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श्रीपाल - चरितम्
॥ ५१ ॥
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सा कहइ देवयार्थभियाई, एयाई जाणवत्ताइं । वत्तीससुलक्खणनर, वलीइ दिन्नाइ चति ॥ ३९९ ॥ अर्थ- वह सिकोत्तरी स्त्री बोली यह तेरे जहाज देवताने स्तंभित किए हैं ३२ लक्षणा पुरुषको देवताको बलिदान देनेसे जहाज चलेंगे और उपाय करनेसे नहीं चलेंगे ॥ ३९१ ॥
तत्तो धवलो सुमहग्ध, वत्थु भिट्टाइ तोसिऊण निवं । विन्नवइ देवओग, वलिकज्जे दिज्जउ नरं मे ॥३९२॥
अर्थ - तदनंतर धवल सार्थपति बहुत कीमतका भेटनालेके राजाके पासमें गया भेटनादेके राजाको संतोष उत्पन्न करके वीनतीकरे हेदेव एकमनुष्य देवताको बलिदानके वास्ते देओ ॥ ३९२ ॥
रन्ना भणियं जो होइ कोवि, विदेसिऊ अणाहो य । तं गिन्ह जहिच्छाए, अन्नो पुण नो गहेयवो ॥ ३९३ ॥
अर्थ-तब राजा बोले जो कोई परदेशमें रहनेवाला अनाथ स्वामीरहित जिसके पीछे पुकार करनेवाला कोई नहीं आवे ऐसा मनुष्य होवे उसको तुम अपनी इच्छासे लेलेओ और कोई नहीं लेना ॥ ३९३ ॥ तत्तो धवलस्स भडा, जाव गवेसंति तारिसं पुरिसं । ता सिरिपालो कुमरो, विदेसिओ जाणिओ तेहिं ३९४
अर्थ - तदनंतर धवलसेठका सुभट जितने वैसे पुरुषकी गवेषणाकरे उतने उन्होंने श्रीपालकुमरको परदेशी
जाना ॥ ३९४ ॥
| वत्ती लक्खणधरो, कहिओ धवलस्स तेहिं पुरिसेहिं । धवलेण पुणो राया, एसो गहिओ य तग्गहणे ३९५
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भाषाटीकासहितम्.
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