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श्रीपाल - चरितम्
॥ १२३ ॥
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एसो सामिय ? सयलो, तुम्हाणं रिद्धिसिन्नवित्थारो । पावेइ किं फलं जइ, नहु लिज्जइ तं नियं रज्जं ९९३ अर्थ — हे स्वामिन् आपका सर्व यह ऋद्धि और सेनाका विस्तार क्या फल पाया अर्थात् निष्फल है जो वह अपना राज्य नहीं लिया जावे अपना राज्य ग्रहण करनेसेही यह सर्व सफल होवे है ॥ ९९३ ॥ ता काऊण पसायं, सामिय गिन्हेह तं नियं रज्जं । जं पियपट्टनिविडे, पई दिट्ठे मे सुहं होही ॥ ९९४ ॥
अर्थ – इसलिए हे स्वामिन् प्रसन्न होके आप अपना राज्य ग्रहण करो जिस कारणसे आपके पिताके पट्टपर आपको बैठा हुआ देखूंगा तब मेरे मनमें सुख होगा ॥ ९९४ ॥
तो पभणइ नरनाहो, अमञ्च ? सच्चं तए इमं भणियं । किं तु उवायचउक्क, - कमेण किज्जंति कज्जाई ९९५
अर्थ - तदनंतर राजा श्रीपाल कहे हे मंत्रिन् तुमने यह सत्य कहा किंतु साम १ दान २ भेद ३ दंड ४ यह चार उपायोंसे कार्य क्रमसे करना ॥ ९९५ ॥
जइ सामेण सिज्झइ, कज्जं ता किं विहिज्जए दंडो । जइ समइ सक्कराए, पित्तं ता किं पटोलाए ॥ ९९६ ॥
अर्थ — जो साम मधुर वचनसे कार्य सिद्ध होवे तो किस वास्ते दंड किया जावे इसी अर्थको दृष्टान्तसे याने अर्थान्तरन्याससे दृढ करते हैं पित्त रोगविशेष जो शितोपला मिश्रीसे शान्ती होवे तब कोशातकी किरायतो कटुक नीम | गिलोय वगैरह किसवास्ते दिया जावे ॥ ९९६ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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