Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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श्रीपाल - चरितम्
॥ १६२ ॥
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अर्थ – ज्ञानपदकी विराधना के फलमें माषंतुष साधुका दृष्टांत है आराधनाके फलमें शीलवती सतीका उदाहरण है ॥ १३११ ॥
चारित्तपयं तह भावओवि, आराहियं सिवभवंमि । जे णं जंबुकुमारो, जाओ कयजणचमुक्कारो ॥१३१२ ॥ अर्थ — शिवकुमारके भवमें भावसे चारित्र पाला था उस आराधनसे जम्बूकुमर भया कैसा जम्बूकुमर लोकोंको किया है आश्चर्य जिसने ऐसा ॥ १३१२ ॥
वीरमइए तह कहवि, तवपयमाराहियं सुरतरूव । जह दमयंतीइ भवे फलियं तं तारिसफलेहिं ॥ १३१३ ॥ अर्थ - वीरमती नामकी राजाकी रानीने कोई प्रकारसे तपपदका आराधन किया तिलक तपस्या करके अष्टापद तीर्थपर चौबीस तीर्थकरोंको तिलक चढ़ाया इसके प्रभावसे दमयंती नलराजाकी पटरानीके भवमें वह तप कल्पवृक्षके सदृश फलोंसे फला ॥ १३१३ ॥
किं बहुणा मगहेसर, एयाणपयाणभत्तिभावेणं । तं आगमेसि होहिसि, तित्थयरो नत्थि संदेहो ॥ १३१४ ॥ अर्थ- हे मगधेश्वर जादा कहने करके क्या इन नवपदोंका भक्तिभाव करके तैं आगामि भवमें तीर्थंकर होगा इसमें संदेह नहीं है ॥ १३१४ ॥
तम्हा एयाई पयाई, चेव जिणसासणस्स सव्वस्सं । नाऊणं भो भविया, आरहह सुद्धभावेण ॥ १३१५ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
॥ १६२ ॥

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