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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इय नवपयसिद्धं लद्धिविज्जासमिद्धं, पयडियसरवग्गं ह्रीँती रेहासमग्गं । दिसिवइसुरसारं खोणिपीढावयारं, तिजयविजयचक्कं सिद्धचक्कं नमामि ॥ १२१० ॥ अर्थ - इस प्रकार से नवपदों करके सिद्ध निष्पन्न और लब्धिपद और विद्या देवियों करके समृद्ध और प्रगट किया है। स्वरवर्ग जिसमें और हाँ ऐसा अक्षरऊपर जिसके उसकी ईकारकी रेखासे चारोंतरफ वीटा हुआ सम्पूर्ण, और दिगपाल वगैरहः सम्पूर्ण देवोंसे सेवित प्रधान पृथ्वीपीठपर अवतरण जिसका तीन जगत्के विजयार्थ चक्रके जैसा चक्र ऐसे | सिद्ध चक्रको मैं नमस्कार करों ॥। १२१० ॥ इति सिद्धचक्रस्तवः वज्र्जतएहिं मंगलतूरेहिं, सासणं पभावंतो । साहम्मियवच्छलं, करेइ वरसंघपूयं च ॥ १२११ ॥ अर्थ - मंगल वादित्र वाजते जैनधर्मकी प्रभावना करता हुआ राजा श्रीपाल साधर्मी वात्सल्य करे और प्रधान संघ पूजा करे ॥ १२११ ॥ | एवं सो नरनाहो, सहिओ ताहिं च पट्टदेवीहिं । अन्नेहिंवि बहुएहिं, आराहइ सिद्धवरचकं ॥ १२१२ ॥ अर्थ — इस प्रकारसे महाराजा श्रीपाल उन पटरानियोंसहित और भी बहुत लोगों सहित सिद्धचक्रका आराधन करें १२१२ अह तस्स मयण सुंदरि, पमुहाहिं राणियाहिं संजाया । नव निरुवमगुणजुत्ता, तिहुयणपालाइणो पुत्ता १३ For Private and Personal Use Only
SR No.020724
Book TitleShripal Charitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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