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श्रीपाल - चरितम्
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ताव नरिंदोवि तहिं, पत्तो प्रयाविहिं पलोयंतो । हरिसेण पुलइअंगो, एवं चिंतेइ हिययंमि ॥४९७ ॥ अर्थ - उतने राजाभी पूजाविधि देखता हुआ उस जिनमंदिरमें आया विशेष पूजाके देखनेसे हर्षसे रोमराजी जिसकी विकस्वर मानभई ऐसा मनमें इसप्रकारसे विचारे ॥ ४९७ ॥
अहो अपुवा पूया, रइया एयाइ मज्झ धूयाए । अहो अपुत्रं च नियं, विन्नाणं दंसियमिमी ॥ ४९८॥
अर्थ - जैसे राजा विचारे सो कहते हैं अहो इति आश्चर्ये इस मेरी पुत्रीने अपूर्व पूजा रची ऐसी पूजा पहले कभी भी नहीं देखी और यहभी आश्चर्य है इस पुत्रीने अपूर्व अपना विज्ञान कलामें कुशल पणा दिखाया ॥ ४९८ ॥ एसा धन्ना कयपुन्निया य, जीए जिणिंदपूयाए । एरिसओ सुहभावो, दीसइ सरलो अ सुहहावो ४९९
अर्थ – यह मेरी पुत्री धन्या है और किया है पुन्य जिसने ऐसी कृतपुन्या है जिसका श्रीतीर्थंकरकी पूजामें ऐसा शुभ भाव वर्ते है और जिसका सरल, शोभन स्वभाव है ॥ ४९९ ॥ थिरियापभावणाकोसलत्त, - भत्तीसुतित्थसेवाहिं । सालंकारमिमीए, नज्जइ चित्तंमि संमत्तं ॥ ५०० ॥
अर्थ - जिनधर्म में स्थिरपना १ प्रभावना धर्मको शोभाप्राप्तकरना २ कुशलत्व जिनप्रवचनमें निपुणपना ३ भक्ति तीर्थकरादिकमें अंतरंगप्रीति ४ सुतीर्थसेवा स्थावर जंगम शोभनतीर्थकी सेवा ५ इन पांच अलंकारों करके इसके चिचमें सम्यक्त्व अलंकार सहितवर्ते है ॥ ५०० ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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