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अर्थ- गया है उत्साह जिसका ऐसी निरुत्साह मूल नटवीको कोई प्रकारसे प्रेरणा करके जितने उठाई उतने उस मूल नटवीने दुःखसहित यह एक दोहा नामका छंद कहा ॥ ९६९ ॥
कहिं मालव कहिं संखउरि, कहिं बबरु कहिं नहु । सुरसुंदरि नच्चावियइ दइविहिं दलवि मरहु ॥ ९६२ ॥
अर्थ - कहां मालव नामका देश जहां जन्म भया कहां शंखपुरी नगरी जहां परणाई कहां वबर देश जहां विक्रीतानाम वेची कहां लोकोंके सामने नाटक करना देवने गर्भको चूर्ण करके सुरसुंदरी के पास नाटक करावे है ।। ९६२ ॥ तं वयणं सोऊण, जणणीजणयाइसयलपरिवारो । चिंतेइ विह्नियमणो, एसा सुरसुंदरी कत्तो ॥ ९६३ ॥
अर्थ- वह वचन सुनके माता पिता वगैरहः सर्व परिवार आश्चर्य पाया विचारे यहां सुरसुंदरी कहांसे आई ॥ ९६३ ॥ उवलक्खियाय जणणी, कंठंमि बिलग्गिऊण रोयंती, जणएणं सा भणिया, को वृत्तंतो इमो वच्छे ॥ ९६४ ॥
अर्थ - वाद पहिचानी सबोंने जानी तब माता के कंठमें लगके रोती भई सुरसुंदरीको पिताने पूछा हे वत्से यह क्या वृतान्त है ॥ ९६४ ॥
भणियं च तओ तीए, ताय तया तारिसीइ रिद्धीए । सहिया निएण पइणा, संखपुरिपरिसरं पत्ता ॥९६५॥ अर्थ - तदनंतर सुरसुंदरीने कहा हे पिताजी उस अवसर में मैं अपने पतिसहित आपकी दी हुई ऋद्धियुक्त शंखपुरी नगरीके पास पहुंची ॥ ९६५ ॥
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