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अर्थ-वह धवल सेठका विचारा हुआ सुनके वे चारोंही मित्र वाणिया बोले अहह इति खेदे तेने कानोंमें शूल है तुल्य यह क्या कहा ॥ ६१२॥ अन्नस्सवि धणहरणं, न जुजए उत्तमाण पुरिसाणं । जं पुण पहणो उवयारिणो य, तंदारुणविवागं ६१३ | अर्थ-उत्तम पुरुषोंको किसीकाभी धन हरना युक्त नहीं है जो फेर अपना प्रभु स्वामी और उपकारीका धन | हरणकरना उसका तो भयानक फल होवे है ॥ ६१३ ॥
इयरिस्थीणवि संगो, उत्तमपुरिसाण निंदिओ लोए।।
जा सामिणीइ इच्छा, सा तक्खयसिरमणिसरिच्छा ॥ ६१४ ॥ अर्थ-उत्तम पुरुषोंको अन्य सामान्य लोगोंकी स्त्रियोंकाभी संयोग लोकमें निंदनीय है और अपनी स्वामिनीकी जो इच्छा है वहतो नागराजके मस्तककी मणिकी इच्छाके तुल्य है महादुःख दाई होनेसे ॥ ६१४ ॥ अन्नस्सवि कस्सवि पाण,-दोहकरणं न जुज्जए लोए । जं सामिपाणहरणं, तं नरयनिवंधणं नृणं ॥६१५॥ __ अर्थ-और किसीभी प्राणीका प्राण हरना लोकमें अयुक्त है और जो स्वामीका प्राण हरण करना वह तो निश्चय है
है नरक दुर्गतिकाही कारण है ॥ ६१५॥ श्रीपा.च./ता तुमए परिसयं, पावं कह चिंतियं निए चित्ते।जइ चिंतियं च कह, कहियं तुमए सजीहाए ॥६१६॥ 81
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