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श्रीपाल - चरितम्
॥ १५४ ॥
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अर्थ–जे द्वादशाङ्गी के स्वाध्याय का पारंगामी और द्वादशाङ्गीके अर्थको धारनेवाला और तदुभय नाम सूत्र और अर्थके विस्तार करनेमें रसिक ऐसे उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥। १२४५ ॥
पाहणसमावि हु, कुणंति जे सुत्तधारया सीसे । सयलजणपूयणिज्जे, ते ऽहं झाएमि उज्झाए १२४६
अर्थ - जे गुरु निश्चय पाषाण के समान शिष्योंको सूत्ररूप तीक्ष्ण शस्त्रधारासे देवकी मूर्तिके जैसा सब लोकोंके पूजने योग्य करते हैं उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४६ ॥
| मोहाहिदट्टनट्टप्पनाण, जीवाण चेयणं दिति । जे केवि नरिंदाइव, ते ऽहं झाएमि उझाए ॥ १२४७ ॥
अर्थ - मोहरूप सर्पसे इसे हुए इसीसे नष्ट होगया है आत्मज्ञान जिन्होंका ऐसे जीवोंको जे गुरू विषवैद्यके जैसे चैतन्य देवे है उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४७ ॥ अन्नाणबाहिबिहुराण, पाणिणं सुयरसायणं सारं । जे दिंति महाविज्जा, ते ऽहं झामि उझाए ॥१२४८॥
अर्थ - अज्ञानरूप रोगसे पीड़ित प्राणियोंको प्रधान शास्त्ररूप रसायन महारोग मिटानेवाला औषध महा वैद्यके जैसा जे गुरु देवे है उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४८ ॥ गुणवणभंजणमय, - गयद्मणंकुससरिसनाणदाणं जे । दिंति सया भवियाणं, ते ऽहं झाएमि उझाए १२४९
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भाषाटीकासहितम्.
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