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श्रीपाल - चरितम्
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अर्थ - आजही हे वत्स पुण्य योग से नेमित्तिएने जो प्रकार कहा उसी तरह तुम मिले हो इस कारण से वह मदनमंजरी मेरी पुत्रीका शीघ्र पाणिग्रहण करो ॥ ६४८ ॥
एवं भणिऊण नरेसरेण, अइवित्थरेण वीवाहं । काराविऊण दिन्नं हयगयमणिकंचणाईयं ॥ ६४९ ॥ अर्थ - इस प्रकारसे कहके राजाने अत्यन्त विस्तारसे पाणिग्रहण कराके घोड़ा, हाथी, रत्न स्वर्णादिक दिया ॥ ६४९ ॥ तत्तो सिरिसिरिपालो, नरनाह समप्पियंमि, आवासे । भुंजइ सुहाई जं पुन्नमेव मूलं हि सुक्खाणं ६५० अर्थ — तदनंतर श्रीमान् श्रीपाल कुमर राजाके दिए हुए आवासमें सुख भोगवै जिस कारणसे सुखोंका मूलकारण पुन्य है पुन्यवान जहां जावे वहां सुख पावै ॥ ६५० ॥
रनो दिंतस्सवि देसवासगामाइअहिवत्तंपि । कुमरो न लेइ इकं, थइयाइत्तं नु मग्गेइ ॥ ६५१ ॥
अर्थ- देश नगर ग्रामादिकका स्वामिपना देते हुए भी कुमर नहीं लेवे किंतु एक ताम्बूल देनेका अधिकार मांगे ६५१ राया तं हीणंपि हु, कम्मं दाऊण तस्स तुट्टिकए । अचंतमाणणिजाण, तेण दावेइ तंबोलं ॥ ६५२ ॥ अर्थ - राजा वसुपाल कुमरको संतोषके लिये ताम्बूल देनेका हीन काम है तथापि वह अधिकार देके अत्यन्त माननीय पुरुषोंको कुमरके हाथसे ताम्बूल दिलावे ॥ ६५२ ॥
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भाषाटीकासहितम्.
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