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श्रीपाल - चरितम्
॥ १३७ ॥
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अर्थ — उस राजाके शरीरकी शोभा करके लक्ष्मीसमान श्रीमती नामकी पटरानी है कैसी है श्रीमती देवी जिनधर्म में निपुण बुद्धि जिसकी और निर्मल सम्यक्त्व और ब्रह्मचर्य करके सहित ऐसी ॥ ११०९ ॥
तीए य नरवरिंदो, भणिओ, तुहनाह जुज्जइ न एवं । पावड्डिमहावसणं, निबंधणं नरयदुक्खाणं ॥ १११०॥
अर्थ - उस श्रीमतीने राजासे कहा हे स्वामिन् यह पापर्द्धि महाव्यसन तुमको युक्त नहीं है यह व्यसन नरकके दुःखका कारण है ॥ १११० ॥
भीसणसत्थकरेहिं, तुरयारूढेहिं जं हणिज्जंति । नासंतावि हु ससया, सो किर को खत्तियायारो ॥११११ ॥
अर्थ - भयंकर शस्त्र है हाथोंमें जिन्होंके ऐसे घोड़ोंपर सवार भए मनुष्य जो भागते हुए मृगादि जीवोंको मारे वह क्या क्षत्रियोंका आचार है अपितु नहीं है ॥ ११११ ॥
जत्थ अकयावराहा, मया वराहाइणोवि निन्नाहा । मारिज्जंति बराया, सा सामिय केरिसी नीई ॥१११२॥
अर्थ – जहां नीतिमार्गमें अपराधीको शिक्षा देनी ऐसा कहा है परन्तु जिन्होंने अपराध नहीं किया ऐसे मृग वराहादिक दुर्बल जीव मारे जावे हे स्वामिन् यह कैसी नीति है ॥ १११२ ॥ हंतूण परप्पाणं, अप्पाणं जे कुणंति सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, कए य नासंति अप्पाणं ॥ १११३ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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