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कत्थवि विछिन्ने जिणहरंमि, काउंतिवेइयं पीढं। वित्थिपणं वरकुट्टिम,-धवलं नवरंगकयचित्तं ॥११८२॥ ___ अर्थ-कहांभी वीस्तीर्ण जिनमंदिरमें तीनवेदी विस्तीर्ण प्रधान भूमि करके उज्वल नवीन रंजक द्रव्योंसे किया है चित्र जिसमें ऐसा पीठ करवाके ॥ ११८२॥ सालिपमुहेहिं धन्नेहि, पंचवन्नेहिं मंतपूएहिं । रइऊण सिद्धचक्कं, संपुन्नं चित्तचुज्जकरं ॥ ११८३॥ | अर्थ-सालि प्रमुख पांचवों के धान्यों करके चित्तको आश्चर्य करनेवाली सिद्धचक्रकी रचना कराके ॥ ११८३॥ ६ तत्थय अरिहंताइसु, नवसु पएसु ससप्पिखंडाई । नालियरगोलयाई, सामन्नेणं ठविजंति ॥११८४॥ । अर्थ-वहां सिद्धचक्रके अहंदादि नवपदोंमें सामान्य प्रकारसे घी खांड़से भराहुआ नारियलका गोला स्थापे ११८४ तेण पुणो नरवडणा, मयणासहिएण वरविवएण । ताइंपि गोलयाई, विसेससहियाइं ठवियाइं ११८५ | अर्थ-और मदनसुंदरी सहित श्रीपालराजाने वह गोला विशेषवस्तुसहित चढ़ाया कैसा राजा विवेकसहित वर्ते ऐसा ! कैसे सो कहते हैं ॥ ११८५ ॥
जहा अरिहंतपए धवले, चंदणकप्पूरलेवसियवन्नं । अडकक्केयणचउतीस,-हीरयं गोलयं ठवियं ॥११८६॥ है। अर्थ-धवल वर्ण करके व्यवस्थापित अर्हतपदमें चंदन कपूरका विलेपन करनेसे श्वेतवर्ण जितका ऐसा और आठ टू
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