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श्रीपालचरितम्
॥४७॥
अर्थ-अथ माताभी श्रीपालकुमरका विदेश जानेमें निश्चय जानके तिलक मंगल करके कहती भई हेपुत्र तुम्हारे कल्याणके वास्ते मैं नवपदोंका ध्यान करूंगी ॥ ३५८ ॥
दसहितम्. मयणा भणेइ अहयंपि, नाह! निच्चंपि निच्चलमणेणं । कल्लाणकारणाइं, झाइस्सं ते नवपयाइं ॥३५९॥ ___ अर्थ-मदनसुंदरी बोली हे नाथ मैंभी निरंतर निश्चलमन करके एकाग्रचित्त करके आपके कल्याणका कारण
नवपदोंका स्मरण ध्यान करूंगी ॥ ३५९ ॥ | तेणं मयणावयणा,-मरण सित्तो नमित्तु माइपए। संभासिऊण दइयं, सिरिपालो गहियकरवालो॥३६०॥
अर्थ-मदनसुंदरीके वचनामृतसे सींचा हुआ श्रीपालकुमर माताके चरणकमलोमें नमस्कार करके मदनसुंदरीके |साथ भाषण करके तलवारलेके ॥ ३६०॥ निम्मलवारुणमंडल-मंडियससिचारपाणसुपवेसे। तच्चरणपढमकमणं,-कमेण चल्लेइ गेहाओजुम्मं ॥३६१॥2 ___ अर्थ-निर्मल जो वारुणमंडल जलमंडल उसकरके मंडित जो शशिचारपाण चंद्रनाड़ि संचारि वायु उसका शोभन | प्रवेश होनेसे अर्थात् वामस्वररूप चंद्रनाड़ि वहतांथका उसी पगको प्रथम रखने करके ऐसे क्रमसे घरसे चले युग्म है ॥३६१॥18॥४७॥ सोगामागरपुरपट्टणेसु कोऊहलाई पिक्खंतो। निब्भयचित्तो पंचाणणुव, गिरिपरिसरं पत्तो ॥ ३६२ ॥
ACARA
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