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श्रीपालचरितम्
॥१५८॥
अर्थ-लोकोंके ऊपकार करनेवाला आचारादि द्वादशाङ्गी रूप श्रुतज्ञान ही जो कहा वह मेरे प्रमाण है॥ १२७७॥ भाषाटीकातत्तुच्चिय जं भवा, पढंति पाढंति दिति निसुणंति।पूयंति लिहावंति य, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥१२७८॥ | सहितम्.
अर्थ-इस कारणसे भव्य जिस श्रुतज्ञान को पढ़े है पढ़ावे है सुने है सुनावे है देवे है और पूजते है और लिखाते है वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७८ ॥ तस्स बलेणं अजवि, नजइ तियलोयगोयरवियारो। करगहियामलयंपि व, तं सन्नाणं मह पमाणं १२७९/3 । अर्थ-जिस श्रुतज्ञान केवलसे आजभी तीनलोकके पदार्थ हाथमें आमले के जैसा जानते हैं वह सद्ज्ञान मेरे प्रमाण है ॥ १२७९ ॥
जस्स पसाएण जणा, हवंति लोयंमि पुच्छणिज्जा य।पूजा य वन्नणिज्जा, तंसन्नाणं मह पमाणं ॥१२८०॥ SI अर्थ-जिस श्रुतज्ञान के प्रसादसे लोकोंमें पूछने योग्य और पूजने योग्य वर्णन करने योग्य होते हैं वह सद्ज्ञान
मेरे प्रमाण है ॥ १२८०॥
जं देसविरइरूवं, सबविरइरूवयं च अणुकमसो। होइ गिहीण जईणं, तं चारितं जए जयइ ॥१२८१॥ का अर्थ-जो देशविरती रूप गृहस्थों के होवे है और सर्वविरतीरूप चारित्र साधुओं के होवे है वह चारित्र जगत् | ॥१५८ ॥ ६ में जैवन्ता होवो ॥ १२८१॥
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