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और देव दर्शनादि क्रियायोंमें भावशुद्ध अध्यवसायही प्रधान है काव्यमें नाटकही प्रधान है इसी तरह शस्त्र कलामें राधावेधही प्रधान है ॥ ८८२ ॥
तं सोऊणमिमीए, नरवर ! तुह नंदणाइ सहसति । बहुलोयाण समक्खं, इमा पइन्ना कया अस्थि ॥ ८८३ ॥
अर्थ - वह राधावेधका स्वरूप सुनके हे महाराज इस आपकी पुत्रीने अकस्मात बहुत लोकोंके सामने यह प्रतिज्ञा किया है सो कहते हैं ॥ ८८३ ॥
जो किर महदिट्ठीए, राहावेहं करिस्सए कोवि । तं चैव निच्छएणं, अहं वरिस्सामि नररयणं ॥ ८८४ ॥
अर्थ - जो कोई पुरुष मेरी दृष्टिके सामने राधावेध करेगा उसी नररलको मैं भर्तार पने अंगीकार करूंगी ॥ ८८४ ॥ एयाइ पइन्नाए, नज्जइ पुरिसोत्तमस्स कस्सावि । नूणं इमा भविस्सइ, पत्ती धन्ना सुकयपुन्ना ॥ ८८५ ॥ अर्थ - इस प्रतिज्ञा करके जाना जावे है यह आपकी पुत्री कोई पुरषोत्तम उत्तम पुरुषकी स्त्री होगी कैसी है यह धन्य है कृत पुण्य है ॥ ८८५ ॥
ता तुब्भेवि नरेसर !, एवं चिंतं चएवि वेगेण । कारेह वित्थरेणं, राहावेयस्स सामरिंग ॥ ८८६ ॥
अर्थ - इस कारण से है नरेश्वर यह पूर्वोक्त चिंताको छोड़के शीघ्र राधावेधकी सामग्री विस्तारसे करावो ॥ ८८६ ॥ च तहा मंडाविय, रन्नावि निमंतिया नरिंदाय । परमिक्केणवि केणवि, राहावेहो न सो विहिओ ॥ ८८७॥
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