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श्रीपालचरितम् ॥४॥
वारणा २ चोयणा ३ पडिचोयनामें अधिकारी और सूत्रार्थका अध्ययन करानेमें उद्यमवंत स्वाध्यायमें लगा है मनभाषाटीकाजिन्होंका ऐसे ॥२७॥
| सहितम्. सवासु कम्मभूमिसु, विहरते गुणगणे हि संजुत्ते । गुत्ते मुत्ते झायह, मुणिराए निट्ठिय कसाए ॥२८॥ ___ अर्थ-अहो भव्यो तुम सर्व कर्मभूमिमें पांच ५ भरत ५ ऐरवत पांच महाविदेह इन १५ क्षेत्रोंमें विचरते मुनि राजोंको ध्यावो कैसे मुनिराज गुणोंके समूहोंसे युक्त ३ गुप्तिसहित सर्वसंगरहित दूर किया है कषाय जिन्होंने 3 ऐसे ॥२८॥ सबन्नु पणीयागम, पयडिय तत्तत्थ सदहण रूवं । दंसण रयण पईवं, निच्चं धारेह मणभवणे ॥ २९॥1* | अर्थ-अहो भव्यो सर्वज्ञोंने कहे सिद्धान्तोंमें प्रगट किया तत्वरूप अर्थ उन्होंका जो श्रद्धान वह है स्वरूप जिसका ऐसा सम्यक्त्वरूप रत्नदीपक निरंतर मनमंदिरमें धारो ॥२९॥ जीवाजीवाइ पयस्थ, सत्थ तत्ताववोह रूवं च । नाणं सवगुणाणं, मूलं सिक्खेह विणएण ॥ ३०॥ । अर्थ-अहो भब्यो जीवाजीवादिक पदार्थोंका समूह उन्होंका जो तत्वावबोध तत्वज्ञान स्वरूप जिसका ऐसा ज्ञान | | विनय करके तुम सीखो कैसा है ज्ञान सर्व गुणोंका मूल कारण है ॥ ३०॥
॥४ ॥ असुह किरियाण चाओ, सुहासु किरियासुजोय अप्पमाओ।तं चारित्तं उत्तम, गुणजुतं पालह निरुत्तं ३१
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