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श्रीपाल- 181 अर्थ-श्रीपालराजा वह मुनिका बचन सुनके अपने मनमें विचारे अहह इति खेदे अहो इति आश्चर्ये यह भवनाट- भाषाटीकाचरितम् कका स्वरूप कैसा अति विषम वर्ते है ॥ ११६०॥
टू सहितम्. पभणेइ य मे भवयं, संपइ चरणस्स नत्थि सामत्थं । तो काऊण पसायं, मह उचियं दिसह करणिजं ११६१] ॥१४३॥
___ अर्थ-और राजा श्रीपाल कहे हे भगवन् इस वक्तमें मेरा चारित्र ग्रहण करनेका सामर्थ्य नहीं है इसलिए प्रसन्न
होके मेरेयोग्य धर्मकर्तव्य आज्ञा करो ॥ ११६१ ॥ दूतोभणइ मुणिवरिं-दो, नरवर जाणेसुनिच्छयं एयं।भोगफलकम्मवसओ, इत्थभवे नत्थि तुह चरणं ६२ | अर्थ-तदनंतर मुनिवरीन्द्र कहे हे नरवर यह निश्चय जानो भोगफलकर्मके वशसे इस भवमें तेरे चारित्र नहीं
है ॥ ११६२॥ |किं तु तुमं एयाइं, अरिहंताई नवावि सुपयाई । आराहतो सम्म, नवमं सग्गंपि पाविहिसि ॥११६३॥
| अर्थ-किंतु तैं यह अहंदादि नव शोभन पदोंको अच्छीतरहसे आराधन कर्ता हुआ नवमा आनतनामका देवलोक दिपावेगा ॥११६३ ॥
॥१४३॥ तत्तोवि उत्तरुत्तर, नरसुरसुक्खाइं अणुहवंतो य । नवमे भवंमि मुक्खं, सासयसुखं धुवं लहसि ॥११६४॥ है।
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