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श्रीपालचरितम् ॥४८॥
अर्थ-उस पुरुषने कहा मेरेपास गुरूकी दीभई विद्या हैं वह विद्या मैंने जपी परंतु उत्तर साधक याने सहायकारी भाषाटीकापुरुष विना सिद्ध होवे नहीं ॥ ३६६ ॥
सहितम्. जइतं होसि महायस! मह उत्तरसाहगो कहवि अज्ज । ताहं होमि कयत्थो, विजा सिद्धीड निब्भंतं ॥३६७॥ 31 अर्थ हे महायशस्विन् जो तै कोई प्रकारसे मेरा उत्तर साधक होवे तो मैं निसंदेह सिद्धभई है विद्या जिसकी ऐसा होजाऊं ॥ ३६७ ॥ तत्तो कुमरकरणं, साहज्जेणं स साहगो पुरिसो। लीलाइ सिद्धविज्जो, जाओ एगाइ रयणीए ॥३६८॥ ___ अर्थ-तदनंतर कुमरने किया सहाय करके वह साधकपुरुष लीलाकरके एकरात्रिमें सिद्ध होगई है विद्याजिसकी ऐसा भया ॥ ३६८॥ तत्तो साहगपुरिसेण, तेण कुमरस्स ओसहीजुअलं । पडिउवयारस्स कए, दाऊणं भणियमेयं च ॥३६९॥
अर्थ-विद्यासिद्धभयोंके वाद उस साधक पुरुषने पीछा उपकार करनेके लिए कुमरको २ (दो) औषधिः देके यह कहा ॥ ३६९॥
॥४८॥ जल तारिणीअएगा, परसत्थनिवारिणी तहा बीया । एयाउओसहीओ, तिधाउमठियाउ धारिजा ३७०/5
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