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अर्थ - हे ज्ञानसमुद्र हे भगवान किस कुकर्मसे मेरे बाल्य अवस्थामें वैसा रोग भया और किस सुकर्मसे शांत भया ।। ११०४ ॥
केणं च कम्मणाहं, ठाणे ठाणे य एरिसे रिद्धिं । संपत्तो तह केणं, कुकम्मणा सायरे पडिओ ॥ ११०५ ॥
अर्थ - किस कर्मसे मैने ठिकाने २ ऐसी ऋद्धि पाई और किस कुकर्मसे मैं समुद्र में पड़ा । ११०५ ॥
तह केण नीयकम्मेण, चेव डुंबत्तणं महाघोरं । पत्तोहं तं सवं, कहेह काऊण सुपसायं ॥ ११०६ ॥ अर्थ - तथा किस नीच कर्मके उदयसे मैंने महाभयंकर डोमपना पाया वह सर्व कृपा करके कहो ॥। ११०६ ॥ तो भणइ मुणिवरिंदो, नरवर जीवाण इत्थ संसारे । पुल्वकयकम्मवसओ हवंति सुक्खाईं दुक्खाई ॥११०७॥
अर्थ - तदनंतर मुनिवरीन्द्र कहे हे राजन इस संसारमें जीवोंके पूर्वकृतकर्मके उदयसे सुख दुःख होवे है सो सुनो ॥ ११०७ ॥
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इत्थेव भरहवासे, हिरन्नपुरनामयंमि वरनयरे । सिरिकंतो नाम निवो, पावड्डिपसत्तओ अस्थि ॥ ११०८ ॥ अर्थ —- इसी भरतक्षेत्र में हिररायपुर नामका प्रधान नगरमें आखेटकमें आशक्त ऐसा श्रीकान्त नामका राजा था ॥ ११०८ ॥ | तस्सत्थि सिरिसमाणा, सरीरसोहाइ सिरिमई देवी । जिणधम्मनिउणबुद्धी, विसुद्ध संमत्तसीलजुआ ११०९
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