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श्रीपाल - चरितम्
॥ ४६ ॥
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अर्थ-उस श्रीपालको माता कहे हे पुत्र तैं बालक है और सरल है सुकुमार तेरा शरीर है देशान्तरोंमें फिरना तो 6 भाषाटीकाकठिन है इसी कारणसे दुःखकारक है ॥ ३५० ॥
सहितम्.
तो कुमरो जणणीं पइ, जंपइ मा माइ ! एरिसं भणसु । तावच्चिय विसमत्तं, जाव न धीरा पवज्जंति ॥५१॥
अर्थ — उसके बाद मातासे कहे हे अंब हे माताजी ऐसा वचन मतकहो कार्यमात्रका विषमपना तबतकही है जबतक धैर्यवान पुरुष नही अंगीकार करे ।। ३५१ ॥
| पभणइ पुणोऽवि माया, वच्छय ! अह्मे सहागमिस्सामो । को अह्मं पडिबंधो, तुमं विणा इत्थ ठाणंमि ॥५२
अर्थ - और भी माता कहे हे वत्स हम तुम्हारे साथ आवेंगी यहां तेरे बिना हमारे रहनेका क्या कारण है अपितु कोई कारण नहीं है ॥ ३५२ ॥
कुमरो कहेइ अम्मो ! तुम्हेहिं सहागयाहिं सवत्थ । न भवामि मुक्कलपओ, ता तुम्हे रहह इत्थेव ॥५३॥
अर्थ - कुमर बोला हे माताजी आप साथमें आवो तो मेरे सर्वत्र पग बन्धन होवे सर्वत्र मोकला पग नहीं होवे इस वास्ते यहांही रहो ॥ ३५३ ॥
| मयणा भणेइ सामिय! तुम्हं अणुगामिणी भविस्सामि, । भारंपि हु किंपि अहं, न करिस्सं देहछायुव ॥ ५४॥
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