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श्रीपाल - चरितम्
॥ १०७ ॥
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तं सोऊण कुमारो, धणियं संजायमणचमुक्कारो । पत्तो नियावासं पुणो पभायंमि चिंतेइ ॥ ८५५ ॥ अर्थ - वह वचन सुनके अत्यन्त मनमें चमत्कार भया ऐसा कुमर अपने आवास गया रात्रि व्यतिक्रान्त करके प्रभातमें विचारे क्या विचारे सो कहते हैं ॥ ८५५ ॥
हारस्स पभावेणं, मह गमणं होउ पट्टणे तत्थ । जत्थत्थि रायकन्ना, विहियपइन्ना समस्साहिं ॥८५६॥
अर्थ - हारके प्रभावसे वहां देवदलपतन में मेरा गमन होवो जिस नगरमें राजकन्याने समस्यापूर्णकी प्रतिज्ञाकी है ॥ ८५६ ॥
पत्तो य तक्खणं चिय, सहावरूवेण मंडवे तत्थ । जत्थत्थि रायपुत्ती, संयुक्त्ता पंचहिं सहीहिं ॥ ८५७ ॥
अर्थ — बाद कुमर तत्कालही स्वाभाविक रूपसे उस मंडपमें प्राप्त हुआ जिस मंडपमें ५ सखी सहित राजपुत्री है ॥८५७॥ दट्टण तं कुमारं, मारोवमरूवमसमलायन्नं । नरवरधूयावि खणं, विह्नियचित्ता विचिंतेइ ॥ ८५८ ॥
अर्थ - कामके जैसी उपमा जिसको ऐसा रूप जिसका इसी कारणसे अतुल्य लावण्य जिसका ऐसे कुमरको देखके राजपुत्री भी क्षणमात्र आश्चर्य युक्त चित्त जिसका ऐसी विचारे क्या विचारे सो कहते हैं ।। ८५८ ॥ जइ कहवि हु एस मणोगयाउ, पूरेइ मह समस्साओ । ताहं तिन्नपन्ना, हवेमि धन्ना सुकयपुन्ना ॥८५९ ॥
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भाषाटीकासहितम् .
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