं ॥९४४॥ | अर्थ तदनंतर श्रीपालराजा माताको कांधेपर बैठाके स्त्रीको हाथ में लेके हारके प्रभावसे अपने तंबूमें आए ॥९४४॥ तत्थय जणणिं पणमित्तु, नरवरो भद्दासणे सुहनिसन्नं। पभणेइ माय तुह,-पयपसायजणियं फलं एयं९४५ अर्थ-वहां तंबूमें राजा श्रीपाल भद्रासनपर बैठी हुई माताको नमस्कार करके कहे हे माताजी तुम्हारे चरणोंके प्रसादसे उत्पन्न भया यह फल है ॥ ९४५ ॥ पणमंति तओ ताओ, अटू ण्डहाओ ससासुयाइ पए। अवि मयणसुंदरीए, जिट्राए निययभइणीए॥ | अर्थ-तदनंतर आठ पुत्रकी याने श्रीपालराजाकी रानियों सासुके चरणोंमें नमस्कार करें तथा बड़ी बहिन मदन| सुंदरीके चरणों में नमस्कार करें ॥ ९४६ ॥ अभिणंदियाओ ताओ, ताहिं आणंदपूरियमणाहिं। सबोवि हु वुत्तंतो मयणमंजूसाइ कहिओ य॥९४७॥ __ अर्थ-उन सासु और मदनसुंदरीने आशीर्वाद देके आनंदसहित करी कैसी है श्रीपालकी माता कमलप्रभा और मदनसुंदरी आनंदसे पूरित है मन जिन्होंका ऐसी और मदनमंजूसा विद्याधर राजाकी पुत्रीने सर्ववृत्तान्त कहा ॥९४७॥ दू SARASHARASRANAGAR For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥११८॥ OCES MAGAMAALCARICANCHAR तासिं च नवन्हंपिह, वत्थालंकारसारपरिवारं। देई निवो साणंदो, इकिकं नाडयं चेव ॥ ९४८॥ भाषाटीकाअर्थ-तब श्रीपालराजा आनंद सहित नवरानियोंको प्रधान बस्त्र अलंकार और सार परिवार देवे और एक छ| सहितम्. २ नाटक देवे ॥ ९४८॥ पुट्ठा जिट्ठा मयणा, तुह जणयंपि ह कहं अणावेमि। तीए वुत्तं सो एउ, कंठपीठविय कुहाडो॥९४९॥ अर्थ-तब राजा बड़ी रानी मदन सुंदरीसे पूछा तुम्हारे पिताको किस प्रकारसे बुलाऊं तब मदनसुंदरी बोली हे| ४/स्वामिन् वह मेरे पिता कंठपर कुहाड़ा जिसके ऐसे होके आओ ॥ ९४९॥ ट्रातंच तहा यमुहेण, तस्स रन्नो कहावियं जाव । ताव कुविओ य मालवराया मंतीहि भणिओ य॥९५०॥ | अर्थ-वह वचन उसी प्रकारसे दूतके मुखसे प्रजापाल राजाको जितने कवाया उतने मालवराजा क्रोधातुर हुआ तव मंत्रियोंने कहा ॥ ९५०॥ सामिय असमाणेणं, समं विरोहो न किज्जए कहवि। ता तुरियं चिय किजओ, वयणं दूयस्स भणियमिणं॥ ___ अर्थ-हे स्वामिन् अपनेसे अधिक के साथ बिरोध नहीं करना कोई प्रकारसे इसलिए शीघ्र यह दूतका कहा हुआ ॥११८॥ है वचन करो ॥ ९५१॥ S ORIES For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काऊणं च कुहाडं, कंठे राया पभायसमयंमि । मंतिसामंतसहिओ, जा पत्तो गुदुरदुवारे ॥ ९५२ ॥ अर्थ-तदनंतर प्रभात समयमें कांधेपर कुहाड़ा रखके मंत्री सामंतों सहित राजा जितने तंबूके दरवाजे आया ॥९५२॥ ताव सिरिपालरन्ना, मोयावेऊण तं गलकुहाडं । पहिराविऊण वत्था,-लंकारे सारपरिवारो ॥९५३ ॥ अर्थ-उतने श्रीपाल राजाने कांधेका कुहाडा दूर करवाके प्रधानवस्त्र आभूषण पहराके सारपरिवार सहित ॥९५३॥ आणाविओ य मझे, दिन्ने य वरासणंमि उवविट्ठो, सो पयपालो राया, मयणाए एरिसं भणिओ ९५४ में ___ अर्थ-तंबूमें बुलाया प्रधान आसन बैठनेको दिया तब सिंहासनपर बैठा हुआ प्रजापाल राजाको मदनसुंदरीने ऐसा बचन कहा ॥ ९५४ ॥ ताय तए जो तइया,मह कम्मसमप्पिओवरो कहिओ। तेणज तुह गलाओ,कुहाडओ फेडिओएसो९५५ ___ अर्थ-क्या कहा सो कहते है पिताजी आपने मेरे पाणिग्रहणके समयमें मेरा कर्मलाया ऐसा वर कहाथा उस मेरे| है भर्तारने आज आपके कांधेसे कुहाड़ा दूर कराया अर्थात् मालवका राज्य आपको दिया ॥ ९५५ ॥ तो विमिओय मालवराया, जामाउयंपि पणमेई। पभणेइ असामि तुम, महप्पभावोवि नो नाओ ९५६ । SHOCOLARSACREAK For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल चरितम् | ॥११९॥ ABROASALMALSEX अर्थ-तब आश्चर्य पाया हुआ मालवराजा प्रजापाल जमाई श्रीपालको नमस्कार करे और कहे हे स्वामिन् महा|भाषाटीका६ प्रभाव जिसका ऐसा मैंने आपको नहीं जानाथा ॥ ९५६ ॥ सहितम्. सिरिपालोवि नरिंदो, पभणइ नहु एस मह प्पभावोत्ति। किंतु गुरुवइट्ठाणं, एस पसाओ नवपयाणं ९५७ | अर्थ-श्रीपालराजा कहे यह मेरा प्रभाव नहीं है किंतु गुरूके कहे हुए नवपदोंका यह प्रभाव है ॥ ९५७ ॥ सोऊण तमच्छरियं, तत्थेव समागओ समग्गोवि । सोहग्गसुंदरी-रुप्पसुंदरीपमुहपरिवारो ॥ ९५८ ॥ | अर्थ-वह आश्चर्य सुनके सौभाग्यसुंदरी रूपसुंदरी प्रमुख सर्व परिवार वहांही पर मंडपमें आया ॥ ९५८ ॥ मिलिए य सयणवग्गे आणंदभरेय वहमाणे य । सिरिपालेणं रन्ना, नाडयकरणं समाइह ॥ ९५९ ॥ &ा अर्थ-अथ स्वजन सम्बन्धियोंका समूह मिलनेसे अधिक आनंद होनेसे श्रीपाल राजाने नाटक करनेकी आज्ञादी॥९५९॥ तो झत्ति पढमनाडय, पेडयमाणंदियं समुढेइ । परमिक्का मूलनडी, बहुंपि भणिया न उठेइ ॥९६०॥ PL. अर्थ-तदनंतर शीघ्र प्रथम नाटकके पेड़ेका वृन्द याने समूह वाला हर्षित चित्त जिन्होंका ऐसे उठे परन्तु एक मूल नटवी बहुत कहा तौभी नहीं उठी ॥ ९६० ॥ कह कहवि पेरिऊणं, जाव समुहाविया निरुच्छाहा । तो तीए सविसायं, दूहयमेगं इमं पढियं ॥९६१॥ है। ॥११९॥ For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- गया है उत्साह जिसका ऐसी निरुत्साह मूल नटवीको कोई प्रकारसे प्रेरणा करके जितने उठाई उतने उस मूल नटवीने दुःखसहित यह एक दोहा नामका छंद कहा ॥ ९६९ ॥ कहिं मालव कहिं संखउरि, कहिं बबरु कहिं नहु । सुरसुंदरि नच्चावियइ दइविहिं दलवि मरहु ॥ ९६२ ॥ अर्थ - कहां मालव नामका देश जहां जन्म भया कहां शंखपुरी नगरी जहां परणाई कहां वबर देश जहां विक्रीतानाम वेची कहां लोकोंके सामने नाटक करना देवने गर्भको चूर्ण करके सुरसुंदरी के पास नाटक करावे है ।। ९६२ ॥ तं वयणं सोऊण, जणणीजणयाइसयलपरिवारो । चिंतेइ विह्नियमणो, एसा सुरसुंदरी कत्तो ॥ ९६३ ॥ अर्थ- वह वचन सुनके माता पिता वगैरहः सर्व परिवार आश्चर्य पाया विचारे यहां सुरसुंदरी कहांसे आई ॥ ९६३ ॥ उवलक्खियाय जणणी, कंठंमि बिलग्गिऊण रोयंती, जणएणं सा भणिया, को वृत्तंतो इमो वच्छे ॥ ९६४ ॥ अर्थ - वाद पहिचानी सबोंने जानी तब माता के कंठमें लगके रोती भई सुरसुंदरीको पिताने पूछा हे वत्से यह क्या वृतान्त है ॥ ९६४ ॥ भणियं च तओ तीए, ताय तया तारिसीइ रिद्धीए । सहिया निएण पइणा, संखपुरिपरिसरं पत्ता ॥९६५॥ अर्थ - तदनंतर सुरसुंदरीने कहा हे पिताजी उस अवसर में मैं अपने पतिसहित आपकी दी हुई ऋद्धियुक्त शंखपुरी नगरीके पास पहुंची ॥ ९६५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १२० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुमुहूत्तकए बाहिं, ठिओ य जामाउओ स तुह्माणं । सुहडाणं परिवारो, बहुओ य गओ सगेहेसु ॥ ९६६ ॥ अर्थ-वह आपका जमाई शुभ मुहूर्त के लिए नगरीके बाहिर रहा सुभटोंका परिवार बहुतसा नगरीमें अपने २ घर गया ।। ९६६ ॥ रयणीए पुरबाहिं, ठियाण अह्माण निब्भयमणाणं । हणि मारिति करिती, पडिया एगा महाघाडी ॥९६७॥ अर्थ - रात्रिमें नगरके बाहिर रहे हुए निर्भय मन जिन्होंका ऐसा हमारे पर मार मार ध्वनि करती भई एक बड़ी धाड़ पड़ी अर्थात् लूटने वाले आए ॥ ९६७ ॥ तो सहसा सो नट्ठो, तुझं जामाउओ ममं मुत्तुं । धाडीभडेहिं ताए, सिरीइ सहिया अहं गहिया ९६८ अर्थ - तदनंतर वह आपका जमाई मेरेको छोडके अकस्मात भागगया मेरेको आपकी दीभई लक्ष्मी सहित धाडके सुभटोंने पकडी ॥ ९६८ ॥ नीया य तेहिं नेपाल, -मंडले विक्किया य मुल्लेणं । गहिया य सत्थवइणा, एगेणं रिद्धिमंतेणं ॥ ९६९ ॥ अर्थ - और उन धाडके सुभटोंने नेपाल देशमें ले जाके कीमतसे वेची एक ऋद्धिवान सार्थ वाणीएने ग्रहण करी ॥ ९६९ ॥ तेणावि ससत्थेणं, नेऊणं सह बब्बरंमि कूलंमि । महकालरायनयरे, हट्टे धरिऊण विक्कणिया ॥ ९७० ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १२० ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __अर्थ-उस सार्थ पतिने भी अपने सार्य के साथ बब्बरकूल महाकाल राजाके नगरमें ले जाके दुकानमें खडी रखके | बेची ॥९७०॥ ||एगाए गणियाए, गहिऊणं नगीयनिउणाए। तह सिक्खविया य अहं,जह जाया नहिया निउणा ९७१/8 ___ अर्थ-नृत्य गीतमें निपुण एक वेश्याने खरीदी उसने मेरेको उस प्रकारसे सिखाई जिससे मैं निपुण नर्तकी भई ॥९७१॥ महकालनामएणं, बब्बरकूलस्स सामिणा तत्तो, नडपेडएण सहिया, गहियाऽहं नाडयपिएणं ॥९७२॥ __ अर्थ-तदनंतर महाकाल नामका बर्बरकूलके राजाने नटसमूहसहित नवनाटक इकट्ठा किया उसमें मेरेकूभी ग्रहणकरी कैसा महाकालराजा नाटक है प्यारा जिसको ऐसा ॥ ९७२॥ नाणाविहन।हिं, तेण नच्चाविऊण धूयाए । मयणसेणाइ पइणो, दिन्ना नवनाडयसमेया ॥ ९७३ ॥ | अर्थ-उस राजाने बहुत प्रकारका नाटक करवाके मदनसेना नामकी अपनी पुत्रीके भर्तारको नव नाटकके साथ मेरेकोभीदी ॥ ९७३ ॥ तस्स य पुरओ नच्चंतियाइ, जायाइं इत्तिय दिणाइं। परमहणा सकुडंबं, दहणं दुक्खमुल्लसियं ॥९७४॥ __ अर्थ-उस मदनसेनाके भर्तारके आगे नाटककर्ता मेरे इतने दिन भए परंतु इस वक्त अपने कुटुंबको देखके श्रीपा.च.२१ मेरेको दुःख भया ॥ ९७४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् सहितम्. ॥१२१॥ RAECRECORRIGANGANAGAR तइया नियगरुयत्तं, मयणाइ बिडवणं च दट्टणं। जो य मए मुद्धाए, अखब्बगब्बो को आसि॥९७५॥ भाषाटीकाअर्थ-तब पाणिग्रहणके अवसरमें अपना महत्त्व और मदनसुंदरीकी विडंबना देखके मैं मूर्खनीने अखर्व गर्वनाम महान् अहंकार किया था ॥ ९७५॥ तंभंजिऊण मयणा, पइणो नरनाहनमियचलणस्स । जेणाहं दासत्तं, कराविया तं जयइ कम्मं ॥९७६॥ | अर्थ-वह गर्बका चूर्ण करके नरेन्द्रों करके नमस्कार किया है चरण कमलोंमें जिसके वह मदनसुंदरीके भर्तारका ६ दासपना जिस कर्मने मेरे पास कराया वह कर्म जयति सर्वोत्कृष्ट वर्ते है ॥ ९७६ ॥ इकच्चिय मह भइणी, मयणा धन्नाणधुरि लहइ लीहं, जीए निम्मलसीलं, फलियं एयारिसफलेहि ९७७ __ अर्थ-धन्य स्त्रियोंके आदिमें एक मेरी बहन मदनसुंदरीही रेखा पावे है जिसका निर्मलशील ऐसे फलोंसे फला ॥९७७॥ कयपावाण जियाणं, मज्झे पढमा अहं न संदेहो । कुलसीलवजियाए, चरियं एयारिसं जीए ॥९७८॥ ___ अर्थ-किया पाप जिन्होंने ऐसे जीवोमें पहली मैं हूं जहां पापियोंकी गिनती होवे है वहां पहिली रेखा मैं पाऊं हूं इसमें सन्देह नहीं है कैसे सो कहते हैं कुलसीलवर्जित उत्तम कुलाचाररहितका ऐसा चरित वर्ते है ॥ ९७८ ॥ ॥१२१॥ मयणाए जिणधम्मो, फलिओ कप्पदुमुव सुफलेहि। मह पुण मिच्छाधम्मो, जाओ विसपायवसरिच्छो For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — मदनसुंदरीके जिनधर्म कल्पवृक्षके जैसा शोभन फलोंकरके फला और मेरे मिथ्याधर्म विषवृक्षके जैसा भया दुष्ट फल देनेवाला होनेसे ॥ ९७९ ॥ मयणा नियकुलउज्जालणिक्क, - माणिक्कदीवियातुल्ला । अहयं तु चीडउम्माडियब्ब, घणजणियमालिन्ना ॥ अर्थ - मदनसुंदरी अपने कुलको उज्वल करनेमें १ अद्वितीया माणिकके दीपिका सरीखी है मैं तो अपने कुलको मैला करनेके लिए स्यामकाचकी मणिके तुल्य भई ॥ ९८० ॥ मयणं दहूण जणा, जएह सम्मत्तसत्तसीलेसु । मं दहूणं मिच्छत्त, दप्पकंदप्पभावेसु ॥ ९८९ ॥ अर्थ- सुरसुंदरी कहती है अहो लोको मदनसुंदरीको देखके सम्यक्त्व सत्व सीलमें यल करो और मेरेको देखके मिथ्यात्व १ दर्प २ कंदर्प ३ इन्होंमें यत्न करो ॥ ९८१ ॥ इच्चाइ भणंतीए, तीए सुरसुंदरीइ लोयाणं । उप्पाइओ पमोओ, जो सो न हु नाडएहिं पुरा ॥ ९८२ ॥ अर्थ - इत्यादि पूर्वोक्त कहती सुरसुंदरीने लोकोंको जो हर्ष उत्पन्न किया वैसा हर्ष पहले नाटकमें कभी उत्पन्न नहीं हुआथा ॥ ९८२ ॥ सिरिपालेणं रन्ना, वेगेणाणाविओ य अरिदमणो । सुरसुंदरी य दिन्ना, बहुरिद्धिसमन्निया तस्स ॥ ९८३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १२२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तदनंतर श्रीपालराजा शीघ्रं अरिदमनकुमरको बुलाके सुरसुंदरीको बहुत ऋद्धिसहित अरिदमनकुमारको दिया ॥ ९८३ ॥ सुरसुंदरिसहिएणं, अरिदमणेणावि सुद्धसमत्तं । सिरिपालरायमयणा, - पसायओ चेव संपत्तं ॥९८४॥ अर्थ- सुरसुंदरीसहित अरिदमन कुमरने श्रीपाल राजा और मदनसुंदरीके प्रसादसे सुद्ध सम्यक्त्व पाया ॥ ९८४ ॥ जे ते कुट्ठियपुरिसा, सत्तसया आसि तेवि मयणाए । वयणेण विहियधम्मा, संजाया संति नीरोगा ॥ ९८५ ॥ अर्थ - जो ७०० कोढ़ी पुरषथा वह मदनसुंदरीके बचनसे किया धर्म जिन्होंने ऐसे निरोग भए हैं ॥ ९८५ ॥ तेवि हु सिरिसिरिपालं, भूवालं पणमयंति भत्तीए । रायावि कयपसाओ, ते सवे राणए कुणइ ॥ ९८६ ॥ अर्थ - वह ७०० पुरुष श्रीयुक्त श्रीपाल राजाको भक्तिसे नमस्कार करें राजा श्रीपालभी किया प्रसाद जिसने ऐसा उन सर्वोको राणा ऐसा पद छोटा राजा विशेष देवे अर्थात् राणा किया ॥ ९८६ ॥ मइसागरोवि मंती, आगतूणं नमेइ निवपाए । सोवि पुवंव रन्ना, कओ अमच्चो सुकयकिच्चो ॥ ९८७ ॥ अर्थ - मतिसागर मंत्री भी आके राजा श्रीपाल के चरणोंमें नमस्कार करे राजा श्रीपाल भी पहलेके जैसा मतिसागरको मंत्री किया कैसा है मंत्री शोभन कार्य है जिसका ऐसा ॥ ९८७ ॥ ससुराण सालयाणं, माउलपमुहाण नरवराणं च । अन्नेसिंपि भडाणं, बहुमाणं देइ सोराया ॥ ९८८ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १२२ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Por अर्थ-वह श्रीपालराजा सुसरा और साला और मामा प्रमुख राजाओंको औरभी सुभटोंको बहुमान सत्कार देवे ९८८ हाते सबेवि ह बहुभत्ति, संजुया भालमिलियकरकमला। सेवंति सया कालं, तंचिय सिरिपालभूवालं॥ | अर्थ-वे सर्व राजा बहुत भक्तिसहित इसी कारणसे लिलाटमे मिला हैं करकमल जिन्होंका ऐसे सर्वकालमें श्रीपाल राजाकी सेवा करे ॥९८९ ॥ अह अन्नदिणे मइसायरेण, सामंतमंतिकलिएणं । विन्नत्तो नरनाहो, भूमंडलमिलियभालेणं ॥९९०॥ ___ अर्थ-उसके अनंतर अन्य दिनमें सामंत मंत्रीसहित मतिसागर मंत्रीने श्रीपाल राजाको वीनती करी कैसा मति६ सागर भूमंडलमें लगा है लिलाट जिसका ऐसा ॥ ९९०॥ देव! तुमं बालोवि हु पियपट्टे ठाविओवि दुटेणं । उट्ठाविओसि जेणं, सो तुह सत्तू न संदेहो ॥९९१॥ | अर्थ-कैसे विनती किया सो कहते हैं हे देव हे महाराज आप बालक थे पिताके पट्टपर स्थापित किये थे जिस टू दुष्टने उठाया वह आपका शत्रु है इसमें सन्देह नहीं है ॥ ९९१॥ संतेवि हु सामत्थे, जो पियरपि सत्तूणा गहियं । नो मोयावइ सिग्छ, सो लोए होइ हसणिजो ९९२ IPI अर्थ-सामर्थरहते भी निश्चय जो पुरुष शत्रुने ग्रहण किया अपने पिताका राज्य शीघ्र पीछानहीं लेवे वह लोकोमें| हसने योग्य होवे है ॥ ९९२ ॥ t ortortortortor RRRRRrrrr For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १२३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एसो सामिय ? सयलो, तुम्हाणं रिद्धिसिन्नवित्थारो । पावेइ किं फलं जइ, नहु लिज्जइ तं नियं रज्जं ९९३ अर्थ — हे स्वामिन् आपका सर्व यह ऋद्धि और सेनाका विस्तार क्या फल पाया अर्थात् निष्फल है जो वह अपना राज्य नहीं लिया जावे अपना राज्य ग्रहण करनेसेही यह सर्व सफल होवे है ॥ ९९३ ॥ ता काऊण पसायं, सामिय गिन्हेह तं नियं रज्जं । जं पियपट्टनिविडे, पई दिट्ठे मे सुहं होही ॥ ९९४ ॥ अर्थ – इसलिए हे स्वामिन् प्रसन्न होके आप अपना राज्य ग्रहण करो जिस कारणसे आपके पिताके पट्टपर आपको बैठा हुआ देखूंगा तब मेरे मनमें सुख होगा ॥ ९९४ ॥ तो पभणइ नरनाहो, अमञ्च ? सच्चं तए इमं भणियं । किं तु उवायचउक्क, - कमेण किज्जंति कज्जाई ९९५ अर्थ - तदनंतर राजा श्रीपाल कहे हे मंत्रिन् तुमने यह सत्य कहा किंतु साम १ दान २ भेद ३ दंड ४ यह चार उपायोंसे कार्य क्रमसे करना ॥ ९९५ ॥ जइ सामेण सिज्झइ, कज्जं ता किं विहिज्जए दंडो । जइ समइ सक्कराए, पित्तं ता किं पटोलाए ॥ ९९६ ॥ अर्थ — जो साम मधुर वचनसे कार्य सिद्ध होवे तो किस वास्ते दंड किया जावे इसी अर्थको दृष्टान्तसे याने अर्थान्तरन्याससे दृढ करते हैं पित्त रोगविशेष जो शितोपला मिश्रीसे शान्ती होवे तब कोशातकी किरायतो कटुक नीम | गिलोय वगैरह किसवास्ते दिया जावे ॥ ९९६ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १२३ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAIRAAMALA तत्तो मंती पभणइ, अहो पहो ते वओहिया बुद्धी। गंभीरया समुद्दाहिया, महीओऽहिया खंती॥९९७॥ का अर्थ तदनंतर मंत्री कहे अहो इति आश्चर्ये हे प्रभो आपकी बुद्धि उमरसे अधिक वर्ते है आपकी गंभीरता समुद्रसे अधिक है और आपकी क्षमा पृथ्वीसेभी अधिक है ॥ ९९७॥ तापेसिजउ एसो, चउरमुहो नाम दियवरो दूओ।जो दूयगुणसमेओ अत्थि जए इत्थ विक्खाओ॥९९८॥ | अर्थ-तिस कारणसे यह चतुर्मुख नामक द्विज ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ दूत भेजो जो चतुर्मुख दूतके गुण वाचाल वगैरहसे है युक्त हे और जगतमें प्रसिद्ध है ।। ९९८ ॥ सो ओयतेयमइबलकलिओ, सम्माणिऊण भूवइणा। संपेसिओ तुरंतो, पत्तो चंपाइ नयरीए ॥९९९॥ | अर्थ-ओज मानसबल तेज शरीरकाप्रताप मति बुद्धिबल पराक्रम इन्हों करके युक्त ऐसा वह दूतका श्रीपाल, महाराजाने सत्कार करके भेजा वह दूत शीघ्र चलता हुआ चंपानगरी पहुंचा ॥ ९९९ ॥ तत्थाजियसेणनरेसरस्स, पुरओ पसन्नवयणेहिं । सो दूओ चउरमुहो, एवं भणिउं समाढत्तो ॥