________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीपाल - चरितम्
॥ ६६ ॥
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
राया धूयाईजुओ, धूवकडुच्छेहिं कुणइ भोगविहिं । निम्मलचित्तो निञ्चल, गत्तो तत्थेव उवविट्ठो ५१४ अर्थ - राजा पुत्री सहित धूपधानोंमें भोगविधिः नामधूपदानादि विधिः करे कैसा है राजा निर्मल है चित्तजिसका और निश्चल शरीर जिसका ऐसा जिनमंदिरमें बैठा ॥ ५१४ ॥
युग्मं, उववासतिगंजायं, धूयासहियस्स नरवरिंदस्स । तो रंगमंडवोवि हु, रंगं नो जणइ जणहियए ॥
अर्थ – जिनमंदिरमें धूपदानादि विधिः करते पुत्रीसहित राजाके तीनउपवास भया तब रंगमंडपभी लोगोंके मनमें राग नहीं उत्पन्न करे ॥ ५१५ ॥
| सामंतमंतिपरिगह, पउरजणेसुवि विसन्नचित्तेसु । उवविट्ठेसु निरंतर, जलंतदिप्पंतदीवेसु ॥ ५९६ ॥
अर्थ - सामंत और मत्रवी और परिवार और नगरमें रहने वालेलोग खेदातुर भया है चित्तजिन्होंका तथा निरंतर दीपक जलरहे है उसवक्तमें ॥ ५१६ ॥
केवि हुदियंति कन्नाइ, दूसणं केवि नरवरिंद्स्स । एवं बहुप्पयारं, परप्परालाव मुहरजणे ॥ ५१७ ॥
अर्थ — कई लोग कन्याको दूषण देवे और कितनेक राजाको दूषण देवें इसप्रकारसे यथा तथा लोगोंका परस्पर भाषण होनेसे लोग दुर्मुख हुआ इच्छामे आवे ऐसा बोले ॥ ५१७ ॥ तइयाए रयणीए, पच्छिमजामंमि निज्झुणिसहाए । सहसत्ति गयणवाणी, संजाया एरिसी तत्थ ॥
For Private and Personal Use Only
भाषाटीकासहितम्.
॥ ६६ ॥