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श्रीपाल - चरितम्
॥ १५ ॥
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तो विम्हिएण रन्ना, पुट्ठो मंती सनायवृत्तंतो । विन्नवइ देव ! निसुणह, कहेमि जणवंद परमत्थं ॥ १२ ॥ अर्थ — बाद जाना है वृत्तान्त जिसने ऐसा मंत्रीको आश्चर्ययुक्त राजाने पूछा तब मंत्रीने विनती करी हे देव ! हे महाराज ! ये मनुष्योंके समूहका परमार्थ मैं कहूं आप सुनो ॥ १२ ॥
| सामिय! सरूवपुरिसा, सत्तसया नववया ससौंडीरा । दुट्ठकुट्ठाभिभूया, सबे एगत्थ संमिलिया ॥ १३ ॥
अर्थ - हे स्वामिन् ! सातसै पुरुष नवीन यौवन अवस्था जिन्होंकी अर्थात् जवान पराक्रमसहित ऐसे दुष्टको रोगसे पीड़ित ये सब इकट्ठे मिले हैं ॥ १३ ॥
एगो य ताण बालो, मिलिओ उंबरवाहिगहियंगो । सो तेहिं परिग्गहिओ, उंबरराणुत्ति कयनामो ॥१४॥
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अर्थ — और उन कुष्ठी पुरुषोंकों एक बालक ? मिला है कैसा है बालक उम्बर व्याधि कुष्ठ रोग विशेषसे गृहीत है। अंग जिसका ऐसे बालकको कुष्ठी पुरुषोंने उम्बरराणा ऐसा नाम करके अपना स्वामी किया है ॥ १४ ॥ वरवेसरिमारुठो, तयदोसी छत्तधारओ तस्स । गयनासा चमरधरा, घिणि २ सहा य अग्गपहा ॥ १५ ॥
अर्थ — वह बालक प्रधान खच्चरनी पर चढ़ा हुआ है श्वेतकुष्ठी पुरुष उम्बरराणेके छत्रधारक है गतनासा पुरुष चामर धारणेवाले है रोगके वशसे घिण २ ऐसा है शब्द जिन्होंका ऐसे मनुष्य उसके आगे चलनेवाले हैं ॥ १५ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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