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श्रीपाल - चरितम्
॥ १३९ ॥
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अर्थ - जिस कारण से शास्त्रमें कहा है साधूकी हीलना करनेसे घरमें हानि है होवे साधुओंका हास्य करनेसे रोना होवे है साधुओंकी निंदा करनेसे वध बंधन होवे है साधुओंकी ताड़ना करनेसे रोग और प्राणवियोगादि होवे है ॥ ११२६ ॥ मुणिमारणेण जीवाण, णंत संसारियाण बोही वि। दुलहा च्चिय होइ धुवं भणियमिणं आगमेवि जओ२७ अर्थ – मुनि के मारनेसे अनंत संसार बघे है और उन जीवोंको जिनधर्मकी प्राप्तिभी निश्चय दुर्लभ होवे है जिस कारणसे सिद्धान्तमें भी कहा है ॥ ११२७ ॥ चेइयदवविणासे, इसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजइ चउत्थभंगे, मूलग्गी बोहिलाभस्स ॥ ११२८ ॥
अर्थ —– जिनमंदिरके द्रव्यका बिनाश करे अर्थात् भक्षण उपेक्षणादिकसे मूलसे विध्वंस करे तथा साधुका घात करनेसे और प्रवचन चतुरविध संघका उड्डाह कलंक वगैरह देनेकर अपवाद करनेमें तथा साध्वीका चौथा व्रत ब्रह्मचर्यके भंग करनेमें इतने कामोंमें हरकोई काम करनेवाला बोधिलाभ अर्हत् धर्मकी प्राप्तिके मूलमें अग्नि दिया इस कहनेसे यह अनन्तरोक्त करनेसे जन्मांतरमें धर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है यह आवश्यक निर्युक्तिमें कहा है ॥ ११२८ ॥
तं सोऊण नरिंदो, किंपि समुल्लसिय धम्मपरिणामो । पभणेइ अहं पुणरवि, न करिस्सं एरिसमकजं ॥ ११२९ अर्थ - वह रानीका वचन सुनके राजाका धर्ममें परिणाम भया और बोला मैं अब ऐसा अकार्य नहीं करूंगा ११२९ | कइवयदिणेसु पुणरवि, तेण गवक्खट्टिएण कोवि मुणी । दिट्ठो मलमलिणतणू, गोयरचरियं परिभमंतो ३०
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भाषाटीकासहितम्
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