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ता एयाए एयारिसीइ, धूयाइ हवइ जइ कहवि । अणुरूवो कोइवरो, ता मज्झ मणो सुही होइ ॥ ५०१ ॥ अर्थ - तिसकारणसे ऐसी मेरी पुत्री के योग्य जो कोई भर्तारहोवे तब मेरे मनमें सुखहोवे ॥ ५०१ ॥ एवं नियधूयाए, वरचिंतासहसलिओ राया । अच्छइ खणं निसन्नो, सुन्नमणो झाणलीणुव ॥ ५०२|| | अर्थ - इस प्रकार से अपनी पुत्रीके वरकी चिंतारूप सल्य से सल्लितभया सल्य युक्त राजा क्षणमात्र उसी विचारमें लीनमन जिसका ऐसा शून्यमन होके बैठा ।। ५०२ ॥
सावि हु नरिंदधूया, पूयं काउण विहियतिपणामा। नीसरइ जाव पच्छिम, -पएहिं जिणगब्भगेहाओ ५०३
अर्थ - वह राजकुमरी भी पूजाकरके किया है तीनप्रणाम नमस्कार जिसने ऐसी जितने मूलगुंभारेसे पीछे पगोंसे बाहर निकले ।। ५०३ ॥
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तक्कालं तह मिलियं, तद्दारकवाडसंपुढं कहवि, । जहवलिएणवि केणवि, पणुल्लियं उग्घडइ नेव ॥ ५०४ ॥ अर्थ—उतने ततकाल उस जिनमंदिरके दरवज्जेका कपाट कोई प्रकार से वैसामिला अर्थात् बन्ध होगया जैसे कोई बलवान पुरुषकी प्रेरणा से भी नहीं खुले अर्थात् उघड़े नहीं ॥ ५०४ ॥
तत्तो सा निवधूया, अप्पं निंदेइ गरुयसंतावा । हा हा अहं हयासा, किं कयपावा असुहभावा ॥ ५०५ ॥
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