१०००॥5 है। अर्थ-वहां चंपानगरीमें वह चतुर्मुख दूत अजितसेन राजाके सामने प्रसन्नवचनोसें अर्थात् मधुरवचनोंसें इस प्रकारसे कहना प्रारंभ किया ॥१०००॥ नरवर तए तया जो, सिरिपालो भायनंदणो बालो। भूवालपयपइट्ठो, दिट्ठो भूभार असमत्थो ॥१००१॥5 For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१२४॥ CLICASSADORASSASSASSES __ अर्थ-हे महाराज आपने उस वक्तमें जो भाईका पुत्र श्रीपाल बालक राज्यमें स्थापा हुआ बालक होनेसे पृथ्वीका : भाषाटीका|भार उठानेमें याने सम्भालनेमें असमर्थ देखा ॥ १००१॥ | सहितम्. तो तं भारं आरोविऊण, निययंमि चेव खंधमि।सयलकलासिक्खणत्थं, जो य तए पेसिओ आसि १००२ | अर्थ-तदनंतर वह राज्यके भार आपने अपने कंधेपर स्थापके और श्रीपालको सर्वकला सीखनेके वास्ते आपने 2 | विदेश भेजाथा ॥ १००२॥ सो सयलकलाकुसलो, अतुलबलो सयलरायनय। चलणो, चउरंगबलजुओ तुह लहुयत्तकए इमो एइ॥ है। अर्थ-वह श्रीपाल सर्व कलामें कुशल और सर्वोत्कृष्ट बल सैन्य जिसके और सर्व राजाओं जिसके चरणोंमें नम स्कार किया है ऐसा और चतुरंग जो बल सैन्य उस करके युक्त यह आपको हल्का करनेके वास्ते आवे है ॥१००३॥ ता जुज्जइ तुझवि तंमि, रजभारावयारणं काउं, जं जुन्नथंभभारो, लोएवि ठविजइ नवेसु ॥१००४॥ __अर्थ-तिस कारणसे आपकोभी उस श्रीपालमें राज्यका भार अवतरण करना युक्त है जिस कारणसे लोकमें भी ₹ जीर्ण स्तंभोका भार नवीन स्तंभोंपर थापा जाय है ॥ १००४॥ ॥१२४॥ अन्नं च तस्स रन्नो, पयपंकयसेवणत्थमन्नेवि । वहवेवि हु नरनाहा, समागया संति भत्तीए ॥ १००५॥ For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir R ASSASGRACE अर्थ-औरभी सुनिए श्रीपालराजाके चरणकमलोंकी सेवाके वास्ते औरभी बहुतसे राजा भक्तिके वास्ते आए हैं ॥ १००५॥ जं तुब्भे निययावि हु, नो पत्ता तस्स मिलणकज्जेवि। सोवि ह तक्विज्जइ दुजणेहिं, नणं कुलविरोहो॥ ____ अर्थ-जो आप श्रीपाल राजाके निजकेहों और मिलनेके वास्तेभी नहीं आए सो वहभी घरमें विरोध जैसा मालूम | द्र हुआ वह कुल विरोध निश्चय शत्रु बांछते हैं ॥ १००६ ॥ जो पुण कुले विरोहो, सो रिउगेहेसु कप्परुक्खसमो। तेण न जुज्जइ तुम्हं, परुप्परं मच्छरो कोवि॥१००७॥ ___ अर्थ-और जो कुलमें विरोध है वह शत्रुवोंके घरमें कल्पवृक्षके सरीखा होवे है याने कुलमें विरोध होनेसे शत्रुवोंका मनोरथ फले है ॥ १००७॥ सोवि हु किज्जउ जइ,किर नजइ अहमम्हि इत्थ सुसमत्थो। कत्थ तुमं खज्जोओ, कत्थ यसोचंडमत्तंडो॥ __ अर्थ-वह विरोधभी करो जो निश्चय मैं इस विरोधमें अतिशय समर्थ हूं ऐसा जाना जावे तब तो करनाही वाजवी है परन्तु कहां तुम खद्योत (आगिए )के जैसा और कहां श्रीपाल प्रचंड सूर्यके सदृश आप दोनोंके खद्योत और सूर्य के जैसा बहुत अंतर है ॥ १००८॥ कत्थ तुमं सरसरसव,-ससय समाणोसि देव हीणबलो। कत्थ य सो रयणायर, मेरुमयदेहिं सारित्थो॥ -CASSADCAS For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuti Gyanmandir श्रीपालचरितम् CAGAR ॥१२५॥ अर्थ-और हे देव हे राजन् कहां आप और कहां श्रीपाल कैसे सो कहते हैं आप सरोवर जैसे हैं और श्रीपाल समुद्र भाषाटीकासदृश है और आप सरसों जैसे हैं और श्रीपाल मेरु जैसा है और आप शशक नाम खरगोस जैसे हैं और श्रीपाल 18 सहितम्. है सिंहके जैसा है इसी कारणसे आपहीन बली हैं इसवास्ते आप दोनोंमें बहुत अंतर है ॥ १.०९॥ जइ तं रुट्रोसिन जीवियस्स, ताझत्तिभत्तिसंजुत्तो।सिरिसिरिपालनरेसरपाए, अणुसरसु सुपसाए १०१० | अर्थ-जो तुम अपने जीवितव्यापर नही नाराज हुआ हो तो शीघ्र भक्तिसहित श्रीश्रीपालराजाके चरणोंकी सेवा टू करो कैसे हैं श्रीपाल राजाके चरण शोभन है प्रसाद जिन्होंका ॥ १०१०॥ है जइ कहवि गवपवय,-मारूढो नो करेसि तस्साणं। तो होहि जुज्झसजो, कज्जपयं इत्तियं चेव ॥१०१२॥ | अर्थ-जो कोइ प्रकारसे अहंकाररूप पर्वतपर चढेहुए श्रीपाल राजाकी आज्ञा नहीं करो हो तो युद्धके वास्ते तम्बार ही होवो यहां कार्यपद इतनाही है यातो श्रीपाल राजाकी सेवा करो नहीं तो युद्धकी तय्यारी करो ॥ १०११॥ तं सोऊणं सो अजियसेण, रायावि एरिसंभणइ। दूओ यदिओय तुमं, नज्जसिएएण वयणेणं ॥१०१२॥ | अर्थ यह दूतका बचन सुनके अजितसेनराजाभी ऐसा वचन कहे अरे ते इस बचनसे दूत और ब्राह्मण जाना जाता है ॥ १०१२॥ ॥१२५॥ पढम महुरं मज्झंमि, अविलं कडुयतित्तयं अंते । वुत्तुं भुत्तुं च तुम, जाणंतो होसि चउरमुहो॥१०१३॥ SHARIPATASHAXHIRASSASS AARAK For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CRORESAKAL अर्थ-पहेले तैने मधुर वचन कहा मध्यमें खट्टा अंतमें कडुवा और तीखा ऐसा वचन कहनेके लिए ऐसा भोजन करना जानता हुआ चतुर्मुख होवे है ॥ १०१३॥ निययान केविअम्हे, तस्स न सो कोवि अम्ह नियओत्ति।सोअम्हाणं सत्तु, अम्हेविय सत्तुणो तस्स१०१४ | अर्थ-हम तेरे स्वामीके घरके नहीं हैं और वह तेरा स्वामी हमारा नहीं है किंतु वह तेरा स्वामी हमारा शत्रु है 5 हमभी तेरे स्वामीके शत्रु हैं ॥ १०१४ ॥ जंजीवंतोमुक्को, सोतइया बालओत्ति करुणाए। तेण अम्हे हीणबला, सो बलिओ बनिओ तुमए १०१५ __अर्थ-तेरा स्वामीको उस अवसरमें बालक है ऐसा जानके हमने दयासे जीता हुआ छोड़ा तिस कारणसे तैने हमको हीनबली वर्णन किया और उस अपने स्वामीको बलवान् वर्णन किया ॥ १०१५ ॥ नियजीवियस्स नाहं, रुटो रुट्ठो हु तस्स जमराया। जेणाहं निचिंतो, सुत्तोसीहुव्व जग्गविओ॥१०१६॥ हूँ PI अर्थ-अरे मैं अपने जीवितव्यपर नहीं नाराज हुआ हुं किंतु निश्चय तेरे स्वामीके ऊपर यमराजा नाराज हुआ है| जिससे तेरे स्वामीने सोते सिंहके जैसा मेरेको जगाया ॥ १०१६ ॥ जंतं दूओसि दिओसि, तेण मुक्कोसि गच्छ जीवंतो। तुह सामियहणणत्थं, एसोहं आगओ सिग्घ १०१७ ACCASEASEARCHES For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् S ॥१२६॥ SSSSSSSSSSSS* अर्थ-जो ते दूत है और ब्राह्मण है इसकारणसे छोड़ा है तै जीताहुआ चलाजा तेरे स्वामीको मारनेके वास्ते में भाषाटीकाशीघ्र आया ।। १०१७॥ | सहितम्. दुओवि दुयं गंतुं, सव्वं नियसामिणो निवेएड। तत्तो सो सिरिपालो, भूवालो चल्लिओ सबलो॥१०१८॥ अर्थ-तदनंतर दूतभी शीघ्र जाके सर्ववृतान्त अपने स्वामीसे कहे तदनंतर श्रीपालराजा सबल सैन्यसहित चला ॥ १०१८॥ चंपाए सीमाए, गंतूणावासियं समग्गंपि । सिरिपालरायसिन्नं, तडिणीतडउच्चभूमीए ॥ १०१९ ॥ | अर्थ-चंपानगरीकी सीमामें जाकर सम्पूर्ण श्रीपाल राजाका सैन्य कटक गंगानदीके तटपर निवेश किया ॥१०१९॥ सोअजियसेण रायावि, सम्मुहोआविऊण तत्थेव। आवासिओ य अभिमुह,-महीइ सिन्नेण संजुत्तो॥ I अर्थ-वह अजितसेन राजाभी सामने आके उसी गंगानदीके तटपर सन्मुखभूमिमें अपनी सेनासहित उतरा १००० सोहिज्जइ रणभूमी, किजइ पूयाय सयलसत्थाणं। सुहडाणं च पसंसा, किज्जइ भट्टेहिं उच्चसरं ॥१०२१॥ I अर्थ-तदनंतर संग्रामकी भूमि पत्थर कांटा वगैरह दूर करके शुद्ध करी जावे और सम्पूर्ण शस्त्रोंकी पूजा करे और दू भट्ट लोक ऊंचे स्वरसे योद्धारोंकी प्रशंसा करे ॥ १०२१ ॥ ॥१२६॥ किजंति भूहरीओ, सुहडाणं चारु चंदणरसेण । पूरिजंति य सिहरा, चंपयकुसुमेहिं पवरेहिं ॥१०२२॥ For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACCUSESSACREACHERE अर्थ-तथा सुभटोंके सुंदर चंदनके रससे आड़ा तिलक विशेष करा जावे और प्रधान चंपेके पुष्पोंकरके सुभटोंके द| मस्तकों पर सेहरा पूरा जावे ॥ १०२२॥ वामपयतोडरेहिं, दाहिणकरचारुवीरबलएहिं । वारणयचामरेहिं, नजति फुडं महासुहडा ॥ १०२३ ॥ | अर्थ-डावे पगमें तोडर मालविशेष तथा जीवने हाथमें मनोहर वीरवलियां वीरत्वसूचक कड़ा विशेषों करके और छत्र चामरों करके प्रगट महासुभट जाने जावे ॥ १०२३॥ गयगज्जियं कुणंता सुहडगणा तत्थ सीहनायं च । मुच्चंता नचंता, कुणंति वरवीरवरणीओ॥ १०२४।। ___ अर्थ-वहां दोनों सेनामें सुभटोंका समूह हाथीके जैसा गारव कर्ता हुआ सिंहनाद करतेहुए नांचतेहुए प्रधानबीर वर्णी नाम परस्पर शस्त्रोंके प्रहारकी याचना करे ॥१०२४ ॥ ४ जणयपुरओवि तयणं, कावि हु जणणी भणेइ वच्छ तए! तह कहवि जुज्झियत्वं, जह तुह ताओ न संकेइ॥18 अर्थ-कोईक माता पिताके आगे पुत्रसे कहे हे वत्स तेरेको उस प्रकारसे युद्ध करना कि जिससे तेरे पिताको शंका हैन होवे अर्थात् लोक ऐसा न कहे कि अमुकका पुत्र शूर नहीं है ॥ १०२५ ॥ अन्नाभणेइ वच्छाहं, वीरसुया पियाय वीरस्स । तह तुमए जइअवं, होमि जहा वीरजणणीवि ॥१०२६॥ *PASARASHISERISHA श्रीपा.व. For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ मापाटीका श्रीपालचरितम् ॥१२७॥ सहितम् अर्थ-अन्य कोई स्त्री पुत्रसे कहे हे वत्स मैं शूरवीरकी पुत्री हूं और शूरवीरकी स्त्री हूं अब तेरेको वैसा युद्ध करना कि जिससे मैं शूरवीरकी माता हो जावें ॥ १०२६ ॥ द्धन्ना सच्चियनारी, जीए जणओ पईय पुत्तोय। वीरा-वयाय पयवी, समन्निया हंति तिन्नि वि ॥१०२७॥ | अर्थ-वही स्त्री धन्य है जिसका पिता १ और पति २ और पुत्र ३ यह तीनोंभी वीर पदवी सहित होवें ॥१०२७॥ कावि पइं पड़ जंपइ, महमोहोनाह नेव कायवो। जीवंतस्स मयस्स व, जंतुह पुढेि न मुंचिस्सं ॥१०२८॥ का अर्थ-कोईक स्त्री अपने भर्तारसे कहे हे नाथ मेरा मोह नहीं करना जिस कारणसे मैं तुह्मारे जीते हुए और मरे| हुएभी साथहीमें रहूंगी अर्थात् मरनेसे सती होंगी ॥ १०२८ ॥ कावि हु हसेइ रमणं,मह नयणहओवि होसिभयभीओ,नाह तुमविजुज्जल,-भल्लयघाए कहं सहसि १०२९ ___ अर्थ-कोई स्त्री अपने भर्तारको हंसे हे नाथ तुम मेरे नेत्रोंसे ताड़े हुए भयभीत होवोहो तब वीजलीके जैसा उज्ज्वल भाला खड्गादिकका प्रहार कैसे सहोगे ॥ १०२९॥ है इत्थंतरंमि उब्भड,-सुहडकयाडंबरं व असहंतो । सूरो फुरंततेओ, संजाओ पुत्वदिसिभाए ॥१०३०॥ ___ अर्थ-इस अवसरमें उद्धत सुभटोंने किया आडंबर नहीं सहता होवे वैसा सूर्य पूर्वदिशिमें उदय हुआ कैसा सूर्य बहुत है तेज जिसका चलता हुआ ऐसा सूर्य उदय भया ॥ १०३०॥ PORARS ॥१२७॥ For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ARCANCERS मिलिऊण तक्खणं चिय, अग्गिमसेणाइ उब्भडा सुहडा। मग्गणमसिक्खियंपि ह कुणंति पढमासिघायाणं ॥ १०३१॥ अर्थ-तब आगेकी सेनाका सुभट उद्भट तत्कालही परस्पर मिलके पहले खड्ग प्रहारोंकी मांगना नहीं सीखे हैं। तौभी याचना करें ॥ १०३१॥ खग्गाखग्गि सरासरि, कुंताकुंतिप्पयंडदंडं च । झुझंता ते सुहडा, संजाया एगमेगं च ॥ १०३२॥ | अर्थ-खड्गवाले खड्गवालोंसे युद्धकरें बाणवाले बाणवालोंसे युद्धकरें भालावाले भालावालोंसे युद्धकरें दंडवाले दंडवालोंसे युद्धकरें ऐसे युद्ध करते २ सुभट दोनों सेनाके इकट्ठे होगए ॥१०३२॥ कस्सवि भडस्स सीसं, खग्गच्छिन्नं च वालविकरालं। रविणोविराहसंकं, करेइ गयणंमि उच्छलियं १०३३ हूँ| अर्थ-किसी सुभटका मस्तक शत्रुने खड्गसे काटा वालोंसे बिकराल आकाशमें उछला हुआ सूर्यकोभी राहु ग्रहकी है शंका उत्पन्न करे अर्थात् जैसा ग्रहण होगया हो वैसा मालूम होवे ॥१०३३॥ कोवि भडो सिल्लेणं, गयणे उल्लालिओ महल्लेणं । दीसह सुरंगणाहिं, सग्गमियंतो सदेहव्व ॥१०३४॥ अर्थ-कोईक सुभट बर्थी शस्त्रसे आकाशमें उछालागया ऐसा देवाङ्गनाओं सहित शरीर जिसका ऐसा स्वर्गसे आता होवे वैसा देखनेमें आवे ॥ १०३४॥ #SSSSSSSCHISASA For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीकासहितम्. ॥१२८॥ GALASSES ह भडोभिडंतो,च्छिन्नसिरो खग्गखेडयकरो य, गयसरुणसीसभारो, पणच्चए जायहरिसुब्ब १०३५/ अर्थ-कोई सुभट युद्धकरता बैरीने मस्तक काटदिया जिसका ऐसा ढाल तलवार जिसके हाथमें है ऐसा ऋणा जिसका गया होवे ऐसा मस्तकका भार गया वैसा मानता हुआ इसीकारणसे भया है हर्ष जिसको ऐसा सहर्षके जैसा रणाङ्गण नाटक करता है ॥ १०३५ ॥ तत्थय पप्पडभंगं, भजंति रहाय कोहलयभेयं । भिजति गया तुरया चिब्भडच्छेयं च छिजंति ॥१०३६॥ है अर्थ-उस संग्राममें रथोंका भंग पापड़के जैसा होवे है और हाथी कुष्मांडके जैसा विदारण किए जावे हैं और डाघोड़ा काकड़ीके जैसा काटे जावे हैं ॥ १०३६ ॥ तओ सत्थत्थरिया, बहमुंडमंडियाधउडिया भड । धडेहिं, अंतेहिं निरंतरया, भरिया मयहयगयसएहिं | अर्थ-तदनंतर वह संग्रामभूमि क्षणेकमें ऐसी भई यह दूसरी गाथाके अंतपदमें अव्रण है कैसी भई सो कहते हैं शस्त्रोंसे आस्तृत भई बहुत मस्तकोंसे भूषित भई और वीरोंके कलेवरोंसे ऊंचीनींची भई आंतर शरीरके अवयव विशेषसे व्याप्त भई और मरेहुए सैकड़ों हाथी घोड़ोंसे भरीगई ॥ १०३७ ॥ रुहिरोहजणियकदम,मज्झविमदिज्जमाणमडयाणं।कडयडसदरउद्दा, खणेण सारणमहीजाया ॥१०३८॥ AAR S ॥१२८॥ S For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है अर्थ-तथा लोहका प्रवाह उससे उत्पन्न भया जो कर्दम उसमें चलते हुएके पगोंसे मर्दन होवे मृतकोंके शरीर उन्होंका जो कड़ २ शब्द उसकरके भयंकर ऐसी संग्रामभूमि भई ॥ १०३८ ॥ युग्मं सिरिपालबलभडेहि, भग्गं दढूण नियबलं सयलं, उट्ठइ अजियसेणो, नियनामाओ व लजंतो॥ अर्थ-श्रीपाल राजाको जो बल उसमें जो सुभट उन्हों करके भागाहुआ सम्पूर्ण अपने सैन्यको देखके अजितसेन राजा अपने नामसे लज्जित हुआ होवे ऐसा उद्यतवान होवे किसीने नहीं जीती है सेना जिसकी ऐसी व्युत्पत्ती होनेसे ॥१०३९॥ जा सो परबलसुहडे, कुवियकयंतुव संहरइ ताव । सत्तसयराणएहिं, समंतओ वेढिओ झत्ति ॥१०४०॥ है अर्थ-वह अजितसेन राजा क्रोधातुर हुआ यमराजके जैसा जितने शत्रुसेनके सुभटोंका संहार करे उतने ७०० संख्यावाले राणा लघुराजा विशेष श्रीपाल राजाके सेवकोंने शीघ्र चौतर्फसे बीटा अर्थात् घेरा दिया ॥ १०४०॥ द्रोपच्चारिओय तेहिं, नरवर अजवि चएसु अभिमाणं। सिरिपालरायपाए, पणमसुमा मरसु मुहियाए १०४१ __ अर्थ-और उन्होंने बतलाया नाम कहा हे महाराज अबीभी अहंकारको छोड़ो श्रीपाल राजाके चरणों में नमस्कार IPकरो व्यर्थ क्यों मरते हो अर्थात् व्यर्थ मत मरो ॥ १०४१॥ 18 तहवि हु जाव न थक्कइ, झुझंतो ताव तेहिं सुहडेहि। सो पाडिऊण बद्धो, जीवंतो चेव लीलाए ॥१०४२॥ SAMACAREERSON For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् Huntertontontonton द्रा अर्थ-ऐसे कहने परभी जितने युद्धसे नही निवृत्त होवे उतने उन श्रीपाल राजाके सुभटोंने अजितसेन राजाको भाषाटीकानीचा गिराके लीलासे बांध लिया ॥ १०४२॥ सहितम्. सिरिपालरायपासे, आणीओ जाव सो तहा बद्धो । ताव तेणं च रन्ना, सोविहु मोयाविओ ज्झत्ति १०४३ । अर्थ-श्रीपाल राजाके पासमें जितने अजितसेन राजाको बांधके लाए उतने श्रीपाल राजाने अजितसेन राजाको शीघ्र बंधनसे छुड़ाया ॥ १०४३ ॥ हूँ भणिओय ताय मा किंपि, नियमणे संकिलेसलेसंपि।चिंतेसु किं तु पुवंव, नियभुवं भुंजसु सुहेणं १०४४ है अर्थ-और कहा हे तात अपने मनमें कोई प्रकारसे संक्लेशका लेशभी मत बिचारो किंतु पहलेके जैसा अपना राज सुखसे करो ॥ १०४४ ॥ तो अजियसेण राया, चित्ते चिंतेइ ही मए किमियं। अविमंसियं कयं जं, दूयस्स न मन्नियं वयणं ॥१०४५॥ ___ अर्थ-बाद श्रीपाल राजाका बचन सुनोंके अनन्तर अजितसेन राजा मनमें बिचारे हि दूतिखेदे मैंने क्या यह बिना बिचारा कार्य किया कि जो दूतका बचन नहीं माना ॥ १०४५ ॥ ॥१२९॥ कत्थाहं वुडोवि हु, परदोहपरायणो महापावो । कस्थ इमो बालोवि हु, परोषपारिकमम्मपरो ॥१०४६ATHI SESUASAASASSASSAIS*** a n For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-निश्चय में वृद्ध हूं तौभी परद्रोह करनेमें तत्पर महापापी हूं यह श्रीपाल बालक हैं तथापि परोपकारही एक धर्म वही प्रधान जिसके ऐसा है कहां यह कहां मैं ।। १०४६ ॥ गुत्तदोहेण कित्ती, नासई नीईय रायदोहेण । वालदोहेण सुगई हहा मए तं तिगंपि कथं ॥ १०४७ ॥ अर्थ — और बिचार करे गोत्रद्रोहसे कीर्ति नष्ट होवे है और राजद्रोहसे नीति न्याय मार्ग नष्ट होवे है तथा बालद्रोहसे सुगति देव गत्यादिक नष्ट होवे है ह इति खेदे मैंने यह तीनों किया ॥ १०४७ ॥ कत्थत्थि मझठाणं, नरयं मूत्तूण पावचरियस्स । ता पावघायणत्थं, पवज्जं संपविजामि ॥ १०४८ ॥ अर्थ - ऐसा पाप आचरण करनेवाला मेरेको नरक सिवाय और कौनसा ठिकाना है इसलिए इस पापका विनाश करनेके वास्ते जैनी दीक्षा अंगीकार करूं ॥। १०४८ ॥ एवं च तस्स चिंतंतयस्स, सुहभाव - भावियमणस्स । पावरासीहिं भिन्नं, दिन्नं विवरं च कम्मेहिं १०४९ अर्थ - अनन्तरोक्त प्रकारसे विचारता इसी कारणसे शुभ परिणामसे भावित मन जिसका ऐसा अजितसेन राजाका पापसमूह विदीर्ण हुआ और कर्मराजने विवर दिया । १०४९ ॥ तो सरियपुवजम्मेण, तेण सिरिअजियसेणभूवइणा, पडिवन्नं चारितं, सुदेवयादत्तवेसेणं ॥ १०५० ॥ अर्थ - तदनंतर अजितसेन राजाको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न भया अर्थात् पूर्व भवजाना ऐसा अजितसेन राजाने For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१३०॥ सर्ववृत्तिरूप चारित्र अंगीकार किया कैसा अजितसेन राजा सम्यक् दृष्टि देवताने दिया रजोहरणादि साधुका वेषभाषाटीकाजिसको ऐसा ॥ १०५०॥ सहितम्. हैतं च पडिवन्नचरितं, दटुं सिरिपालनरवरो झत्ति । पणमेइ सपरिवारो, भत्तीइ थुणेइ एवं च ॥१०५१॥ | अर्थ-अंगीकार किया चारित्र जिसने ऐसे अजितसेन राजर्षिको देखके श्रीपाल राजा शीघ्र परिवार सहित नमहस्कार करे और भक्तिसे इस प्रकारसे स्तुति करे सो कहते हैं ॥ १०५१॥ जेणेस कोहजोहो हणिओ, हेलाइ खंतिखग्गेणं। समयासियधारेणं, तस्स महामुणिवइ नमो ते॥१०५२॥ | अर्थ-जिसने यह क्रोधरूप योध क्षमारूप खड्गसे लीलासे हन दिया ऐसे आप महामुनि पतिको नमस्कार होवे कैसा क्षमारूप खड्ग समताही है तीक्षण धाराजिसकी ऐसा ॥ १०५२॥ माणगिरिगरुयमयसिहर,-अट्रयं मदविकवजेणं । जेण हणिऊण भग्गं, तस्स महामुणि-वइ नमोते॥ 51 अर्थ-और जिस मुनिने मान अभिमानही पर्वत उसपर बड़े २ लाभ ऐश्वर्यादिक आठ मद रूप शिखर उन्होंको | मार्दव रूप एक अद्वितीय बज्र करके तोड़ा उस आप महामुनिको नमस्कार होवे ॥ १०५३ ॥ दा॥१३॥ मायामयविसवल्ली, जेणजवसारसरलकीलेणं । उक्खणिया मूलाओ, तस्स महामुणिवइ नमो ते १०५४|| For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - और माया स्वरूप जिसका ऐसी मायारूप बिपकी बेलको जिसमुनिने आर्जव सरलताही श्रेष्ठ सरलकीला शंकु उस करके मूलसे उखाड़दी उस महामुनिको नमस्कार होवो ॥ १०५४ ॥ जेणिच्छामुच्छावेलसंकुलो, लोहसागरो गरुओ । तरिओ मुत्तितरिए, तस्स महामुणिवइ नमो ते १०५५ अर्थ - जिस मुनिने बड़ा लोभसमुद्रको मुक्तिनाम निर्लोभतारूप जहाजसे तिरा अर्थात् पार उतरे उस महामुनिको नमस्कार होवो कैसा लोभ समुद्र इच्छा मूर्च्छा बेलासे संकुल व्याप्त इच्छा सामान्य प्रकारसे बांधा मूर्छा विशेष तृष्णा | इच्छा युक्त मूर्छाही बेला जल वृद्धि करके व्याकुल ॥ १०५५ ॥ | जेण कंदप्पसप्पो, विवेयसंवेय-जणिय जंतेण । गयदप्पुच्चिय विहिओ, तस्स महामुणिवइ नमो ते १०५६ अर्थ — जिस मुनिने विवेक संमवेगसे उत्पन्न किया जो यंत्र उस करके कंदर्परूप सर्पको गत दर्प किया अर्थात् गया | अभिमान जिसका ऐसा किया उस महामुनिको नमस्कार होवे ॥ १०५६ ॥ जेण नियमण-पडाओ, को सुंभ- पयं -गमंगसमरागो । तिविवि निद्धओ, तस्स महामुणिवइ नमो ते ॥ १०५७ ॥ अर्थ - जिस मुनिने अपने मनरूप वस्त्रसे कुसुम्भ १ पतंग २ मंग ३ सदृश कामणा १ स्नेहणा २ दृष्टि एग ३ यह तीन प्रकारका राग दूर किया उस महामुनिको नमस्कार होवो वहां कसूमल रंग सरीखा कामणा और पतंग रंग For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१३१॥ सरीखा स्नेहणा और मंगणां सरीखा दृष्टिणा मंग रंजन द्रव्य विशेष उसका राग दुस्त्यज होवे है ॥ १०५७ ॥ 18 भाषाटीकादोसोदुटु-गइंदो,वसीकओजेणलीलमित्तेणं। उवसमसिणि निउणेणं, तस्स महामुणिवइ नमो ते१०५० सहितम्. __ अर्थ-और जिस मुनिने लीला मात्रसे द्वेषरूप दुष्ट हाथीको बसकिया उस महामुनिको नमस्कार होवो कैसा है वह महामुनि उपशमरूप अंकुशके प्रयोगमें निपुणा जाननेवाला ॥ १०५८ ॥ मोहो महल्ल-मल्लोवि, पीडिओ ताडिऊण जेणेसो, वेरग्ग-मुग्ग-रेणं, तस्स महामुणिवइ नमो ते १०५९ ___ अर्थ-जिस मुनिने यह मोहरूप महा मल्लकोमी बैराग्य मुद्गरसे ताड़के पीडित किया उस महामुनिको नम-टू |स्कार होवे ॥ १०५९॥ एष अंतर-रिउणो, दुजेया सयलसुरवरिंदोहिं । जेण जिया लीलाए, तस्स महामुणिवइ नमो ते १०६० | अर्थ-सम्पूर्ण देवेन्द्रो करके दुर्जेय ये क्रोधादिक अंतर शत्रु जिस महामुनिने लीलामात्रसे जीता उस महामुनिको 81 नमस्कार होवो ॥ १०६०॥ पुर्वपि तुमं पुज्जो, आसिममंजेण तायभायासि । संपइ पुणो मुणीसर, जाओ-पुज्जो तिलकस्स १०६१| 1 अर्थ-पहलेभी आप मेरे पूज्य थे जिसकारणसे मेरे पिताके आप भाई हैं इस वक्तमें मुनीश्वर होनेसे तीन जग-13/ ॥१३१॥ तके पूज्य भए हो ॥१०६१ ॥ *SACASCASAR For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Art एवं थोऊणनमंसिऊण, तं अजियसेणमुणिनाहं । सिरिपालनिवो ठावइ, तप्पुत्तं तस्स ठाणमि ॥१०६२॥ | अर्थ-इस प्रकारसे उस अजितसेन मुनिराजकी स्तुति करके और नमस्कार करके श्रीपाल राजा अजित्तसेन राजाके पुत्रको उसके स्थानमें बैठावे ॥१०६२॥ कयसोहाए चंपापुरीइ, समहसवं सुमुहत्ते । पविसइ सिरिसिरिपालो, अमरपुरीए सुरिंदुव ॥ १०६३ ॥ ___ अर्थ-करी है शोभा जिसकी ऐसी चंपानगरीमें श्रीपाल राजा अच्छे मुहूर्तमें उत्सव सहित प्रवेश करे किसमें किसके जैसा अमरपुरी देवनगरीमें इन्द्र के जैसा ॥ १०६३ ॥ तत्थय सयलेहि, नरेसरेहि, मिलिऊण हरिसियमणेहिं। पियपदृमि निवेसिय, पुणोभिसेओ को तस्स ॥ १०६४ ॥ | अर्थ-वहां चंपानगरीमें हर्षित मन जिन्होंका ऐसे सर्व राजा मिलके पिताके पट्टमें स्थापके श्रीपाल राजाका और भी राज्याभिषेक किया ॥ १०६४ ॥ मूलपट्टाभिसेओ, कओ तहि मयणसुंदरि-एवि । सेसाणं अट्रन्हं, कओ अ लहु-पट्टअभिसेओ १०६५ अर्थ-वहां मदन सुंदरीका मूल पट्टाभिषेक किया अर्थात् मूल पट्टरानीपदमें स्थापित करी और आठ रानियोंको 13 छोटी पट्टरानी की ॥ १०१५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल चरितम् भाषाटीका| सहितम्. ॥१३२॥ SEASE मइसागरोय इक्को, तिन्नेव य धवलसिट्टिणो मित्ता । एए चउरोवि तया, रन्ना नियमंतिणो ठविया १०६६ है अर्थ-उस वक्तमें एक मतिसागर और तीन धवल सेठका मित्र यहचार श्रीपाल राजाने अपने मंत्री स्था– १०६६ । कोसंबीनयरीओ, आणाविओ धवलनंदणो विमलो। सो कणयपट्टपुब्वं, सिट्टी संठाविओ रन्ना १०६७ 31 अर्थ-तथा कौशम्बी नगरीसे बिमल नामका धवल सेठके पुत्रको बुलाके श्रीपाल राजाने सोनेका सिरपेच बंधाने पूर्वक नगर सेठ थापा ॥ १०६७॥ अट्टाहियाओ चेईहरेसु, काराविऊण विहिपुवं । सिरिसिद्धचक्कप्पयं, च कारए परमभत्तीए ॥ १०६८॥ ___ अर्थ-तथा श्रीपाल राजा जिनमंदिरों में अट्ठाईका महोत्सव कराके विधिपूर्वक परम भक्तिसे सिद्धचक्रकी पूजा करवावे ॥१०६८॥ ठाणे ठाणे चेइयहराइं, कारेइ तुंगसिहराइं। घोसावेइ अमारिं दाणं दीणाण दावेइ॥ १०६९॥ ___ अर्थ-ठिकाने २ ऊंचा है शिखर जिन्होंका ऐसे चैत्य ग्रह जिनमंदिर करवावे तथा अमारी उद्घोषणा करवावे सर्व | जीवोंको अभय दान दिवावे और दीनोंको दान दिवावे इस प्रकारसे पुण्य कृत करे ॥१०६९॥ नायमग्गेण रज, पालंतो पिययमाहिं संजुत्तो। सिरिसिरिपालनरिंदो, इंदुव्व करेइ लीलाओ॥१०७०॥ -- अर्थ-न्यायमार्गसे राज्य पालता हुआ स्त्रियोंसहित श्रीपाल राजा इन्द्र के जैसी लीला क्रीडा करे ॥ १०७०॥ ॥१३२॥ For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च.२३ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अह अजियसेणनामा, रायरिसी सो विसुद्ध चारित्तो । उप्पन्नावहिनाणो, समागओ तत्थ नयरीए १०७१ अर्थ - अथ अजितसेननामराजर्षि चंपानगरीके उद्यानमें आके समवसरे कैसे हैं अजितसेनराजर्षि निर्मल चारित्र जिन्होंका इसी कारणसे उत्पन्न भया है अवधि ज्ञान जिन्होंको ऐसे ॥ १०७१ ॥ तस्सागमणं सोऊण, नरवरो पुलइओ पमोएणं । माइपियाहिं समेओ, संपत्तो वंदनिमित्तं ॥ १०७२॥ अर्थ — उस राजर्षिका आगमन सुनके श्रीपाल राजा हर्षसे रोमोद्गमयुक्त माता और रानियोंसहित मुनिको बांदनेको गया ॥ १०७२ ॥ तिपयाहिणित्तु सम्मं तं मुणिनाहं नमित्तु नरनाहो । पुरओ य संनिविट्ठो, सपरिवारो य विणयपरो १०७३ अर्थ - राजा सिरिपाल अजितसेन राजर्षिको तीन प्रदक्षिणा देके अच्छी तरहसे नमस्कार करके आगे बैठा कैसा सिरिपाल राजा परिवार सहित और बिनयमें तत्पर ॥ १०७३ ॥ | सोवि सिरिअजियसेणो, मुणिराओ रायरोसपरिमुक्को। करुणिक्कपरो परमं, धम्मसरूवं कहइ एवं १०७४ अर्थ- वह श्री अजितसेन मुनिराज रागद्वेषसे सर्वप्रकारसे रहित और करुणाही प्रधान जिन्होंके ऐसे वक्ष्यमाण प्रकार करके प्रधान धर्मका स्वरूप कहे ॥ १०७४ ॥ भो भो भवा भवोहंमि, दुल्हो माणुसो भवो । चुलगाईहिं नाहिं, आगमंभि वियाहिओ ॥ १०७५॥ For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१३३॥ अर्थ-अहो भव्यो भवोधनाम संसारमें मनुष्य सम्बन्धी भवसिद्धान्तमें चुल्लग पासगधन्ने इत्यादि दश दृष्टांतों भाषाटीकाकरके दुर्लभ कहा है ॥ १०७५ ॥ 3 सहितम्. लद्धमि माणुसे जम्मे, दुल्लहं खित्तमारियं । जं दीसंति इहाणेगे, मिच्छाभिल्लापुलिंदया ॥ १०७६॥ | दा अर्थ-कदाचित मनुष्य भव पानेसे आर्य क्षेत्र पाना दुर्लभ है जिस कारणसे इस भरतक्षेत्रमें अनार्य देशोंमें बहुतसे | म्लेच्छ, भील पुलिन्दादिक रहते हैं वे धर्म क्या जानें ॥ १०७६ ॥ आरिएसु य खित्तेसु, दुल्लहं कुलमुत्तमं । जं वाहसुणियाईणं, कुले जायाण को गुणो ॥ १०७७॥ | हा अर्थ-आर्य क्षेत्र पानेसेभी उत्तम कुलपाना दुर्लभ है जिस कारणसे आर्य क्षेत्रमेंभी व्याध कसाइ वगेरेह; के कुलमें उत्पन्न होनेसे क्या गुण होवे अपितु कोई गुण न होवे ॥ १०७७ ॥ कुले लद्धे वि दुल्लंभं, रूवमारुग्गमाउयं । विगला वाहियाऽकाल, मया दीसंति जं जणा ॥ १०७८॥ __ अर्थ-उत्तम कुल पानेसेभी रूप पांच इन्द्रिय परिपूर्ण तथा आरोग्य निरोगता और बड़ा आयुष ये तीन बात पानी है दुर्लभ हैं जिस कारणसे उत्तम कुलमें भी उत्पन्न भए बहुत लोक विकलेन्द्रिय रोगी और अकालमेंही मरते हुए |x ॥१३३॥ देखते हैं ॥१०७॥ तेसु सवेसु लद्धेसु, दुल्लहो गुरुसंगमो। जं सया सबखित्तेसु, पाविजंति न साहुणो ॥ १०७९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir 18] अर्थ-वह रूपादिक सर्व पानेसेभी सद्गुरुका संयोग दुर्गम है जिस कारणसे सर्व क्षेत्रोंमें सदा साधु नहीं रहतेहैं १०७९!! महंतेणं च पुन्नेणं, जाए-वि गुरुसंगमे । आलस्साईहिं रुद्धाणं, दुल्लहं गुरुदंसणं ॥ १०८०॥ I अर्थ-कदा महान् पुण्योदयसे सद्गुरुका संयोग होनेसेभी आलस्यादिक त्रयोदश तस्करोंने रोके हुए प्राणियोंको गुरूका दर्शन होना दुर्लभ है वह तेरे काठिया यह है आलस्स मोह वन्नाथं भाकोहा पमाय किवणत्ता भयसोगा अन्ताणा 81 | वक्खे वक्रु तुहलार आलस १ मोह २ वर्ण ३ मान ४ क्रोध ५ प्रमाद ६ कृपणपना ७ भय ८ शोक ९ अज्ञान १० व्याक्षेप ४|११ कूतूहल १२ क्रीड़ा १३ ये १३ काठिया गुरूका दर्शन नहीं करने देवे ॥ १०८०॥ कहं कहंपि जीवाणं, जाएवि गुरुदंसणे । बुग्गाहियाण धुत्तेहि, दुल्लहं पज्जु-वासणं ॥ १०८१॥ 81 अर्थ-जीवोंके कोई प्रकारसे गुरूका दर्शन होनेसेभी धूोंने चित्तमें भ्रांति करदी होवे ऐसे जीवोंसे गुरुकी सेवा टू करनी दुर्लभ होवे है ॥ १०८१ ॥ गुरुपासेवि पत्ताणं, दुल्लहा आगमस्सुई । जं निहाविगहाओय, दुजयाओ सयाइवि ॥ १०८२॥ | अर्थ-गुरूके पासमें जानेसेभी सिद्धान्तका सुनना दुर्लभ है जिस कारणसे निद्रा विकथा सदा दुर्जय है इसलिए सुनना मुश्किल है ॥ १०८२॥ संपत्ताए सुईएवि, तत्तबुद्धी सुदुल्लहा । जं सिंगारकहाईसु, सावहाणमणो जणो ॥ १०८३ ॥ ESCALASHUSHUSHUS *** For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kcbalirth.org श्रीपालचरितम् ॥१३४॥ भाषाटीकासहितम्. अर्थ-सिद्धान्त सुननेसेभी तत्व परबुद्धि अतिशय दुर्लभ है जिसकारण लोक शृंगारहास्यादिककी कथा सावधान होके एकाग्र चित्तसे सुनते हुए बहुतसे दीखते हैं ॥ १०८३ ॥ उवइटेवि तत्तंमि, सद्धा अच्चंतदुल्लहा । जं तत्तरुइणो जीवा, दीसंति विरला जए ॥ १०८४ ॥ ___ अर्थ-गुरूने तत्व कहां थकां आस्तिक्य श्रद्धा अत्यन्त दुर्लभ है जिस कारणसे तीर्थकरके कहे हुए पदार्थोपर रुचि है जिन्होंकी ऐसे तत्व रुचि जीव विरला दीखते हैं । १०८४ ॥ जायाए तत्तसद्धाए, तत्तबोहो सुदुल्लहो । जं आसन्नसिवा केई, तत्तं वुझंति जंतुणो ॥ १०८५॥ ___ अर्थ-तत्व प्रतीति होनेसेभी तत्वका बोध होना दुर्लभ है जिस कारणसे जिन्होंके नजदीक मोक्ष जाना है ऐसे जीवोंको तत्वका बोध होवे है औरोंको नहीं ॥ १०८५ ॥ है तत्तं दसविहो धम्मो, खंती मद्दवमजवं । मुत्तीतवो दयासचं, सोयं बंभमकिंचणं ॥ १०८६ ॥ । अर्थ-तत्व क्या है सो कहते हैं तत्व दश प्रकारका यतिधर्म सो कहते है क्षमा १ मार्दव २ आर्जव ३ मुक्ति ४ तप ५ दया ६ सत्य ७ शौच ८ ब्रह्मचर्य ९ अकिंचन १० ॥१०८६ ॥ खंतीनाममकोहत्तं, महवं माणवजणं । अजवं सरलो भावो, मुत्ती निग्गंथया दुहा ॥ १०८७ ॥ ॥१३४॥ For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHREAKINARSA अर्थ-अब इन्होंका अर्थ कहते हैं क्षमा नाम क्रोधका अभाव १ मार्दव मानका त्याग २ आर्जव सरलभाव ३ मुक्ति निर्लोभता दो प्रकारकी द्रव्यभावसे परिग्रह रहितपना निग्रंथता और निर्लोभता ४ ॥१०८७ ॥ तवो इच्छानिरोहो य, दया जीवाणपालणं । सच्चं वक्कमसावजं, सोयं निम्मलचित्तया ॥ १०८८ ॥ ___ अर्थ-इच्छाका रोकना तप कहा जावे ५ जीवोंका रक्षण दया ६ निर्दोषवचन बोलना सो सत्य कहा जावे ७ निर्मल चित्तपना शौच कहा जावे ८॥ १०८८ ॥ बंभमटारभेयस्स, मेहणस्स विवजणं । अंकिंचणं न मे कजं, केणावित्थित्तिऽणीहया ॥ १०८९ ॥ अर्थ-अठारह प्रकारके मैथुनका त्याग ब्रह्मचर्य कहा जावे वहां औदारिक वैक्रिय भेदसे दो प्रकारका मैथुन वह एक २ भी मन बचन कायासे करना कराना अनुमोदन भेदसे ९ प्रकारका होवे है दोनोंके मिलानेसे १८ भेद होवे है ९॥ किसी वस्तुसे मेरे प्रयोजन नहीं है ऐसी निस्पृहता अकिंचन कहा जावे १०॥ १०८९ ॥ ६ एसो दसबिहुद्देसो, धम्मोकप्पडुमोवमो । जीवाणं पुण्णपुण्णाणं, सवसुक्खण दायगो ॥ १०९० ॥ | अर्थ-यह दश भेद जिसका ऐसा यह धर्म कल्पवृक्षके सदृश पूर्ण पुण्यजीवोंको सर्व सुखका देनेवाला है कल्पवृक्षभी है दश प्रकारका है इससे धर्मको कल्पवृक्षकी उपमा करी ॥ १०९०॥ धम्मो चिंतामणी रम्भो, चिंतियत्थाण दायगो।निम्मलो केवलालोय, लच्छिबिच्छिड्डिकारओ॥१०९१॥3 SARASOSLASHISHRASISHA For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १३५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - धर्म चिंतामणि सदृश मनोज्ञ वांछित अर्थका देनेवाला है कैसा है धर्म निर्मल, निर्दोष केवलज्ञानरूप लक्ष्मीका बिस्तारके करनेवाला ॥ १०९१ ॥ कल्लाणिक्कमओ वित्त, -रूवे मेरुवमो इमो । सुमणाणं मणो तुट्ठि, देइ धम्मो महोदओ ॥ १०९२ ॥ अर्थ - धर्म कल्याण मंगलके करनेवाला मेरुपर्वतके सरीखा मेरु पक्षमें कल्याण नाम स्वर्णमय मेरु है और प्रसिद्ध है। और मेरु पक्षमें वर्तुल मेरु है और बहुत ऊंचा है धर्म भी ऐसाही है धर्मका भी बड़ा उदय है और शोभन स्वरूप है और यह धर्म शुद्ध मनवालोंको अर्थात् निर्दोष मनवालोंको संतोष देवे है मेरु पक्षमें देवोंके मनमें संतोष होवे है ॥ १०९२ ॥ सुगुत्तसत्तखित्तीए, सबस्सव य सोहिओ । धम्मो जयइ संवित्तो, जंबुद्दीवोवमो इमो ॥ १०९३ ॥ अर्थ - सर्व घरके सारसदृश अच्छी तरहसे रक्षा करी गई सात क्षेत्र जिनभवन १ जिनप्रतिमा २ पुस्तक ३ साधु ४ साध्वी ५ श्रावक ६ श्राविका ७ इन्होंकी जिसमें और सम्यक आचार जिसमें ऐसा धर्म जम्बूद्वीपके जैसा सर्वोत्कृष्ट बत जम्बूद्वीपमें भी भरतादिक सात क्षेत्र हैं और गोल आकार है इस वास्ते जम्बूद्वीपकी उपमा करी ॥ १०९३ ॥ एसो य जेहिं पन्नत्तो, तेवि तत्तं जिणुत्तमा । एयस्स फलभूया य, सिद्धा तत्तं न संसओ ॥ १०९४ ॥ अर्थ - यह धर्म जिन्होंने कहा है ऐसे तीर्थंकरदेवभी तत्व कहे जावें हैं धर्मका फलभूत सिद्ध तत्व है इसमें सन्देह नहीं है ॥ १०९४ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १३५ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दंसंता एयमायारं तत्तमायरियावि हु । सिक्खायंता इमं सीसे, तत्तमुझावयाविय ॥ १०९५ ॥ अर्थ - इस धर्मरूप आचारको पालते हुए और उपदेश देते हुए आचार्य भी तत्व है तथा शिष्योंको यह धर्म सिखाते हुए उपाध्याय भी तत्व कहे जावें हैं ॥ १०९५ ॥ साहयंता इमं सम्मं तत्तरूवा सुसाहुणो । एयस्स सहाणेणं, सुतत्तं दंसणंपि हु ॥ १०९६ ॥ अर्थ - इस धर्मको सम्यक् प्रकारसे साधता हुआ सुसाधु तत्वरूप है इस धर्मके श्रद्धानसे जो सम्यक दर्शन है वह भी शोभन तत्व है ।। १०९६ ॥ एयरसेवावबोहेणं, तत्तं नाणंपि निच्छयं । एयस्साराहणारूवं तत्तं चारित्तमेव य ॥ १०९७ ॥ अर्थ - इस धर्मका अवबोध सम्यक्ज्ञान वस्तु निर्णयात्मक ज्ञानभी तत्व कहा जावे और इस धर्मका आराधनारूप चारित्र भी तत्व है ॥ १०९७ ॥ इत्तो जा निज्जरातीए, रूवं तत्तं तवोवि य । एवमेयाई सवाई, पयाइं तत्तमुत्तमं ॥ १०९८ ॥ अर्थ — इस चारित्रसे जो कर्मोंकी निर्जरा वह सरूप जिसका ऐसा तपभी तत्व है इस प्रकारसे यह नवपद उत्तम सर्वोत्कृष्ट तत्व हैं ।। १०९८ ॥ तत्तो नवपई एसा, तत्तभूया विसेसओ । सवेहिं भव्वसत्तेहिं, नेया झेया य निच्चसो ॥ १०९९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१३६॥ भाषाटीका| सहितम्. -SAMACASEAR अर्थ-इस कारणसे अनन्तरोक्त नवपदोंका समाहार नवपदी कहा जावे उसको सर्व भव्य प्राणियोंको तत्वभूत ६ समझना और ध्यान करना ॥१०९९ ॥ एयं नवपयं भवा, झायंता सुद्धमाणसा । अप्पणो बेव अप्पंमि, सक्खं पिक्खंति अप्पयं ॥ ११००॥ ___ अर्थ-ए नवपदीको जानके शुद्ध मनसे ध्याते हुए मनुष्य अपने आत्माको साक्षात् नवपदमई देखते हैं ॥११००॥ 8 अप्पंमि पिक्खिए जं च, क्खणे खिजइ कम्मयं । न तं तवेण तिवेण, जम्मकोडीहिं खिज्जए ॥११०१॥ __ अर्थ-आत्मा नवपदमई देखनेसे क्षणमात्रसे जो कर्म क्षय होवे वह कर्म तीव्रतपसे करोड़ जन्मसेभी नहीं क्षय होवे ११०१ ता तुज्झ भो महाभागा, नाऊणं तत्तमुत्तमं । सम्मं झाएह जं सिग्धं, पावेहाणंदसंपयं ॥ ११०२॥ PI अर्थ-तिस कारणसे अहो महाभाग्यवंतो आप यह उत्तम तत्व जानके अच्छी तरहसे जैसा बने वैसा ध्यावो जिस कारणसे शीघ्र आनंद सम्पदा परम आल्हादरूप पावो ॥११०२॥ एवं सो मुणिराओ, काऊणं देसणं ठिओ जाव, ताव सिरिपालराया, विणयपरो जंपए एवं ॥११०३॥ । अर्थ-वह अजितसेन मुनिराज इस प्रकारसे देशना देके जितने रहे उतने श्रीपालराजा विनयमें तत्पर होकर इस प्रकारसे कहे ॥ ११०३ ॥ है नाणमहोयहि भयवं, केण कुकम्मेण तारिसोरोगो। बालत्ते मह जाओ केण सुकम्मेण समिओ य॥११०४॥ RAREKARE ABANKA ॥१३६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - हे ज्ञानसमुद्र हे भगवान किस कुकर्मसे मेरे बाल्य अवस्थामें वैसा रोग भया और किस सुकर्मसे शांत भया ।। ११०४ ॥ केणं च कम्मणाहं, ठाणे ठाणे य एरिसे रिद्धिं । संपत्तो तह केणं, कुकम्मणा सायरे पडिओ ॥ ११०५ ॥ अर्थ - किस कर्मसे मैने ठिकाने २ ऐसी ऋद्धि पाई और किस कुकर्मसे मैं समुद्र में पड़ा । ११०५ ॥ तह केण नीयकम्मेण, चेव डुंबत्तणं महाघोरं । पत्तोहं तं सवं, कहेह काऊण सुपसायं ॥ ११०६ ॥ अर्थ - तथा किस नीच कर्मके उदयसे मैंने महाभयंकर डोमपना पाया वह सर्व कृपा करके कहो ॥। ११०६ ॥ तो भणइ मुणिवरिंदो, नरवर जीवाण इत्थ संसारे । पुल्वकयकम्मवसओ हवंति सुक्खाईं दुक्खाई ॥११०७॥ अर्थ - तदनंतर मुनिवरीन्द्र कहे हे राजन इस संसारमें जीवोंके पूर्वकृतकर्मके उदयसे सुख दुःख होवे है सो सुनो ॥ ११०७ ॥ 1 इत्थेव भरहवासे, हिरन्नपुरनामयंमि वरनयरे । सिरिकंतो नाम निवो, पावड्डिपसत्तओ अस्थि ॥ ११०८ ॥ अर्थ —- इसी भरतक्षेत्र में हिररायपुर नामका प्रधान नगरमें आखेटकमें आशक्त ऐसा श्रीकान्त नामका राजा था ॥ ११०८ ॥ | तस्सत्थि सिरिसमाणा, सरीरसोहाइ सिरिमई देवी । जिणधम्मनिउणबुद्धी, विसुद्ध संमत्तसीलजुआ ११०९ For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १३७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — उस राजाके शरीरकी शोभा करके लक्ष्मीसमान श्रीमती नामकी पटरानी है कैसी है श्रीमती देवी जिनधर्म में निपुण बुद्धि जिसकी और निर्मल सम्यक्त्व और ब्रह्मचर्य करके सहित ऐसी ॥ ११०९ ॥ तीए य नरवरिंदो, भणिओ, तुहनाह जुज्जइ न एवं । पावड्डिमहावसणं, निबंधणं नरयदुक्खाणं ॥ १११०॥ अर्थ - उस श्रीमतीने राजासे कहा हे स्वामिन् यह पापर्द्धि महाव्यसन तुमको युक्त नहीं है यह व्यसन नरकके दुःखका कारण है ॥ १११० ॥ भीसणसत्थकरेहिं, तुरयारूढेहिं जं हणिज्जंति । नासंतावि हु ससया, सो किर को खत्तियायारो ॥११११ ॥ अर्थ - भयंकर शस्त्र है हाथोंमें जिन्होंके ऐसे घोड़ोंपर सवार भए मनुष्य जो भागते हुए मृगादि जीवोंको मारे वह क्या क्षत्रियोंका आचार है अपितु नहीं है ॥ ११११ ॥ जत्थ अकयावराहा, मया वराहाइणोवि निन्नाहा । मारिज्जंति बराया, सा सामिय केरिसी नीई ॥१११२॥ अर्थ – जहां नीतिमार्गमें अपराधीको शिक्षा देनी ऐसा कहा है परन्तु जिन्होंने अपराध नहीं किया ऐसे मृग वराहादिक दुर्बल जीव मारे जावे हे स्वामिन् यह कैसी नीति है ॥ १११२ ॥ हंतूण परप्पाणं, अप्पाणं जे कुणंति सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, कए य नासंति अप्पाणं ॥ १११३ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १३७ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RECERESEARSANSAR अर्थ-पर जीवोंको मारके उन्होंके मांस करके अपने प्राणोंको बलवान करते हैं वह दुष्ट थोड़े दिनोंके लिए अपने आत्माका नाश करते हैं ॥१११३ ॥ इच्चाइ जिणिंदागमउवएससएहिं बोहियंतीए। तीए न सक्किओसो, निवारिओ पाववसणाओ॥१११४॥ | अर्थ इत्यादि जिनागम सम्बन्धी सैकड़ों उपदेश देनेकर समझाया तौभी राजा पाप व्यसनसे नहीं निवृत्त भया॥१११४॥ अन्नदिणे सो सत्तहिं, सरहिं उल्लंठदुट्ठवंठेहिं । मिययासत्तो पत्तो, कत्थवि एगंमि वणगहणौ ॥१११५॥ ___ अर्थ-अन्य दिनमें वह श्रीकान्त राजा ७०० उलंठ वंठ पुरुषोंके साथमें मृगयामें आसक्त भया कोई गहन बनमें प्राप्त भया ॥१११५॥ दट्टण तत्थ एगं, धम्मझयसंजुयं मुणिवरिंदं । राया भणेइ एसो, चमरकरो कुट्टिओ कोवि ॥१११६॥ अर्थ-उस वनमें एक रजोहरन सहित मुनिवरिंदको देखके राजा बोले यह मक्खियों उड़ाने वास्ते चामर हाथमें | |जिसके ऐसा कोई कोढ़ी दिखता है ॥ १११६ ॥ ६ तं चेव भणंतेहिं, तेहिं वंठेहिं दुचित्तेहिं । उवसग्गिओ मुणिंदो, खमापरो लिट्ठलट्रीहि ॥ १११७॥ है अर्थ-ऐसा राजाके कहे हुए बचन बोलते हुए दुष्ट चित्तवाले वंठ पुरुषोंने मुनीन्द्रको पाषाण लकड़ियोसे उपसर्ग किया कैसा है मुनिवरीन्द्र क्षमा है प्रधान जिसके ऐसा ॥ १११७ ॥ CRICCAREERGARH For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- चरितम् भाषाटीकासहितम्. ॥१३८॥ CALCCACAUCLk जह जह ताडंति मुणिं, ते दुट्टा तह तहा समुल्लसइ । हासरसो नरनाहे, मुणिनाहे उवसमरसो य॥१११८॥ अर्थ-वह दुष्ट वंठ पुरुष जैसे २ मुनिको ताड़े वैसा २ राजाके हास्यरसका उल्लास होवे अर्थात् राजा हंसे और मुनि-1 शाश्वरके शान्तरसका उल्लास होवे ।। १११८ ॥ ते कयमुणिउवसग्गा, निब्भग्गा हणियभूरिमियवग्गा। नरवइपुद्विविलग्गा, पत्ता निययंमि नयरंमि १११९ ___ अर्थ-किया मुनिको उपसर्ग जिन्होंने ऐसे इसि कारणसे भाग्यहीन और मारे हैं मृगसमूह जिन्होंने ऐसे वंठ पुरुष राजाके पीछे लगे हुए अपने नगरमें आए ॥ १११९ ॥ अन्नदिणे सो पुणरवि, राया मिगयागओ नियं सिन्नं। मुत्तूण हरिण-पुदीइ, धाविओ इक्कगो चेव ॥११२०॥ | अर्थ-अन्यदिनमें राजा मृगयागयाभया अपने सैन्यको पीछे छोड़के अकेला हरिणके पीछे घोड़को दौड़ाया ११२० है नइतडवणे निलक्को, सो हरिणो नरवरो तओचुक्को। जापिच्छइ ता पासइ, नइउवकंठे ठियं साहुं ११२१/४ का अर्थ-वह हरिण नदीके तटपर जो बन वहां सघन वृक्षों करके आच्छादित होनेसे उस बनमें नहीं देखनेमें आया | तब राजा मृगसे चूका हुआ जितने इधर उधर देखता है उतने नदीके किनारेपर काउसग्गमें खड़ा हुआ एक मुनीको देखा ॥ ११२१॥ |तं दट्ठणं पावेण, तह पिल्लिओ मुणि-वरिंदो । सहसत्ति जहा पडिओ, नईजले तो पुणो तेण ॥ ११२२ ॥ SAXASSISEASES ॥१३८॥ For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपा.च. २४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-उस साधुको देखके उस क्रूर राजाने वैसी हाथोंसे प्रेरणा करी कि जिससे मुनीन्द्र अकस्मात नदी के पानी में गिरा तदनंतर औरभी उस राजाने ॥ ११२२ ॥ संजायकिंपि करुणा, भावेणं कड्डिऊण सो मुक्को। को जाणइ जीवाणं, भावपरावत्तामइ-विसमं ॥ ११२३ ॥ अर्थ - उत्पन्न भया कुछ दयाका परिणाम ऐसे राजाने उस मुनीन्द्रको उसी वक्त जलसे निकालके नदी के तटपर रक्खा यह कैसे भया सो कहते हैं जीवोंके भाव परावर्तन अति विषम है कौन जाने अतिशय ज्ञानी बिना कोई जानसके नहीं पहले गिरानेका भाव हुआ पीछे निकालनेका परिणाम भया ॥ ११२३ ॥ गिहमागएण तेणं, नियावयाओ निवेइओ सहसा । सिरिमइदेवी पुरओ, तीए य निवो इमं भणिओ ११२४ अर्थ - घर आके राजाने शीघ्रही श्रीमती रानीके आगे अपना निर्मल भाव कहा याने मैंने आज एक मुनिको नदीसे बाहर निकाला बाद श्रीमतीने राजासे यह कहा ॥ ११२४ ॥ अन्नेसिंपि जियाणं, पीडा - करणं हवेइ कडुय- फलं । जंपुण मुणिजणपीडा, - करणं तं दारुणविवागं ॥ ११२५ ॥ अर्थ - औरभी जीवोंको पीड़ाका करना उसका कड़वा फल है और जो मुनिजनको पीड़ाका करना वह भयंकर | विपाक फल देनेवाला है ।। ११२५ ॥ जओ साहूणं हीलाए, हाणी हासेण रोयणं होइ । निंदाइ बहो बंधो, ताडणया वाहिमरणाई ॥ ११२६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १३९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - जिस कारण से शास्त्रमें कहा है साधूकी हीलना करनेसे घरमें हानि है होवे साधुओंका हास्य करनेसे रोना होवे है साधुओंकी निंदा करनेसे वध बंधन होवे है साधुओंकी ताड़ना करनेसे रोग और प्राणवियोगादि होवे है ॥ ११२६ ॥ मुणिमारणेण जीवाण, णंत संसारियाण बोही वि। दुलहा च्चिय होइ धुवं भणियमिणं आगमेवि जओ२७ अर्थ – मुनि के मारनेसे अनंत संसार बघे है और उन जीवोंको जिनधर्मकी प्राप्तिभी निश्चय दुर्लभ होवे है जिस कारणसे सिद्धान्तमें भी कहा है ॥ ११२७ ॥ चेइयदवविणासे, इसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजइ चउत्थभंगे, मूलग्गी बोहिलाभस्स ॥ ११२८ ॥ अर्थ —– जिनमंदिरके द्रव्यका बिनाश करे अर्थात् भक्षण उपेक्षणादिकसे मूलसे विध्वंस करे तथा साधुका घात करनेसे और प्रवचन चतुरविध संघका उड्डाह कलंक वगैरह देनेकर अपवाद करनेमें तथा साध्वीका चौथा व्रत ब्रह्मचर्यके भंग करनेमें इतने कामोंमें हरकोई काम करनेवाला बोधिलाभ अर्हत् धर्मकी प्राप्तिके मूलमें अग्नि दिया इस कहनेसे यह अनन्तरोक्त करनेसे जन्मांतरमें धर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है यह आवश्यक निर्युक्तिमें कहा है ॥ ११२८ ॥ तं सोऊण नरिंदो, किंपि समुल्लसिय धम्मपरिणामो । पभणेइ अहं पुणरवि, न करिस्सं एरिसमकजं ॥ ११२९ अर्थ - वह रानीका वचन सुनके राजाका धर्ममें परिणाम भया और बोला मैं अब ऐसा अकार्य नहीं करूंगा ११२९ | कइवयदिणेसु पुणरवि, तेण गवक्खट्टिएण कोवि मुणी । दिट्ठो मलमलिणतणू, गोयरचरियं परिभमंतो ३० For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम् ॥ १३९ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-कितने दिनके बाद औरभी गोखड़ेमें बैठे हुए राजाने कोई मुनिको देखा कैसा मुनि पसीनेसे आला भया है शरीरमें मैल जिसके उसीसे मैला है शरीर जिसका ऐसा और गोचरी फिरता हुआ॥११३०॥ तत्तो सहसा वीसारिऊण, तं सिरमईइ सिक्खंपि । सोराया दुट्ठमणो, नियवंठे एवमाइसइ ॥ ११३१॥ | अर्थ-मुनि देख्यों के अनन्तर दुष्टमन जिसका ऐसा राजा अकस्मात श्रीमतीकी दी भई सिखावनको भूलके | अपने वंठ पुरुषोंको ऐसी आज्ञा देवे ॥ ११३१॥ रे रे एयं डुंब, नयरं विद्यालयंतमम्हाणं । कंठे चित्तूण दुयं, निस्सारहनयरमज्झाओ ॥ ११३२॥ | अर्थ-अरे २ सेवको हमारा नगर विटालता हुआ अर्थात् अशुद्ध करता हुआ इस डोमको गल हत्था देके शीघ्र नगरसे बाहिर निकालो ॥ ११३२॥ तेहिं नरेहिं तहच्चिय, कड्डिजतो पुराउ सो साहू । निययगवक्खठियाए, दिट्ठो तीए सिरिमईए ॥११३३॥ | अर्थ-इस प्रकारसे राजाने कह्यों के बाद उन वंठ पुरुषोंने नगरसे निकालता हुआ उन साधुको अपने गवाक्षमें बैठी भई श्रीमतीने देखा ॥११३३ ॥ तो कुवियाए तीए, राया निभच्छिओकडुगिराए।तो सो विलजिओभणइ, देवि मे खमसु अवराहं ३४] KARNAKARANG For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् सहितम्. ॥१४०॥ FI अर्थ-तदनंतर क्रोधातुर भई रानीने कटुक वाणीसे राजाकी निर्भत्सना करी तव राजा लजित होके बोला हे देवी भाषाटीका मेरा अपराध क्षमा करो और ऐसा नहीं करूंगा ॥११३४ ॥ हासोमुणिनाहोरन्ना, तत्तो आणाविओनियावासंनिमिओय प्रइओखामिओय, तं निययमवराहं ११३५ हा अर्थ-तदनंतर राजाने उस मुनिनाथको अपने घर बुलाया और नमस्कार किया वस्त्रादिकसे पूजा और अपना अपराध क्षमा कराया ॥ ११३५ ॥ हापुट्ठो य सिरिमईए, भयवं अन्नाणभावओ रन्ना। साहणं उवसग्गं, काऊण कयं महापावं ॥ ११३६ ॥ __अर्थ-श्रीमतीने पूछा हे भगवन् राजाने अज्ञान भावसे साधुओंको बहुत उपसर्ग करके महापाप उपार्जन किया है तप्पावघायणथं, किं पि उवायं कहेह पसिऊणं । जेण कएण एसो, पावाओ छदृइ नरेसो ॥ ११३७॥ १ अर्थ-उस पापका विनाश करने के लिए प्रसन्न होके कोई उपाय कहो जिस उपाय करनेसे यह राजा पापसे छूटे ॥ ही तो भणइ मुणिवरिंदो, भद्दे पावं कयं अणेण घणं । जंगुणिणो उवघाए, सवगुणाणंपि उवघाओ॥११३८॥18 FI अर्थ-तब मुनिवरीन्द्र कहे हे भद्रे इस राजाने बहुत पाप किया है जिस कारणसे गुणवान पुरुषका विनाश करने-16 से सब गुणोंका उपघात होवे है ॥ ११३८ ।। ॥१४०॥ तहवि कयदुक्क्याणवि, जियाण जइ होइ भावउल्लासो।ता होइ दुक्कयाणं, नासो सवाणविखणेणं ११३९/81 For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-तथापि किया है पाप जिन्होंने ऐसे प्राणियों के जो भावका उल्लास शुभ परिणामकी वृद्धि होवे तो सब पापका क्षणेकमें नाश होवे ॥११३९ ॥ भावस्सुल्लासकए, अरिहाइपसिद्धसिद्धचक्कस्स । आराहणं मुणीहिं, उवइटुं भवजीवाणं ॥ ११४०॥ ___ अर्थ-भावके उल्लास करने के लिए अहंदादि पदों करके प्रसिद्ध सिद्धचक्रका आराधन भव्य जीवोंके वास्ते मुनिटूयोंने कहा है ॥ ११४०॥ है|ता जइ करेइ सम्मं, एयस्साराहणां नरवरोवि । ता छुट्टइ सयलाणं, पावाणं नत्थि संदेहो ॥११४१॥ * अर्थ-तिस कारणसे राजाभी जो अच्छीतरहसे सिद्धचक्रका आराधन करे तो सर्व पापोंसे छूटे इसमें सन्देह नहीं है ॥ ११४१॥ तो सिक्खिऊण पूया, तवोविहाणाइयं विहिं राया।भत्तीइ सिद्धचकं, आराहइ सिरिमइसमेओ ११४२ __अर्थ-तदनंतर राजा पूजा और तपका जो करना इत्यादि विधि सीखके श्रीमतीरानी सहित भक्तिसे सिद्धचक्रका आराधन करे ॥ ११४२॥ पुन्ने अतवोकम्मे, रन्ना मंडाविए य उज्जमणे। सिरिमइसहीहिं अट्ठहिं, विहिया अणुमोयणा तस्स ११४३ CALCACANCICISROCK MCALCOACRECORESCORECASCHECE For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SAR श्रीपाल- अर्थ-और तप क्रिया पूरण होनेसे राजाने उज्जवणा मांडा तव आठ श्रीमतीरानीकी सखियोंने उजवणा सहित भाषाटीकाचरितम् तपकी अनुमोदना प्रशंसा करी ॥ ११४३ ॥ सहितम्. ॥१४१॥ सत्तहिं सएहिं तेहिं, सेवयपुरिसेहिं तस्स नरवइणो । दट्ठणं धम्मकरणं, पसंसियं किंपि खणमित्तं ११४४ ___ अर्थ-सातसै ७०० सेवक पुरुषोंने राजाको धर्मकार्य कर्ताहुआ देखके क्षणमात्र कुछ प्रशंसा करी आजकल तो अपना स्वामी सम्यक कार्य करे है इत्यादि प्रशंसा करते भए ॥ ११४४ ॥ ते अन्नदिणे राया,-एसेणं सीहनामनरवइणो । हणिऊण गाममिक, जा वलिया गोधणं गहिउं ११४५ VI अर्थ-अन्यदिनमें वह ७०० पुरुष राजाकी आज्ञासे सिंहनामके राजाका एक गाम लूटके गायां वगैरह लेके जित ने पीछे चले ॥ ११४५ ॥ हता पुट्टि पत्तो सीहो, बहुबलकलिओ पयंडभुयदंडो। तेण कुविएण सबे, धाडय पुरिसा हया तत्थ ११४६|3| ___ अर्थ-उतने बहुत सैन्ययुक्त और प्रचंड भुजदंड जिसके ऐसा सिंहराजा पीछे आया क्रोधातुर भया ऐसा सिंह राजाने उस प्रदेशमें सर्व धाड़के पुरषोंको मारे ॥ ११४६ ॥ ॥१४१॥ तेवि मरिऊण-खत्तिय, पुत्ता होऊण तरुणभावेवि । साहूवसग्गपाव,-प्पसायओ कुट्ठिणो जाया ॥११४७॥ RECANCECREGARACCU For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ – वह सातसै ७०० राजाके सेवक मरके क्षत्रियोंके पुत्र होके यौवन अवस्था में भी साधुवोंको किया उपसर्ग उस पापके प्रसादसे कोढ़ी भए । ११४७ ॥ जो सिरिकंतो राया, पुन्नपभावेण सो तुमं जाओ । सिरिमइजीवो मयणा, -सुंदरि एसा मुणियतत्ता ११४८ अर्थ- जो सिरिकान्त राजा था वह पुण्यके प्रभावसे तैं भया श्रीमतीरानीका जीव यह मदनसुंदरी भई कैसी है यह मदनसुंदरी जाना है तत्व जिसने ऐसी ॥। ११४८ ॥ जं पुर्व्विपि हु धम्मुज्जमपरा, तुहहियिकतलिच्छा । आसि इमा तं जाया, एसा तुह मूल पट्टमि ॥११४९ ॥ अर्थ — निश्चय जिस कारण से पूर्वभवमें भी धर्ममें उद्यम करने में तत्परथी और तेरे हितकरनेकी इच्छा जिसकी ऐसीथी तिस कारणसे यह तेरी मूल पटरानी हुई ॥ ११४९ ॥ तुमए जहा मुणीणं, विहिया आसायणा तहाचेव । कुट्टित्तं जलमजण, - मत्रि डुंबत्तं च संपत्तं ॥ ११५० ॥ अर्थ - तैने जिस २ प्रकारसे मुनियोंकी आशातना विराधना करी उस २ प्रकारसे तैंने इस भवमें कोढ़ीपना समुद्र में गिरना और डूमपना पाया ॥ ११५० ॥ जं च तए तीए सिरिमईइ, वयणेण सिद्धचक्कस्स । आराहणा कया तं, मयणावयणा सुहं पत्तो ॥ ११५१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१४२॥ अर्थ-और जो तैने उस श्रीमतीके वचनसे सिद्धचक्रकी आराधना करी इस कारणसे यहां मदनसुंदरीके वचनसे| भाषाटीकासुख पाया ॥११५१॥ | सहितम्. जो एसो वित्थारो, रिद्धिविसेसस्स तुज्झ संजाओ।सोसयलोवि पसाओ, नायवो सिद्धचक्कस्स ॥११५२॥ | अर्थ-वह यह तेरे रिद्धिविशेषका विस्तार भया सो सर्व श्रीसिद्धचक्रका प्रसाद अनुग्रह जानना ॥ ११५२॥ सिरिमईसहिहिं जाहिं, विहिया अणुमोयणा तया तुम्ह। ताओ इमाओजायाओ, तुज्झ लहुपट्टदेवीओ५३/5 ___अर्थ-जिन श्रीमतीकी सखियोंने तुम्हारी अनुमोदना करी थी वह तेरी यह छोटी पटरानियों भई ॥ ११५३ ॥ एयासु अट्रमीए, ससवित्तीसंमुहं कहियमासि । खजसु सप्पेण तुमंति, तेण कम्मेण सा दट्ठा ११५४ ___ अर्थ-इन आठोंमें आठवीं रानीने पूर्वभवमें अपनी शोकके सन्मुख कहा था तेरेको सर्प खावो इसी कर्मसे इस भवमें सर्पने डसी ॥ ११५४ ॥ धम्मपसंसाकरणेण, तत्थ सत्तहिं सएहिं सुहकम्म। जं विहियं तेण इमे, गयरोगा राणया जाया ११५५ ___ अर्थ-धर्मकी प्रशंसा करने कर पूर्व भवमें ७०० सेवक पुरषोंने जो शुभकर्म किया उस शुभ कर्मसे गया रोग जिन्होंका ऐसे ये राना भए ॥ ११५५ ॥ ॥१४२॥ सीहो य घायविहुरो, पालित्ता मासमणसणं दिक्खं । जाओहमजियसेणो, बालत्ते तुज्झ रजहरो ११५६|| SPESIASISUSTUHARSAS For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir COCALCUCAUGUST ___ अर्थ-सिंह नामका राजा प्रहारोंसे पीड़ित भया एक महीनेकी अनशन सहित दीक्षा पालके मैं अजितसेन राजा भया कैसा में हूं बाल्यअवस्थामें तेरा राज्य लेनेवाला ऐसा ॥ ११५६ ॥ तेणंचिय वेरेणं, बद्धोहं राणएहिं एएहिं । पुवकयब्भासेणं, जाओ मे चरणपरिमाणो ॥ ११५७॥ ___ अर्थ-उसी वैरसे इन राणाओंने मेरेकू बांधा पूर्वभवमें जो कीना दीक्षाका अभ्यास उससे मेरा चारित्रका परिणाम |भया ॥ ११५७ ॥ सुहपरिणामेण मए, जाइं सरिऊण संजमो गहिओ। सोहं उपन्नावहि, नाणो नरनाह ? इह पत्तो ११५८ ६ अर्थ-मैंने शुभपरिणामसे जातिस्मरण पाके संयम ग्रहण किया हे नरनाथ उत्पन्न भया है अवधिज्ञान जिसको है ऐसा मैं यहां आया हूं ॥ ११५८ ॥ एवं जं जेण जहा, जारिसकम्मं कयंसुहं असुहं । तंतस्स तहा तारिस,-मुवट्टियंमुणसु इत्थ भवे ॥११५९॥ का अर्थ-इस प्रकारसे जिस प्राणीने जो शुभ अशुभ जैसा कर्म किया उस प्राणीके वह वैसा कर्म इस भवमें उसी प्रकादारसे समीपमें रहा हुआ जानो॥ ११५९ ॥ तं सोऊणं सिरिपाल,-नरवरो चिंतए सचित्तंमि । अहह अहो केरिसयं, एयं भवनाडयसरूवं ॥११६०॥ REACHEHRAICHARCHASESCRIG For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल- 181 अर्थ-श्रीपालराजा वह मुनिका बचन सुनके अपने मनमें विचारे अहह इति खेदे अहो इति आश्चर्ये यह भवनाट- भाषाटीकाचरितम् कका स्वरूप कैसा अति विषम वर्ते है ॥ ११६०॥ टू सहितम्. पभणेइ य मे भवयं, संपइ चरणस्स नत्थि सामत्थं । तो काऊण पसायं, मह उचियं दिसह करणिजं ११६१] ॥१४३॥ ___ अर्थ-और राजा श्रीपाल कहे हे भगवन् इस वक्तमें मेरा चारित्र ग्रहण करनेका सामर्थ्य नहीं है इसलिए प्रसन्न होके मेरेयोग्य धर्मकर्तव्य आज्ञा करो ॥ ११६१ ॥ दूतोभणइ मुणिवरिं-दो, नरवर जाणेसुनिच्छयं एयं।भोगफलकम्मवसओ, इत्थभवे नत्थि तुह चरणं ६२ | अर्थ-तदनंतर मुनिवरीन्द्र कहे हे नरवर यह निश्चय जानो भोगफलकर्मके वशसे इस भवमें तेरे चारित्र नहीं है ॥ ११६२॥ |किं तु तुमं एयाइं, अरिहंताई नवावि सुपयाई । आराहतो सम्म, नवमं सग्गंपि पाविहिसि ॥११६३॥ | अर्थ-किंतु तैं यह अहंदादि नव शोभन पदोंको अच्छीतरहसे आराधन कर्ता हुआ नवमा आनतनामका देवलोक दिपावेगा ॥११६३ ॥ ॥१४३॥ तत्तोवि उत्तरुत्तर, नरसुरसुक्खाइं अणुहवंतो य । नवमे भवंमि मुक्खं, सासयसुखं धुवं लहसि ॥११६४॥ है। MICHAATSUSAUSASHISHA CREASORRIGANGACANCY For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CAKACCAG INI अर्थ-और उस नवमे देवलोकसेभी अधिक २ मनुष्य देवका सुख भोगवता हुआ नवमे भवमें निश्चय शाश्वत सुख है जहां ऐसा मोक्ष पावेगा ॥ ११६४ ॥ दूतं सोऊणं राया, साणंदो नियगिहमि संपत्तो । मुणिनाहोवि ह तत्तो, पत्तो अन्नत्थ विहरंतो ॥११६५॥ है अर्थ-वह मुनिका वचन सुनके राजा श्रीपाल आनंदसहित होके अपने घर गया तदनंतर मुनीन्द्रभी विहार करके और नगरादिकमें गए ॥ ११६५ ॥ सिरिपालोवि हु राया, भत्तीए पिययमाहिं संजुत्तो। पुब्बुत्तविहाणेणं, आरहइ सिद्धवरचक्कं ॥ ११६६ ॥ है अर्थ-श्रीपालराजाभी नवरानियों सहित भक्तिकरके पूर्वोक्त विधिसे सिद्धचक्रका आराधन करे ॥ ११६६ ॥ अह मयणसुंदरी भणइ, नाह ? जइया तए कया पुदि । सिरिसिद्धचक्कपूया, तइया नो आसि भूरिधणं ६७ __ अर्थ-अथ मदनसुंदरी राजासे कहे हे नाथ जब आपने पहले श्रीसिद्धचक्रकी पूजा करी थी तब बहुत धन नहीं था ॥ ११६७ ॥ इन्हिं च तुम्ह एसा, रज्जसिरी अस्थि वित्थरसमेया। ता कुणह वित्थरेणं, नवपय पूयं जहिच्छाए ११६८ | अर्थ-इस वक्त में आपके यह राज्यलक्ष्मी विस्तार सहित है इस कारणसे आप अपनी इच्छासे विस्तार विधिसे 18नवपदोंकी पूजा करो ॥ ११६८ ॥ ESSASSASSASSINS RA For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १४४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं सोऊणं अइगुरुयं, भत्तिसत्तीहिं संजुओ राया। अरिहंताइपयाणं, करेइ आराहणं एवं ॥ १९६९ ॥ अर्थ- वह मदन सुंदरीका बचन सुनके अत्यन्त भक्ति शक्ति सहित राजा वक्ष्यमाण प्रकारसे अर्हदादि पदोंका आराधन करे ।। ११६९ ॥ नव चेईहर पडिमा जिन्नुद्धाराइ विहिविहाणेणं । नाणाविहणूयाहिं, अरिहंताराहणं कुणइ ॥ ११७० ॥ अर्थ — सो कहते हैं नवजिनमंदिर नवप्रतिमा नवजीर्णोद्धार इत्यादिक विधिसे करवाके अनेकप्रकारकी पूजा करके अर्हत पदकी आराधना करे ।। ११७० ॥ सिद्धाणवि पडिमाणं, कारावणपूयणापणामे हिं । तग्गयमणझाणेणं, सिद्धपयाराहणं कुणइ ॥ ११७१ ॥ अर्थ–सिद्धोंकी प्रतिमाका कराना और पूजा करना नमस्कार करना और सिद्धोंमें मन जिसका ऐसा ध्यान करने कर सिद्धपदका आराधन करे ।। ११७१ ॥ भत्तिबहुमाणवंदण, - वेयावच्चाइकज्जमुज्जुत्तो । सुस्सूसणविहिनिउणो, आयरियाराहणं कुणइ ॥ ११७२ ॥ अर्थ-भक्ति मनमें निर्भरप्रीति बहुमान बाह्यप्रतिपत्ति वंदना वेयावच्च इत्यादि कार्योंमें उद्यमवान तथा सेवाकर - नेका विधिमें निपुण ऐसा राजा आचार्यपदकी आराधना करे ।। ११७२ ॥ |ठाणासणवसणाई, पढतपाढंतयाण पूरंतो । दुविहभत्तिं कुणतो, उवझायाराहणं कुणइ ॥ ११७३ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम् ॥ १४४ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir अर्थ-पढ़ता हुआ पढाता हुआ साधु वगैरहको रहनेको स्थान और भोजन वस्त्रादि पूर्ण करताहुआ द्रव्य भावसे भक्ति करता हुआ उपाध्याय पदकी आराधना करे ॥ ११७३ ॥ अभिगमणवंदणनमंसहिं, असणाइवसहिदाणेहिं । वेयावच्चाईहिं य, साहुपयाराहणं कुणइ ॥११७४॥ । अर्थ-सामने जाना स्तुति करना नमस्कार करना और आहार वगैरह और उपाश्रय देने करके इत्यादि वेयावच्च करने करके साधु पदका आराधन करे ॥ ११७४ ॥ रहजत्ताकरणेणं, सतित्थजत्ताहिं संघपूयाहि । सासणपभावणाहिं, सुदंसणाराहणं कुणइ ॥ ११७५॥ अर्थ-रथयात्रा करनेकर तीर्थयात्रा और संघपूजा करनेकर शासनकी प्रभावना करनेसे सम्यक्दर्शन पदका आराधन करे ॥ ११७५॥ सिद्धंतसत्थपुत्थय, कारावणरक्खणच्चणाईहिं । सज्झायभावणाहिं, नाणपयाराहणं कुणइ ॥ ११७६ ॥ अर्थ-सिद्धान्तका पुस्तक लिखाने करके और यत्नसे रक्षा करनेकर और धूप चंदन वस्त्रादिकसे पूजना और स्वाध्याय वाचनादि पांच प्रकारका करनेसे तथा भावना ज्ञानका स्वरूप विचारने रूप करके ज्ञानपदकी आराधना करे॥ वयनियमपालणेणं, विरइकपराण भत्तिकरणेणं । जइधम्मणुरागेणं, चारित्ताराहणं कुणइ ॥११७७॥ श्रीपा.च.२५ For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Hal चरितम् ॥१४५॥ ___ अर्थ-व्रत अणुव्रत और नियम अभिग्रहादिक पालने करके तथा विरति सावद्यव्यापारनिवृत्तिही एक उत्कृष्ट भाषाटीका जिन्होंके ऐसे साध्वादिकोंकी भक्ति करनेकर दशप्रकारका यतिधर्मपर प्रीति रखनेकर चारित्रपदका आराधन करे॥७७॥ सहितम्. आसंसाइविरहियं, बाहिरमभितरं तवोकम्मं । जहसत्तीइ कुणंतो, सुद्धतवाराहणं कुणइ ॥११७८॥ | अर्थ-आसंसा इसभव परभवके सुखकी वांछाकरके रहित ६ बाह्य उपवासादि ६ अभ्यंतर प्रायश्चित्तादि यह बारह प्रकारका तप यथाशक्ति अपनी शक्तिके अनुसार करता हुआ निर्मल तपकरने करके तपपदका आराधन करे ॥११७८॥ एवमेयाई उत्तमपयाइं, सो दवभावभत्तीए । आराहतो सिरिसिद्ध,-चकमच्चेइ निचंपि ॥ ११७९ ॥ । अर्थ-इस प्रकारसे राजा श्रीपाल यह उत्तमपद द्रव्यभावभक्तिसे आराधता हुआ निरंतर श्रीसिद्धचक्रकी पूजा करे ७९ एवं सिरिपालनिवस्स, सिद्धचक्कच्चणं कुणंतस्म । अद्धपंचमवरिसेहिं, जा पुन्नं तं तवो कम्मं ॥ ११८०॥ | अर्थ-इस प्रकारसे श्रीसिद्धचक्रकी पूजा करते श्रीपालराजाको साढाचार वर्ष भए उतने वह तप सम्पूर्ण भया॥८॥3 तत्तो रन्ना नियरजलच्छि,-वित्थारगरुयसत्तीए । गुरुभत्तीए कारिउ,-मारद्धं तस्स उजमणं ॥११८१॥8 __ अर्थ-तदनंतर राजाश्रीपालने अपनी राज्यलक्ष्मीका जो विस्तार उस करके और बड़ी शक्ति और भक्ति सहित उस तपका उज्जवना करना प्रारंभ किया ॥ ११८१॥ ACESCARSA ॥१४५॥ For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AARCLICCOM कत्थवि विछिन्ने जिणहरंमि, काउंतिवेइयं पीढं। वित्थिपणं वरकुट्टिम,-धवलं नवरंगकयचित्तं ॥११८२॥ ___ अर्थ-कहांभी वीस्तीर्ण जिनमंदिरमें तीनवेदी विस्तीर्ण प्रधान भूमि करके उज्वल नवीन रंजक द्रव्योंसे किया है चित्र जिसमें ऐसा पीठ करवाके ॥ ११८२॥ सालिपमुहेहिं धन्नेहि, पंचवन्नेहिं मंतपूएहिं । रइऊण सिद्धचक्कं, संपुन्नं चित्तचुज्जकरं ॥ ११८३॥ | अर्थ-सालि प्रमुख पांचवों के धान्यों करके चित्तको आश्चर्य करनेवाली सिद्धचक्रकी रचना कराके ॥ ११८३॥ ६ तत्थय अरिहंताइसु, नवसु पएसु ससप्पिखंडाई । नालियरगोलयाई, सामन्नेणं ठविजंति ॥११८४॥ । अर्थ-वहां सिद्धचक्रके अहंदादि नवपदोंमें सामान्य प्रकारसे घी खांड़से भराहुआ नारियलका गोला स्थापे ११८४ तेण पुणो नरवडणा, मयणासहिएण वरविवएण । ताइंपि गोलयाई, विसेससहियाइं ठवियाइं ११८५ | अर्थ-और मदनसुंदरी सहित श्रीपालराजाने वह गोला विशेषवस्तुसहित चढ़ाया कैसा राजा विवेकसहित वर्ते ऐसा ! कैसे सो कहते हैं ॥ ११८५ ॥ जहा अरिहंतपए धवले, चंदणकप्पूरलेवसियवन्नं । अडकक्केयणचउतीस,-हीरयं गोलयं ठवियं ॥११८६॥ है। अर्थ-धवल वर्ण करके व्यवस्थापित अर्हतपदमें चंदन कपूरका विलेपन करनेसे श्वेतवर्ण जितका ऐसा और आठ टू For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १४६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करकेतन श्वेतरल विशेष और चौंतीस हीरा सहित गोला चढाया आठ प्रातिहार्यकी अपेक्षा आठकरकेतनरत्न और चौंतीस अतिशयकी अपेक्षा चौंतीस हीरा चढाया ॥ ११८६ ॥ सिद्धपए पुण रत्ते इगतीसपवालमट्टमाणिक्कं । नवरंगघुसिणविहियप्पलेवगुरुगोलयं ठवियं ॥ ११८७ ॥ अर्थ - लालवर्ण करके व्यवस्थापित सिद्धपदमें इकतीस मूंगिया और आठ माणिक सहित नवीन रक्तत्वयुक्त केसरका विलेपन किया जिसमें ऐसा गोला चढावे ॥ आठकर्मके क्षय होनेसे उत्पन्न हुआ आठ गुण उन्होंकी अपेक्षा आठ माणिक चढाए इकतीस गुणकी अपेक्षा इकतीस प्रवाला चढाया ॥। ११८७ ॥ कणयाभे सूरिपए, गोलं गोमेयपंचरयणजुयं । छत्तीसकणयकुसुमं, चंदणघुसिणंकियं ठवियं ॥ १९८८ ॥ अर्थ- सोने के जैसा वर्ण ऐसे आचार्यपद में पांचगोमेदरत्न और छत्तीस सोनेके पुष्पसहित चंदनकेसरका विलेपन सहित गोला चढाया ज्ञानादि पांच आचारयुक्त होनेसे पांच गोमेद रत्न और छत्तीसगुणयुक्त होनेसे छत्तीस सोने के पुष्प चढाए । ११८८ ॥ उज्झायपए नीले, अहिलयदलनीलगोलयं ठवियं । चउरिंदनीलकलियं, मरगयपणवीसपयगजुयं १९८९ अर्थ - नीलवर्ण से व्यवस्थापित उपाध्याय पदमें नागरवेल के पत्रोंसे वीटा हुआ गोला चढाया ४ इन्द्रनील नीलमणि For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १४६ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAAAAAA युक्त २५ पन्नेकी मणिसहित चारअनुयोगकी अपेक्षा चारइन्द्रनीलमणि पच्चीसगुणकी अपेक्षा पच्चीसमरकतमणि सहित गोला चढाया ॥११८९ ॥ साहपए पुण सामे, समयमयं पंचरायपट्टकं । सगवीसरिट्ठमणिं, भत्तीए गोलयं ठवियं ॥ ११९० ॥ अर्थ-श्यामवर्णसे व्यवस्थापित साधुपदमें कस्तूरीका विलेपन सहित पांचराजपट्ट वेराट रत्नो करके शोभा जिसकी अथवा पांच राजपट्ट उत्संगमें अर्थात् मध्यमें जिसके और सत्ताईस नीलम रत्न विशेष जिसमें ऐसा गोला भक्तिसे चढाया पांच महाव्रतकी अपेक्षा पांच राजपट्ट और सत्ताईस गुणकी अपेक्षा उतनेही नीलम चढावे ॥११९० ॥ ६ सेसेसु सियपएसु, चंदणसियगोलए ठवइ राया। सगसट्ठिगवन्नसयरि,-पन्नमुत्ताहलसमेए ॥११९१॥ | अर्थ-अवशेष दर्शनादि चारपदोंमें श्रीपालराजाने चंदनका विलेपनसहित धवला गोला चढ़ाया कैसा गोला ६७ सड़सठ, ५१ इक्कावन ७० सित्तर ५० पचास मोतियों करके सहित यहां यह भावहै दर्शन पदमें-४ श्रद्धान ३ लिङ्ग इत्यादि ६७ सडसठ भेद है ज्ञानपदका स्पर्शनइन्द्रियव्यंजनावग्रहादि ५१ इक्कावन भेद है चारित्रका व्रत ५ श्रमणधर्म १० संयम १७ इत्यादि ७० भेद है तप पदका इत्वरअनशनादि ५० भेद है इतनाही मोती चढ़ावे ॥ ११९१ ॥ अन्नं च नवपयाणं, उद्देसेणं नरेसरे तत्थ । तत्तबन्नाई सुमेरु, मालाचीराइं मंडेइं ॥ ११९२ ॥ 8 अर्थ-और राजा श्रीपाल नवपदोंको उद्देश करके उस पीठपर उस वर्णका सुमेरु माला, वस्त्र वगैरह चढावे ॥११९२॥ For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरितम् Antenton ॥१४७॥ सोलस अणाहएसु य, गरुयाई सक्कराइ लिंगाई। मंडावेइ नरिंदो, नाणामणिरयणचित्ताई ॥११९३॥||भाषाटीका तसहितम्६ अर्थ-और सोलह अनाहतोंमें सोलह शर्कराका ढिगला करे नानाप्रकारके मणिरत्नों करके विचित्र ऐसे मंडावे ११९३3 इगिसोलसपंचसु सीइ, दोसु चउसहि सरसदक्खाओ। कणयकच्चोलियाहिं, मंडावइ अवग्गेसु ११९४ ___ अर्थ-आठ वर्गों में पहले अवर्गमें सोलह सरसदाख पांच वर्गों में एक २ में सोलह २ चढानेसे ८० दाख और दोवर्ग यवर्ग शवर्गमें बत्तीस २ दाख चढानेसे ६४ यह दाख सोनेकी कटोरियोंमें चढावे ॥ ११९४ ॥ ६ मणिकणगनिम्मियाइं, नरनाहो अट्टवीयपूराइं । वग्गंतरगयपढमे, परमेट्ठिपयंमि ठावेइ ॥ ११९५॥ __अर्थ-राजा श्रीपाल मणिरत्न और सोनेसे रचे हुए आठ बिजोरेके फल वर्गोंके अंतरमें रहा हुआ प्रथम परमेष्ठी पद नमो अरिहन्ताणं इसमें स्थापे ॥ ११९५ ॥ खारिकजयाइं ठावइ, अडयाललद्धिठाणेसु । गुरुपाउयासु असु, नाणाविहदाडिमफलाई॥११९६॥ __ अर्थ-अड़तालीस ४८ लद्धि पदोमें खारिकका ढिगला करे और आठ गुरुपादुकामें नानाप्रकारके दाडिमके फल चढावे ॥ ११९६॥ ॥१४७॥ नारिंगाइफलाइं, जयाइठाणेसु अट्ठसु ठवेइ । चत्तारि उ कोहलए, चक्काहिट्ठायगपएसु ॥ ११९७ ॥ i n For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ तथा आठ ८ जयादि स्थानोमें नारंगी वगैरहके फल चढावे और सिद्धचक्रके अधिष्ठायक विमलेश्वर १ चक्रेश्वरी २ क्षेत्रपालादि ४ पदोमें ४ कूष्माण्डके फल चढावे ॥ ११९७ ॥ आसन्नसेवयाणं देवीणं, वारस य वयंगाई। विज्झसुरिजक्खजक्खिणि, चउसट्टिपएसु प्रगाइं ॥११९८॥ ___ अर्थ तथा निकट सेवा करनेवाली १२ बारहदेवी उन्होंको वयंग फल विशेष चढावे चौथा अधिष्ठायक और बारह देवियोंका नाम वैसा सम्प्रदाय न होनेसे नहीं जाना जाय है तथा १६ सोलह विद्यादेवी २४ यक्ष शासनदेव २४ चौवीस शासनदेवी यह चौसठपदोंमें सुपारी चढ़ावे ॥ ११९८ ॥ पीयवलीकूडाइं, चत्तारि दुवारपालगपएसु । कसिणबलीकूडाई, चउवीरपएसु ठवियाइं॥ ११९९ ॥ __ अर्थ-चार द्वारपाल कुमुदादिपदोंमें चार पीतवर्ण पक्वान्नादिकके पुंज स्थापे तथा चार ४ मणिभद्रादि वीरपदोंमें काले वर्णका पक्वान्नादिकका ढिगला स्थापा ॥ ११९९ ॥ नवनिहिपएसु कंचण, कलसाइं विचित्तरयणपुन्नाइ। गहदिसिवालपएसु य, फलफुल्लाइं सवन्नाई १२०० __ अर्थ नव निधानोंमें नाना प्रकारके रत्नोंसे भरेहुए सोनेके कलश स्थापे तथा नवग्रह और दश दिक्पाल पदोंमें अपने २ वर्णके फल पुष्पादि चढ़ाए ॥ १२००॥ दिइच्चाइगरुयवित्थर, सहियं मंडाविऊणमुजमणं । ण्हवणूसवं नरिंदो, कारावइ वित्थरविहीए ॥१२०१॥18| यह चासटपादायु न होने से नहीं जानदेवी उन्होंको वयंग 55AAAAC For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१४८॥ ॐ अर्थ-इत्यादि बहुत विस्तार सहित उज्जवणा मंडवाके राजा श्रीपाल विस्तार विधिसे स्नात्रमहोत्सव करे करावे ॥१॥||भाषाटीकाॐ|विहियाए पूयाए, अट्ठपयाराइ मंगलावसरे । संघेण तिलयमाला, मंगलकरणं कयं रन्नो ॥ १२०२॥ | सहितम्8. अर्थ-अष्ट प्रकारी पूजाकरी बाद मंगलके अवसरमें संघने राजा श्रीपालके तिलक किया माला पहराई यह मंगलहू | किया तदनंतर आरती करके और चैत्यवंदन करे सो कहते हैं ॥ १२०२ ॥ तओ, जो धुरि सिरिअरिहंतमूलदढपीढपइटिओ, सिद्धसूरिउवज्झायसाहु चउसाहगरिट्टिओ, दंसणनाणचरित्ततवहिं पडिसाहहिं सुंदरु। तत्तक्खरसरवग्गलद्धि गुरुपयदलडंबरु, दिसिवालजक्खजक्खिणिपमुह, सुरकुसुमेहिं अलंकिओ।सो सिद्धचक्कगुरुकप्पतरु, अम्हह मणवंछिअ दिअओ ॥१२०३॥ | अर्थ-श्रीसिद्धचक्ररूप महान कल्पवृक्ष आदिमे अरहंतही जो मूल दृढपीठ उसमें प्रतिष्ठित और सिद्ध १ आचार्य २ उपाध्याय ३ साधु ४ इन चार शाखाओं करके बहुत बड़ा और दर्शन १ ज्ञान २ चारित्र ३ तप ४ रूप प्रतिशाखा करके सुंदर और तत्वाक्षर ओंकारादिक स्वरअवर्णादिक वर्ग अवर्गादिक ४८ अड़तालीस लब्धिपद अर्हत् पादुका गुरु पादुका यही है पत्रोंका आडंवर जिसके और दिक्पाल यक्ष यक्षिणी प्रमुख देव पुष्पोंसे शोभित श्री सिद्धचक्ररूप ॥१४८॥ महान् कल्पवृक्ष हमको मनोवांछित देवो ॥ १२०३ ॥ BCIRCREGAONKAR US For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir REGISTRAGRAAN इच्चाइ नमोक्कारे, भणिऊण नरेसरो गहीरसरं । सक्कत्थयं भणित्ता, नवपयथवणं कुणइ एवं ॥१२०४॥ अर्थ-इत्यादि नमस्कार कहके राजा श्रीपाल गंभीरस्वरसे शक्रस्तव कहके वक्ष्यमाण प्रकारसे नव ९ पदोंकी स्तुति करे ॥ १२०४॥ उप्पन्नसन्नाणमहोमयाणं, सपाडिहरासणसंठियाणं । सद्देसणाणंदियसज्जणाणं, नमो नमो होउ सया जिणाणं ॥ १२०५॥ | अर्थ-उत्पन्न भया है सद्ज्ञान केवलज्ञान वोही तेजस्वरूप जिन्होका और प्रातिहार्य छत्र चामरादि करके सहित दावर्ते ऐसा जो सिंहासन उसपर बैठे हुए और शोभन धर्मोपदेशसे आनन्दउत्पन्न किया है सत्पुरुषोंको जिन्होंने ऐसे जिनेन्द्र अरहन्तोंको निरंतर नमस्कार होवो ॥ १२०५॥ सिद्धाणमाणंदरमालयाणं, नमो नमोऽणंतचउक्कयाणं । सूरीण दूरीकयकुग्गहाणं, नमो नमो सूरसमप्पभाणं ॥ १२०६ ॥ । अर्थ-परमानन्द लक्ष्मीका निवास और अनन्तचतुष्क ज्ञान १ दर्शन २ सम्यक्त्व ३ अकर्णवीर्य ४ है जिन्होंके ऐसे सिद्धोंको नमस्कार होवो तथा दूर किया है कुत्सित अभिनिवेश जिन्होंने ऐसे और सूर्य के समान प्रभाज्योति जिन्होंकी ऐसे आचार्योंको नमस्कार होवे ॥ १२०६॥ SESAAR:984AEREA For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १४९ ॥ www.kobatirth.org सुत्तत्थवित्थारणतप्पराणं, नमो २ वायगकुंजराणं । साहूण संसाहियसंजमाणं, नमो नमो सुद्धदयादमाणं अर्थ — सूत्रार्थका विस्तार करनेमें तत्पर उपाध्याय कुंजर हाथीके सदृश गच्छकी शोभा करनेवाला होनेसे और समर्थ होनेसे ऐसे उपाध्यायोंको नमस्कार होवो तथा सम्यक् प्रकारसे साधा है संयम जिन्होंने ऐसे शुद्ध दया दम जिन्होंके ऐसे सर्व साधुओं को नमस्कार होवो ॥ १२०७ ॥ जिणुत्ततत्ते रुइलक्खणस्स, नमो नमो निम्मलदंसणस्स । अन्नाणसंमोहतमोहरस्स, नमो नमो नाणदिवायरस्स ॥ १२०८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ — तीर्थकरके कहे हुए तत्वोंपर जो रुचि वह लक्षण जिसका ऐसे निर्मल दर्शनको नमस्कार होवो अज्ञानसे जो संमोह मतिभ्रम वही अंधकार उसको दूरकरे ऐसा ज्ञान सूर्यको नमस्कार होवो ॥ १२०८ ॥ आराहियाऽखंडिय सक्कियस्स, नमो नमो संजमवीरियस्स । कम्मद्रुमुम्मूलणकुंजरस्स, नमो नमो तिब्वतवोभरस्स ॥ १२०९ ॥ अर्थ — तथा संयम विषयमें पराक्रम उसको नमस्कार होवो कैसा संयम वीर्य आराधन किया है अखंडित सक्रिया साध्वाचार रूप जिससे ऐसा । कर्मवृक्षोंको उखाड़नेमें हाथीके सदृश तीव्र तप समूहको नमस्कार होवो ॥ १२०९ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १४९ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इय नवपयसिद्धं लद्धिविज्जासमिद्धं, पयडियसरवग्गं ह्रीँती रेहासमग्गं । दिसिवइसुरसारं खोणिपीढावयारं, तिजयविजयचक्कं सिद्धचक्कं नमामि ॥ १२१० ॥ अर्थ - इस प्रकार से नवपदों करके सिद्ध निष्पन्न और लब्धिपद और विद्या देवियों करके समृद्ध और प्रगट किया है। स्वरवर्ग जिसमें और हाँ ऐसा अक्षरऊपर जिसके उसकी ईकारकी रेखासे चारोंतरफ वीटा हुआ सम्पूर्ण, और दिगपाल वगैरहः सम्पूर्ण देवोंसे सेवित प्रधान पृथ्वीपीठपर अवतरण जिसका तीन जगत्के विजयार्थ चक्रके जैसा चक्र ऐसे | सिद्ध चक्रको मैं नमस्कार करों ॥। १२१० ॥ इति सिद्धचक्रस्तवः वज्र्जतएहिं मंगलतूरेहिं, सासणं पभावंतो । साहम्मियवच्छलं, करेइ वरसंघपूयं च ॥ १२११ ॥ अर्थ - मंगल वादित्र वाजते जैनधर्मकी प्रभावना करता हुआ राजा श्रीपाल साधर्मी वात्सल्य करे और प्रधान संघ पूजा करे ॥ १२११ ॥ | एवं सो नरनाहो, सहिओ ताहिं च पट्टदेवीहिं । अन्नेहिंवि बहुएहिं, आराहइ सिद्धवरचकं ॥ १२१२ ॥ अर्थ — इस प्रकारसे महाराजा श्रीपाल उन पटरानियोंसहित और भी बहुत लोगों सहित सिद्धचक्रका आराधन करें १२१२ अह तस्स मयण सुंदरि, पमुहाहिं राणियाहिं संजाया । नव निरुवमगुणजुत्ता, तिहुयणपालाइणो पुत्ता १३ For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir श्रीपाल- अर्थ-उसके अनन्तर श्रीपाल राजाके मदनसुंदरी प्रमुख नव रानियोंके निरुपम गुणयुक्त त्रिभुवनपालादि नव पुत्र भाषाटीकाचरितम् हुए ॥ १२१३ ॥ सहितम्गयरहसहस्सनवगं, नव लक्खाइं च जच्चतुरयाणं । पत्तीणं नवकोडी, तस्स नरिंदस्स रजमि॥१२१४॥ ॥१५० ___ अर्थ-उस श्रीपाल राजाके नव हजार ९००० हाथी और नव हजार ९००० रथ और नव लाख ९००००० जातिवान अच्छे लक्षणवाले घोड़े और नव करोड ९००००००० प्यादल सेनाके सिपाही इतनी सेना थी ॥ १२१४ ॥ एवं नव नव लीलाहिं, चेव सुक्खाइं अणुहवंतो सो । धम्मनिईए पालइ, रजं निकंटयं निच्चं ॥१२१५॥ | अर्थ-इस प्रकार नव २ क्रीड़ा करके सुख भोगवता हुआ वह श्रीपाल राजा धर्मनीतिसे निरंतर निष्कंटक राजदू ६पाले ॥ १२१५॥ रजं च तस्स पालंतयस्स, सिरिपालनरवरिंदस्स। जायाइं जाव सम्मं, नव वाससयाइं पुन्नाइं ॥१२१६॥ 2 अर्थ-राज्य पालते उस श्रीपाल राजाको जितने ९०० नवसै वर्ष अच्छी तरहसे पूर्ण भए ॥ १२१६ ॥ ताव निवोतं तिहुयणपालं,रजंमि ठावइत्ताणं। सिरिसिद्धचक्कनवपयलीणमणो संथुणइ एवं ॥१२१७॥ ___ अर्थ-उतने राजा श्रीपाल वह पूर्वोक्त त्रिभुवनपाल अपने बड़े पुत्रको राज्यमें स्थापके श्रीसिद्धचक्रमें जे नवपद! ॥१५॥ उन्होंमें लगाहै मन जिसका ऐसा वक्ष्यमाण प्रकारसे स्तुति करे ॥ १२१७ ॥ ANRESASSASSASSASANAK REASSISHESLARARAS For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir सेसतिभवेहि मणुएहि,जेहिं विहियारिहाइ ठाणेहि।अजिजइ जिणगुत्तं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२१८॥ ___ अर्थ-बाकी रहे हैं तीनभवजिन्होंके ऐसे मनुष्यभवमें रहे हुए सेवा है अहंदादि वीसथानिक जिन्होंने ऐसे तीर्थकरनाम कर्म उपार्जन करते हैं उन अरिहंतो को मैं नमस्कार करूं॥ १२१८ ॥ जे एगभवंतरिया रायकुले उत्तमे अवयरंति । महसुमिणसूइयगुणा, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२१९॥ 8. अर्थ-जिके एक भवके अंतरमें उत्तम राजकुलमें अवतरे है अर्थात् तीर्थकरके भवमें १४ महा स्वप्नों करके सूचित किया है गुण जिन्होंने ऐसे उन अरिहंतोंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२१९ ॥ जेसिं जम्ममि महिम, दिसाकुमारीओसुरवरिंदाय । कुवंति पहिट्ठमणा, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२०॥ ___ अर्थ-जिन्होंका जन्म होनेसे महिमा ५६ दिग् कुमारियों आके सूतिकर्म करे हैं और हर्षितचित्त जिन्होंका ऐसे ६६४ देवेन्द्र मेरुशिखरपर लेजाके जन्ममहोत्सव करें हैं उन अरिहन्तोंको में नमस्कार करूं हूं ॥ १२२० । आजम्मंपि हु जेसि, देहे चत्तारि अइसया इंति । लोगच्छेरयभूया, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२१॥ ___ अर्थ-निश्चय जिन्होंके शरीरमें जन्मसे लेके आश्चर्यभूत चार अतिशय होवे है अद्भुतरूप सुगन्धयुक्त निश्वास वायु अहार निहार अदृश्य और श्वेतमांस रुधिर जिन्होंका ऐसे अरिहंतोंको में नमस्कार करूं ॥ १२२१ ॥ श्रीपा.च.२६ लाजे तिहनाणसमग्गा, खीणं नाऊण भोगफलकम्मं । पडिवज्जति चरितं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२२॥ For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१५१॥ अर्थ-जिके तीनज्ञान मति श्रुत अवधिकरके सम्पूर्ण भोगफल कर्मको क्षीण जानके चारित्र अंगीकार करे है उन भाषाटीका सहितम्. | अरिहंतोको मैं नमस्कार करूं ॥ १२२२ ॥ उवउत्ताअपमत्ता, सियझाणा खवगसेणिहयमोहा। पावंति केवलंजे, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२३॥ । अर्थ-जिके उपयोगयुक्त और प्रमाद रहित शुक्लध्यान ध्याया जिन्होंने इसी कारणसे क्षपकश्रेणीकरके क्षयकिया है मोहका जिन्होंने ऐसे केवलज्ञान पावे है उन अरिहंतोंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२२३ ॥ 8|कम्मक्खइया तह सुरकया य, जेसिंच अइसया हुंति। एगारसुगुणवीसं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२४॥ ___ अर्थ-और जिन्होंके कर्मक्षयसे उत्पन्न भया ११ अतिशय होवे है तथा देवोंका किया हुआ १९ अतिशय होवे है और ४ अतिशय जन्मसे एवं ३४ अतिशयसहित उन अरिहंतोंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२२४ ॥ जे अट्ठपाडिहारेहि, सोहिया सेविया सुरिंदेहिं । विहरंति सया कालं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥१२२५॥ BI अर्थ-जिके अशोकवृक्षादि आठ ८ प्रातिहार्यों करके शोभित (अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिः चामरमासनं , दाच । भामंडलं दुंदुभिरातपत्रं सत् प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणां ॥१॥) अशोकवृक्षः १ पुष्पवृष्टिः २ दिव्यध्वनिः ३ सिंहा-15॥१५॥ सन ४ चामर ५ भामंडल ६ दुंदुभिः ७ छत्र ३॥८ देवेन्द्रो करके सेवित नित्य विहार करे है उन अरिहंतोंको में नमस्कार करूं हूं ॥ १२२५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पणती सगुणगिराए, जे य विबोहं कुणंति भव्वाणं । महिपीढे विहरंता, ते अरिहंते पणिवयामि ॥ १२२६ ॥ अर्थ - पैंतीस गुण जिसमें ऐसी वाणी करके भव्योंको बोध देते है ऐसे पृथ्वीपर विचरते हुए अरिहंतोंको मैं नमस्कार करूं ।। १२२६ ॥ अरिहंता वा सामन्नकेवला, अकयकयसमुग्धाया । सेलेसीकरणेणं, होऊणमजोगिकेवलिणो ॥ १२२७॥ अर्थ-तीर्थंकर अथवा सामान्य केवली नहीं किया अथवा किया केवली समुद्धात जिन्होंने ऐसे योगीन्द्र शैलेसी करण करके आत्मप्रदेशोंका घन किया जिन्होंने ऐसे अयोगी केवली होके ॥ १२२७ ॥ जे दुचरमंमि समए, दुसयरिपयडीओ तेरस य चरमे । खविऊण सिवं पत्ता, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं १२२८ अर्थ — दो चरम समय आयुक्षय के पहले समय में बहत्तर ७२ प्रकृति अघाती कर्मोंकी उत्तरप्रकृति क्षय करके और चरम समयमें तेरह १३ प्रकृति खपाके मोक्ष प्राप्त भया वह सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ ।। १२२८ ॥ चरमंगतिभागेणा, वगाहणा जे य एगसमयंमि । संपत्ता लोगग्गं, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं ॥ १२२९ ॥ अर्थ — त्रिभागऊन चर्मशरीरकी अवगाहना जिन्होंकी ऐसे एकसमयमें लोकाग्र प्राप्त भया वह सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ ।। १२२९ ॥ पुवपओग असंगा, बंधणच्छेया सहावओ वावि । जेसिं उड्डा हु गई, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं ॥१२३०॥ For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् भाषाटीकासहितम् ॥१५२॥ अर्थ-पूर्व प्रयोगसे धनुषसे फेंका बाणके जैसा निसंगताकर कर्ममलके जानेसे तूंवेके सदृश तथा बन्धन छेदसे कर्मबन्धन का छेद होनेसे एरंडफलके जैसा तथा स्वभावसे धूमसदृश जिन्होंकी ऊर्ध्वगति प्रवर्ते है वह सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ॥ १२३०॥ ईसीपब्भाराए, उवरिं खलु जोयणमि लोगंते । जेसिं ठिई पसिद्धा ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं ॥१२३१॥ ___ अर्थ-ईषत् प्रागभारा नाम सिद्धशिलाके ऊपर एक योजन लोकान्त है वहां स्थितिजिन्होंकी ऐसे सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ॥१२३१ ॥ जे य अणंता अपुणब्भवाय, असरीरया अणाबाहा।दसणनाणुवउत्ता, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं ॥१२३२॥ | अर्थ-और अनन्ता अपुनर्भव जिन्होंका और शरीर रहित पीडा रहित और ज्ञान दर्शन का उपयोग युक्त जिन्होंके पहले समयमें ज्ञानका उपयोग होवे है और दूसरे समयमें दर्शन का उपयोग होवे है ऐसे सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ ३२ जेऽणंतगुणा विगुणा, इगतीसगुणा य अहवअट्टगुणा। सिद्धाणंतचउक्का, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं १२३३ ___ अर्थ-जे सिद्ध अनन्तज्ञानादि गुण जिन्होंमें तथा वर्णादि जानेसे इकतीस ३१ गुण सहित और आठकर्मके क्षय होनेसे आठ गुण भया है जिन्होमें तथा निष्पन्नहुआ है अनन्तज्ञानादि चतुष्क जिन्होंके ऐसे सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ ॥ १२३३ ॥ SIGISUGRASASKAN तथा वर्णादि जाका , ते सिद्धा निसा देओ ३२/६ For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जह नगरगुणे मिच्छो, जाणंतोवि हु कहेउमसमत्थो।तह जेसिं गुणे नाणी, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं १२३४ । अर्थ-जैसे म्लेच्छ नगरके गुण प्रासादमें निवास मधुररसभोजनादि जानता हुआभी और म्लेच्छोंके आगे कहने को नहीं समर्थ होवे वैसा भवस्थकेवली सिद्धोंका गुण जानते हुए भी कहनेको नहीं समर्थ होवे ऐसे सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ ॥ १२३४॥ जे अ अणंतमणुत्तर, मणोवमं सासयं सयाणंदं। सिद्धिसुहं संपत्ता, ते सिद्धा दिंतु मे सिद्धिं ॥१२३५॥ | अर्थ-जे सिद्धिसुखप्राप्त हुआ वह सिद्ध मेरेको सिद्धि देओ कैसा है सिद्धिसुख नहीं विद्यमान अंत जिसका ऐसा ४ अनंत और नहीं विद्यमान उत्कृष्ट जिससे और अनुपम शाश्वता सदा आनन्द है जिन्होंके ऐसे ॥ १२३५ ॥ हैजे पंचविहायारं, आयरमाणा सया पयासंति । लोयाणणुग्गहत्थं, ते आयरिए नमसामि ॥ १२३६ ॥ हैअर्थ-जिके ज्ञानादि पांच प्रकारका आचार आचरण करता लोकोंके अनुग्रह के लिए निरंतर प्रगट करे हैं उन आचार्योंको मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १२३६ ॥ देसकुलजाइरूवाइएहिं, बहुगुणगणेहिं संजत्ता। जे हंति जुगे पवरा, ते आयरिए नमसामि ॥१२३७॥ । अर्थ-जे देश कुल जाति रूपादिक बहुत गुणोंके समूह करके संयुक्त सहित भए युगमें प्रधान मुख्य होवे हैं उन आचार्योंको मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १२३७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषाटीकासहितम्. श्रीपाल- चरितम् ॥१५३॥ जे निच्चमप्पमत्ता, विगहविरत्ता कसायपरिचत्ता। धम्मोवएससत्ता, ते आयरिए नमसामि ॥१२३८॥ अर्थ-जे गुरु निरंतर प्रमाद रहित राजकथादिक विकथाओंसे विरक्त क्रोधादि कषायों का त्याग किया जिन्होंने और धर्मोपदेश देनेमें समर्थ ऐसे आचार्योंको मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १२३८ ॥ जे सारणवारणचोयणाहिं, पडिचोयणाहिं निच्चंपि। सारंति नियं गच्छं, ते आवरिए नमसामि ॥१२३९॥ ___ अर्थ-जे आचार्य सारणा वारणा चोयना पडिचोयना करके निरंतर अपने गच्छ की सम्भालकरे भूले हुए को याद द्र कराना सो स्मारना १ अशुद्ध पढ़ते हुए को मना करना सो वारणा २ अध्ययनके लिए प्रेरणा करना सो चोयना ३ | कठोर वचनोंसे प्रेरणा करना सो पडिचोयना इन ४ प्रकारसे अपने गच्छ का रक्षण करे हैं उन आचार्योंको मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १२३९॥ जे मुणियसुत्तसारा, परोवयारिक्वतप्परा दिति । तत्तोवएसदाणं, ते आयरिए नमसामि ॥ १२४०॥ ___ अर्थ-जाना है सूत्रोंका सार जिन्होंने इसी कारणसे परोपकार करनेमें तत्पर भए जे गुरु तत्त्वोपदेश रूप दान देते हैं उन आचार्योंको मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १२४० ॥ अत्थमिए जिणसूरे, केवलिचंदेवि जे पईवुव, । पयडंति इह पयत्थे, ते आयरिए नमसामि ॥१२४१॥ ROSHAHAHISISHAAISAIRAALA ॥१५३॥ For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - तीर्थंकर रूप सूर्य अस्त होनेसे और सामान्यकेवलीरूप चन्द्रके भी अस्त होनेसे जे गुरू दीपकके जैसा इस लोकमें पदार्थों को प्रगट करें हैं उन आचार्योंको मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १२४१ ॥ | जे पावभरकंते, निवडते भवमहंधकूवंमि । नित्थारयंति जीवे, ते आयरिए नम॑सामि ॥ १२४२ ॥ अर्थ -- पापका समूह उस करके आक्रांत ऐसा संसार रूप महान् अंधकूप उसमें पड़ते हुए जीवोंको जे गुरू तारै उन आचार्योंको मैं नमस्कार करूं ।। १२४२ ॥ | जे मायतायबंधवपमुहेहिंतोवि इत्थ जीवाणं । साहंति हियं कज्जं, ते आयरिए नम॑सामि ॥ १२४३ ॥ अर्थ - इस संसार में जिके आचार्य जीवोंके माता पिता भाई वगैरह से जादा कार्य सिद्ध करे है उन आचार्योंको मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १२४३ ॥ जे बहुलद्धिसमिद्धा, साइसया सासणं पभावंति । रायसमा निश्चिंता, ते आयरिए नम॑सामि १२४४ अर्थ - बहुत लब्धियों करके समृद्धिवान इसीसे अतिशयों सहित जिनशासन की प्रभावना करे हैं कैसे गुरू राजाके समान और गई है चिंता जिन्होंसें ऐसे निश्चिंत आचार्योंको मैं नमस्कार करूं ।। १२४४ ।। जे वारसंगसझाय, - पारगा धारगा तयत्थाणं । तदुभयवित्थाररया, ते ऽहं झाएमि उज्झाए । १२४५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १५४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ–जे द्वादशाङ्गी के स्वाध्याय का पारंगामी और द्वादशाङ्गीके अर्थको धारनेवाला और तदुभय नाम सूत्र और अर्थके विस्तार करनेमें रसिक ऐसे उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥। १२४५ ॥ पाहणसमावि हु, कुणंति जे सुत्तधारया सीसे । सयलजणपूयणिज्जे, ते ऽहं झाएमि उज्झाए १२४६ अर्थ - जे गुरु निश्चय पाषाण के समान शिष्योंको सूत्ररूप तीक्ष्ण शस्त्रधारासे देवकी मूर्तिके जैसा सब लोकोंके पूजने योग्य करते हैं उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४६ ॥ | मोहाहिदट्टनट्टप्पनाण, जीवाण चेयणं दिति । जे केवि नरिंदाइव, ते ऽहं झाएमि उझाए ॥ १२४७ ॥ अर्थ - मोहरूप सर्पसे इसे हुए इसीसे नष्ट होगया है आत्मज्ञान जिन्होंका ऐसे जीवोंको जे गुरू विषवैद्यके जैसे चैतन्य देवे है उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४७ ॥ अन्नाणबाहिबिहुराण, पाणिणं सुयरसायणं सारं । जे दिंति महाविज्जा, ते ऽहं झामि उझाए ॥१२४८॥ अर्थ - अज्ञानरूप रोगसे पीड़ित प्राणियोंको प्रधान शास्त्ररूप रसायन महारोग मिटानेवाला औषध महा वैद्यके जैसा जे गुरु देवे है उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४८ ॥ गुणवणभंजणमय, - गयद्मणंकुससरिसनाणदाणं जे । दिंति सया भवियाणं, ते ऽहं झाएमि उझाए १२४९ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १५४ ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CATEGORICALECHANICALEGAOG । अर्थ-गुणरूप वनके विनाश करनेवाले जातिमदादि आठ मदरूप हाथियोंके वश करनेमें अंकुशसदृश जे गुरू |ज्ञान दान भव्योंको देवे है ऐसे उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४९॥ दिणमासजीवयंताई, सेसदाणाई मुणिउं जे नाणं । मुत्तित्तं दिति सया, ते ऽहं झाएमि उझाए १२५० है अर्थ-और दान दिन मास जीविततक जानके जे गुरू मुक्ति पर्यंत फल जिसका ऐसा ज्ञानदान देवे है ऐसे उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२५०॥ अन्नाणंधे लोयाण, लोयेणे जे पसत्थसत्थमुहा । उग्घाडयंति सम्मं, ते ऽहं झाएमि उझाए ॥१२५१॥ ___ अर्थ-जे गुरु अज्ञानसे आंधे लोगोंके नेत्र शास्त्ररूप प्रशस्त शस्त्रसे उघाड़ते हैं उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं १२५१ वावन्नवन्नचंदणरसेण, जे लोयपावतावाइं। उवसामयंति सहसा, ते ऽहं झाएमि उझाए ॥ १२५२ ॥ | अर्थ-बावनाचंदन का जैसा रस उसके जैसी शीतलवाणी करके जे गुरू अकस्मात् लोकोंका पापरूप तापको उप|शमावे है उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२५२ ॥ जे रायकुमरतुल्ला, गणतत्तिपरा य सूरिपयजुग्गा । वायंती सीसवग्गं ते ऽहं झाएमि उझाए ॥१२५३॥ | अर्थ-जे राज कुमार तुल्य गच्छ की तृप्ति और समाधान करनेमें तत्पर तथा आचार्य पदके योग्य शिष्यवर्गको वाचना देवे है उन उपाध्यायोंको में ध्याऊं ॥ १२५३ ॥ SACCASI-GANGACACA For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१५५॥ 1964***SAASAASA जे दंसणनाणचरित्त,-रूवरयणत्तएण इक्केण । साहति मुक्खमग्गं, ते सवे साहुणो वंदे ॥ १२५४ ॥ भाषाटीका__ अर्थ-जे दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप तीनरत्नसे मोक्षमार्ग साधे कैसा दर्शनादि तीन एकीभाव प्राप्तभया अर्थात् |सहितम्. | मिला हुआ तीनोंके एकत्व विना मोक्ष मार्ग नहीं सिद्ध होता है उन सर्व साधुवोंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२५४ ॥ गयदुविहदुट्ठझाणा, जे झाइय धम्मसुक्कझाणा य । सिक्खंति दुविह सिक्खं, ते सत्वे साहणो वंदे १२५५ ___ अर्थ-गया आर्त रौद्र दो प्रकारका दुष्टध्यान जिन्होंसे और धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्याया जिन्होंने ऐसे दो प्रकारकी शिक्षा ग्रहण आसेवना रूप सीखे उन सर्व साधुओंको नमस्कार होवे ॥ १२५५ ॥ | गुत्तित्तएण गुत्ता, तिसल्लरहिया तिगारवविमुक्का । जे पालयंति तिपइं, ते सत्वे साहुणो वंदे ॥१२५६ ॥ __ अर्थ-तीन गुप्ति मन, वचन, काय गुप्ति लक्षण करके गुप्त अर्थात् गुप्तिवंत और मायाशल्य १ नियाणाशल्य २ मिथ्यादर्शनशल्य ३ इन्हों करके रहित ऋद्धि १ रस २ शाता ३ इन तीन गौरवोंसे रहित होके त्रिपदी ज्ञान दर्शन चारित्ररूप पालते हैं उन सर्व साधुओंको मैं नमस्कार करूं ॥१२५६ ।। चउविहविगहविरत्ता, जे चउविहकसायपरिचत्ता। चउहा दिसंति धम्म, ते सवे साहुणो वंदे ॥१२५७॥18॥१५५॥ । अर्थ-चार प्रकारकी विकथा राजकथा १ देशकथा २ स्त्रीकथा ३ भोजनकथा ४ इन्होंसे रहित और अनन्तानु- 61-62 For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बन्धादि चारकषाय क्रोधादिक का त्याग किया जिन्होंने ऐसे दान शील तप भाव चार प्रकार के धर्मका उपदेश करें उन सर्व साधुओंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२५७ ॥ उझियपंचपमाया निज्जियपंचिदिया य पार्लेति, पंचेव य समिईओ, ते सवे साहुणो वंदे ॥ १२५८ ॥ अर्थ - पांच प्रमाद मद्यादिकोंका त्याग किया जिन्होंने मद १ विषय २ कषाय ३ निद्रा ४ विकथा ५ और पांच इन्द्रियों के जीतनेवाले ऐसे पांच समिति पालते हैं इरिया १ भाशा २ एषणा ३ निक्षेपणा ४ पारिठावणिया ५ उन सर्व | साधुओंको मैं नमस्कार करूं ।। १२५८ ॥ |च्छज्जीवकायरक्खण, - निउणा हासाइ छक्क मुक्का जे । धारंति य वयछकं, ते सबै साहुणो वंदे ॥ १२५९॥ अर्थ - पृथ्वी १ अप २ तेजो ३ वायु ४ वनस्पति ५ त्रशकाय इन छै जीव कायकी रक्षा करनेमें निपुण हास्यादि ६ से रहित ऐसे प्राणातिपातविरमणादि रात्रिभोजनविरमण पर्यंत ६ व्रतोंको धारे उन सर्व साधुओंको मैं नमस्कार करूं ।। १२५९ ॥ जे जियसत्तभया गय, - अट्टमया नवावि बंभगुत्तीओ। पालंति अप्पमत्ता, ते सबै साहुणो वंदे ॥१२६० ॥ अर्थ-जीता है इहलोक भयादि सातभय जिन्होंने और गया जातिमदादि ८ आठ मद जिन्होंसे और प्रमादरहित भए नव प्रकारकी ब्रह्मगुप्ति को पालते हैं उन सर्व साधुओंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२६० ॥ For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल चरितम् ॥१५६॥ दसविहधम्मं तह बारसेव, पडिमाओ जे य कुवंति। बारसविहं तवोवि य, ते सवे साहुणो वंदे ॥१२६१॥ भाषाटीका अर्थ-और दशप्रकारका क्षमाआदि श्रमणधर्म धारते हैं बारह साधु सम्बन्धी प्रतिमा अभिग्रह विशेष धारते हैं। और अनशनादि बारह १२ प्रकारका तप करते हैं उन सर्व साधुओंको मैं नमस्कार करूं ॥ १२६१॥ जे सतरसंजमंगा, उबूढाठारसहससीलंगा । विहरंति कम्मभूमिसु, ते सवे साहुणो बंदे ॥ १२६२ ॥ __अर्थ-सतरह प्रकारका संयम शरीर से धारनेवाले और उत्कर्षकरके धारण किया है अठारहहजार शीलांगरथ | जिन्होंने ऐसे ५ भरत ५ एरवत ५ महाविदेह इन पनरह कर्म भूमिमें विचरते हैं उन सर्व साधुओंको मैं नमस्कार | करूं॥ १२६२॥ |जं सुद्धदेवगुरुधम्म, तत्तसंपत्तिसदहणरूवं । वन्निजइ समत्तं तं सम्मदंसणं नमिमो ॥ १२६३ ॥ ___ अर्थ-शुद्ध निर्दोष देव गुरु धर्मही तत्व सम्पदा का श्रद्धान रूप स्वरूप जिसका ऐसा सम्यक्त्व सूत्र में वर्णन किया जावे उन सम्यक् दर्शनको मैं नमस्कार करूं ॥ १२६३ ॥ जावेगकोडाकोडी,-सागरसेसा न होइ कम्मठिई । ताव न जं पाविजइ, तं सम्मइंसणं नमिमो॥१२६४॥15 __अर्थ-जितने एक कोड़ा कोड़ सागरोपम कर्मोंकी स्थिति बाकी न रहे तबतक वह नहीं पावे है उन सम्यक् C ॥१५६॥ दर्शनको मैं नमस्कार करूं ॥ १२६४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir *SURABAIGOSLARARASHIGA वाणमद्धपुग्गल,-परियहवसेसभवनिवासाणं । जे होइ गंठिभेए, तं सम्मदंसणं नमिमो ॥ १२६५॥ ___ अर्थ-भव्यों के आधापुद्गलपरावर्तप्रमाणे संसारमें रहना जब होवे तब यह सम्यक्त्व घनरागद्वेषका परिणाम रूप ग्रंथिके भेद होनेसे होवे है उन सम्यक्दर्शनको मैं नमस्कार करूं ॥ १२६५॥ जं च तिहा उवसमियं, खउवसमियं च खाइयं चेव।भणियं जिणिंदसमए, तंसम्मदंसणं नमिमो १२६६ | अर्थ-जो सम्यक्दर्शन तीर्थकरों के सिद्धांतमें तीनप्रकारका कहा है औपशमिक अंतरमुहूर्तकी स्थितिवाला १ ख्यायोपशमिक कुछअधिक ६६ सागरकी स्थितिवाला २ और क्षायिक ३३ सागरकी स्थितिवाला ३ इन्होंमें क्षायोपश|मिक पौद्गलिक है और २ अपौद्गलिक है उस सम्यक्दर्शनको मैं नमस्कार करूं ॥१२६६ ॥ पण वारा उवसमियं, खओवसमियं असंखसो होइ।जं खाइयं च इकसि, तंसम्मदंसणं नमिमो॥१२६७॥ | अर्थ-औपशमिकसम्यक्त्व एक जीवके संसारमें पांचवेर होवे है और ख्यायोपसमिकसम्यक्त्व असंख्यातिबेर होवे है और ख्यायिकसम्यक्त्व एकबार होवे है उस सम्यक्दर्शनको हम नमस्कार करें॥ १२६७ ॥ जं धम्मदुममूलं, भाविज्जइ धम्मपुरपवेसं च । धम्मभवणपीढं वा तं सम्मइंसणं नमिमो ॥१२६८॥ अर्थ-जो सम्यक् दर्शन धर्मरूपवृक्षका मूलके जैसा मूल सदृश बिचारा जावे और धर्मरूपनगरमें प्रवेशकरनेका द्वार जैसा और धर्मरूपप्रासादका पीठ जैसा है उस सम्यक्दर्शनको में नमस्कार करें ॥ १२६८ ॥ PASARANSAXSHASANA श्रीपा.च.२७ For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १५७ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जं धम्मजयाहारं, उवसमरसभायणं व जं बितिं । मुणिणो गुणरयणनिहिं तं सम्मदंसणं नमिमो १२६९ अर्थ - तथा जो सम्यक्त्व धर्मरूपजगत् के आधार के जैसा आधार है और सम्यक्त्व उपशमरूपरसका भाजन सदृश है तथा जिस सम्यक्त्वको गुणरूपरलोंका निधान मुनि कहते हैं उस सम्यक्दर्शनको हम नमस्कार करें १२६९ जेण विणा नाणंवि हु, अपमाणं निष्फलंच चारितं । मुक्खोव नेव लब्भइ, तं सम्मदंसणं नमिमो ॥१२७०॥ अर्थ - जिस सम्यक्त्व विना ज्ञानभी अप्रमाण होवे है और चारित्रभी निष्फल कहा जावे है और मोक्षभी नही ही | पावे उस सम्यक दर्शनको हम नमस्कार करें ॥ १२७० ॥ जं सद्दहणलक्खण, भूसणपमुहेहिं बहुयभेएहिं । वन्निज्जइ समयंमी, तं सम्मदंसणं नमिमो ॥ १२७१ ॥ अर्थ - जिस सम्यक्त्वका परमार्थ संस्तवादि चारश्रद्धान समसमवेगादिक लक्षणपांच जिनशासनमें कौशल्यादि भूषणपांच इत्यादि बहुतभेद सिद्धांतमें वर्णन किया जावे उस सम्यक्त्वको मैं नमस्कार करूं ॥ १२७१ ॥ सवन्नु-पणीयागम, भणियाण जहट्ठियाण तत्ताणं । जो सुद्धो अवबोहो, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥ १२७२ ॥ अर्थ - सर्वज्ञोंने कहा सिद्धांत उन्होंमें कहा जो सद्भूततत्त्व जीवादिपदार्थ उन्होंका जो ज्ञान वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है || १२७२ ॥ जेणं भक्खाभक्खं, पिज्जापिज्जं अगम्ममवि गम्मं, किञ्चाकिच्चं नज्जइ, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥ १२७३॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १५७ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-जिस ज्ञानकरके भक्षाभक्ष, भक्ष अन्नादि अभक्ष मांसादि पेय बनसे छाना हुआ पानीआदि अपेय मदिरादि गम्य स्वख्यादि अगम्य परस्त्री भगिन्यादि कृत्य अहिंसादि अकृत्य हिंसादिक जाना जावे है वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७३ ॥ सयलकिरियाणमूलं, सद्धा लोयंमि तीइ सद्धाए। जंकिर हवेइ मूलं, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥१२७४॥ . अर्थ-लोकमें सर्वक्रिया सर्वशुभअनुष्ठानका मूल श्रद्धा है श्रद्धाका मूल ज्ञान होवे है वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७४ ॥ जं मइसुयओहिमयं, मणपज्जवरूवकेवलमयं च । पंचविहं सुपसिद्धं, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥१२७५॥ अर्थ-जो ज्ञान पांचप्रकारका सुप्रसिद्ध मतिज्ञान १ श्रुतज्ञान २ अवधिज्ञान ३ मनपर्यवज्ञान ४ केवलज्ञान ५ स्वरूप जिसका वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७५ ॥ केवलमणोहिणं पि हु, वयणं लोयाण कुणइ उवयारं। जं सुयमइरूवेणंतं सन्नाणं मह पमाणं॥१२७६ ॥ अर्थ-केवल १ मनपर्यव २ अवधि ३ इन तीनज्ञानधारनेवालोंका वचन भव्यजीवोंके मति श्रुतज्ञान रूपसे है उपकार करे है वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७६ ॥ सुयनाणं चेव दुवालसंग,-रूवं परूवियं जत्थ । लोयाणुवयारकर, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥ १२७७ ॥ CROSAGAR For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१५८॥ अर्थ-लोकोंके ऊपकार करनेवाला आचारादि द्वादशाङ्गी रूप श्रुतज्ञान ही जो कहा वह मेरे प्रमाण है॥ १२७७॥ भाषाटीकातत्तुच्चिय जं भवा, पढंति पाढंति दिति निसुणंति।पूयंति लिहावंति य, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥१२७८॥ | सहितम्. अर्थ-इस कारणसे भव्य जिस श्रुतज्ञान को पढ़े है पढ़ावे है सुने है सुनावे है देवे है और पूजते है और लिखाते है वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७८ ॥ तस्स बलेणं अजवि, नजइ तियलोयगोयरवियारो। करगहियामलयंपि व, तं सन्नाणं मह पमाणं १२७९/3 । अर्थ-जिस श्रुतज्ञान केवलसे आजभी तीनलोकके पदार्थ हाथमें आमले के जैसा जानते हैं वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७९ ॥ जस्स पसाएण जणा, हवंति लोयंमि पुच्छणिज्जा य।पूजा य वन्नणिज्जा, तंसन्नाणं मह पमाणं ॥१२८०॥ SI अर्थ-जिस श्रुतज्ञान के प्रसादसे लोकोंमें पूछने योग्य और पूजने योग्य वर्णन करने योग्य होते हैं वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२८०॥ जं देसविरइरूवं, सबविरइरूवयं च अणुकमसो। होइ गिहीण जईणं, तं चारितं जए जयइ ॥१२८१॥ का अर्थ-जो देशविरती रूप गृहस्थों के होवे है और सर्वविरतीरूप चारित्र साधुओं के होवे है वह चारित्र जगत् | ॥१५८ ॥ ६ में जैवन्ता होवो ॥ १२८१॥ MAALAUSHOSHISHIGAAN For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाणंपि दंसणंपि य, संपुन्ना फलं फलंति जीवाणं । जेणंचिय परिकरिया, तं चारित्तंजए जयइ॥१२८२॥ __ अर्थ-ज्ञान और दर्शन जिस चारित्रसे सहित ही जीवोंको संपूर्ण फल देते हैं वह चारित्र जगत् में जैवन्ता होवो ॥ १२८२॥ जं च जईण जहुत्तर,-फलं सुसामाइयाइ पंचविहं। सुपसिद्धं जिणसमए, तं चारित्तं जए जयइ ॥१२८३॥ । अर्थ-और जो चारित्र जैन सिद्धान्तमें साधुओंके शोभन सामायकादि पांच प्रकारका यथोत्तर उत्तर २ अधिक |फल जिसका ऐसा वर्ते है वह चारित्र जगत् में जैवन्ता होवो ॥ १२८३ ॥ जं पडिवन्नं परिपालियं च, सम्मं परूवियं दिन्नं । अन्नसिं च जिणेहिवि, तं चारित्तं जए जयइ॥१२८४॥ | अर्थ-तीर्थकरोंने जिस चारित्रको अंगीकार किया और पाला और सम्यक् प्ररूपणा करी उपदेश किया औरोंको दिया वह चारित्र जगत्में जयवन्तो होवो ॥ १२८४ ॥ छक्खंडाणमडखं, रजसिरिं चइय चक्कवडीहिं । जं सम्म पडिवन्नं, तं चारित्तं जए जयइ ॥ १२८५॥ ___अर्थ-चक्रवर्तियोंने अखंड छ खंडकी राज्य लक्ष्मीका त्याग करके जो चारित्र अच्छी तरहसे अंगीकार किया वह चारित्र जगत्में जयवन्तो होवो ॥ १२८५ ॥ जंपडिवन्ना दमगाइणो वि, जीवा हवंति तियलोए । सयलजणपूयणिज्जा, तं चारित्तंजए जयइ॥१२८६॥ GACASSACREASE For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatrth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपाल अर्थ-जिस चारित्रको अंगीकार करके रांक वगैरहभी जीव तीनलोकके सवलोकोंके पूजनीय होते हैं वह चारित्रभाषाटीकाहजगत्में जयवंता व” ॥ १२८६ ॥ चरितम् है सहितम्जं पालंताण मुणीसराण, पाए नमंति साणंदा। देविंददाणविंदा, तं चारित्तं जए जय ॥ १२८७॥ ॥१५९॥ ___ अर्थ-जिस चारित्रको पालता हुआ मुनीश्वरोंके चरणोमें देवेन्द्र दानवेन्द्र हर्ष सहित नमस्कार करें है वह चारित्र जगत्में जयवन्तो होवो ॥ १२८७ ॥ जं चाणंतगुणंपि ह, वन्निज्जइ सत्तरमेय दसभेयं । समयंमि मुणिवरेहि, तं चारित्तं जए जयइ॥१२८८॥ | अर्थ-और जो चारित्र अनन्तगुण जिसमें ऐसा निश्चय सिद्धान्तमें मुनिवरोंने पांच आश्रवसे विरमण और पांच इन्द्रियका निग्रह और चार कषायका जय तीनदण्डकी विरति यह सत्तरह भेद वर्णनकिया है तथा क्षमा मार्दव आर्य|वादी दुशभेद जिसके ऐसा प्रसिद्ध चारित्र जगत्में जयवन्तो होवो ॥ १२८८ ॥ समिईओ गुत्तीए, खंतीपमुहाओ मित्तियाइओ। साहंति जस्स सिद्धिं, तं चारित्तं जए जयइ ॥१२८९॥ ___ अर्थ-इरियासमित्यादि समिति ५ मनोगुप्त्यादि गुप्ति ३ क्षमाप्रमुख दशप्रकारका यतिधर्म मैत्री १ प्रमोद २ करुणा ३ मध्यस्था ४ भावना सर्व प्राणियोंमें मैत्री १ गुणवानमें प्रमोद २ दुखियोंमें दया दुष्टोंमें माध्यस्थ यह पदार्थ ॥१५९॥ जिस चारित्रकी सिद्धिनाम निष्पत्तिको साधे है वह चारित्र जगत्में जयवन्ता होवो ॥ १२८९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाहिरमभितरयं, बारसभेयं जहत्तरगुणं । वन्निज्जइ जिणसमए, तं तवपयमेस वंदामि ॥१२९०॥ | अर्थ-जो तप जैनसिद्धान्तमें ६ वाह्य ६ अभ्यन्तर बारह भेद वर्णन किया जावे है यथोत्तर अधिक २ गुण हैं दजिसमें ऐसे तप पदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९० ॥ . तब्भवसिद्धिं जाणंतएहि, सिरिरिसहनाहपमुहहिं । तित्थयरेहिं कयं जं, तं तवपयमेस वदामि ॥१२९१॥ | अर्थ-श्रीऋषभदेव स्वामीप्रमुख तीर्थंकरोंने उसी भवमें अपनी मुक्ति जानते हुए भी जो तप अंगीकार किया उस अर्थ-भीनमस्कार करूं ॥ १२९१ ॥ विनिकायाणं। जायइ खाय होवे है उस त .65405ASHISHASHISHISHISAISTUS जेण खमासहिएणं कएण, कम्माणमवि निकायाणं। जायइ खओखणेणं, तंतवपयमेस वंदामि ॥१२९२॥ ___ अर्थ-क्षमा सहित जिस तपके करनेसे निकाचित कर्मोका क्षणेकमें क्षय होवे है उस तपपदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९२॥ जेणंचिय जलणेणव, जीवसुवन्नाओकम्मकिट्टाई।फिति तक्खणं चिय, तंतवपयमेस वंदामि ॥१२९३॥ __ अर्थ-अग्निके जैसा जिस तपसे जीवरूपसोनेसे कर्मरूप कीटा कठिनतर मैल तत् कालही दूर होवे है उस तप |पदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९३ ॥ जस्स पसाएण धुवं, हवंति नाणाविहाउलद्धीओ।आमोसहि पमुहाओ तं तवपयमेस वंदामि ॥१२९४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् RAA4405RESSASSA अर्थ-जिस तपके प्रसादसे आमर्षऔषधिप्रमुख अनेक प्रकारकी लद्धियां होवें हैं उस तपपदको मैं नमस्कार ६ भाषाटीकाकरूं॥ १२९४ ॥ | सहितम्. कप्पतरुस्स व जस्सेरिसाउ, सुरनरवराण रिद्धीओ।कुसुमाइं फलंच सिवं, तं तवपयमेस वंदामि॥१२९५॥ ___ अर्थ-कल्प वृक्षके सदृश जिस तपका देवेन्द्र और राजाओंकी सम्पदा पुष्प है और मोक्षसुख फलवर्ते है उस तपपदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९५॥ अच्चंतमसज्झाइं, लीलाइवि सबलोयकज्जाइं। सिजति झत्ति जेणं, तं तवपयमेस वंदामि ॥ १२९६ ॥ अर्थ-अत्यन्त साधनेको अशक्य सर्वलौकिककार्य जिस तपके प्रभावसे लीलासे सिद्ध होवे है उस तपपदको मैं |नमस्कार करूं ॥१२९६ ॥ दहिदुखियाइमंगल,-पयत्थसत्थंमि मंगलं पढमं । जं वन्निजइ लोए, तं तवपयमेसवंदामि ॥१२९७॥ &ा अर्थ-लोकमें दही दुर्वादिक मंगल पदार्थोंके समूहमें जो तप पहला मंगल वर्णन किया जावे है भावमंगल रूप होनेसे उस तप पदको मैं नमस्कार करूं ॥ १२९७ ॥ ॥१६.॥ एवं च संथुणंतो, सोजाओनवपएसुलीणमणो।तह कहवि जहा पिक्खइ,अप्पाणं तंमयं चेव ॥१२९८॥ ABSOROSARIKAASHASANSOMNAAM For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatrth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmanair ACASS 1. अर्थ-इस प्रकारसे सम्यक् स्तुति करता हुआ श्रीपाल राजा कोई प्रकारसे नाम बड़े प्रयत्नसे नवपदोंमें लीन मन जिसका ऐसा अपने आत्माको नवपदमई देखे ॥ १२९८ ॥ एयंमि समयकाले, सहसा पुन्नं च आउयं तस्स । मरिऊण सिरिपालो, नवमे कप्पंमि संपत्तो ॥१२९९॥ ___ अर्थ-श्रीपाल राजा नवपद मई अपने आत्माको देखे तिस समय रूप कालमे अकस्मात् श्रीपाल राजाका आयुः पूर्ण भया तब श्रीपाल राजा काल धर्म पाके नवमे आनत देवलोकमें देव हुआ ॥ १२९९॥ माया य मयणसुंदरिपमुहाओ राणियाओ समयंमि।सुहझाणा मरिऊणं, तत्थेव य सुरवरा जाया॥१३००॥ है| अर्थ-माता कमलप्रभा और मदनसुंदरी प्रमुख रानियों अपने आयुः के अंतसमयमें शुभ अध्यवसायसे मरण Pापाके उसी नवमे देवलोकमें प्रधान देव भए ॥ १३००॥ तत्तो चविऊण इमे, मणुयभवं पाविऊण कयधम्मा।होहिंति पुणो देवा, एवं चत्तारि वाराओ ॥१३०१॥ | अर्थ-तदनंतर नवमे देवलोकसे च्यवके सर्व श्रीपालादि जीव मनुष्यभव पाके धर्म करके और देव होवेगा इस दप्रकारसे चार वार मनुष्यका भव और ४ देवका भव होगा ॥ १३०१॥ सिरिपालभवाउ नवमभवंमि, संपाविऊणमणुयत्तं । खविऊण कम्मरासिं, संपाविस्संति परमपयं १३०२ A CCASSAX RALACREAM For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १६१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - श्रीपालके भवसे नवमे भवमें मनुष्यभव पाके कर्म समूहका क्षय करके मोक्ष जावेगा ॥ १३०२ ॥ एवं भोमगहेसर, कहियं सिरिपालनरवरचरितं । सिरिसिद्धचक्क माहप्प, संजुयं चित्तचुज्जकरं ॥ १३०३ ॥ अर्थ - श्रीगौतम स्वामी श्रेणिक राजासे कहे है हे मगधेश्वर इस प्रकारसे श्रीपाल राजाका चरित्र कहा कैसा चरित्र सिद्धचक्र के माहात्म्यसहित और लोकोंके चित्तमें आश्चर्य करनेवाला ॥। १३०३ ॥ तं सोऊणं सेणियराओ, नवपयसमुहसियभावो । पभणेइ अहह केरिस, मेयाण पयाण माहप्पं ॥१३०४ ॥ अर्थ — उन श्रीपालके चरित्रको सुनके श्रेणिक राजा नवपदोंमें उल्लास पाया है मन जिसका ऐसा प्रकर्षपनेकर कहे। अहह इति आश्चर्ये इन नवपदोंका कैसा अचिंत्य माहात्म्य वर्ते है ॥ १३०४ ॥ तो भणइ गणी नरवर, पत्तं अरिहंतपयपसाएणं । देवपालेण रज्जं, सक्कत्तं कत्तिएणावि ॥ १३०५ ॥ अर्थ — तदनंतर गणधर श्रीगौतमस्वामी कहे हे राजन् अरहंत पदके प्रसादसे देवपाल नाम सेठके सेवकने राज्य पाया और कार्तिक सेठने भी इन्द्रपना पाया इन्होंकी कथा कहनी ॥। १३०५ ॥ सिद्धपयं झायंता, के के सिवसंपयं न संपत्ता । सिरिपुंडरीयपंडव, पउममुणिंदाइणो लोए । १३०६ ॥ अर्थ - सिद्ध पदको याते हुए लोकमें श्रीपुण्डरीक पाण्डव और रामचन्द्रादिक कौन २ शिवसम्पदा मुक्ति समृद्धि नहीं पायीं किंतु बहुतोंने पाई है । १३०६ ॥ For Private and Personal Use Only 2 भाषाटीकासहितम्. ॥ १६१ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SALASSASHISHA नाहियवायसमज्जिय, पावभरोवि हुपएसिनरनाहो।जं पावइ सुररिद्धिं, आयरियपयप्पसाओ सो १३०७ है। __ अर्थ-नास्तिक बादसे संचय किया पाप समूहका जिसने ऐसा परदेशी राजा उसने जो देव ऋद्धिः पाई वह आचार्यपदका प्रसाद है ॥ १३०७॥ लहुयंपि गुरुवइ8, आराहंतेहिं वयरमुवझायं । पत्तो सुसाहुवाओ, सीसेहिं सीहगिरिगुरुणो ॥१३०८॥ अर्थ-सिंहगिरि गुरूने कहा छोटी उमरकाभी बज्र नामका उपाध्यायकी आराधना करते हुए सिंहगिरि गुरूके शिष्योंने सुसाधुवाद नाम अच्छे बिनीत शिष्य है ऐसी प्रसिद्धि पाई॥ १३०८ ॥ साहुपयविराहणया, आराहणया यदुक्खसुक्खाइं। रुप्पिणिरोहिणीजीवहिं, किंन हु पत्ताइं गुरुयाई १३०९ है। अर्थ-साधुपदकी बिराधना और आराधना करके क्रमसे रुक्मिणी रोहिणीके जीवोंने बहुत दुःख और सुख क्या नहीं पाए अपि तु पाए हैं ॥ १३०९॥ दसणपयं विसुद्धं, परिपालंतीइ निच्चलमणाए । नारीइवि सुलसाए, जिणराओ कुणइ सुपसंसं ॥१३१०॥ ___ अर्थ-विशुद्धनिर्मल सम्यक् दर्शनपद सर्वप्रकारसे पालती भई और निश्चल मन जिसका ऐसी सुलसा नामकी नाग सारथिकी स्त्रीकी प्रशंसा श्रीमहावीर स्वामीने करी ॥ १३१० ॥ नाणपयस्स विराहण, फलंमिनाओ हवेइमासतुसो।आराहणा फलंमी, आरहणं होइ सीलमई For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १६२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ – ज्ञानपदकी विराधना के फलमें माषंतुष साधुका दृष्टांत है आराधनाके फलमें शीलवती सतीका उदाहरण है ॥ १३११ ॥ चारित्तपयं तह भावओवि, आराहियं सिवभवंमि । जे णं जंबुकुमारो, जाओ कयजणचमुक्कारो ॥१३१२ ॥ अर्थ — शिवकुमारके भवमें भावसे चारित्र पाला था उस आराधनसे जम्बूकुमर भया कैसा जम्बूकुमर लोकोंको किया है आश्चर्य जिसने ऐसा ॥ १३१२ ॥ वीरमइए तह कहवि, तवपयमाराहियं सुरतरूव । जह दमयंतीइ भवे फलियं तं तारिसफलेहिं ॥ १३१३ ॥ अर्थ - वीरमती नामकी राजाकी रानीने कोई प्रकारसे तपपदका आराधन किया तिलक तपस्या करके अष्टापद तीर्थपर चौबीस तीर्थकरोंको तिलक चढ़ाया इसके प्रभावसे दमयंती नलराजाकी पटरानीके भवमें वह तप कल्पवृक्षके सदृश फलोंसे फला ॥ १३१३ ॥ किं बहुणा मगहेसर, एयाणपयाणभत्तिभावेणं । तं आगमेसि होहिसि, तित्थयरो नत्थि संदेहो ॥ १३१४ ॥ अर्थ- हे मगधेश्वर जादा कहने करके क्या इन नवपदोंका भक्तिभाव करके तैं आगामि भवमें तीर्थंकर होगा इसमें संदेह नहीं है ॥ १३१४ ॥ तम्हा एयाई पयाई, चेव जिणसासणस्स सव्वस्सं । नाऊणं भो भविया, आरहह सुद्धभावेण ॥ १३१५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १६२ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CAREKASIRevie | अर्थ-तिस कारणसे इन नवपदोंको जिनशासनका सरवस्व याने सर्व सार जानके अहो भव्यो शुद्धभावसे । आराधन करो ॥ १३१५ ॥ एयाइं च पयाई, आराहताण भवसत्ताणं । हुंतु सयाविहु मंगल, कल्लाणसमिद्धिविद्धीओ ॥१३१६॥ ___ अर्थ यह नवपदोंका आराधन करता भव्यजीवों के निरंतर निश्चय मंगल कल्याणसमृद्धियोंकी वृद्धि होवे ॥ मंगल उपद्रव शांति कल्याण सम्पदाका उत्कर्षरूप समृद्धि वृद्धि परिवारादि वृद्धिरूप होवे ॥ १३१६॥ एवं तिकालगोयर, नाणे सिरिगोयमंमि गणनाहे । कहिऊण ठिए सेणियराओ, जानमवि मुणिणाहं १७| अर्थ-इस प्रकारसे त्रिकाल बिषयी ज्ञान जिन्होंका ऐसे श्री गौतमस्वामी गणधर कहके रहे तब श्रेणिक राजा गौतमस्वामीको नमस्कार करके जितने ॥ १३१७ ॥ उठेइ तओ हरिसिय, चित्तोता तत्थ कोवि नरनाहं। विन्नवइ देव वद्धाविजसि, वीरागमेण तुमं ॥१३१८॥ अर्थ-जितने वहांसे उठे उतने हर्षित चित्त जिसका ऐसा कोई पुरुष वहां आके राजासे कहे हे देव हे महाराज |भगवान् श्रीमहावीरस्वामीका यहां आगमन होनेसे मैं आपको बधाई देता हूं ॥१३१८ ॥ तं सोऊणं सेणिय, नरनाहो पमुइओ सचित्तंमि । रोमंचकवचियतणू, वद्धावणियं च से देई ॥१३१९॥ श्रीपा.च.२८ For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीपालचरितम् ॥१६३॥ भाषाटीकासहितम्. RECESSARAM अर्थ-उसपुरुषका बचन सुनके श्रेणिक राजा अपने मनमें हर्षित भया और रोमांचित भया शरीरजिसका ऐसा होके उस पुरुषको बधाइका द्रव्य देवे ॥१३१९॥ इत्थंतरंमि तिहुयण,-भाणू सिरिवद्धमाणजिणनाहो। अइसयसिरीसणाहो, समागओ तत्थ उजाणे २० ___ अर्थ-इस अवसरमें त्रिभुवनभानु तीन लोकके सूर्य श्रीवर्धमानस्वामी प्रातिहार्यादिअतिशय लक्ष्मी सहित उस उद्यानमें आए ॥ १३२०॥ देवेहि समवसरणं, रइयं अच्चंतसुंदरं सारं । सिरिवद्धमाणसामी, उवविट्ठो तत्थ तिजयपह ॥१३२१॥ अर्थ-देवोने अत्यन्त सुंदर प्रधान समवसरण रचा उस समवसरणमें तीनजगत् के प्रभु श्रीवर्धमान स्वामी बैठे १३२१ गोयमपमुहेसु गणीसरेसु, सक्काइएसु देवेसु । सेणियपमुहनिवेसुय, तहिं निविढेसु सव्वेसु ॥ १३२२ ॥ | अर्थ-श्रीगौतमस्वामी प्रमुख गणधर सौधर्मादि इन्द्र और श्रेणिक प्रमुख राजा यह सब उस समवसरणमें बैठनेसे २२ सेणियमुदिस्स पहू, पभणेइ नरनाह ? तुझ चित्तंमि । नवपयमाहप्पमिणं, अइगुरुयं कुणइ अच्छरियं २३ ___ अर्थ-श्रेणिक राजाका नाम उच्चारण करके प्रभु श्रीवर्धमानस्वामी बोले हे नरनाथ यह नवपदोंका माहात्म्य तुम्हारे चित्तमें बहुत आश्चर्य करे है ॥ १३२३ ॥ ॥१६३॥ For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तं च इमेसि पयाणं, कित्तियमित्तं इमं तए नायं । जं सव्वाणसुहाणं, मूलं आराहणमिमेसिं ॥ १३२४ ॥ अर्थ - यह नवपदोंका माहात्म्य तुमने कितना जाना है अर्थात् थोड़ाही जाना है इस कारणसे इन पदोंका आराधन सर्व सुखोंका मूल वर्ते है ॥ १३२४ ॥ एयाराहण मूलं च पाणिणं केवलो सुहोभावो । सो होइ धुवं जीवाण, निम्मलप्पाण नन्नेसिं १३२५ अर्थ - यह नवपदोंके आराधनका मूल कारण प्राणियोंके केवल एक शुभभाव है जो शुभभाव निश्चय निर्मल आत्मा जिन्होंका उन जीवोंके होवे है अशुद्ध आत्मा जिन्होंका ऐसे जीवोंके न होवे ॥ १३२५ ॥ जेविय संकष्पवियप्प, वज्जिया हुंति निम्मलप्पाणो । ते चेव नवपयाई, नवसु पएसुं च ते चैव ॥१३२६॥ अर्थ - जिकेभी संकल्प विकल्प वर्जित छोड़ा है संसारिक शुभ अशुभ विचार जिन्होंने ऐसे निर्मल है आत्मा जिन्होंका ऐसे जीव नवपदों में हैं ॥ १३२६ ॥ जं झाया झायंतो, अरिहंतं रूवसुपयपिंडत्थं । अरिहंतपयमयंचिय, अप्पं पिक्खेइ पञ्चक्खं ॥ १३२७ ॥ अर्थ — कहे हुए अर्थकोही दृढ़ करते हैं जिस कारण से ध्यान करनेवाला ध्याता पुरुष रूपस्थ १ पदस्थ २ पिण्डस्थ ३ अरहन्त परमात्माको ध्याता हुआ प्रत्यक्ष अर्हत पद मई अर्हत पद स्वरूप आत्माको देखे वहां रूपस्थ सर्वअतिशय For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १६४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहित समवशरणमें रहे हुए १ पदस्थ अर्ह इत्यादि पवित्रपदका ध्यान २ पिण्डस्थ पिण्डशरीर उसमें रहे सो पिण्डस्थ & भाषाटीकापहले पिण्डस्थ पीछे पदस्थ पीछे रूपस्थ ध्याना यह क्रम है ॥ १३२७ ॥ सहितम्. रूबाईयसहावो, केवलसन्नाणदंसणाणंदो । जो चेव य परमप्पा, सो सिद्धप्पा न संदेहो ॥ १३२८ ॥ अर्थ – रूप पौद्गलिक उल्लंघा जिन्होंने ऐसा स्वभाव जिन्होंका इसी कारणसे परिपूर्ण ज्ञानदर्शनरूप आनन्द जिन्होंके ऐसे परमात्मा सिद्धात्मा कहे जावें इसमें सन्देह नहीं है ॥ १३२८ ॥ पंचप्पत्थाणमयायरिय, महामंतझाणलीणमणो । पंचविहायारमओ, आयच्चिय होइ आयरिओ १३२९ अर्थ - पांच प्रस्थान मई जो आचार्यसम्बन्धी महामन्त्रके ध्यानमे लीनमन जिन्होंका और पांच प्रकारका आचार प्रधान जिसके सो आत्माही आचार्य होवे है पांच प्रस्थानके नाम विद्यापीठ १ सौभाग्यपीठ २ लक्ष्मीपीठ ३ मंत्रयोगराजपीठ ४ सुमेरुपीठ ५ इन्होंका अर्थ सूरीमंत्र कल्पसे जानना भावध्यान माला प्रकरणमें तो अभयप्रस्थान १ अकरणप्र० २ अहमिन्द्रप्र० ३ तुल्यप्र० ४ कल्पप्र० ५ इन्होंका स्वामी पंचपरमेष्ठी कहा है ॥ १३२९ ॥ महपाणझायदुवालसंग, -सुतत्थतदुभयरहस्सो, सज्झायतप्परप्पा, एसप्पा चेव उज्झाओ ॥ १३३० ॥ अर्थ - महाप्राणायाम ध्यानविशेषसे बिचारा है द्वादशाङ्गी सूत्रार्थका रहस्य जिसने वह तथा वाचनादि पांच प्रकारके स्वाध्यायमें तत्पर आत्मा जिसका ऐसा आत्मा ही उपाध्याय होवे है ॥ १३३० ॥ For Private and Personal Use Only ॥ १६४ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KAKK रयणत्तएण सिवपह,-संसाहणसावहाणजोगतिगो, साहू हवेइ एसो, अप्पुच्चिय निच्चमपमत्तो १३३१ अर्थ-रत्नत्रयज्ञान, दर्शनचारित्ररूप मोक्षमार्गके साधनेमें सावधान मन, वचन कायारूप तीनयोग जिसका ऐसा और निरंतर प्रमादरहित यह आत्मा ही साधु होवे है ॥१३३१॥ मोहस्सखओवसमा, समसंवेगाइ लक्खणं परमं । सुहपरिणाममयं, नियमप्पाणं दंसणं मुणह ॥१३३२॥ __ अर्थ-मोहका क्षयोपशमसे उत्कृष्ट शुभ परिणाम मई अपने आत्माको सम्यक्त्व जानो कैसा सम्यक्त्व सम समवेगादि लक्षण है जिसके ऐसा ॥ १३३२॥ नाणावरणस्स खओ,-वसमेण जहट्टियाण तत्ताणं। सुद्धावबोहरूवो, अप्पुच्चिय वुच्चए नाणं॥ १३३३॥ ___ अर्थ-ज्ञानावरणी कर्मके क्षय उपशमसे जो यथावस्थित सद्भूत जीवादितत्वोंका शुद्धज्ञान स्वरूप जिसका ऐसा ४ आत्माही ज्ञान कहा जावे ॥१३३३ ॥ सोलसकसायनवनोकसाय, रहियं विसुद्धलेसागं । ससहावठियं अप्पाण,-मेव जाणेह चारित्तं ॥१३३४॥ . अर्थ-क्रोधादिक सोलह १६ कषाय हास्यादिक नव नोकषाय इन्होंसे रहित इसी कारणसे निर्मल लेश्या जिनकी ऐसा स्वभावमें रहाहुआ आत्मा चारित्र जानो ॥१३३४॥ इच्छानिरोहओ, सुद्धसंवरो परिणओय समयाए । कम्माइं निजरंतो, तवोमओ चेव एसप्पा ॥१३३५॥ AOLMOL For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तसहितम्. श्रीपाल- अर्थ-इच्छाके रोकनेसे शुद्ध सम्बर जिसके और समभावसे परणित कर्मोकी निर्जरा करता हुआ यह आत्माहीभाषाटीकाचरितम् तपस्वरूप तप मई है ॥ १३३५ ॥ Pएवं च ठिए अप्पाणमेव, नवपयमयं वियाणित्ता । अप्पंमि चेव निच्चं, लीणमणा होह भो भविया १३३६ ___ अर्थ-इस प्रकारसे होनेसे आत्माहीको नवपद मई जानके अहो भन्यो आत्मस्वरूपमेंही लीनमन जिन्होंका ऐसे होवो ॥ १३३६ ॥ दातं सोऊणं सिरिवीरभासियं सेणिओ नरवरिंदो। साणंदो संपत्तो, निययावासं सुहावासं ॥ १३३७॥ | अर्थ-यह श्रीमहावीरस्वामीका कहाहुआ वचन सुनके श्रेणिकराजा भगवान्को बन्दना करके आनन्दसहित सुखका स्थान ऐसे अपने घर गया ॥ १३३७ ॥ सिरिवीरजिणोविह, दिणयस्वकुग्गहपहं निवारितो। भवियकमलपडिबोहं,कुणमाणो विहरइ महीए ३८ __ अर्थ-श्रीमहावीरस्वामीभी सूर्यके सदृश कुग्रहपथको अर्थात् कुमार्गका निवारण करता भव्य कमलोंको प्रतिबोध तू ॥१६५॥ | विकास करता पृथ्वीपर विहार करे ॥१३३८ ॥ एसा नवपयमाहप्पसार, सिरिपालनरवरिंदकहा। निसुणंतकहताणं, भवियाणं कुणइ कल्लाणं ॥ ३९ ॥ ALANKALS For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - नव पदोंका माहात्म्य श्रेष्ठ है जिसमें ऐसी यह श्रीपाल राजाकी कथा शुद्धभावसे सुनते हुए और कहते हुए भव्योंके कल्याण करो ।। १३३९ ॥ सिरिवज्जसेणगणहर, पट्टप्पहू हेमतिलयसूरीणं । सीसेहिं रयणसेहर, सूरीहिं इमा हु संकलिया ॥१३४० ॥ अर्थ- श्रीवज्रसेन आचार्यके पदमें हुए श्रीहेमतिलकसूरि उन्होंके शिष्य श्रीरत्नशेखरसूरिने यह श्रीपालकी कथा रची प्राचीन कथाको देखके ॥। १३४० ॥ तस्सीसहेमचंदेण, साहुणा विक्कमस्सवरसंमि । चउदसअट्ठावीसे, लिहिया गुरुभत्तिकलिएणं ॥ १३४१ ॥ अर्थ — उन्होंके शिष्य हेमचन्द्र साधुने विक्रम सम्वत् १४२८ में चौदह से अट्ठाईसमें लिखीं कैसा हेमचन्द्र गुरुकी भक्तिसहित ऐसा ॥ १३४१ ॥ सायर मेरू जा महियलंमि, जा नहलंमि ससि सूरा, वति तावनंदओ, वाइजंता कहा एसा १३४२ अर्थ - जबतक पृथ्वीपर समुद्र और सुमेरु पर्वत यह दोनों वर्ते है और आकाशमें जबतक चंद्रमा सूर्य है तबतक यह श्रीपाल राजाकी कथा वाच्यमाना समृद्धि पाओ ।। १३४२ ॥ यह श्रीपाल नरेंद्र प्राकृत कथाकी संस्कृत टीका अनु सार भाषाटीका बृहत् खरतर गच्छीय भ० श्रीजिन कृपाचंद्रसूरिने लिखि वि० सं० १९८० स्वपरअनुग्रहके लियें श्रीरस्तु ॥ इति श्रीपालनरेंद्रकथा श्रीसिद्धचक्रमाहात्म्ययुता समाप्ता ॥ For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीपालचरितं भाषान्तरसहितं समाप्तम् । vovwULLUL For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassararsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only