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अर्थ — वह जिनमंदिरका दरवज्जा कोई उघाड़नेको समर्थ नहीं हुआ किंतु बहुतलोकोंने अपना भाग्य उघाड़नेका उपाय किया परन्तु किसीका भाग्य उघड़ा नहीं ॥ ५२८ ॥
एवं च तस्स चेईहरस्स, ढंकियदुवारदेसस्स । संजाओ किंचूणो मासो, एयं तमच्छरियं ॥ २९ ॥
अर्थ — इस प्रकारसे जिनमंदिरका दरवज्जा बन्धहोनेको आज कुछ कम एक महीना हुआ है यह आश्चर्य है ॥५२९ ॥ जइ पुण पुरिसुत्तम, ? तंसि चेव तं जिणहरस्स वरदारं । उग्धाडेसि धुवं तो, मिलिया चक्केसरीवाणी ॥३०॥
अर्थ- हे पुरुषोत्तम जो फेर तुमही उस जिनमंदिरका दरवज्जा उघाडो तो निश्चय चक्रेश्वरीकी वाणी मिले ॥ ५३०॥ तो तं कुणसु महायस, जिणभवणुग्घाडणं तुरियमेव । उग्घडिए तंमिजओ, अम्हाणवि उग्धडइ पुन्नं ३१
अर्थ-तिसकारणसे हे महायशस्विन् आप जिनमंदिरका दरवज्जा जल्दी उघाड़ो इसमें यत्नकरो जिसकारणसे जिन मंदिर के उघड़ने से हमारा पुन्य उघड़े है ॥ ५३१ ॥
तत्तो कुमरो तुरियं, तुरयारूढो पयंपए सिट्ठि । आगच्छसु ताय ? तुमंपि, जिणहरं जेण गच्छामो ५३२ अर्थ - उसके अनन्तर कुमर घोडेपर सवार होकर शीघ्र धवल सेठसेकहे हे पितासदृश हेसेठ तुमभी आओ जिससे जिनमंदिर जावें ॥ ५३२ ॥
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