________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीपाल - चरितम्
॥ १६४ ॥
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सहित समवशरणमें रहे हुए १ पदस्थ अर्ह इत्यादि पवित्रपदका ध्यान २ पिण्डस्थ पिण्डशरीर उसमें रहे सो पिण्डस्थ & भाषाटीकापहले पिण्डस्थ पीछे पदस्थ पीछे रूपस्थ ध्याना यह क्रम है ॥ १३२७ ॥ सहितम्.
रूबाईयसहावो, केवलसन्नाणदंसणाणंदो । जो चेव य परमप्पा, सो सिद्धप्पा न संदेहो ॥ १३२८ ॥ अर्थ – रूप पौद्गलिक उल्लंघा जिन्होंने ऐसा स्वभाव जिन्होंका इसी कारणसे परिपूर्ण ज्ञानदर्शनरूप आनन्द जिन्होंके ऐसे परमात्मा सिद्धात्मा कहे जावें इसमें सन्देह नहीं है ॥ १३२८ ॥ पंचप्पत्थाणमयायरिय, महामंतझाणलीणमणो । पंचविहायारमओ, आयच्चिय होइ आयरिओ १३२९
अर्थ - पांच प्रस्थान मई जो आचार्यसम्बन्धी महामन्त्रके ध्यानमे लीनमन जिन्होंका और पांच प्रकारका आचार प्रधान जिसके सो आत्माही आचार्य होवे है पांच प्रस्थानके नाम विद्यापीठ १ सौभाग्यपीठ २ लक्ष्मीपीठ ३ मंत्रयोगराजपीठ ४ सुमेरुपीठ ५ इन्होंका अर्थ सूरीमंत्र कल्पसे जानना भावध्यान माला प्रकरणमें तो अभयप्रस्थान १ अकरणप्र० २ अहमिन्द्रप्र० ३ तुल्यप्र० ४ कल्पप्र० ५ इन्होंका स्वामी पंचपरमेष्ठी कहा है ॥ १३२९ ॥ महपाणझायदुवालसंग, -सुतत्थतदुभयरहस्सो, सज्झायतप्परप्पा, एसप्पा चेव उज्झाओ ॥ १३३० ॥
अर्थ - महाप्राणायाम ध्यानविशेषसे बिचारा है द्वादशाङ्गी सूत्रार्थका रहस्य जिसने वह तथा वाचनादि पांच प्रकारके स्वाध्यायमें तत्पर आत्मा जिसका ऐसा आत्मा ही उपाध्याय होवे है ॥ १३३० ॥
For Private and Personal Use Only
॥ १६४ ॥