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श्रीपाल - चरितम्
॥ १७ ॥
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| तो सा निम्मलकित्ती, हारिजउ अज्ज नरवरिंदस्स | अहवा दिज्जउ काविहु, धूया कुकुले वि संभूया ॥२९॥ अर्थ - तिस कारण से हम यहां आए हैं परन्तु आज राजाकी निर्मल कीर्ति हारीजावे है अथवा कुत्सितकुलमें उत्पन्न भई भी कोई कन्या देओ तब कीर्ति बनी रहेगी ॥ २९ ॥
| पभणेइ नरवरिंदो, दाहिस्सइ तुम्ह कन्नगा एगा । कोकिर हारइ कित्ति, इत्तियमित्तेण कज्जेण ॥३०॥ अर्थ-तब राजा कहे तुमको एक कन्या हम देवेंगे निश्चय इतने कार्यके वास्ते बहुत प्रयलसे कीर्ति उत्पन्न करी जावे है सो कौन हारे ॥ ३० ॥
चिंतेइ मणे राया, कोवानलजलियनिम्मलविवेगो । नियधूयं अरिभूयं तं दाहिस्सामि एयस्स ॥ ३१ ॥
अर्थ - क्रोधाग्निसे जला है निर्मलविवेक जिसका ऐसा राजा विचारे क्या विचारे सो कहते हैं मैं शत्रुके जैसी अपनी कन्याको इस कोढ़ियेको दूंगा ॥ ३१ ॥
सहसा बलिऊण तओ, नियआवासंमि आगओ राया। बुल्लावइ तं मयणा, सुंदरिनामं नियं धूयं ॥३२॥ अर्थ - अकस्मात् उसी ठिकाने से पीछा पलटके राजा अपने प्रासादमें आके मदनसुंदरी अपनी पुत्रीको बुलाके ॥ ३२ ॥ ! हुं अज्जवि जइ मन्नसि, मज्झपसायस्स संभवं सुक्खं । ता उत्तमं वरं ते, परिणाविय देमि भूरिधणं ॥ ३३ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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