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अर्थ - श्रीपाल कुमर भी अपने परिवार सहित तंबुओं में रहा हुआ सिंहासन पर बैठा हुआ नाटक देखे किसके जैसा विमानमें रहा हुआ देवके जैसा ॥ ४७७ ॥
सेट्ठिवि तंमि दीवे, बहुलाभं मुणिय विन्नवइ कुमरं । देव नियवाहणाणं, कयाणगे किं न विक्केह ॥ ४७८ ॥
अर्थ - धवल सेठभी उस द्वीपमें बहुत लाभ जानके कुमरसे वीनती करे हे देव हे महाराज अपने जहाजोंका क्रियाना कैसे नही वेचते हो ॥ ४७८ ॥
तो भइ कुमारो ताय, अम्हतुम्हाण अंतरं नत्थि । तं चिय कयाणगाणं, जं जाणसि तं करिज्जासु ४७९
अर्थ - तदनंतर कुमरकहे हे तात सदृश हमारे तुम्हारे अंतर नहीं है क्रियाणोंकी व्यवस्था जैसी तुमजानोहो वैसी करो ॥४७९ ॥
| हिट्ठो सिट्ठी चिंतइ, हुं हुं नियजाणियं करिस्सामि । जेण कयविक्कओ च्चिय, वणिणो चिंतामणि वित्ति ४८०
अर्थ - यह श्रीपालका वचन सुनके सेठ बहुत खुशी हुआ विचारे अब मैं अपना जाना हुआ करूंगा जिस कारणसे वाणियोंके क्रय विक्रय चिंतामणि वांछित अर्थ साधक रत्नके सदृश लोक कहते हैं ॥ ४८० ॥ इत्तो य कोवि पुरिसो, सुरसरिसो चारुरूवनेवत्थो । सुपसन्ननयणवयणो, उत्तमहयरयणमारूढो ४८१
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