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अर्थ – कैसा वचन कहे सो कहते है है वत्से परसेनासे नगरी चौतर्फ वीटी भई है सबलोक व्याकुल भए हैं अब क्या २ होगास नहीं जानू ॥ ९३४ ॥
वच्छस्स तस्स देसतरंमि, पत्तस्स वच्छरं जायं । वच्छे कावि न लब्भइ, अज्जवि सुद्धी तुह पियस्स ॥ ९३५॥
अर्थ- वह मेरा पुत्र देशान्तर गया है उसको एक वर्ष भया है हे पुत्री अबतक तेरे भर्तारकी सुद्धीभी नही मिली अर्थात् बिल्कुल समाचार नहीं आया है ॥ ९३५ ॥
| पभणेइ तओ मयणा, मा मा मा माइ किंपि कुणसु भयं । नवपयझाणंमि मणे, ठियंमि जं हुंति न भयाई ॥
अर्थ - तदनंतर मदनसुंदरी प्रकर्षपनेकहे हे माताजी मनमें कुछ भय करो मत जिस कारणसे नवपदका ध्यान मनमें रहनेसे भय नहीं होवे है ॥ ९३६ ॥
जं अजंचिय संज्झा, - समए मह जिणवरिंदप डिमाओ । पूयंतीए जाओ, कोइ अपुवो सुहो भावो ९३७ अर्थ — और आजही संध्या समयमें तीर्थंकर की पूजा करते मेरे जो कोई अपूर्व शुभभाव अध्यवसाय उत्पन्न भयो ३७ | तेणं चिय अज्जवि मह मणंमि, नो माइ माइ आणंदो । निक्कारणं सरी रे, खणे खणे होइ रोमंचो ॥९३८ ॥ अर्थ - तिस कारणसेही हे माताजी अबतकभी मेरे मनमें आनन्द हर्ष नहीं मावे है तथा क्षण २ में शरीरमें विनाकारणही रोमोद्गम होवे है अर्थात् रोमराजी विकस्वरमान होवे है ॥ ९३८ ॥
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