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श्रीपालचरितम्
सहितम्.
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भावं विणा तवोवि हु, भवोहवित्थारकारणं चेव । तम्हा नियभावुच्चिय, सुविसुद्धो होइ कायवो ॥२०॥||भाषाटीका__अर्थ-भावविना तपभी भवसमूहके प्रवाहका विस्तार करनेवालाही है अर्थात् भवभ्रमण कारण है मुक्तिका ४ कारण नहीं है । इस कारणसे अपना भावही अतिशय निर्मल करने योग्य है ॥ २०॥
भावोवि मणो विसओ, मणं च अइदुज्जयं निरालंबं । तो तस्स नियमणत्थं, कहियं सालंबणं झाणं ॥२१॥ | अर्थ-भावभी मनोविषई है और मन आलंबनरहित अत्यन्त दुर्जय है अर्थात् जीतना मुशकिल है इस कार-16 ठाणसे मनको वश करनेके अर्थ सालंबन ध्यान कहा है ॥ २१ ॥
आलंबणाणि जइ विह, बहुप्पयाराणि संति सत्थेसु । तह विह नवपयझाणं, सुपहाणं विंति जगगुरुणो २२ | अर्थ-यद्यपि शास्त्रों में बहुतप्रकारके आलंबन कहे हैं तथापि निश्चय करके जगद्गुरु श्रीतीर्थकरदेव नवपदोंका टू ध्यान अतिशय प्रधान आलंबन कहा है अब नव पदोंके नाम कहे हैं ॥ २२॥
अरिहं सिद्धायरिया, उवझाया साहुणो य सम्मत्तं । नाणं चरणं च तवो, इय पयनवगं मुणेयवं ॥२३॥ ___ अर्थ-अरहंत १ सिद्ध २ आचार्य ३ उपाध्याय ४ साधु ५ सम्यक्त्व ६ ज्ञान ७ चारित्र ८ तप ९ यह नवपद का नाम जानना ॥२३॥ तत्थ रिहंतेवारसदोस, विमुक्के विसुद्ध नाणमए। पयडियतत्ते नयसुरराए झापह निच्चपि ॥ २४ ॥ 15
*** SHISAISAS
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