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श्रीपाल- अर्थ-धंभेमें रहे हुए आठचक्र रचे जावें यन्त्रके जोगसे सृष्टि विसृष्टि क्रमसे एकके अंतरसे भ्रमणकरे एकसीधा फिरे भाषाटीका. चरितम् ||दूसरा उलटा फिरे ।। ८७८ ॥
| सहितम्चिक्कारयविवरोवरि, राहानामेण कट्रपुत्तलिया। ठविया हवेइ तीए, वामच्छी किजए लक्खं ॥ ८७९॥ ॥११॥3
। अर्थ-चक्रोंका अरोंमें जो छिद्र है उन्होंके ऊपर राधानामकी एक पूतली थापी होवे है उसका डावा नेत्रका लक्ष लेके वेध किया जावे ॥ ८७९॥ हिट्टियतिल्लकडाहयंमि, पडिबिंबलद्धलक्खेणं, उड्डसरेण नरेणं, तीए वेहो विहेयवो॥८८०॥ ___ अर्थ-नीचे रक्खा हुआ जो तेलका कडाव उसमें पड़ा हुआ जो राधाका प्रतिबिंब उससे पाया लक्षका वेध जो मनुष्य बाणको ऊंचा खांचके राधाके डावे नेत्रका वेध करे वह राधावेध कहा जावे ॥ ८८०॥ सो पुण केणवि विरलेण, चेव विन्नाय धणुहवेएण। उत्तमनरेण किजई, जंगिजइ एरिसं लोए ॥८८१॥ । अर्थ-और वह राधावेध कोई विरला उत्तम पुरुष करे है जिसने धनुर्वेद अच्छी तरहसे जाना होवे वही राधावेध साध सके है । जिस कारणसे लोकमें ऐसा कहा जावे है ॥ ८८१॥ विणयंता चेव गुणा, संतंतरसा किया उ भावंता। कवं च नाडयंतं, राहावेहंतमीसत्थं ॥८८२॥ ॥११॥ | अर्थ-विनय अंतमें जिन्होंके ऐसे गुण हैं सर्व गुणोंमें विनयहीका प्राधान्य है तथा रसोंमें शान्तरस प्राधान्य है|8|
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