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श्रीपालचरितम्
॥१३०॥
सर्ववृत्तिरूप चारित्र अंगीकार किया कैसा अजितसेन राजा सम्यक् दृष्टि देवताने दिया रजोहरणादि साधुका वेषभाषाटीकाजिसको ऐसा ॥ १०५०॥
सहितम्. हैतं च पडिवन्नचरितं, दटुं सिरिपालनरवरो झत्ति । पणमेइ सपरिवारो, भत्तीइ थुणेइ एवं च ॥१०५१॥
| अर्थ-अंगीकार किया चारित्र जिसने ऐसे अजितसेन राजर्षिको देखके श्रीपाल राजा शीघ्र परिवार सहित नमहस्कार करे और भक्तिसे इस प्रकारसे स्तुति करे सो कहते हैं ॥ १०५१॥
जेणेस कोहजोहो हणिओ, हेलाइ खंतिखग्गेणं। समयासियधारेणं, तस्स महामुणिवइ नमो ते॥१०५२॥ | अर्थ-जिसने यह क्रोधरूप योध क्षमारूप खड्गसे लीलासे हन दिया ऐसे आप महामुनि पतिको नमस्कार होवे कैसा क्षमारूप खड्ग समताही है तीक्षण धाराजिसकी ऐसा ॥ १०५२॥ माणगिरिगरुयमयसिहर,-अट्रयं मदविकवजेणं । जेण हणिऊण भग्गं, तस्स महामुणि-वइ नमोते॥ 51 अर्थ-और जिस मुनिने मान अभिमानही पर्वत उसपर बड़े २ लाभ ऐश्वर्यादिक आठ मद रूप शिखर उन्होंको | मार्दव रूप एक अद्वितीय बज्र करके तोड़ा उस आप महामुनिको नमस्कार होवे ॥ १०५३ ॥
दा॥१३॥ मायामयविसवल्ली, जेणजवसारसरलकीलेणं । उक्खणिया मूलाओ, तस्स महामुणिवइ नमो ते १०५४||
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