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श्रीपाल
चरितम् |
॥११९॥
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अर्थ-तब आश्चर्य पाया हुआ मालवराजा प्रजापाल जमाई श्रीपालको नमस्कार करे और कहे हे स्वामिन् महा|भाषाटीका६ प्रभाव जिसका ऐसा मैंने आपको नहीं जानाथा ॥ ९५६ ॥
सहितम्. सिरिपालोवि नरिंदो, पभणइ नहु एस मह प्पभावोत्ति। किंतु गुरुवइट्ठाणं, एस पसाओ नवपयाणं ९५७ | अर्थ-श्रीपालराजा कहे यह मेरा प्रभाव नहीं है किंतु गुरूके कहे हुए नवपदोंका यह प्रभाव है ॥ ९५७ ॥
सोऊण तमच्छरियं, तत्थेव समागओ समग्गोवि । सोहग्गसुंदरी-रुप्पसुंदरीपमुहपरिवारो ॥ ९५८ ॥ | अर्थ-वह आश्चर्य सुनके सौभाग्यसुंदरी रूपसुंदरी प्रमुख सर्व परिवार वहांही पर मंडपमें आया ॥ ९५८ ॥
मिलिए य सयणवग्गे आणंदभरेय वहमाणे य । सिरिपालेणं रन्ना, नाडयकरणं समाइह ॥ ९५९ ॥ &ा अर्थ-अथ स्वजन सम्बन्धियोंका समूह मिलनेसे अधिक आनंद होनेसे श्रीपाल राजाने नाटक करनेकी आज्ञादी॥९५९॥
तो झत्ति पढमनाडय, पेडयमाणंदियं समुढेइ । परमिक्का मूलनडी, बहुंपि भणिया न उठेइ ॥९६०॥ PL. अर्थ-तदनंतर शीघ्र प्रथम नाटकके पेड़ेका वृन्द याने समूह वाला हर्षित चित्त जिन्होंका ऐसे उठे परन्तु एक मूल
नटवी बहुत कहा तौभी नहीं उठी ॥ ९६० ॥ कह कहवि पेरिऊणं, जाव समुहाविया निरुच्छाहा । तो तीए सविसायं, दूहयमेगं इमं पढियं ॥९६१॥ है।
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