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श्रीपाल - चरितम्
॥ १३ ॥
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हुआ प्रसाद अप्रसादसे लोकमें सुख दुःख होवे है मेरे किए हुए प्रसादसे सुख और अप्रसादसें दुःख यह गर्व आपको करना उचित नहीं ॥ ९५ ॥
जो होइ पुन्न बलिओ, तस्स तुमं ताय लहु पसीएसि । जो पुण पुन्नविहूणो, तस्स तुमं नो पसीएसि ॥९६॥ अर्थ-जो पुरुष पुण्यसे बलवान् होवे उसपर आप जल्दी प्रसन्न होवो हो और पुण्यहीन होवे है उसपर आप नहीं प्रसन्न होवो हो ॥ ९६ ॥
भवियद्वया १ सहावो, २ दवाईया सहाइणो वावि । पायं पुवोवज्जियकम्मा गया फलं दिति ॥९७॥
अर्थ - भवितव्यता १ स्वभाव २ और द्रव्य १ क्षेत्र २ काल ३ भाव ४ इत्यादिक सहाय करनेवालाभी बहुलता करके पूर्व भवमें उपार्जन किया कर्मोंके अनुगत उन्होंसे मिला हुआही फल देते हैं उन्होंसे अलग नहीं ॥ ९७ ॥ तो दुम्मिओ य राया, भणेइ रे तं सि महपसाएण । बत्थालंकाराई, पहिरंती कीसि मं भणसि ॥९८॥
अर्थ - उसके अनन्तर राजा मनमें उदास हुआ पुत्रीसे कहे अरे तैं मेरे प्रसादसे वस्त्र अलंकारादि नानाप्रकारका अद्भुत नैपत्थ भूषणादि पहरती है और पूर्वोक्त कैसा कहती है ॥ ९८ ॥ हसिऊण भणइ मयणा, कयसुकयवसेण तुज्झ गेहंमि । उपपन्ना ताय ! अहं, तेणं माणेमि सुक्खाई ॥९९॥
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भाषाटीकासहितम्.
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