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अहह अहो जणमित्तो, संपत्तो केरिसं सिरिं एसो । अन्नं च रमणिजुयलं, एरिसयं जस्स सो धन्नो ॥ ६०४ ॥ अर्थ - अहह इति खेदे अहो इति आश्चर्ये यह श्रीपाल एकाकी मनुष्यमात्र था थोडे दिनोंमें कैसी लक्ष्मी पाई और इसके अति अद्भुत रूप सौंदर्य वाली दो स्त्रियों हैं इसलिए यह धन्य है ॥ ६०४ ॥ ता जइ एयस्स सिरी, रमणिजुयलं च होइ मह कहवि । ताऽहं होमि कयत्थो, अकयत्थो अन्नहा जम्मो ॥
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अर्थ - इस कारण से जो यह श्रीपालकी लक्ष्मी और दो स्त्रियों कोई प्रकारसे मेरे होवे तो मैं कृतार्थ होऊं अन्यथा इन्होंकी प्राप्तिविना मेरा जन्म अकृतार्थ याने निष्फल है । ६०५ ॥
एवं सो धणलुडो, रमणीझाणेण मयणसरविद्धो । दुज्झवसायाणुगओ, न लहेइ रई ससव ॥ ६०६ ॥
अर्थ - इस प्रकार से परद्रव्यका लोभयुक्त तथा कामके बाणोंसे ताडित इसी कारणसे दुष्ट परिणामयुक्त यह धवल सेठ शल्य सहितके जैसा रति शाता नहीं पावे ॥ ६०६ ॥
इक्किक्कओवि लोहो, बलिओ सो पुण सदप्यकंदप्पो । जलणुव पवणसहिओ, संतावइ कस्स नो हिययं ६०७
अर्थ – एकाकी भी लोभ बलवान है और दर्प, कंदर्प याने अभिमान काम सहित किस पुरुषके हृदयको नहीं संताप करे किंतु सबके हृदयको संताप करे किसके जैसा वायुसहित अग्निके जैसा जैसे वायु प्रेरित अग्नि सबकों संताप करे है ।। ६०७ ॥
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