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अर्थ - इस कारणसे हमारे धन, स्वर्ण वस्त्रादिकसे कुछभी कार्य नहीं है इस उम्बर राजाके प्रसादसे हम सब अतिशय सुखी हैं ॥ २४ ॥
| किंच। एगो नाह! समत्थि, अम्ह मणचिंतिओ वियप्पुत्ति । जइ लहइ राणओ राणियंति ता सुंदरं होइ २५
अर्थ - परंतु हे नाथ एक हमारे मनमें मनोरथ है जो हमारा राजा अपने योग्य रानी पावे तब शोभन होवे ||२५|| ता नरनाह ! पसायं, काऊणं देहि कन्नगं एगं । अवरेणं कणगकप्पड, दाणेणं तुम्ह पजत्तं ॥ २६ ॥
अर्थ - इस कारण से हे महाराज ! प्रसन्न होके एक कन्या देवो और सोना वस्त्र वगैरह देनेसे सरा और पदार्थसें हमारे कार्य नहीं है ॥ २६ ॥
तो भणइ रायमंती, अहो अजुत्तं विमग्गि अंतुमए । को देइ नियं धूयं, कुट्टकिलिट्ठस्स जाणतो ॥२७॥ अर्थ - तब राजाका मंत्री कहे अहो तुमने अयुक्त मांगा कोढ़ रोगसे क्लेशयुक्त पुरुषको जानता भया कौन पुरुष अपनी पुत्री देवे अपि तु कोई नहीं देवे ॥ २७ ॥ गलियंगुलिणा भणियं, अम्हेहिं सुया निवस्सिमा कित्ती । जं किरमालवराया, करेइ नो पत्थणाभंगं ॥ २८ ॥ अर्थ - यह राजाके मंत्रवीका बचन सुनके गलितांगुल मंत्रीने कहा हमने राजाकी ऐसी कीर्ति सुनीथी कि मालवदेशका राजा किसीकी भी प्रार्थना का भंग नहीं करे है जो कोई भी वस्तु मागे उसको देता है ॥ २८ ॥
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