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श्रीपाल - चरितम्
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अघटतोवि हु जइ कहवि, होइ दुन्हंपि तुम्ह संजोगो । ता देव पयावइणो, एस पयासो हवइ सहलो ७६ अर्थ — यद्यपि नहीं संभवे है तुम्हारे दोनोंका सम्बन्ध तथापि कोई प्रकारसे सम्बन्ध होवे तव हे महाराज प्रजापति विधाताका तुम दोनोंके रूप रचनेका प्रयास सफल होवे ॥ ७६९ ॥
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तं सोऊणं कुमरो, सत्थाहिवई पसत्थवत्थेहिं । पहिराविऊण संझा, - समए पत्तो नियावासं ॥ ७७० ॥ अर्थ- वह पूर्वोक्त सुनके कुमर सार्थ पतिको प्रशस्त वस्त्र पहराके संध्या समय अपने आवास आए ॥ ७७० ॥ चिंतेइ तओ कुमरो, कह पिक्खिस्सं कुऊहलं एयं । अहवा नवपयझाणं, इत्थ पमाणं किमन्नेणं ॥ ७७१॥
अर्थ - तदनंतर कुमर विचारे यह कौतुक कैसे देखूंगा अथवा इस कार्यमें अर्हदादि नवपदोंका ध्यानही प्रधान है। और विचारसे क्या प्रयोजन है ।। ७७१ ॥
| इय चिंतिऊण सम्मं, नवपयझाणं मणंमि ठावित्ता । तह झाइउं पवत्तो, कुमरो जह तक्खणा चेव ७७२ अर्थ- ऐसा विचारके सम्यक् नवपदका ध्यान मनमें स्थापके कुमर श्रीपाल उस प्रकारसे ध्यान करना सुरू किया जिससे तत्कालही ॥ ७७२ ॥ सोहम्मकप्पवासी, देवो विमलेसरो समणुपत्तो । करकलिउत्तमहारो, कुमरं पइ जंपइ एवं ॥ ७७३ ॥
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• भाषाटीकासहितम्
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