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श्रीपाल-18] अर्थ-कुमरी उन सखियोंके आगे कहे जिनशासनमें रक्त अपने जो कोई जैनधर्मका जाननेवाला वर होवे तो| भाषाटीकाचरितम् तो अच्छा होवे ॥ ८४६ ॥
सहितम्. ॥१०६॥ जेणं वरो वरिजइ, मणनिबुइ कारणेण कन्नाहि, । सा पुण धम्मविरोहे, पइपत्तीणं कओ होई ॥८४७॥
PI अर्थ-जिस कारणसे कन्या मनमें सुखके वास्ते भार वरे है वह मानसिक सुख भर्तार और स्त्रीके धर्ममें विरोध
होनेसे कहांसे होवे प्रायः नहीं होवै हैं ॥ ८४७॥ तमा अमेहि परिक्खिऊण, सम्म जिणिंदधम्ममि, जो होइ निच्चलमणो, सो चेव वरो वरेयवो ८४८ | अर्थ-इस कारणसे अपने अच्छी तरहसे परीक्षा करके जो पुरुष जिनधर्ममें निश्चल मनवालाहोबे वहही भार्तार |अंगीकार करना ॥ ८४८॥
भणियं च पंडियाए, सामिणि जुत्तं तए इमं वुत्तं। किंतु निरुत्तो भावो, परस्स नजइ कवित्तेण ॥८४९॥ 8 | अर्थ-तब पंडिता नामकी सखीबोली हे स्वामिनी आपने यह ठीक कहा परंतु और पुरषका निरुक्त अप्रकाशितभाव है अभिप्राय कवित्वसे जाना जाय है जैसा मनमें होवे वैसा कवित्वसे प्रगट होवे ॥ ८४९॥
॥१०६॥ Iता काऊण समस्सा,-पयाइं सदिद्विपरिणिजाई । अप्पेह जेहिं नजइ, सुहासुहो धम्मपरिणामो ॥ ८५० ॥1
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