Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 314
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbalirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir *SURABAIGOSLARARASHIGA वाणमद्धपुग्गल,-परियहवसेसभवनिवासाणं । जे होइ गंठिभेए, तं सम्मदंसणं नमिमो ॥ १२६५॥ ___ अर्थ-भव्यों के आधापुद्गलपरावर्तप्रमाणे संसारमें रहना जब होवे तब यह सम्यक्त्व घनरागद्वेषका परिणाम रूप ग्रंथिके भेद होनेसे होवे है उन सम्यक्दर्शनको मैं नमस्कार करूं ॥ १२६५॥ जं च तिहा उवसमियं, खउवसमियं च खाइयं चेव।भणियं जिणिंदसमए, तंसम्मदंसणं नमिमो १२६६ | अर्थ-जो सम्यक्दर्शन तीर्थकरों के सिद्धांतमें तीनप्रकारका कहा है औपशमिक अंतरमुहूर्तकी स्थितिवाला १ ख्यायोपशमिक कुछअधिक ६६ सागरकी स्थितिवाला २ और क्षायिक ३३ सागरकी स्थितिवाला ३ इन्होंमें क्षायोपश|मिक पौद्गलिक है और २ अपौद्गलिक है उस सम्यक्दर्शनको मैं नमस्कार करूं ॥१२६६ ॥ पण वारा उवसमियं, खओवसमियं असंखसो होइ।जं खाइयं च इकसि, तंसम्मदंसणं नमिमो॥१२६७॥ | अर्थ-औपशमिकसम्यक्त्व एक जीवके संसारमें पांचवेर होवे है और ख्यायोपसमिकसम्यक्त्व असंख्यातिबेर होवे है और ख्यायिकसम्यक्त्व एकबार होवे है उस सम्यक्दर्शनको हम नमस्कार करें॥ १२६७ ॥ जं धम्मदुममूलं, भाविज्जइ धम्मपुरपवेसं च । धम्मभवणपीढं वा तं सम्मइंसणं नमिमो ॥१२६८॥ अर्थ-जो सम्यक् दर्शन धर्मरूपवृक्षका मूलके जैसा मूल सदृश बिचारा जावे और धर्मरूपनगरमें प्रवेशकरनेका द्वार जैसा और धर्मरूपप्रासादका पीठ जैसा है उस सम्यक्दर्शनको में नमस्कार करें ॥ १२६८ ॥ PASARANSAXSHASANA श्रीपा.च.२७ For Private and Personal Use Only

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