________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीपाल - चरितम्
॥ १५७ ॥
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जं धम्मजयाहारं, उवसमरसभायणं व जं बितिं । मुणिणो गुणरयणनिहिं तं सम्मदंसणं नमिमो १२६९ अर्थ - तथा जो सम्यक्त्व धर्मरूपजगत् के आधार के जैसा आधार है और सम्यक्त्व उपशमरूपरसका भाजन सदृश है तथा जिस सम्यक्त्वको गुणरूपरलोंका निधान मुनि कहते हैं उस सम्यक्दर्शनको हम नमस्कार करें १२६९ जेण विणा नाणंवि हु, अपमाणं निष्फलंच चारितं । मुक्खोव नेव लब्भइ, तं सम्मदंसणं नमिमो ॥१२७०॥ अर्थ - जिस सम्यक्त्व विना ज्ञानभी अप्रमाण होवे है और चारित्रभी निष्फल कहा जावे है और मोक्षभी नही ही | पावे उस सम्यक दर्शनको हम नमस्कार करें ॥ १२७० ॥
जं सद्दहणलक्खण, भूसणपमुहेहिं बहुयभेएहिं । वन्निज्जइ समयंमी, तं सम्मदंसणं नमिमो ॥ १२७१ ॥ अर्थ - जिस सम्यक्त्वका परमार्थ संस्तवादि चारश्रद्धान समसमवेगादिक लक्षणपांच जिनशासनमें कौशल्यादि भूषणपांच इत्यादि बहुतभेद सिद्धांतमें वर्णन किया जावे उस सम्यक्त्वको मैं नमस्कार करूं ॥ १२७१ ॥ सवन्नु-पणीयागम, भणियाण जहट्ठियाण तत्ताणं । जो सुद्धो अवबोहो, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥ १२७२ ॥
अर्थ - सर्वज्ञोंने कहा सिद्धांत उन्होंमें कहा जो सद्भूततत्त्व जीवादिपदार्थ उन्होंका जो ज्ञान वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है || १२७२ ॥
जेणं भक्खाभक्खं, पिज्जापिज्जं अगम्ममवि गम्मं, किञ्चाकिच्चं नज्जइ, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥ १२७३॥
For Private and Personal Use Only
भाषाटीकासहितम्.
॥ १५७ ॥