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श्रीपाल-| अर्थ-उसके अनन्तर वह राजपुत्री बहुत संताप जिसके ऐसीभई अपने आत्माकी निंदाकरे किया पाप जिसने ऐसी भाषाटीकाचरितम् | अशुभ भाववाली में हूं ॥ ५०५॥
सहितम्. है जेण मए पावाए, पमायलग्गाइ मंदभग्गाए । संकरकयाइ पूयाइ, दंसणं खणमवि नलद्धं ॥ ५०६ ॥ __ अर्थ-जिस कारणकरके मैं पापनी प्रमादमें लगीभई और मन्दभागिनीने संकरभाव शुभाशुभ रूप मिश्रभावसे | पूजाकरी जिससे प्रभुका दर्शन क्षणमात्रभी नहीं पाया ॥ ५०६ ॥
ही ही अहं अहन्ना, अन्नाणवसेण कम्मदोसेण । आसायणंपिकाहं, किंपिधुवं वंचिया तेण ॥५०७॥ है। अर्थ-हही इति खेदे खेदसे कहती है मैं अधन्य हूं अज्ञानके वशसे कर्मके दोषसे कोई आशातना विराधनाकरी
है इस कारणसे निश्चय मैं ठगी गई हूं ॥ ५०७ ॥
एवं ममावराहं, खमसु तुमं नाह कुणसु सुपसायं । मह पुन्नविहीणाए, दीणाए दंसणं देसु॥५०८॥ है अर्थ-हे नाथ यह मेरा अपराध क्षमाकरो आप सुष्टुनाम शोभन प्रसाद नाम अनुग्रह प्रसन्नताकरो पुन्यविहीन
दीन मेंहूं ऐसी मेरेको दर्शन देओ ॥ ५०८ ॥ एवं तं रुयमाणिं, दट्टणं नंदणिं भणइ राया । वच्छे (वत्थे)तुहावराहो, नत्थि इमो किंतु मह दोसो ५०९/॥६५॥ . अर्थ-इस प्रकारसे रोती भई पुत्रीको देखको राजा कहे हे वत्से यह तेरा अपराध नही है किंतु मेरा दोष है ॥५०९॥RI
SAUSIASSASSIS
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