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श्रीपाल - चरितम्
॥ ४४ ॥
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अर्थ - तदनंतर राजा जमाई श्रीपाल और पुत्री मदन - सुंदरी इन दोनोंको प्रधान हाथीपर बैठाके बड़े उत्सवके साथ अपने घर लाकरके वहुत प्रकारका द्रव्योंकरके सत्कार करे ॥ ३३३ ॥
जायं च साहु वार्य, मयणाए सत्तसीलकलियाए । जिणसासणप्पभावो, सयले नय रम्मि वित्थरिओ ३४
अर्थ - तव सत्वसील धैर्य ब्रह्मचर्य करके युक्त मदनसुंदरीका साधुवाद भया यह महासती है ऐसी प्रसिद्धि भई तथा जिनशासनका प्रभाव सर्व नगरसें विस्तार पाया ॥ ३३४ ॥
अन्नदिणे सिरिपालो, हयगयरह सुहडपरियरसमेओ । चडिओ रयवाडीए, पञ्चक्खो सुरकुमारुव ॥ ३५ ॥
अर्थ - अन्यदिनमें श्रीपालकुमर घोड़ा हाथी रथ सुभटोंका परिवार सहित प्रत्यक्ष देवकुमारके जैसा राजवाड़ी चला अर्थात् बगीचे क्रीड़ा करनेको जाता है ॥ ३३५ ॥
लोएय सप्पमोए, पिक्खंते चडवि चंदसालासु । गामिलएण केणवि, नागरिओ पुच्छिओ कोवि ॥ ३३६॥
अर्थ-तब हर्ष सहित लोग चन्द्रशाला घरके ऊपरकी भूमिपर चढ़के कुमरको देखरहे हैं उतने किसी ग्रामीण मनुष्यने कोई नगरवासी पुरुषसे पूछा ॥ ३३६ ॥ भो भो कहेसु को एस, जाइ लीलाइ रायतणउब ! । नागरिओ भणइ अहो, नरवरजामाउओ एसो ॥३७॥
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भाषाटीकासहितम्.
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