Book Title: Shripal Charitram
Author(s): Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 309
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीपाल - चरितम् ॥ १५४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ–जे द्वादशाङ्गी के स्वाध्याय का पारंगामी और द्वादशाङ्गीके अर्थको धारनेवाला और तदुभय नाम सूत्र और अर्थके विस्तार करनेमें रसिक ऐसे उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥। १२४५ ॥ पाहणसमावि हु, कुणंति जे सुत्तधारया सीसे । सयलजणपूयणिज्जे, ते ऽहं झाएमि उज्झाए १२४६ अर्थ - जे गुरु निश्चय पाषाण के समान शिष्योंको सूत्ररूप तीक्ष्ण शस्त्रधारासे देवकी मूर्तिके जैसा सब लोकोंके पूजने योग्य करते हैं उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४६ ॥ | मोहाहिदट्टनट्टप्पनाण, जीवाण चेयणं दिति । जे केवि नरिंदाइव, ते ऽहं झाएमि उझाए ॥ १२४७ ॥ अर्थ - मोहरूप सर्पसे इसे हुए इसीसे नष्ट होगया है आत्मज्ञान जिन्होंका ऐसे जीवोंको जे गुरू विषवैद्यके जैसे चैतन्य देवे है उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४७ ॥ अन्नाणबाहिबिहुराण, पाणिणं सुयरसायणं सारं । जे दिंति महाविज्जा, ते ऽहं झामि उझाए ॥१२४८॥ अर्थ - अज्ञानरूप रोगसे पीड़ित प्राणियोंको प्रधान शास्त्ररूप रसायन महारोग मिटानेवाला औषध महा वैद्यके जैसा जे गुरु देवे है उन उपाध्यायोंको मैं ध्याऊं ॥ १२४८ ॥ गुणवणभंजणमय, - गयद्मणंकुससरिसनाणदाणं जे । दिंति सया भवियाणं, ते ऽहं झाएमि उझाए १२४९ For Private and Personal Use Only भाषाटीकासहितम्. ॥ १५४ ॥

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