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चरितम्
॥१४५॥
___ अर्थ-व्रत अणुव्रत और नियम अभिग्रहादिक पालने करके तथा विरति सावद्यव्यापारनिवृत्तिही एक उत्कृष्ट भाषाटीका जिन्होंके ऐसे साध्वादिकोंकी भक्ति करनेकर दशप्रकारका यतिधर्मपर प्रीति रखनेकर चारित्रपदका आराधन करे॥७७॥ सहितम्.
आसंसाइविरहियं, बाहिरमभितरं तवोकम्मं । जहसत्तीइ कुणंतो, सुद्धतवाराहणं कुणइ ॥११७८॥ | अर्थ-आसंसा इसभव परभवके सुखकी वांछाकरके रहित ६ बाह्य उपवासादि ६ अभ्यंतर प्रायश्चित्तादि यह बारह प्रकारका तप यथाशक्ति अपनी शक्तिके अनुसार करता हुआ निर्मल तपकरने करके तपपदका आराधन करे ॥११७८॥ एवमेयाई उत्तमपयाइं, सो दवभावभत्तीए । आराहतो सिरिसिद्ध,-चकमच्चेइ निचंपि ॥ ११७९ ॥ । अर्थ-इस प्रकारसे राजा श्रीपाल यह उत्तमपद द्रव्यभावभक्तिसे आराधता हुआ निरंतर श्रीसिद्धचक्रकी पूजा करे ७९
एवं सिरिपालनिवस्स, सिद्धचक्कच्चणं कुणंतस्म । अद्धपंचमवरिसेहिं, जा पुन्नं तं तवो कम्मं ॥ ११८०॥ | अर्थ-इस प्रकारसे श्रीसिद्धचक्रकी पूजा करते श्रीपालराजाको साढाचार वर्ष भए उतने वह तप सम्पूर्ण भया॥८॥3
तत्तो रन्ना नियरजलच्छि,-वित्थारगरुयसत्तीए । गुरुभत्तीए कारिउ,-मारद्धं तस्स उजमणं ॥११८१॥8 __ अर्थ-तदनंतर राजाश्रीपालने अपनी राज्यलक्ष्मीका जो विस्तार उस करके और बड़ी शक्ति और भक्ति सहित उस तपका उज्जवना करना प्रारंभ किया ॥ ११८१॥
ACESCARSA
॥१४५॥
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