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श्रीपालचरितम् ॥९९॥
चितइ मणे कुमारी, मज्झ पइन्ना इमेण जइ पुन्ना । ताहं पुन्नपइन्ना, अप्पं मन्नेमि कयपुन्नं ॥७८६॥18 भाषाटीका__ अर्थ-तब कुमरी मनमें विचारे यह राजकुमर मेरी प्रतिज्ञा पूर्णकरे तो मैं अपने आत्माको कृत पुण्य जानु करा है|
सहितम्. पुण्य जिसने ऐसा और मैं पूर्ण प्रतिज्ञ होजाऊं ॥ ७८६ ॥ जइ पुण मज्झ पइन्ना, इमिणावि न पूरिया अहन्नाए । ताहं विहियपइन्ना, सवैरिणी चेव संजाया ७८७ । अर्थ-और जो इस पुरुषनेभी मेरी प्रतिज्ञा नहीं पूर्णकरी तो अधन्या अकृत पुण्या मैंने करी प्रतिज्ञा वाही मेरी वैरिणी भई अर्थात् मैंही मेरी वैरिणी भई हूं ॥ ७८७ ॥
उवझायाएसेणं, तेहिं कुमारेहिं दंसियं जाव । वीणाए कुसलत्तं, ताव कुमारीवि दंसेइ ॥ ७८८ ॥ NI अर्थ-तदनंतर उपाध्यायकी आज्ञासे राजकुमरोंने वीणा बजानेकी कला दिखाई अर्थात् वीणा बजाई उतने कुमरी|
ने भी अपनी वीणा बजानेका कुशलपना बताया ॥ ७८८ ॥ तीए कुमरिकलाए, संकुडियं सयलरायकुमराणं । वीणाए कुसलत्तं, चंदकलाइव कमलवणं ॥७८९॥ ] अर्थ-उस कुमरीकी कलासे सब राजकुमरोंकी वीणा बजानेकी कला मुद्रित होगई जैसे चन्द्रमाकी कलासे कमलका |
॥९९॥ वन मुद्रित होवे है वैसा ॥ ७८९॥
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